मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ कुत्रा छंद नव्हे संगत – भाग-2 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

 ☆ पुस्तकावर बोलू काही ☆ कुत्रा छंद नव्हे संगत – भाग-2 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆ 

“कुत्रा छंद नव्हे संगत “पुस्तकाचे अंतरंग  भाग २

पहिल्या प्रकरणात कुत्रा आणि माणसाचा संबंध कसा आहे याचे दाखले दिले आहेत. वेदकाळात सरमा ही इंद्राची कुत्री आणि शामला आणि अबला ही तिची दोन पिल्ल.तसेच  धर्मराजाचे श्वानप्रेम, दत्तात्रेयांजवळचे चार कुत्रे, शिवाजी महाराजांच्या वाघ्याची स्वामिनिष्ठा, शाहू महाराजांचा खंड्या अशी कुत्र्याबद्दलची आदरणीय उदाहरणे त्यांनी सांगितली आहेत. त्याचप्रमाणे  युद्धभूमीवर काम करणारी  श्वानपथके ,त्यांचे पराक्रम , पोलिसांना गुन्हेगार पकडण्यात मदत करणारे, अनेक ठिकाणी हेरॉईन  स्फोटकांचा शोध घेणारे, मेंढ्यांच्या कळपावर राखण करणारे अशी  कुत्र्यांच्या महती ची अनेक उदाहरणे त्यांनी दिली आहेत, चर्चिल यांचे लिखाण लॉर्ड बायरनच्या कविता श्वानाच्या सानिध्यातच झालेल्या आहेत.

कुत्रा घरात आणताना निवड कशी करावी , घराचा आकार, पाळण्याचा हेतू, आरोग्य कसे राखावे, शिक्षण कसे द्यावे, वेगवेगळ्या कुत्र्यांच्या जाती, रंग, बांधा, रुप, स्वभाव यासह माहिती त्यांनी आपल्या पुस्तकात सोप्या पद्धतीने सांगितली आहे. हाॅलीवुड मधील कोली जातीचा लसी कुत्रा कसा श्रीमंत झाला त्याचे रसदार वर्णन केले आहे.

श्वान प्रदर्शनांना  सुरुवात कशी झाली, केंनेल क्लब मध्ये कुत्र्यांच्या कुटुंबाचा इतिहासात कशी नोंद होते ,स्पर्धेचे परीक्षक कसे गुण देतात त्यांचे फॅन्सी ड्रेस, सगळ्या गोष्टींप्रमाणेच श्वान प्रदर्शन  का  भरवली जातात, त्यांचे फायदे काय, हेही सांगितले आहे. पुस्तकात त्यांनी आपल्या प्रिन्स ला शिकविताना चे फोटो व अनेक जातींच्या कुत्र्यांचे फोटो दिले आहेत.

युद्धभूमीवर अनेक सैनिकांचे प्राण वाचविण्याचे पराक्रम केलेल्या कुत्र्यांची नावे आणि मर्दूमकीही वर्णन केली आहे. त्याचप्रमाणे पोलीस खात्यातही जिथे पोलीस शोध घेऊ शकत नाहीत, तेथे कुत्रा कशी मदत करतो याची उदाहरणे वाचताना तोंडात बोट घातले जाते.

कुत्र्यांचे आजार त्यावर पथ्य आणि होमिओपाथी ची औषधे ही त्यांनी सांगितली आहेत. पुस्तकाच्या शेवटच्या प्रकरणात अनेक श्वान प्रेमींचे प्रश्न आणि त्यावर दिलेली उत्तरे यातून कितीतरी माहितीचे भांडार मिळते.

श्वान धर्माच्या उदाहरणाचा भाग पुढील भागात

क्रमशः….

©  सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

बुधगावकर मळा रस्ता, मिरज.

मो. ९४०३५७०९८७

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 85 ☆ अहं बनाम अहमियत ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख अहं बनाम अहमियत।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 85 ☆

☆ अहं बनाम अहमियत ☆

अहं जिनमें कम होता है, अहमियत उनकी ज़्यादा होती है… यह उक्ति कोटिशः सत्य है। जहां अहं है, वहां स्वीकार्यता नहीं; केवल स्वयं का गुणगान होता है; जिसके वश में होकर इंसान केवल बोलता है; अपनी-अपनी हाँकता है; सुनने का प्रयास ही नहीं करता, क्योंकि उसमें सर्वश्रेष्ठता का भाव हावी रहता है। सो! वह अपने सम्मुख किसी के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। इसका मुख्य उदाहरण हैं… भारतीय समाज के पुरुष, जो पति रूप में पत्नी को स्वयं से हेय व दोयम दर्जे का समझते हैं और वे केवल फुंफकारना जानते हैं। बात-बात पर टीका-टिप्पणी करना तथा दूसरे को नीचा दिखाने का एक भी अवसर हाथ से न जाने देना… उनके जीवन का मक़सद होता है। चंद रटे-रटाये वाक्य उनकी विद्वता का आधार होते हैं; जिनका वे किसी भी अवसर पर नि:संकोच प्रयोग कर सकते हैं। वैसे अवसरानुकूलता का उनकी दृष्टि में महत्व होता ही नहीं, क्योंकि वे केवल बोलने के लिए बोलते हैं और निष्प्रयोजन व ऊलज़लूल बोलना उनकी फ़ितरत होती है। उनके सम्मुख छोटे-बड़े का कोई मापदंड नहीं होता, क्योंकि वे अपने से बड़ा किसी को समझते ही नहीं।

