English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ Eternal Silence…/चिरशांति… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his mesmerizing poem  Eternal Silence…”. We also present the Hindi version of this poem चिरशांति… translated by himself.

We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this awesome translation.)

Pen broke free, yet again…!

☆ Eternal Silence… ☆

Meaningful intent of  life,

Epicenter of battle for the existence

What is the explanation thereof,

What is the complementarity…

But, yet again

the same perennial

silence only…

 

Escape from the truth,

Rules of foreordination,

Proximity to the destination,

Encounter with the rigours of destiny…

 

Accounts of the Karmas,

Desire of the deathlessness, immortality or eternity…

The cycle of ‘Birth-and-Death’

Or merging with the finality…

Infiniteness of the universe

Unanswered questions

yet again,

The same eternal

silence…!

 

 –Pravin Raghuvanshi

चिरशांति…

क्या है जीवन की सार्थकता

क्या है अस्तित्व का महासंग्राम

क्या है इसका स्पष्टीकरण

क्या है इसकी पूरकता

परंतु निरंतर मिलती है

निरुत्तरता ही निरुत्तरता…

 

सत्य से पलायन सम्भव नहीं

प्रारब्ध के नियम रहते सतत गतिमान

गंतव्य की निकटता हो

या नियति से भेंट,

परंतु यहाँ भी वही अवरोध:

कर्मफलों का लेखा-जोखा

फिर भी निरंतर चाह

अजरता, अमरता और अमृत्व की…

चिरकालिक प्रश्न:

जन्म-मृत्यु चक्र का फेर

या सम्पूर्णता में विलीनता

या ब्रह्मांड की अनंतता

रहते हमेशा ही अनुत्तरित…

चाहे कितना भी रहो प्रयासरत

अंततः

फिर वही चिरशांति…

–  प्रवीण रघुवंशी

 © Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संख्यारेखा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – संख्यारेखा ☆

बाईं ओर

ऋण संख्या होती है,

दाहिनी ओर

धन संख्या होती है,

संख्यारेखा का सूत्र

गणित पढ़ा रहा था,

दोनों ओर

एक-सा निहारता हूँ

बीचों-बीच आकर

शून्य हो जाता हूँ,

अध्यात्म में

अद्वैत मंत्र कहलाता हूँ,

शासन में

लोकतंत्र हो जाता हूँ!

 

©  संजय भारद्वाज

(संध्या 5:49 बजे, 5.3.2021)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 32 ☆ सब को सदा सद्बुद्धि दो ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “सब को सदा सद्बुद्धि दो“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

? हमारे मार्गदर्शक एवं प्रेरणादायी गुरुवर प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी को हिंदी अकादमी, मुंबई द्वारा साहित्य भूषण सम्मान द्वारा सम्मानित किये जाने के लिए ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें? 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 32 ☆

☆ सब को सदा सद्बुद्धि दो 

हे जगत की नियंता सब को सदा सद्बुद्धि दो

सब सदाचारी बनें पारस्परिक सद्भाव हो

मन में रुचि हो धर्म के प्रति सबके प्रति सद्भावना

जगत के कल्याण हित पनपे हृदय में कामना

हो न वैर विरोध कोई किसी से न दुराव हो

प्राणियों और निसर्ग के प्रति सदा पावन भाव हो

जिंदगी निर्मल रहे हो आप की आराधना

बन सके जितना हो संभव सभी के हित साधना

जगत में हर एक से निश्चल सुखद व्यवहार हो

मन में सबके लिए हो करुणा और पावन प्यार हो

उचित अनुचित क्या है करना इसका तो अनुमान हो

हर एक को दो शुभ बुद्धि इतनी सबको इतना ज्ञान दो

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#45 – तीन गांठें ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#5 – तीन गांठें ☆ श्री आशीष कुमार☆

भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे। बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे।

वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी?

एक शिष्य ने उत्तर में कहा, गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।

सत्य है !  बुद्ध ने कहा, अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ। यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?

नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।

बुद्ध ने कहा, ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा?

शिष्य बोला, इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।

मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं , कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ?

