English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 44 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 44 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 44) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 44☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मेरे होने में किसी तौर से

शामिल  हो  जाओ,

गर तुम मसीहा नहीं होते हो

तो क़ातिल ही हो जाओ…

 

Merge in my existence in

some way or the other,

If you can’t become Messiah,

then try being an assassin!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

ख़ुदा  करे कि तुझे

इश्क हो मेरे जैसा

और तुझे महबूब

मिले खुद तेरे जैसा…

 

May God make you

fall in love like me…

And,  may  you  get

a lover like yourself…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

रिश्वत भी नहीं लेती

मुझे छोड़ने की…

कम्बख्त ये तेरी यादें

भी ईमानदार लगती हैं…

 

They don’t even take

bribe to leave me…

Your wretched memories

also seem to be honest..!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

सितमग़र का हर निशाना

बे-ख़ता  रहा …

हर बार तीर निकला

ज़िगर  चीरता  हुआ…

 

Every aim of the tyrant

was bang on the target

Each  time  it  pierced

through the heart only…

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 45 ☆ हिंदी आरती ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘हिंदी आरती। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 45 ☆ 

☆ हिंदी आरती ☆ 

*

भारती भाषा प्यारी की।

आरती हिन्दी न्यारी की।।

*

वर्ण हिंदी के अति सोहें,

शब्द मानव मन को मोहें।

काव्य रचना सुडौल सुन्दर

वाक्य लेते सबका मन हर।

छंद-सुमनों की क्यारी की

आरती हिंदी न्यारी की।।

*

रखे ग्यारह-तेरह दोहा,

सुमात्रा-लय ने मन मोहा।

न भूलें गति-यति बंधन को-

न छोड़ें मुक्तक लेखन को।

छंद संख्या अति भारी की

आरती हिन्दी न्यारी की।।

*

विश्व की भाषा है हिंदी,

हिंद की आशा है हिंदी।

करोड़ों जिव्हाओं-आसीन

न कोई सकता इसको छीन।

ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की

आरती हिन्दी न्यारी की।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 77 – उजालों का उपहार ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक रोचक एवं भावपूर्ण रचना  “उजालों का उपहार। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 77 ☆ उजालों का उपहार ☆

आंखें मानव को दी गई ईश्वरीय उपहार हैं। इनमें ज्योति के बिना जीवन सूना हो जाता है  और मानव बाहरी दुनिया देखने वंचित रहता है। इन आंखों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे आंख, नयन, अम्बक, अक्षि, चक्षु, चश्म, दृग, दीदा, नेत्र, लोचन, इक्षण, विलोचन आदि और ना कितने नाम।  इन आंखों के विषय में बहुत सारी रोचक जानकारी हमें हिंदी साहित्य, फिल्मी दुनिया तथा अध्यात्म जगत में अध्ययन के समय दृष्टिगोचर होती है। आइए इन से कुछ रोचक जानकारी प्राप्त करें।

अनेक फिल्मों के गीत हमें आंखों की भाव भंगिमा उपयोग तथा सौंदर्य बोध कराते हैं जैसे —

तेरी ? आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है,

ये उठे सुबह चले, ये झुके शाम ढ़ले,

मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले।

तो वहीं दूसरा उदाहरण देखें। नायिका कहती हैं–

इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं।

तो वहीं एक उदाहरण और प्रस्तुत है जब नायिका अंखियों के झरोखों से झांकने की बात करती है–

अंखियों के झरोखों से, तूने देखा जो झांक के, मुझे तूं नजर आये, बड़ी दूर नज़र आये।

वहीं कोई नायक गा उठता है — आंख मारे इक लड़की आंख मारें।

वहीं पर कोई नायक अपनी आंखों से नेत्रहीन नायिका के नैनों के दीप जलाने अर्थात् अपनी आंखों से दुनियां दिखाने का भरोसा दिलाने का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है।

तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊंगा,

अपनी आंखों से दुनियां दिखलाऊंगा।

तो इन्हीं भावों को समेटे बिहारी जी अपने दोहों में नेत्रकोणों की उपयोगिता दर्शाते हुए कहते हैं —

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।

सौह कहै भौहनि हंसै, देन कहै नटि जाय।

में नायिका की शरारत भरी कुटिलता दर्शाती है तो उनका दूसरा उदाहरण जो आंखों में छुपे भावों को दर्शाता है जैसे —