हां! अपने अहं के कारण वे घर-परिवार व समाज में अपनी अहमियत खो बैठते हैं। वास्तव में वाक्-पटुता व्यक्ति-विशेष का गुण होती है। परंतु आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का सेवन हानिकारक होता है। अधिक नमक के प्रयोग से उच्च रक्तचाप व चीनी के प्रयोग से मधुमेह का रोग हो जाता है। वैसे दोनों ला-इलाज रोग हैं। एक बार इनके चंगुल में फंसने के पश्चात् मानव इनसे आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। उसे तमाम उम्र दवाओं का सेवन करना पड़ता है और वे अदृश्य शत्रु कभी भी उस पर किसी भी रूप में घातक प्रहार कर जानलेवा साबित हो सकते हैं। इसलिए मानव को सदैव अपनी जड़ों से जुड़ाव रखना चाहिए और कभी भी बढ़-चढ़ कर नहीं बोलना चाहिए। यदि मानव में विनम्रता का भाव होगा, तो वे बे-सिर-पैर की बातों में नहीं उलझेंगे और मौन को अपना साथी बना यथासमय, यथास्थिति कम से कम शब्दों में अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करेंगे। बाज़ारवाद का भी यही सिद्धांत है कि जिस वस्तु का अभाव होता है, उसकी मांग अधिक होती है। लोग उसके पीछे बेतहाशा भागते हैं और उसकी उपलब्धि को मान-सम्मान का प्रतीक स्वीकार लेते हैं। इसलिए उसे प्राप्त करना उनके लिए स्टेट्स-सिंबल ही नहीं; उनके जीवन का मक़सद बन जाता है।

आइए! मौन का अभ्यास करें, क्योंकि वह नव- निधियों की खान है। सो! मानव को अपना मुंह तभी खोलना चाहिए, जब उसे लगे कि उसके शब्द मौन से बेहतर हैं, सर्वहितकारी हैं, अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर है। मुझे स्मरण हो रहा है रहीम जी का दोहा ‘ऐसी वाणी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ में वे शब्दों की महत्ता व सार्थकता पर दृष्टिपात करते हुए, उनके उचित समय पर प्रयोग करने का सुझाव देते हैं। यह कहावत भी प्रसिद्ध है ‘एक चुप, सौ सुख’ अर्थात् जब तक मूर्ख चुप रहता है, उसकी मूर्खता प्रकट नहीं होती और लोग उसे बुद्धिमान समझते हैं। सो! हमारी वाणी व हमारे शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। इसलिए केवल शब्द ही नहीं, उनकी अभिव्यक्ति की शैली भी उतनी ही अहमियत रखती है। हमारे बोलने का अंदाज़ इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। परंतु यदि आप मौन रहते हैं, तो समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त रहते हैं। इसलिए संवाद जहां हमारी जीवन-रेखा है; विवाद संबंधों में विराम अर्थात् विवाद शाश्वत संबंधों में सेंध लगाता है तथा उस स्थिति में मानव को उचित-अनुचित का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहता। अहंनिष्ठ मानव केवल प्रत्युत्तर व ऊल-ज़लूल बोलने में विश्वास करता है। इसलिए विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में मानव के लिए चुप रहना ही कारग़र होता है। इन विषम परिस्थितियों में जो मौन रहता है, उसकी अहमियत बनी रहती है, क्योंकि गुणी व्यक्ति मौन रहने में ही बार-बार गौरवानुभूति करता है। अज्ञानी तो वृथा बोलने में अपनी महत्ता स्वीकार फूला नहीं समाता । परंतु विद्वान व्यक्ति मूर्खों के बीच बोलने का अर्थ समझता है; जो भैंस के सामने बीन बजाने के समान होती है। ऐसे मूर्ख लोगों का अहं उन्हें मौन नहीं रहने देता और वे प्रतिपक्ष को नीचा दिखाने के लिए बढ़-चढ़ कर शेखी बखानते हैं।