प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं।

इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही, और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा। महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -12 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 12 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरी एम.ए. की पढ़ाई ज़ोरों से चल रही थी। लेकिन मुझे प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण हुए बिना एम.ए. में प्रवेश नहीं मिलने वाला था। दीदी ने मुझसे पूरी तैयारी करवा ली और मैं प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण हो गई। मेरे मन में मिश्रित भावनाएं थी। एक तरफ जिज्ञासा और खुशी, तो दूसरी तरफ पढ़ाई की जिम्मेदारी। एक तरफ मम्मी पापा के सेहत की बहुत चिंता थी। वैसे देखा जाए तो मुझे और दीदी को यह जिम्मेदारी उठानी थी और हमने वह सफलता से उठाई भी।

नृत्य के पहले दिन की और अभी की पढ़ाई, रियाज में जमीन-आसमान का अंतर था। अब शारीरिक और मानसिक गतिविधि के माध्यम से दर्शकों तक भावनाएं पहुंचानी थी। शारीरिक हलचल मतलब अंग, प्रत्यंग और उपंग। मतलब हाथ, पैर, सिर यह शरीर के अंग; हाथों की उंगलियां, कोहनी, कंधा यह प्रत्यंग और आंख, आंख की पलक, होंठ, नाक, ठोड़ी यह उपांगे। इनके गतिविधि से और मन के भावों से अभिनय को आसान माध्यम से मुझे दर्शकों तक पहुंचाना था। निश्चित रूप से यह मेरे लिए बहुत कठीन था और इसमें बहुत एकाग्रता की जरूरत थी।

नृत्य की शुरूआत के पल में दीदी मुझे स्पर्श से मुद्रा सिखाती थी। उसकी एक संकेतिक भाषा भी निश्चित थी। स्पर्श से मुद्रा जान लेना यह मैंने बहुत आसानी से सीख लिया था और इसकी मैं अभ्यस्त हो गई थी। लेकिन अब मुझे नृत्य का अभिनय कौशल्य, उसकी उत्कृष्टता दर्शकों के मन में अलंकृत होगी ऐसे प्रस्तुत करनी थी और वह भी संगीत के सहयोग से। क्योंकि नृत्य के शुरुआत के पल में बाजू में खड़े हुए व्यक्ति को भी मैं दोनों हाथों की बगल से, सिर्फ उंगली दिखा कर भी पहचान सकती थी। लेकिन अब इन दोनों के साथ मुद्राएं गर्दन, नजर, और  चेहरे के हाव-भाव के साथ, दर्शकों को दिखानी थी। मेरे मामले में नजर का मुद्दा था ही नहीं। मुझे परीक्षक और दर्शक इनको यह चीज बिल्कुल समझ में नहीं आनी चाहिए, ऐसे मेरा अभिनय, नृत्य पेश करना था।

मुझे इस अभ्यास में सबसे ज्यादा पसंद आयी हुई रचना मतलब अभिनय के आधार पर बनी, ‘कृष्णा नी बेगनी बारू’ (कन्नड़-मतलब-कृष्णा तुम मेरे पास आओ) इस पंक्तियों में मुझे यशोदा मां के मन के भाव, मातृभाव, बाल कृष्ण की लीलाएं अभिनय से पेश करना था। इसमें बाल कृष्ण रूठा हुआ है और उसके मनाने के लिए यशोदा मां कभी मक्खन दिखाती है, तो कभी गेंद खेलने बुलाती है। और बाल कृष्ण उसे अपनी लीलाओं से परेशान करता है। आखिर में उसी के मुंह में अपनी माता को ब्रम्हांड का दर्शन करवाता है। यह दोनों भाव अलग अलग तरीके से पेश करना यह मेरे लिए बहुत मुश्किल था। मैंने वह नृत्य में मग्न होकर, पूरे मन के साथ पेश की और उस अभिनय के लिए सिर्फ परीक्षकों ने हीं नहीं अपितु दर्शकोंने की भी बहुत सराहना मिली।

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.४॥ ☆

 

आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर

नान्यस तापं कुसुमशरजाद इष्टसंयोगसाध्यात

नाप्य अन्यस्मात प्रणयकलहाद विप्रयोगोपपत्तिर

वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनाद अन्यद अस्ति॥२.४॥

 