अमिय हलाहल मद भरे,

श्वेत श्याम रतनार।

जियत मरत झुकि झुकि परत,

जेहि चितवत इक बार।।

तो वहीं पर आंखों के सौंदर्य बोध से प्रभावित तमाम साहित्यकारों ने पशु पक्षियों, पुष्पों की पंखुड़ियों से आंखों की उपमा दी है जैसे — मृगनयनी, मृगलोचनि, खंजनलोचनी, तो वहीं पर भगवान के नेत्रों के लिए कमलनयन, त्रिलोचन शब्दों की उपमा दी गई है। कमलवत नयन जहां आंखों का सौंदर्य बोध करता है वही शिव का तीसरा नेत्र क्रोध को प्रर्दशित करता है। जैसे —

तब शिव तीसर नेत्र उघारा,

चितवत काम भयउ जरि छारा।।

वहीं पर नेत्रहीनों का अंतर्नेत्र या अंतरचक्षु आत्मज्ञान  की महत्ता दर्शाता है।

वहीं कोई उर्दू भाषी उर्दू जुबान बोलने वाला आंखों की शान में चंद लब्ज बोलता है कि —

नजर ऊंची कर ली, दुआ बन गई,

नजर नीची कर ली, हया(शर्म) बन गई।

नजर तिरछी कर ली कज़ा बन गई।

तो वहीं हिंदी साहित्य में आंखों को संबोधित तमाम मुहावरों का भी खूब खुल कर प्रयोग हुआ हैं, जैसे आंखें मारना, इशारो में संकेत देना, आंखों से गिर जाना – मर्यादा खो देना, आंखों का तारा बनना – चहेता बन जाना, आंख कान खुला रखना – सतर्क रहना आदि।

वहीं पर भगवान की बाल लीलाओं में भी आंखों से देखने का प्रभाव उनके मानस पर उनकी भाव-भंगिमाओं मे दीखता है, जैसे –

कबहूं शशि मांगत रारि करैं,

कबहूं प्रतिबिंब निहारि डरैं।

कबहूं करतारि बजाई के नाचैं,

मातु सबै मन मोद भरैं।

कोई भक्त भी पुकारता दिख जाता है — अंखियां हरि दर्शन की प्यासी।

इस प्रकार हमारे जीवन में आंखें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है।

मृत्यु के पश्चात हम अपनी तथा परिजनों का नेत्रदान संपन्न करा कर किसी की जिंदगी को उजालों का उपहार दे सकते हैं।

#सर्वेभवन्तु सुखिन: के साथ #

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.५॥ ☆

 

यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्य एत्य हर्म्यस्थलानि

ज्योतिश्चायाकुसुमरचितान्य उत्तमस्त्रीसहायाः

आसेवन्ते मधु रतिफलं कल्पवृक्षप्रसूतं

त्वद्गम्भीरध्वनिषु शनकैः पुष्करेष्व आहतेषु॥२.५॥

 

जहाँ के भवन उच्च मणिमय प्रभा से

नक्षत्र छाया कुसुम से सुहावन

जहाँ सुन्दरी के सहायक सभी यक्ष

तुम सम कुशल नाद कर चित्त भावन

बजाते समय वाद्य रतिफल सुरा स्वाद

का ले चषक मोद आल्हादकारी

रतिफल  रसास्वाद जो कल्पद्रुम से

सदा प्राप्त करते सभी रस बिहारी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वसंत सांज ☆ श्रीशैल चौगुले

श्रीशैल चौगुले

☆ कवितेचा उत्सव ☆ वसंत सांज… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

झुकते आभाळ जिथे

घरटे असती माझे

मावळ दिशा मैफल

मनात स्मृतींची मौजे.

 

हळु सप्तक वसंत

हृदया देई ऊसंत

झुळूक गारवा स्पर्श

वायू भावगीत वाजे.

 

समुद्र किनारी गाज

अगंतुक झाके लाज

पसरुन पंख नभ

कुसूम ललाटी साजे.

 

क्षणिक सुखावा नेत्री

ओलावा दवाचे थेंब

पापण्या वेलींचे पर्ण

सजून सांज विराजे.

 

© श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ओठात उमटले हसू ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग ☆ ओठात उमटले हसू☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆ 

श्याम आणि सरला दोघे पत्नी शहरात एका कारखान्यात कामाला आहेत. गावाकडे त्याचे म्हातारे आई-वडील रहाताहेत. खूप दिवसात त्यांची काही खबर कळलेली नाही. एके दिवशी संध्याकाळी श्याम सरलाला म्हणतो, ‘खूप दिवसात गावाकडची काही खबर नाही. पत्र नाही. निरोप नाही. आई-बाबा कसे आहेत, कुणास ठाऊक?’