सो! जीवन में अहमियत के महत्व को जानना अत्यंत आवश्यक है। अहमियत से तात्पर्य है, दूसरे लोगों द्वारा आपके प्रति स्वीकार्यता भाव अर्थात् जहां आपको अपना परिचय न देना पड़े तथा आप के पहुंचने से पहले लोग आपके व्यक्तित्व व कार्य-व्यवहार से परिचित हो जाएं। कुछ लोग किस्मत में दुआ की तरह होते हैं, जो तक़दीर से मिलते हैं। ऐसे लोगों की संगति से ज़िंदगी बदल जाती है। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो हमें दुआ के रूप में मिलते हैं। ऐसे लोगों की संगति प्राप्त होने से मानव की तक़दीर बदल जाती है और लोग उनकी संगति पाकर स्वयं को धन्य समझते हैं।

‘रिश्ते वे होते हैं/ जिनमें शब्द कम, समझ ज़्यादा हो/ तकरार कम, प्यार ज़्यादा हो/ आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो’…यह केवल बुद्धिमान लोगों की संगति से प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वहां शब्दों का बाहुल्य नहीं होता है, सार्थकता होती है। तकरार व उम्मीद नहीं, प्यार व विश्वास होता है। ऐसे लोग जीवन में वरदान की तरह होते हैं; जो सबके लिए शुभ व कल्याणकारी होते हैं। इसी संदर्भ में मैं कहना चाहूंगी कि ‘मित्र, पुस्तक, रास्ता व विचार यदि ग़लत हों, तो जीवन को गुमराह कर देते हैं और सही हों, तो जीवन बना देते हैं।’ वैसे सफल जीवन के चार सूत्र हैं… ‘मेहनत करें, तो धन बने/ मीठा बोलें, तो पहचान/ इज़्ज़त करें, तो नाम/ सब्र करें, तो काम।’ दूसरे शब्दों में अच्छे मित्र, सत्-साहित्य, उचित मार्ग व अच्छी सोच हमें उन्नति के शिखर पर पहुंचा देती है, वहीं इसके विपरीत हमें सदैव पराजय का मुख देखना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि परिश्रम, मधुर वाणी, पर-सम्मान व सब्र अर्थात् धैर्य रखने से मानव अपनी मंज़िल पर पहुंच जाता है। इसलिए सकारात्मक बने रहिए, अहंनिष्ठता का त्याग कीजिए, मधुर वाणी बोलिए व सबका सम्मान कीजिए। ये वे श्रेष्ठ साधन हैं, जो हमें अपनी मंज़िल तक पहुंचाने में सोपान का कार्य करते हैं। सो! सुख अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की… दोनों स्थितियों में उत्तीर्ण होने वाले का जीवन सफल होता है। इसलिए सुख में अहं को अपने निकट न आने दें और दु:ख में धैर्य बनाए रखें… यह ही है आपके जीवन की पराकाष्ठा।

परंतु घर-परिवार में यदि पुरुष अर्थात् पति, पिता व पुत्र अहंनिष्ठ हों, अपने-अपने राग अलापते हों और एक-दूसरे के अस्तित्व को नकारना, अपमानित व प्रताड़ित करना, उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य हो, तो सामंजस्यता स्थापित करना कठिन हो जाता है। जहां पति हर-पल यही राग अलापता रहे कि ‘मैं पति हूं, तुम मेरी इज़्ज़त नहीं करती, अपनी-अपनी हांकती रहती हो। इतना ही नहीं, जहां हर पल उसे नीचा दिखाने का उपक्रम अर्थात् हर संभव प्रयास किया जाए; वहां शांति कैसे निवास कर सकती है? पति-पत्नी का संबंध समानता के आधार पर आश्रित है। यदि वे दोनों एक-दूसरे की अहमियत को स्वीकारेंगे, तो ही जीवन रूपी गाड़ी सुचारू रूप से आगे बढ़ सकेगी, वरना तलाक़ व अलगाव की गणना में निरंतर इज़ाफा होता रहेगा। हमें संविधान की मान्यताओं को स्वीकारना होगा, क्योंकि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। यदि अहमियत की दरक़ार है, तो अहं का त्याग करना होगा; दूसरे के महत्व को स्वीकारना होगा, अन्यथा प्रतिदिन ज्वालामुखी फूटते रहेंगे और इन असामान्य परिस्थितियों में मानव का सर्वांगीण विकास संभव नहीं होगा। जीवन में जितना आप देते हैं, वही लौटकर आपके पास आता है। सो! देना सीखिए तथा प्रतिदान की अपेक्षा मत रखिए। ‘जो तोको कांटा बुवै, तू बुवै ताहि फूल’ के सिद्धांत को जीवन में धारण करें। यदि आप किसी के लिए फूल बोएंगे, तो आपको फूल मिलेंगे, अन्यथा कांटे ही प्राप्त होंगे। जीवन में यदि ‘अपने लिए जिए, तो क्या जिए/ ऐ दिल तू जी ज़माने में, किसी के लिए’ अर्थात् ‘स्वार्थ का त्याग कर, सबका मंगल होय’ की कामना से जीना प्रारंभ कीजिए। अहं रूपी शत्रु को जीवन में पदार्पण न करने दीजिए ताकि अहमियत अथवा सर्व-स्वीकार्यता बनी रहे। ‘रिश्ते कभी कमज़ोर नहीं होने चाहिएं। यदि एक खामोश है, तो दूसरे को आवाज़ देनी चाहिए।’ दूसरे शब्दों में संवाद की स्थिति सदैव बनी रहे, क्योंकि इसके अभाव में रिश्तों की असामयिक मौत हो जाती है। इसलिए हमें अहंनिष्ठ व्यक्ति के साये से भी दूर रहना चाहिए, क्योंकि विनम्रता मानव का सर्वश्रेष्ठ आभूषण तथा अनमोल पूंजी है। इसे जीवन में धारण कीजिए ताकि जीवन रूपी गाड़ी सामान्य गति से निरंतर आगे बढ़ती रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – अनजाने में पढ़ा ‘उबूंटू’ का पाठ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – अनजाने में पढ़ा ‘उबूंटू’ का पाठ ☆