जहाँ यक्ष जन के नयन मात्र प्रेमाश्रु

को छोड़ आँसू नहीं जानते हैं

प्रिया का मिलन शमन उपचार जिसका

उसी ताप को ताप पहचानते हैं

जहाँ रति कलह के सिवा अन्य कोई

विरह दुख किसी को नहीं व्यापता है

जहाँ और सबकी उमर की अवधि को

अभय एक यौवन सतत नापता है

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 61 – मी एक ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 61 – मी एक ☆

मी एक

असे  आईची आस

बाबांचा श्वास

अंतरीचा

 

मी एक

ताई म्हणे परी

दादाच्या अंतरी

बाहुलीच

 

मी एक

करी प्रयत्न खास

प्रगतीचा ध्यास

अविरत

 

मी एक

राणी आहे सजनाची

माझ्या मनमोहनाची

अखंडीत

 

मी एक

बनली कान्हाची मैय्या

जीवन नैय्या

सानुल्याची

 

मी एक

जरी हातात छडी

मनात गोडी

विद्यार्थ्यांची

 

मी एक

सदा भासते रागीट

प्रेमही अवीट

सर्वांसाठी

 

मी एक

कशी सांगू बाई

सर्वांची माई

योगायोग

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पहाट ☆ श्री प्रकाश लावंड

☆ कवितेचा उत्सव ☆ पहाट ☆ श्री प्रकाश लावंड ☆

     कितीकदा खरडावी

जिण्यावरली  काजळी

किती  टाकू  तराजूत

माझ्या कष्टाच्या ओंजळी

 

सारं आयुष्य टांगलं

असं पासंगाच्या पारी

तरी  पारडं  राहिलं

कायमच  अधांतरी

 

किती भरावा रांजण

त्याची थांबंना गळती

येता येता सुखं सारी

वाऱ्यावरती  पळती

 

जादा मागत नाहीच

मोल कष्टाचं रं व्हावं

शेतामध्ये  राबताना

गाणं सर्जनाचं गावं

 

उत्साहात उगवावी

माझी प्रत्येक पहाट

समाधानानं लागावी

राती धरणीला पाठ

 

© श्री प्रकाश लावंड

करमाळा जि.सोलापूर.

मोबा 9021497977

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – नास्तिक ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

 

 

 

☆ जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – नास्तिक ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

रोमाच्या यजमानांच्या गाडीला मोठा अपघात झाला. शर्थीचे प्रयत्न करूनही त्यांचा जीव वाचू शकला नाही. आणि त्यामुळे आज सगळं घरच रोमाकडे ‘खाऊ की गिळू‘ अशा संतप्त नजरेने पहात होते.

“नास्तिक कुठली. माझ्या मुलाला मारून खाऊन टाकलंस तू.”…. रोमाची सासू आक्रोश करत होती, आणि पुन्हा पुन्हा त्या दिवसाचा उद्धार करत शिव्याशाप देत होती. त्या दिवशी रोमाच्या लग्नानंतर पहिल्यांदाच आलेल्या ‘कडवा चौथ‘ या व्रताबद्दल तिने रोमाला सांगितलं होतं की – ” सूनबाई, उद्या तुला हे व्रत पाळायचे आहे. चंद्रोदय होई – पर्यंत तू पाणीही प्यायचे   नाहीस”.

रोमाला त्यासारख्या सगळ्या चालीरीती माहिती होत्या. ती व्यवहारदक्षही होती. पण तिच्या शिक्षणाने तिला वैज्ञानिक दृष्टिकोन दिला होता. त्यामुळे प्रत्येक गोष्टीच्या बाबतीत, ती गोष्ट योग्य की अयोग्य याचा विचार करणं हा तिचा स्वभावच झाला होता. त्यामुळे तेव्हा तिने सासूला सांगितलं होतं की…”सासूबाई, माझ्याच्याने इतकं कठीण व्रत केलं जाणार नाही. त्यातून मला पित्ताचाही त्रास आहे. पूर्ण दिवसभर मी पाणीही प्यायले नाही तर माझी तब्बेत बिघडेल”

“हे बघ, हे व्रत तुझ्या नवऱ्याला दीर्घायुष्य लाभावे यासाठी आहे”.

“सासूबाई, मी व्रत केल्याने यांचं आयुष्य कसं वाढू शकेल?”… रोमाने त्यांनाच प्रतिप्रश्न केला होता.