‘मला वाटतं, उद्या सुट्टी आहे. आपण प्रत्यक्षच जाऊन बघून येऊ या.’

श्याम आणि सरला गावाकडे आले. थोडी धावपळ झाली, पण चालायचंच, त्यांनी विचार केला. गावाकडे आल्यावर त्यांना जरा वेगळं, विचित्र वाटलं. स्वस्थपणे बसून कुणी बोलत नव्हते. कधी आई बाहेर जात होती, कधी बाबा. श्याम वैतागलाच. दोन घटका जवळ बसणं नाही. ख्याली खुशाली विचारणं नाही. एवढा मुलगा आणि सून किती तरी दिवसांनी आलीत. जवळ बसावं. चार सुख-दु:खाच्या गोष्टी बोलाव्या. काही नाही. सारखे आपले कुणी ना कुणी तरी बाहेर. बरं थांबायला तरी कुठे वेळ आहे. संध्याकाळच्या एस.टी. ला निघायलाच हवं. असे अनेक विचार श्यामच्या मनात येत होते.

एकदा सगळं आईला विचारावं, म्हणून तो स्वैपाकघरात निघाला. तिथे त्याला आई-बाबांचं कुजबुजतं बोलणं ऐकू आलं म्हणून तो उंबर्‍याशीच थबकला.

रामप्रसादने उधार द्यायला नकार दिला. आता कुणाकडे जाऊ? सारी शंभर रुपयाची तर बाब…..’

‘हं! घरात फक्त मक्याचं पीठ शिल्लक आहे आणि कालची थोडीशी भाजी उरलीय. किती तरी दिवसांनी मुलगा सून आलीत. त्यांना निदान चपाती, भाजी, शेवया, भजी एवढं तरी करून वाढायला नको? सून काय म्हणेल? आपले सासू-सासरे इतके खालच्या थराला पोचले की काय, असं वाटेल तिला. ‘घरात गाय, म्हैससुद्धा नाही की दही, दूध, तूप लोणी असं काही चांगलं- चुंगलं वाढता येईल. फार नको. कुठून तरी साठ- सत्तर रुपये मिळाले, तरी पुरे.’

आई आणि बाबांचं बोलणं ऐकता ऐकता श्यामला वाटलं, आपल्या काळजात जसे काटे टोचताहेत. पैशाची इतकी ओढग्रस्तीची परिस्थिती असतांनाही त्यांनी आपल्याला काहीच कळवलं नाही. आपण तरी शहरात रोज कुठे मेजवानी झोडतो, पण रोजची भाजी-भाकरी तरी मिळते. इथे तर… समजा आईला सांगितलं, ‘आम्हाला भूक नाही, तू त्रास घेऊ नकोस. ‘ पण मग नंतरा आईच्या मनाला सारखं टोचत राहील, मुलगा-सून आले पण उपाशीच गेले. आपण त्यांना नीट जेवायलाही घालू शकलो नाही. तिचं काळीज सारखं कुरतडत राहील.

काय करावं, श्यामला सुचेना. सरलाशी बोलावं म्हणून तो मागे वळला, तर सरला तिथेच उभी होती. तिनेही त्यांचं बोलणं ऐकलं असणार. श्याम काही तरी बोलणार, एवढ्यात सरलाने ओठांवर बोट ठेवून गप्प बसण्याची खूण केली.

नंतर सरला स्वत:च स्वैपाकघरात गेली आणि सासूला म्हणाली, ‘आई, आम्ही आज इकडे का आलो, माहीत आहे? खूप दिवस झाले, तुमच्या हातची मक्याची रोटी खाल्ली नाही. त्याची खूप आठवण झाली, मग आम्हाला राहवेच ना! म्हणून आज इकडे आलो आणि आई, कालची भाजी शिल्लक असेल, तऱ ती आमच्यासाठीच ठेवा बरं का?  माझी आई म्हणते, मक्याच्या रोटीबरोबर शिळी भाजीच जास्त स्वादिष्ट लागते.  आणखी एक गोष्ट मात्र लक्षात ठेवा हं आई!  मुलगा आलाय म्हणून कौतुकाने भाजीवर तेल, तूप, दही, लोणी वगैरे घालाल! तर तसं करू नका बरं का! डॉक्टरांनी आम्हाला तेल, तूप, दही, लोणी वगैरे गोष्टी खायची मनाई केलीय!’

सुनेचा बोलणं ऐकलं आणि सासूच्या कळाहीन, विझू विझू झालेल्या चेहर्‍यावरील  सुरकुत्यातून बघता बघता खुशीच्या, आनंदाच्या लाटा , पाण्यातील तरंगासारख्या पसरू लागल्या आणि त्या लपवाव्या असं तिला मुळीच वाटलं नाही.