(किशोर अवस्था का एक संस्मरण आज साझा कर रहा हूँ।)

पढ़ाई में अव्वल पर खेल में औसत था। छुटपन में हॉकी खूब खेली। आठवीं से बैडमिंटन का दीवाना हुआ। दीवाना ही नहीं हुआ बल्कि अच्छा खिलाड़ी भी बना। दीपिका पदुकोण के दीवानों (दीपिका के विवाह के बाद अब भूतपूर्व दीवानों) को मालूम हो कि मैं उनके पिता प्रकाश पदुकोण के खेल का कायल था। तब दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण तो था नहीं, अख़बारों में विभिन्न टूर्नामेंटों में उनके प्रदर्शन पर खेल संवाददाता जो लिख देता, वही मानस पटल पर उतर जाता। 1980 में ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीतने के बाद तो प्रकाश पदुकोण मेरे हीरो हो गए। हवाई अड्डे पर लेने आई  अपनी मंगेतर उज्ज्वला करकरे (अब दीपिका की माँ) के साथ प्रकाश पदुकोण की अख़बार में छपी फोटो आज भी स्मृतियों में है।

अलबत्ता आप खेल कोई भी खेलते हों, एक सर्वसामान्य खेल के रूप में क्रिकेट तो भारत के बच्चों के साथ जुड़ा ही रहता है।

दसवीं की एक घटना याद आती है। स्कूल छूटने के बाद नौवीं के साथ क्रिकेट मैच खेलना तय हुआ। यह एक-एक पारी का टेस्ट मैच होता था। औसतन दो-ढाई घंटे में एक पारी निपट जाती थी। शायद आईसीसी को एकदिवसीय और टी-20 मैचों की परिकल्पना हमारे इन मिनी टेस्ट मैचों से ही सूझी।

शनिवार या संभवतः  महीने का अंतिम दिन रहा होगा। स्कूल जल्दी छूट गया। छोटी बहन उसी स्कूल में सातवीं में पढ़ती थी। मैं उसे साइकिल पर अपने साथ लाता, ले जाता था। शैक्षिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण अनेक बार मैं छुट्टी के बाद भी लम्बे समय तक स्कूल में रुकता। मेरे कारण उसे भी ठहरना पड़ता। वह शांत स्वभाव की है। उस समय भी बोलती कुछ नहीं थी पर उसकी ऊहापोह मैं अनुभव करता।

आज मैच के कारण देर तक उसके रुकने की स्थिति बन सकती थी। मैं दुविधा में था। ख़ैर, मैच शुरू हुआ। मैं अपनी टीम का कप्तान था। उन दिनों कक्षा के मॉनीटर को खेल में भी कप्तानी देना चलन में था। टॉस हमने जीता। अपनी समझ से बल्लेबाजी चुनी। ओपनिंग जोड़ी मैदान में उतरी। उधर बहन गुमसुम बैठी थी। हमारा घर लगभग 7 किलोमीटर दूर था। सोचा साइकिल भगाते जाता हूँ और बहन को घर छोड़ कर लौटता हूँ। तब तक हमारे बल्लेबाज प्रतिद्वंदियों को छक कर धोएँगे।

बहन को घर छोड़कर लौटा तो दृश्य बदला हुआ था। टीम लगभग ढेर हो चुकी थी। 7 विकेट गिर चुके थे। जैसे-तैसे स्कोर थोड़ा आगे बढ़ा और पूरी टीम मात्र 37 रनों पर धराशायी हो गई।