“हे बघ सूनबाई, कितीतरी शतकांपासून हा रिवाज चालत आलेला आहे”

“असेलही. पण मी अशी थोतांड मानत नाही. जन्म मृत्यू आधीच ठरलेले असतात. आणि तुम्ही म्हणता तसे होत असते ना, तर हे व्रत करणाऱ्या देशातल्या सगळ्या बायका कायम सौभाग्यवतीच राहिल्या असत्या.”

रोमाच्या या युक्ती – वादापुढे तिची सासू त्यावेळी काहीच बोलू शकली नव्हती. पण आज मात्र फक्त सासूच नाही, तर इतर सगळेच रोमाला दोषी ठरवत होते.

… आणि रोमा आजही हाच विचार करत होती की…. ‘मान्य आहे मी ते व्रत केलं नाही. पण सासूबाई तुम्हीतर किती वर्षांपासून मुलांसाठी कसली कसली व्रते करता आहात. आणि वड पौर्णिमाही करता आहात ना ?…..”

 

मूळ हिंदी कथा : डॉ. लता  अग्रवाल

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ अंगण ☆ सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

परिचय

बी.एससी, बीएड. २१ वर्षे हायस्कूल मध्ये नववी दहावी ला बीजगणित व सायन्स विषय शिकवले. मुख्याध्यापिका म्हणून निवृत्त झाले.

बोर्डाच्या बीजगणित परीक्षक व शास्त्र प्रात्यक्षिक परीक्षा परीक्षक एसएससी बोर्ड सेंटर कंडक्टर तीन वर्षे

छंद  वाचन, लेखन व पर्यटन

दरवर्षी दोन तीन दिवाळी अंकात कथा छापून येतात

☆ विविधा ☆ अंगण ☆ सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे ☆ 

ये ग ये ग चिऊताई! बाळाच्या अंगणी! तुला देईल चारा पाणी! माझी सोनुली राणी! असं म्हणताच माझा ५ वर्षांच्या नातवाने विचारले अंगण‌ म्हणजे काय ग आजी? फ्लॅटमध्ये रहात असल्यामुळे प्रश्न पडणे स्वाभाविकच.

अंगण म्हणजे काय हे सांगताना मी बालपणी अंगणात रमून गेले.

अंगण म्हणजे घराची शोभा. अंगणातील तुलसी  वृंदावन म्हणजे घराचं पावित्र्य. रेखीव रांगोळी काढलेल्या तुळशी समोर उदबत्तीचा सुगंध दरवळायला.याच अंगणात उंच मोरपिसाची टोपी घालून वासुदेव यायचा,माकडांचा खेळ रंगायच्या.बाहुला बाहुलीचे लग्न अंगणात लागायचे, वरमाई कोण आणि कोणाला वरमाईचा मान कोणाला द्यायचा याचं भांडण अंगणात जुंपायचे. दुपारी मुलींचे गजगे,काचकवडया,टिकरया तर संध्याकाळी मुलांचे  गोटया, विटीदांडू, लगोरी हे खेळ रंगायचे.अबोली चे गुच्छ,तळहाताएवढे जास्वंदीचे फूल, मंजिऱ्या मुळे घमघमणारी तुळस अंगणात असायची. गुढीपाडव्याला गुढी, आषाढीला पालखी सजवून वारी निघायची.नागपंचमीला उंच झोक्याची चढाओढ चालायची. अंगणात हंडी फोडली जायची. काल्याचा प्रसाद खायचा काय सुरेख चव असायची काल्याची!

नवरात्रात फेर धरून हादगा चालायचा, उंच स्वरात हादगा गाणी चालायची. खिरापत हातात पडताच मुली शेजारच्या अंगणात धावत जात.

दिवाळीत किल्ला तयार करून त्यावर शिवाजी महाराज विराजमान व्हायचे. सर्व मुले आपल्या घरातील मावळे किल्ल्यावर उभे करायचे व किल्ला सजवायचे.

उन्हाळ्यात अंगणात पथारी पसरून गप्पा.विनोद, गाणी यांना ऊत यायचा.. मन भरलं की रातराणीचा,मोगरयाचा सुगंध घेत झोपी जायचं.

मी अंगणाच्या आठवणीत एवढी रमून गेले की “आजी मला दूध दे ना गं!” असे तो म्हणताच मी एकदम भानावर आले.

 

©  सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे

पुणे

मो. ९९६०२१९८३६

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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