**** समाप्त.

***उद्या जागतिक महिला दिन. या दिवशी सातत्याने सजगता आणि सक्षमता हे शब्द उच्चारले जातात. म्हणजे स्वत:वर होणार्‍या अन्यायाची जाणीव होणं आणि त्याचा प्रतिकार करण्यासाठी सिद्ध होणं. सजगता आणि सक्षमता हे शब्द तसे व्यापक आहेत. दुसर्‍यांच्या अडी-अडचणी, भाव – भावना जाणून घेणं आणि आपल्या परीने त्या समजून घेण्याचा, सोडवण्याचा प्रयत्न करणं म्हणजेही सजगता आणि सक्षमता नाही का?

डॉ.कमाल चोपडा यांची एक कथा आहे, छिपा हुआ दर्द. ही अशीच एक कथा. एका समंजस, शहाण्या सुनेची कथा. सासूच्या सन्मानाला धक्का लागू न देता परिस्थितीतून मार्ग काढणारी नायिका, माझ्या चांगलीच लक्षात राहिलीय. महिला दिनाच्या निमित्ताने आठवली. म्हणून आपल्यासाठी तिचा मराठी अनुवाद सादर

—– उज्ज्वला केळकर

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर  

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ हरवले ते…. ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

☆ विविधा ☆ हरवले ते…. ☆ श्री अरविंद लिमये ☆ 

सतत पूर्वीचे दिवस आठवणे,त्या आठवणीत गुंतून पडणे,वर्तमानातल्या सगळ्याच गोष्टीना सतत नावे ठेवणे हे खरंतर माझ्या स्वभावाचा भाग कधीच नव्हते. पण…..!

पण गेलं वर्षभर ठाण  मांडून बसलेला आणि अद्यापही जायचं नाव न घेणारा कोरोना, त्याचा विषारी प्रसार, आणि त्यामुळे झालेली जीवघेणी पडझड, परके होऊन गेलेले आपलेच जगणे, प्रत्येकाच्या मनावरचं भितीचं सावट, आणि अपरिहार्यतेमुळे मनात भरुन राहिलेली अस्वस्थता हे वास्तव स्विकारायला आणि पचायलाही जसजसं जड होत चाललं तसतसं वर्तमानात जगणारं माझं मन हरवलेल्या भूतकाळाचा वेध घेऊ लागलं. हे असं सार्वत्रिक, तीव्रतर हताशपण यापूर्वीच्या आयुष्यात मी कधी अनुभवलंच नव्हतं. आजची ही आपल्या आस्तित्वाचीच अनिश्चितता मला विचार करायला प्रवृत्त करणारी ठरलीय.

माझं बालपण, कॉलेज जीवन, नंतरच्या कौटुंबिक जबाबदाऱ्या हे सगळं कित्येक वर्षांपूर्वीचं, पण कालपरवाच घडून गेल्यासारखं मला लख्ख आठवतंय. तेव्हाचा मी आणि आजचा मी कोणीतरी वेगळ्याच दोन व्यक्ती असल्यासारखी दोघांचीही जीवनशैली दोन ध्रुवांवरची वाटावी एवढी परस्पर भिन्न असल्याचं अगदी ठळकपणे जाणवतं आणि त्याचं आश्चर्यही वाटतं रहातं. अर्थात माझ्यापुरतं सांगायचं तर जीवनशैलीतले हळूहळू होत गेलेले हे सगळे बदल मी त्या त्या वेळी डोळसपणे स्वीकारलेले असल्यामुळे पूर्वीच्या जीवनशैलीची महत्वाची तत्त्वं आजही मी दुर्लक्षित केलेली नाहीयत.त्यामुळे त्याबद्दल स्वतःचं काही चुकल्याची रुखरुख नाही आणि समाधानवृत्तीतही काही फरक पडलेला नाही. पण तरीही आजूबाजूचे चित्र फारसे उत्साहवर्धक नाही ही बोच मात्र मनात सलते आहेच.