पाले बदले। अब गेंदबाजी की ज़िम्मेदारी हमारी थी। कक्षा में बेंच पर कुलविंदर साथ बैठता था। अच्छा गेंदबाज था और घनिष्ठ मित्र भी। उससे गेंदबाजी का आरम्भ कराया। दो-तीन ओवर बीत गए। सामने वाली टीम मज़बूती से खेल रही थी।

गेंदबाजी में परिवर्तन कर कुलविंदर की जगह सरबजीत को गेंद थमाई। यद्यपि वह इतना मंझा हुआ गेंदबाज नहीं था पर मैच शुरू होने से पहले मैंने उसे गेंदबाजी का अभ्यास करते देखा था। भीतर से लग रहा था कि इस पिच पर सरबजीत प्रभावी साबित होगा।

सरबजीत प्रभावी नहीं घातक सिद्ध हुआ। एक के बाद एक बल्लेबाज आऊट होते चले गए। दूसरे छोर से कौन गेंदबाजी कर रहा था, याद नहीं। वह विकेट नहीं ले पा रहा था पर रन न देते हुए उसने दबाव बनाए रखा था। हमें छोटे स्कोर का बचाव करना था। वांछित परिणाम मिल रहा था, अतः मैंने दोनों गेंदबाजों के स्पैल में कोई परिवर्तन नहीं किया।

उधर बाउंड्री पर फील्डिंग कर रहे कुलविंदर की नाराज़गी मैं स्पष्ट पढ़ पा रहा था पर ध्यान उसकी ओर न होकर टीम को जिताने पर था। यह ध्यान और साथियों का खेल रंग लाया। प्रतिद्वंदी टीम 33 रनों पर ढेर हो गई। सरबजीत को सर्वाधिक विकेट मिले। कुलविंदर ने दो-चार दिन मुझसे बातचीत नहीं की।

अब याद करता हूँ तो सोचता हूँ कि टीम को प्रधानता देने का जो भाव अंतर्निहित था, वह इस प्रसंग से सुदृढ़ हुआ। हिंदी आंदोलन परिवार के अधिकारिक अभिवादन ‘उबूंटू’ (हम हैं, सो मैं हूँ) से यह प्रथम प्रत्यक्ष परिचय भी था।

‘उबूंटू!’

©  संजय भारद्वाज

(महाशिवरात्रि 2018, प्रातः 8 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 37 ☆ कोरोना काल की बेवकूफियों भरे जुमले ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “कोरोना काल की बेवकूफियों भरे जुमले ”.)

☆ किसलय की कलम से # 37 ☆

☆ कोरोना काल की बेवकूफियों भरे जुमले ☆

कोविड के चलते फेसबुक एवं व्हाट्सएप पर जितने चुटकुले व्यंग्य अथवा कार्टून सामने आ रहे हैं उन्हें देख-देख कर भारतीय लोगों की बेवकूफी पर जितना आश्चर्य होता है, उससे कहीं अधिक अब रोना आता है कि इतनी गंभीर और संक्रामक बीमारी में जहां संयमित व्यवहार करना चाहिए, हम इसके ठीक विपरीत कोरोना को एक मजाक बना कर रख दिया है। हम देख भी रहे हैं कि जिस तरह बिजली का करंट किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करता, ठीक उसी तरह वर्तमान में कोरोना भी अपने सामने पड़ने वाले किसी भी इंसान को नहीं छोड़ रहा है। अच्छा हो बुरा हो, मोटा हो पतला हो, धनी हो गरीब हो छोटा हो बड़ा हो अथवा स्त्री-पुरुष कोई भी हो, किसी पर रहम नहीं कर रहा। बेचारे सिक्सटी प्लस एवं एट्टी प्लस वाले तो ‘घर-घुसे’ लोग बन गए हैं। डायबिटीज, हृदयरोग अथवा फेफड़ों की बीमारी वालों के लिए तो दुबले और दो आषाढ़ वाली कहावत फिट बैठ रही है। जब कोई इन दिनों मुझे योग की सलाह देता है तो मुझे वह …. रामदेव बाबा बरबस याद हो उठता है, जो कहा करता है कि योग से सभी रोग दूर भाग जाते हैं। यदि ऐसा होता तो वह दवाईयों का अरबों-खरबों का व्यापार शुरू कर लोगों को क्यों ठगता। वैसे अब सभी बाबाओं की पोलें खुल चुकी हैं। जिनके नाम सामने आए हों अथवा ना आए हों । अब तो सभी एक ही थैली के चट्टे बट्टे लगने लगे हैं। एक-एक करके डॉक्टर्स, नीम हकीम, शासन, सेलिब्रिटीज और मीडिया पर अपने संस्मरण, सलाह और सतर्क करने वाले विशेषज्ञों के तथाकथित इतने बाप पैदा हो गए हैं, और होते जा रहे हैं, जैसे पतझड़ में पेड़ों से झड़कर गिरे पत्तों की बहुलता होती है। मुझे तो लगता है कि इन्हें भी उन्हीं पत्तों के समान इकट्ठा कर आग के हवाले कर दिया जाए। ये रोग विशेषज्ञों के बाप ऐसा ऐसा ज्ञान बघारते हैं जैसे कि ये किसी दूसरी दुनिया से कोरोना विषय पर पीएचडी कर के आए हों। कोई कहता है पेट के बल बिस्तर पर लेटने से ऑक्सीजन फेफड़ों में ज्यादा पहुँचती है, क्योंकि फेफड़े पीछे की ओर होते हैं। तब दूसरा डॉक्टर कहता है कि पेट के बल लेटने से हृदयाघात की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है। किसी ने कहा हर 20-25 मिनट में हाथ धोते रहें। तो इन सलाहकारों को कौन समझाए कि भाई बार-बार हाथ धोने से उपयोग में लाए जा रहे केमिकल हाथों में फफोलों के साथ साथ अन्य बीमारी भी पैदा कर सकते हैं। इस तरह लोगों में इतना भय भर दिया गया है कि अधिकतर लोग बीमारी से कम घबराहट से ज्यादा मर रहे हैं। कोई बिल्डिंग से छलांग लगा देता है और कोई कोरोना के डर से किसी और तरह अपनी जान गवाँ रहा है। हम तो कहते हैं कि अब समय आ गया है जब लॉकडाउन के स्थान पर फेसबुक, व्हाट्सएप तथा भय और भ्रम फैलाने वाले टी वी चैनलों को कुछ समय के लिए प्रतिबंधित कर दिया जाए, तो लोगों का आधे से ज्यादा भय भाग जाएगा और यह सब रोज पढ़ सुनकर चिंतित होने का मामला ही खत्म हो जाएगा। आज भी देखा गया है कि हमें सुबह शाम तफरी करने जाना ही है। हफ्ते भर के बजाए रोज सब्जी लेने भीड़ में घुसना ही है। इसी तरह आवश्यक न होने पर भी दोस्तों के साथ बैठना, किसी की शव यात्रा में जाना, विवाह और अन्य समारोहों में जाने में फर्ज को बीच में ले आते रहना, साथ ही स्वयं को अमरत्व प्राप्त इंसान मान लेना बेवकूफी से कम नजर नहीं आता। ऐसे लोग खुद तो संक्रमित होते ही हैं अपने घर और पास-पड़ोस वालों की भी मृत्यु का कारण बन जाते हैं। हमारे एक मित्र कहा करते हैं कि अब कलयुग में पाप ज्यादा बढ़ गए हैं, इसलिए पापियों को मृत्यु लोक से ले जाने के लिए कोरोना वायरस के रूप में स्वयं यमराज पृथ्वी पर आ गए हैं। दूसरे मित्र ने तो यहाँ तक कह दिया है कि-

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

अर्थात जब वर्तमान में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि दिखाई देने लगी तब ईश्वर को किसी न किसी रूप में तो आना ही था। अब आप ही बताएँ हम किस-किस का मुँह बंद करें। यदि कुछ ज्यादा बोल दिया तो उल्टा वह हमारा ही सदा सदा के लिए मुँह बंद कर देगा। कोरोना तो बाद में आएगा।

इस महामारी के चलते यदि गंभीरता, सक्रियता, संवेदनशीलता और संकल्पित होना सीखना है तो हमें चीन से सीखना चाहिए जहाँ के वोहान से करोना विश्व में फैला है इस देश में अब तक 5000 लोगों की जानें गई हैं। वहीं भारत में अब तक डेढ़ लाख से ज्यादा लोग मर चुके हैं। मुझे लगता है कि हम यदि ऐसी ऊपर कही गई कोरी बकवास और चुटकुले बाजी से बचते। अपने साथ साथ दूसरों को सुरक्षित रखने में योगदान देते तो शायद भारत की यह भयावह स्थिति न होती, लेकिन भारतीय हैं कि किसी की मानते कहाँ है। मास्क पहनना शान के खिलाफ होता है। मंदिरों में हाथों पर अल्कोहल (सैनिटाइजर) लगाकर भला कैसे जा सकते हैं, हमारे प्रभु हमें श्राप दे देंगे। अपनों से बड़ों के पास जाकर उनके पैर छूना ही है। 4 दिन दवाईयाँ खा कर खुद डॉक्टर बन जाते हैं और सर्टिफिकेट समझ लेते हैं कि अब हमें कुछ होगा ही नहीं।

लो भैया ऐसे ही सर्टिफिकेट जारी करते रहो और पहले एक लाख, फिर दो लाख और फिर न जाने कितने लोगों की जानें गवाँ के हम होश में आएँगे या फिर खुद भी अपनी जान गवाँ के चिता पर चैन पाएँगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 84 ☆ माहिया ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  कविता “माहिया । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 84 – साहित्य निकुंज ☆