तेव्हा ‘अंथरूण पाहून पाय पसरावेत’ आणि ‘ऋण काढून सण साजरे करू नयेत’हीच वृत्ती प्रत्येक घराचा, संसाराचा भक्कम पाया असे. कारणपरत्वे कुणाकडून नाईलाज म्हणून हात उसने पैसे घ्यायला लागलेच तर ते दिलेल्या वेळेत परत करता यावेत म्हणून हजार काटकसरी आणि तडजोडी करून आधी ते पैसे परत करायला प्राधान्य दिले जाई. तोवर जीवाला घोर असेच आणि शांत झोपही नसेच. अखेरचा श्वास घेताना कुणाचं ‘पै’चंही देणं नसावं म्हणजे तो जिंकला’ हा विचार आयुष्यभर प्राणापलिकडे जपला जाई. कर्ज काढून सण साजरे करणं तर खूप दूरची गोष्ट٫ पण नित्योपयोगी वस्तूंची खरेदीसुद्धा काटकसर करून पै पै साठवून मगच केली जाई. सुवर्णालंकार घालून मिरवण्याची हौस दर गुरूपुष्याला गूंजभर सोनं विकत घेऊन, ते विकत घेता आल्याच्या आनंदातच परस्पर भागवली जाई.

खरं तर हे सगळं कालबाह्य कधी झालं हे जगण्याच्या व्यापात कधी लक्षातच नाही आलं. बदल हळूहळू घडत गेले पण बहुतांश जणांनी ते फारसा विचार न करता सरसकट स्वीकारले. या बदलांना ठळकपणे सुरुवात झाली ती जागतिकीकरणानंतर बाजारयुग अवतरलं त्या क्षणापासून. या बाजारयुगाने निर्माण केलेला उपभोगाचा रंगीबेरंगी भुलभुलैय्या आणि ऐष आरामाचा हव्यास यांनी एक वेगळेच गारुड समाजमनावर निर्माण केलं. मग पूर्वीच्या काळातल्या चैनी गरजा केव्हा होऊन बसल्या समजलंच नाही. त्यामुळे पाय पसरायला अंथरूण खूपच कमी पडतंय असं वाटू लागलं. त्या अंथरुणाची लांबी वाढवण्यासाठी सहज उपलब्ध असणारी कर्जं काढून सुख आणि समाधान शोधण्याचा सहजसोपा मार्ग बिनदिक्कतपणे अनुसरला जाऊ लागला. ‘मूर्ख माणसं घरं बांधतात आणि शहाणी माणसं त्यात भाड्याने रहातात’ असं पूर्वी म्हणायचे. आता कर्ज काढून घर बांधणारे सूज्ञ आणि कर्जं न काढणारे मूर्ख समजले जाऊ लागले. कोरोना हे एक निमित्त, पण ती कर्जं आणि परतफेडीचे हप्ते म्हणजे ‘घी देखा लेकीन बडगा  नही देखा’ या उक्तीचा प्रत्यय देणारे ठरले. त्याक्षणी झालेला तूप-रोटी मिळाल्याचा क्षणिक आनंद कोरोना काळात काळवंडूनच गेला.आणि मग दरमहा मानगुटीवर बसलेलं हप्त्यांचं ओझं तथाकथित समाधानावर बसलेल्या बडग्यासारखंच वाटायला लागलं.

या सगळ्या उलथापालथीच्या पार्श्वभूमीवर कोरोनाचा प्रवेश झाला आणि कर्जांच्या हप्त्यांचं ओझं वाहणारं गाढव ठरला तो ‘सामान्य माणूस’, पूर्वीच्या काळी स्वतःच स्वतःभोवती आखून घेतलेल्या वर्तुळात समाधानी रहायचा. त्या सामान्य पण सुखी माणसाच्या सदऱ्याला या कर्जांच्या हप्त्यांमुळे जागोजागी ठिगळं लावावी लागल्याचं तीव्रपणे जाणवू लागलं.

पूर्वीच्या काळीही जीवघेणी संकटं येत होतीच. पण जगण्यातल्या अनपेक्षित अडचणींनी निर्माण केलेल्या त्या गंभीर परिस्थितीतही तग धरून रहाता येईल असं नीटनेटकं नियोजन वैयक्तिक पातळीवरच असायचं. सध्याच्या जीवनशैलीत ते नियोजनच गृहीत न धरल्यामुळे घेताना किरकोळ वाटणारे कर्जाचे हप्ते आता फेडताना मात्र डोईजड होऊन बसलेत.

आजच्या जगण्याला प्रचंड वेग आहे ते खरंच.पण किती आणि कुठवर धावायचं आणि तेही किती वेगानं हे स्वतःच योग्य वेळी ठरवण्याचं भान जीवघेण्या स्पर्धेत होणाऱ्या दमणूकीमुळे असं हरवूनच जातंय ही वस्तुस्थिती आहे. त्यामुळे ज्यासाठी जगायचं तो जगण्यातला आनंद हरवून आपला जगण्याशीच झगडा सुरू होतो आहे.

अशा परिस्थितीत जगण्याचं नेमकं भान न हरवता स्वतःचे प्राधान्यक्रम पुन्हा एकदा नीट तपासून पहाणं अगत्याचं आहे. हे झालं तरच हरवलेले आपले मोकळे श्वास पुन्हा अलगद गवसतील अन्यथा त्या श्वासांसारखाच जगण्याचा आनंदही हरवूनच नाही फक्त,तर विरुनच जाईल.

————————

अरविंद लिमये,सांगली.

(9823738288)

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ कुत्रा छंद नव्हे संगत – भाग-3 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

☆ पुस्तकावर बोलू काही ☆ कुत्रा छंद नव्हे संगत – भाग-3 ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆ 

छंद नव्हे संगत पुस्तकाचे अंतरंग भाग ३

पुस्तकाच्या शेवटी एक श्वानधर्माचे उदाहरण वाचताना खरोखरच अचंबा वाटतो. ती गोष्ट

अरुणाचल प्रदेश ते‌ काराकोरम खिंड हे आठ हजार कि.मि. अंतर पार करण्यात सेनादलातील तीन अधिकाऱ्यांना कुत्र्याने कशी साथ दिली! गिर्यारोहण चालू झाले. भूतानमधील डोंगररांग दरीतून जाताना मॅस्टिफ जातीचे कुत्र्याचे पिल्लू त्यांच्या मागे लागले. दया आली आणि अधिकाऱ्याने त्याला आपल्या बरोबर घेतले त्याचे नाव द्रुग, (घोडेस्वार) ठेवले गेले. सिक्कीम मधून जाताना द्रुग वेगळ्या मार्गाने पळत जायला लागला. आणि बर्फ उकरायला लागला. पाहिले तर एका माणसाचे प्रेत होते. अधिकाऱ्यांनी हात जोडून पुन्हा त्यावर बर्फ टाकला. पुढे प्रवास गौरी शंकरच्या बेस कॅम्प जवळून २१ हजार फूट उंचीवरून झाला. नेपाळ पार करून कुमाउला पोहोचले. जानेवारी ते नोव्हेंबर त्यांचा प्रवास द्रुगच्या सहवासात आनंदात झाला.

शां. ना. दाते यांच्याकडे श्वान विश्वकोश आहे. कोणत्याही जातीच्या कुत्र्या बद्दल त्याच्या सर्व गुणधर्मांसह संपूर्ण माहिती ते क्षणात देत असत. त्यांचा 50 वर्षांचा परिचय व इतिहास आहे. त्यांच्या परिश्रमाचे आणि तपश्चर्येचे मूर्त रूप हे पुस्तक आहे.

कुत्र्याला बघून पळून जाणारी माणसे हे पुस्तक वाचून कुत्रा पाळण्याचा विचार करू लागले. आणि अनेकांनी प्रत्यक्षात आणले ही. आज दाते हयात नाहीत. पण त्यांचे ९६ पानांचे पुस्तक या रूपाने अमर आहेत.

समाप्त

©  सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

बुधगावकर मळा रस्ता, मिरज.

मो. ९४०३५७०९८७

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-२०) – ‘सुषीरवाद्ये’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

 ☆ सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-२०) – ‘सुषीरवाद्ये’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

मागच्या लेखात एक उल्लेख अनावधानाने राहून गेला त्याविषयी…

तालवाद्यांपैकी ज्या वाद्यांमधे प्राण्यांचं कातडं वापरलेलं असतं त्यांना ‘अवनद्ध वाद्ये’ किंवा ‘चर्मवाद्ये’ असं म्हणतात, त्याचं कारण ‘अवनद्ध’ ह्या शब्दाचा अर्थच ‘कातड्याने मढवलेले’ हे आपण पाहिलं. मात्र तालवाद्यांपैकी इतर वाद्यं, ज्यामधे धातूचे, लाकडाचे दोन तुकडे किंवा चकत्या किंवा नळ्या/काठ्यांचा एकमेकांवर आघात झाल्याने नादनिर्मिती होते त्या वाद्यांना घनवाद्ये असं म्हणतात. दोन्ही प्रकारातली वाद्यं ही तालवाद्यंच आहेत आणि दोन्हींतही नादनिर्मिती ही आघातानेच होते… फरक आहे तो फक्त कातड्याचा वापर त्या वाद्यात झाला आहे कि नाही, इतकंच!