☆ माहिया ☆

खामोशी गुनती है

क्या कहना है वो

शब्दों को चुनती है।

 

खामोशी कहती है

पिया तुम तो मेरे

रग रग में बहती हो।

 

खामोशी प्यारी है

चुप चुप रहकर वो

दुनिया में न्यारी है।

 

खामोशी क्या कहती

तेरे दिल में जो

आंखें ही वो पढ़ती।।

 

जन्मों की  कहानी है

माहिया तु है तो

हर रुत सुहानी है।

 

यादों का दरिया है

माहिया तु ही तो

मिलने का जरिया है।

 

फुर्सत है कहां तुम्हें

आए तुम तो नहीं

अब तुमसे क्या कहें

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 74 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 74 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

फसल मिले वैसी हमें, जैसा बोया बीज

जग में कर्म प्रधान है, कर्म बड़ी है चीज

 

जो खेतों में रात दिन, करते हैं श्रम दान

अपने हक को लड़ रहा, पोषक वही किसान

 

गाँवों से अब निकल कर, चले शहर की ओर

श्रमिक खेत को छोड़के, खोज रहे नव ठोर

 

माटी से उपजे सभी, माटी की यह देह

माटी में ही सब मिले, करें ईश से नेह

 

सूने सारे हो गए, खेत और खलिहान

सड़कों पर निकले सभी, हक के लिए किसान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३॥ ☆

यत्रोन्मत्तभ्रमरमुखराः पादपा नित्यपुष्पा

हंसश्रेणीरचितरशना नित्यपद्मा नलिन्यः

केकोत्कण्ठा भुवनशिखिनो नित्यभास्वत्कलापा

नित्यज्योत्स्नाः प्रहिततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाः॥२.३॥

 

जहाँ के प्रफुल्लित कुसुम वृक्ष गुंजित

भ्रमर मत्त की नित्य गुंजन मधुर से

जहाँ हासिनी नित्य नलिनी सुशोभित

सुहंसावली रूप रसना मुखर से

जहाँ गृहशिखी सजीले पंखवाले

हो उद्ग्रीव नित सुनाते कंज केका

जहाँ चन्द्र के हास से रूप रजनी

सदा खींचती मंजु आनंदरेखा

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सावळी… ☆ श्री कमलाकर नाईक

श्री कमलाकर नाईक

संक्षिप्त परिचय 

शिक्षण – बी.काॅम., डी.बी.एम्.

सम्प्रत्ति – गॅमन इंडिया लि. मधून निवृत्त.

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ सावळी… ☆ श्री कमलाकर नाईक ☆ 

गो-या आई पोटी जन्मा आले

ना कोणा आनंद ना सुख झाले

 

नाही आले घरी वाजत गाजत

नाही केले कुणी माझे स्वागत

 

नावालाच माझे बारसे केले

सावळीचे नाव शामली झाले

 

नव्हता कोणाचा स्पर्श मायेचा

नव्हता कोणाचा शब्द प्रेमाचा

 

नव्हते जगात कोणी माझ्यासाठी

रानफूल झाले माझी मीच मोठी

 

उरी स्वप्न सैनिक होणे देशासाठी

झाले पूर्ण देवा, उभा माझ्या पाठी

 

मिडियाने चढवले  डोईवर मला

गणगोतानी  केले जवळ मजला

 

आता  चिमुकली सावळी शामली

जनसागराच्या प्रेमात बुडून गेली.

 

© श्री कमलाकर  नाईक

फोन नं  9702923636

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 77 – विजय साहित्य – माय मराठी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 77 – विजय साहित्य – माय मराठी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

माय मराठी मराठी, जसे बकुळीचे फूल

दूर दूर पोचवी गं ,  अंतरीचा परीमल . . . !

 

कधी  ओवी ज्ञानेशाची ,  कधी गाथा तुकोबांची

शब्द झाले पूर्णब्रम्ह,  गाऊ महती संतांची. . . . !

 

संतकवी,  पंतकवी, संस्कारांचा पारीजात .

रूजविली पाळेमुळे,  अभिजात साहित्यात. . .  !

 

कधी भक्ती, कधी शक्ती,  कधी सृजन मातीत

नृत्य, नाट्य, कला,क्रीडा,  धावे मराठी ऐटीत. .  !

 

माय मराठीची वाचा,  लोकभाषा अंतरीची .

भाषा कोणतीही बोला,  नाळ जोडू ह्रदयाशी . .  !

 

कधी मैदानी खेळात, कधी मर्दानी जोषात.

माय मराठी खेळते, पिढ्या पिढ्या या दारात. ..!

 

कोसा कोसावरी बघ,  बदलते रंग रूप.

कधी वर्‍हाडी वैदर्भी, कधी कोकणी प्रारूप. . . !