सुषीर वाद्यांकडं वळायचं म्हटलं कि पटकन आपल्या डोळ्यांसमोर उभा राहातो मनमोहन मुरलीधर कृष्ण… आपल्या मुरलीवादनानं अवघ्या जगताला संमोहित करणारा! त्याचं वाद्य म्हणजे ‘बासरी’ ज्यात फक्त एका आकारबद्ध पोकळीत फुंकर मारल्यानंतर निर्माण होणाऱ्या कंपनांतून नादनिर्मिती होते. सर्व सुषीर वाद्यांमधे हे एकच तत्व लागू आहे. मात्र मुळात ह्या तत्वाचा शोध कसा लागला असावा? ह्या तत्वानुसार माणसाकडून अंत:प्रेरणेनं घडणारी गोष्ट म्हणजे शीळ! कोणत्याही वाद्याचा आधार न घेता गोड, मधूर शीळ कशी घातली जाते? तर तिथं असतं ते फक्त एकच तत्व, फुंकरीतून म्हणजेच हवेच्या साहाय्यानं केली जाणारी नादनिर्मिती! शीळ घालत असताना आपसूक निर्माण होणाऱ्या आपल्या तोंडाच्या आणि ओठांच्या स्थितीचा विचार केला असता लक्षात येईल कि, ह्या प्रक्रियेत घशातून येणारा हवेचा झोत तोंडाची पोकळीतून मार्गस्थ होऊन ओठांच्या एका विशिष्ट आकारामुळे योग्यप्रकारे नियंत्रित होत असल्यानं नेटकी व सुंदर नादनिर्मिती होते.

जुन्या ग्रंथांमधे उल्लेख आढळतात कि, प्राचीन काळी ‘अन्न’ म्हणून प्राण्यांची शिकार केल्यावर त्यांचं मांस खाल्यानंतर उरलेले अवयव शिल्लक तसेच राहात असतील. कधीतरी गमतीतच कुणीतरी प्राण्यांच्या शिंगांमधे फुंकर मारून पाहिली असेल आणि असं केलं तर त्यातून छान आवाज येतो हे लक्षात आलं असेल. हळूहळू पुढं हेही लक्षात आलं असेल कि शिंगांचा आकार, लांबी बदलली कि आवाजाची जात बदलते. नंतर ह्या गोष्टीचा उपयोग माणूस एखाद्या कारणासाठी सगळ्यांना एकत्र जमवण्यासाठी किंवा एकमेकांना काही संकेत देण्यासाठी करू लागला.

सर्वांना माहीत असणारी ह्याबाबतीतली काही उदाहरणं म्हणजे… ‘रणशिंग’ हे युद्ध सुरू होत असल्याचा संकेत देणारं वाद्य!… काही मंगल प्रसंगाच्या सुरुवातीला वाजवलं जाणारं व सैन्यसंचालन, मिरवणुकी ह्यातही आढळून येणारं अर्धचंद्राकृती ‘शृंग’ हे वाद्य, शिवाय ‘तुतारी’ हे वाद्यही बऱ्याच जणांना माहिती असेल. ह्या वाद्यांना मंगलवाद्यं मानलं जातं. कारण ही वाद्यं म्हणजे प्राण्यांची शिंगं, म्हणजे नैसर्गिकरीत्या अस्तित्वात आलेली!… पुढं मग इतर वाद्यांप्रमाणं वेगवेगळे प्रयोग ह्यात झाले. आज धातूचीही ह्या प्रकारची वाद्यं आपल्याला पहायला मिळतात, काही थोडा भाग धातूचा आणि उर्वरित भाग लाकडाचा अशीही असतात, मात्र त्यांचं मूळ हे प्राण्यांचं शिंग आहे.

ह्याच बरोबर बांबूसारख्या पोकळ नळकांडीत फुंकर मारून बघितली असतानाही आवाज येतोय हेही लक्षात आलं आणि त्यातून हळूहळू पावा, अलगूज, वेणू, बासरी ह्यांनी जन्म घेतला. झाडाच्या पातळ पानाची गुंडाळी (ज्याला बहुधा आपण पुंगळी म्हणायचो) करून त्यात फुंकल्यावरही सुंदर आवाज येतो हे आपण सर्वांनीच लहानपणी करून पाहिलं असेल. ही पिपाणीची शिशुअवस्था म्हणता येईल.

त्याचबरोबर झाडांची पानं एकावर एक ठेवून ती ओठांत धरून त्यात फुंकर मारून आवाज काढण्याचा उद्योगही आपण सर्वांनीच केला आहे. दोन पानांच्यामधे आपसूक तयार होणाऱ्या हवेच्या छोट्याशा पोकळीत फुंकर मारली गेल्यानंच त्यातून आवाज निघत असतो. आज ज्या वाद्यांमधे ‘रीड’ ही संकल्पना वापरलेली दिसून येते तिचा जन्म ह्या प्रकारातूनच झाला असावा.