 

माय मराठीचे मळे , रसिकांच्या काळजात.

कधी गाणे, कधी मोती, सृजनाच्या आरशात. . !

 

महाराष्ट्र भाषिकांची, माय मराठी माऊली

जिजा,विठा,सावित्रीची,तिच्या शब्दात साऊली . !

 

अन्य भाषिक ग्रंथांचे, केले आहे भाषांतर

विज्ञानास केले सोपे, करूनीया स्थलांतर. . . !

 

शिकूनीया लेक गेला, परदेशी आंग्ल देशा

माय मराठीची गोडी, नाही विसरला भाषा. . . !

 

नवरस,अलंकार, वृत्त छंद,साज तिचा .

अय्या,ईश्य,उच्चाराला, प्रती शब्द नाही दुजा.. !

 

माय मराठीने दिला, कला संस्कृती वारसा

शाहीरांच्या पोवाड्यात,तिचा ठसला आरसा.  !

 

माय मराठीने दिली, नररत्ने अनमोल.

किती किती नावे घेऊ, घुमे अंतरात बोल. . .!

 

माय मराठी मराठी, कार्य तिचे अनमोल .

शब्दा शब्दात पेरला , तीने अमृताचा बोल. . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ लाल गुलाबाची भेट..भाग-2 ☆ श्री बिपीन कुलकर्णी

श्री बिपीन कुलकर्णी

संक्षिप्त परिचय

मी , बिपीन दत्तात्रय कुळकर्णी. नुकताच ठाण्यासारख्या उद्योग, कला आणि खवैयांच्या नगरीत वास्तव्यास आलो.

ग्लोबल टेली, डी लिंक, IDBI Principal mutual fund, प्रभुदास लीलाधर ह्या सारख्या कंपन्यांमध्ये 35 वर्षे सेल्स मार्केटिंग आणि ऍडमिनिस्ट्रेशनचा अनुभव घेतलेला.

क्रिकेट, बॅडमिंटन, कॅरम खेळांची आवड असलेला.

CKP समाजउन्नती मंडळ, मुलुंड ह्या संस्थेचा उपाध्यक्ष म्हणून कार्यरत. समाज बांधिलकी मानणारा आणि जपणारा. कुटुंबात, मित्रमंडळीत रमणारा आणि वाचन म्हणजे आपले विचार समृद्ध करणारं  साधन ह्यावर त्रिवार विश्वास असलेला.

चारोळ्या, कविता आणि कथा सहज सुचत गेल्या… मी लिहीत गेलो..

आपणा सर्वांवर लोभ आहेच व तो आटू न देण्यासाठी ब्रह्म चैतन्य श्री गोंदवलेकर महाराज ह्यांच्या चरणी प्रार्थना …

☆ जीवनरंग ☆ लाल गुलाबाची भेट..भाग-2 ☆ श्री बिपीन कुलकर्णी ☆ 

कॉलेज संपलं. पुढे शिकायची इच्छा होती पण घरच्या परिस्थितीमुळे नोकरी पत्करली आणि घराला पैशाच्या रूपाने टेकू दिला. माझं रहाट  गाडगं चालू झालं आणि त्यात इतका बुडालो कीं सुमतीचं काय झालं असेल, कुठे असेल ती ? अजून पुढे शिकण्यासाठी परदेशी गेली असेल कां ? आणि मुख्य म्हणजे लग्न झालं असेल का? अनेक विचार डोक्यात येत आणि जात. काळ… हेच सगळ्या गोष्टीवरचं  एक रामबाण औषध . घरचे मागे लागले होते … लग्नाचं बघा म्हणून .. मीच काहीतरी कारणं सांगून वेळ मारून नेत होतो.

आणि अचानक एके दिवशी घरच्या पत्यावर एक कुरियर आलं. उंची गुलाबी लिफाफा … त्यात गुलाबी रंगाचा कागद .. अक्षर बघितलं आणि अंगावर शहारा आला. सुमतीच हस्ताक्षर मी ह्या जन्मात तरी विसरू शकणार नव्हतो. पत्र वाचलं… सुन्न झालो. त्या लिफाफ्यात अजून एक वस्तू होती. गडद लाल रंगाचा टपोरा गुलाब… पण आज तो गुलाब माझ्याकडे बघून हसत नव्हता. अगदी कुचेष्टेने सुद्धा…कोमेजल्या सारखा दिसत होता. गुलाब बाहेर काढताना काटा टोचला. विव्हळलो मी .. कश्यामुळे ते मात्र कळलं नाही.

परत एकदा ते पत्र वाचलं आणि शेवटची ओळ वाचताना तीन ताड उडालो… लिहिलं होतं …

अजूनही तुझीच … सुमती …

समाप्त 

© श्री बिपीन कुळकर्णी

मो नं. 9820074205

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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