अशाप्रकारे नादनिर्मिती होऊ शकते हे एकदा लक्षात आल्यावर ‘शंख’ हेही एक नैसर्गिक वाद्य माणसाला सापडलं. प्राचीन काळापासून हे वाद्य पवित्र मानलं गेलं आहे त्याचं कारणच कदाचित ‘परमशक्तीकडून झालेली ह्या वाद्याची निर्मिती’ हे असावं! नैसर्गिक शक्तीनं तयार स्वरूपातच आपल्याला बहाल केलेलं हे वाद्य वाजवताना मानवाला फक्त त्यात फुंकर मारण्याशिवाय काहीच करायचं नसतं आणि ‘परमोच्च शक्तीनं’ तयार केलेलं वाद्य म्हणजे त्यात काहीतरी शक्ती असणंही अपरिहार्यच! म्हणूनच जिथं शंख फुंकला जातो त्या जागेतील सर्व नकारात्मक शक्ती नाश पावून तिथलं वातावरण शुद्ध होतं असं आपल्याकडं विश्वासानं मानलं जातं. घराघरांतून पूजाविधीच्या वेळी शंखपूजन आणि शंख फुंकण्याचं कारणही हेच असावं.

गारुड्याची पुंगी म्हणजेही सुषीर वाद्यच! छोट्या आकाराच्या भोपळ्याच्या खालच्या भागात एकसारख्या लांबीच्या बांबूच्या दोन नळ्या प्रत्येकी एकेरी जिव्हाळीसहीत (रीड) मेणाने घट्ट बसवलेल्या असतात. त्यातल्या एका नळीला छिद्रं असतात व दुसरी नळी एकच आधारस्वर निर्माण करत राहाते. वरती भोपळ्याच्याच निमुळत्या भागातून फुंकर मारली कि नादनिर्मिती होते.

ह्या प्रकारच्या वाद्यांपैकी शास्त्रीय संगीतनिर्मिती करू शकण्याइतपत विकसित, प्रगत अवस्थेला पोहोचलेली वाद्यं म्हणजे बासरी, शहनाई, सुंद्री आणि दक्षिण प्रांतातील नादस्वरम्‌ ! ह्या प्रकरातील वाद्यं वाजवण्याच्या दोन पद्धती आहेत. काही वाद्यांचं निमुळतं टोक ओठांत धरून मग त्यात फुंकर मारली जाते, उदा. शहनाई, सुंद्री, पुंगी, पावा इ. आणि काही वाद्यांमधे बाहेरून फुंकर घालून नादनिर्मिती केली जाते. उदा. बासरी, शंख इ.!

क्रमश:….

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – शॉर्टकट,,, ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ ☆ लघुकथा – शॉर्टकट,,, ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(यह लघुकथा कुछ वर्ष तक पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की पाठ्य पुस्तक में शामिल रही)

– भाई साहब , ज़रा रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए कोई शाॅर्टकट,,,

– शॉर्टकट तो है पर ,,,

-पर क्या ? जल्दी बताइए न ।

-आप उस रास्ते से नाक पर रूमाल रख कर और दीवारों का सहारा लेकर पांव रखकर ही जा सकोगे । आपको लगेगा कि अब गिरे ,,,अब कीचड़ में फंसे ,,,कब जाने ,,,क्या हो जाए ,,,

– शॉर्टकट की ऐसी हालत क्यों ?

– क्योंकि आपकी तरह हर कोई शॉर्टकट ही इस्तेमाल करता है । बड़े रास्ते से होकर , चक्कर काट कर कोई जाना नहीं चाहता । पर ठहरिए ,,,

-हां , कहिए ।

– बुरा तो नहीं मानेंगे ?

– अरे भाई जल्दी कहो न । मुझे गाड़ी पकड़नी है । छूट जाएगी ।

-यही बात ज़िंदगी पर लागू नहीं होती ?

– सो कैसे ?

– अब देखो न । सफलता की गाड़ी हर कोई पकड़ना चाहता है और इसके लिए हर आदमी शॉर्टकट अपना रहा है । चाहे शॉर्टकट कितना ही ,,,

– बस । बस । अपने उपदेश अपने पास रखो । जनाब मुझे भी सफलता चाहिए ।

-तो चलते चलते इतना तो सुनते जाइए कि मेहनत का कोई शॉर्टकट इस दुनिया में नहीं है ।

 

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares