English Literature – Poetry ☆ – Enigmatic Him… – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ Enigmatic Him… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ ~ Enigmatic Him…  ~?

A euphoric fragrance thou art

that  spreads  with  the  wind…

But worry is of the flower only

Where would destiny take it to..?

I  thought,  it’s  just  a wound,

it  will  naturally  heal  itself,

But  then,  who knew  that it’d

spread  deep  inside  the veins?

Whenever  he  visits  my  abode, 

For his bizarre company’s sake,

Even the entranced spring greets 

by stopping by in my courtyard…

He’s a wanderer  only  that  keeps

moving around like a gust of wind

That  would come  and  touch you,

and  blow  you away,  eventually…

But she too shall be sitting alone

on  the  sand  lagoon  somewhere

His love is also like a river, that

shall recede, leaving you desolate..

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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Poetry,
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 116 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 116 – मनोज के दोहे… ☆

1 रतजगा

सैनिक करता रतजगा, सीमा पर है आज।

दो तरफा दुश्मन खड़े, खतरे में है ताज।।

2 प्रहरी

उत्तर में प्रहरी बना, खड़ा हिमालय राज।

दक्षिण में चहुँ ओर से, सागर पर है नाज।।

3 मलीन

मुख-मलीन मत कर प्रिये,चल नव देख प्रभात।

जीवन में दुख-सुख सभी, घिर आते अनुपात।।

4 उमंग

पुणे शहर की यह धरा, मन में भरे उमंग।

किला सिंहगढ़ का यहाँ, विजयी-शिवा तरंग।।

5 चुपचाप

महानगर में आ गए, हम फिर से चुपचाप।

देख रहे बहुमंजिला, गगन चुंबकी नाप ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 259 ☆ व्यंग्य – घर की सरकार का बजट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – घर की सरकार का बजट)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 259 ☆

? व्यंग्य – घर की सरकार का बजट ?

बतंगड़ जी मेरे पड़ोसी हैं। उनके घर में वे हैं, उनकी एकमेव सुंदर सुशील पत्नी है, बच्चे हैं। मैं उनके घर के रहन सहन परिवार जनो के परस्पर प्यार, व्यवहार का प्रशंसक हूं। जितनी चादर उतने पैर पसारने की नीति के कारण इस मंहगाई के जमाने में भी बतंगड़ जी के घर में बचत का ही बजट रहता है। परिवार में सदा सादा जीवन उच्च विचार वाली आदर्श आचार संहिता का सा वातावरण होता है। देश, प्रदेश में हर साल प्रस्तुत होते बजट, बजट के पूर्व एवं पश्चात टी वी डिबेट डिस्कशन का असर बतंगड़ जी के घर पर भी हुआ। बतंगड़ जी की पत्नी, और बच्चो के अवचेतन मस्तिष्क में लोकतांत्रिक भावनाये संपूर्ण परिपक्वता के साथ घर कर गई। उन्हे लगने लगा कि घर में जो बतंगड़ जी का राष्ट्रपति शासन चल रहा है जो नितांत अलोकतांत्रिक है। बच्चो को लगा उनके खर्चों में कटौती होती है। पत्नी को अपनी किटी पार्टी में बजट बढ़ोतरी की आवश्यकता याद आई।

बतंगड़ जी को अमेरिका से कंम्पेयर किया जाने लगा, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक सिद्धांतो की सबसे ज्यादा बात तो करता है पर करता वही है जो उसे करना होता है। बच्चो के सिनेमा जाने की मांग को उनकी ही पढ़ाई के भले के लिये रोकने की विटो पावर को चैलेंज किया जाने लगा, पत्नी की मायके जाने की मंहगी डिमांड बलवती हो गई। मुझे लगने लगा कि एंटी इनकंम्बेंसी फैक्टर बतंगड़ जी को कही का नही छोड़ेगा। अस्तु, एक दिन चाय पर घर की सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को लेकर खुली बहस हई। महिला आरक्षण का मुद्दा गरमाया। संयोग वश मै भी तब बतंगड़ जी के घर पर ही था, मैने अपना तर्क रखते हुये भारतीय संस्कृति की दुहाई दी और बच्चो को बताया कि हमारे संस्कारो में विवाह के बाद पत्नी स्वतः ही घर की स्वामिनी होती है, बतंगड़ जी जो कुछ करते, कहते है उसमे उनकी मम्मी की भी सहमति होती है। पर मेरी बातें संसद में विपक्ष के व्यक्तव्य की तरह अनसुनी कर दी गई।

तय हुआ कि घर के सुचारु संचालन के लिये बजट बनाया जाए जिसे सभी सदस्यों की सहमति से पारित किया जाए। बजट प्रस्तुती हेतु बतंगड़ जी मुझसे सलाह कर रहे थे, तो आय से ज्यादा व्यय अनुमान देख मैने उन्हें बताया कि जब खर्च के लिये देश चिंता नही करता तो फिर आप क्यों कर रहे हैं ? देश विश्व बैंक से लोन लेता है, डेफिशिट का बजट बनाता है, आप भी लोन लेने के लिये बैंक से फार्म ले आयें। बतंगड़ जी के घर के बजट में बच्चो के मामा और बुआ जी के परिवार अपना प्रभाव स्थापित करने के पूरे प्रयास करते दिख रहे है, जैसे हमारे देश के बजट में विदेशी सरकारे प्रगट या अप्रगट हस्तक्षेप करती है। स्वतंत्र व निष्पक्ष आब्जरवर की हैसियत से बतंगड़ जी के दूसरे पड़ोसियो को भी बजट के डिस्कशन के दौरान उपस्थिति का बुलावा भेजा गया है।

 बजट पर बहस के नाम पर ही बतंगड़ जी के घर में रंगीनियो का सुमधुर वातावरण है, और हम सब उसका लुत्फ ले रहे हैं।

यूं भी बजट आश्वासनों का पुलिंदा ही तो होता है। घर की सरकार चलानी है तो बजट बनेगा। तय है कि विपक्ष अच्छे से अच्छे बजट को भी पटल पर रखे जाते ही बिना पढ़े ही उसे आम आदमी के लिये बोझ बढ़ाने वाला निरूपित करेगा। वोटर भी जानता है कि चुनावो वाले साल में बजट ऐसा होगा जिससे भले ही देश को लाभ न हो पर बजट बनाने वाली पार्टी को वोट जरूर मिलें।

शब्दो, परिभाषाओ में उलझा वोटर प्रतिक्रिया में कुछ न कुछ अच्छा बुरा कहेगा, ध्वनिमत से बजट पास भी हो जायेगा। पता नही कितना आबंटन उसी मद में खर्च होगा जिस के लिये निर्धारित किया जायेगा। पता नही कब कैसी विपदा आयेगी और सारा बजट धरा रह जायेगा, खर्च की कुछ नई ही प्राथमिकतायें बन जायेंगी, पर हर हाल में बजट की चर्चा और उम्मीद के सपने संजोये बजट हमेशा प्रतिक्षित रहेगा। बजट में योजना का प्रावधान ही जनता को आनंदित करने में सक्षम है। बजट प्रस्तुत होने के बाद भी जब जीवन में कोई क्रांतिकारी बदलाव नही ला पायेगा तो हम सब पागल अगले साल के बजट से उम्मींदें करने की गलतफहमियां पाल लेंगे। फिलहाल बतंगड़ जी के घर की सरकार के बजट की आहट से उन के दिल में शेयर बाजार के केंचुए की चाल की तरह धड़कने ऊपर नीचे होती दिख रही हैं, और उनकी पत्नी, बच्चो सहित कुछ आबंटन की आशा में प्रसन्न दिखती हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 70 – देश-परदेश – हवाई यात्रा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 70 ☆ देश-परदेश – हवाई यात्रा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

यूरोप के देश फिनलैंड में अब हवाई यात्रा से पूर्व, यात्री का भी वजन लिया जाएगा, ताकि हवाई जहाज की कुल भार वाहक क्षमता से कुल वजन अधिक ना हो जाए।

वर्तमान में तो सिर्फ यात्री के सामान का ही वजन किया जाता हैं। उसमें भी इतनी परेशानी होती है। यात्रा से पूर्व सूटकेस के वजन को अनेकों बार चेक किया जाता है, कि कहीं तय वजन से अधिक तो नहीं हो गया हैं।

हमारे देश के लोग तो कपड़ों की कई लेयर पहनकर यात्रा करते है, ताकि सामान का वजन निर्धारित सीमा में रहें। यदि ठंडे स्थान पर जा रहे हैं, तो ओवरकोट/ शाल इत्यादि हाथ में पकड़े रहते हैं।

विदेश अध्ययन करने के लिए चयनित बच्चे तो कोर्स की सबसे मोटी पुस्तक भी हाथ में रखते है, ये कहते हुए यात्रा के समय अध्यन करना हैं।

हमे तो लग रहा है, आने वाले समय में व्यक्ति और सामान के वजन अनुसार किराया शुल्क तय होगा। इस प्रावधान से यात्री, यात्रा से कुछ समय पूर्व भोजन और जल भी नही ग्रहण करेंगे, ताकि किराया कम लगें।

हमारे जैसे यात्री जिनको एयरपोर्ट लाउंज में प्रायः निशुल्क भर पेट खाने की सुविधा प्राप्त है। जम कर मुफ्त की रोटियां तोड़ेंगे। ये भी हो सकता है, वजन हवाई जहाज में ही लिया जाय, ताकि  हेरा फेरी की संभावना नगण्य रहे।

जिम वाले भी हवाई यात्रा के लिए बहुत कम समय में वजन को कम करने के विशेष पैकेज परोसने लगेंगे। कार्यालय में कम वजन वालों को ही कार्यालय से संबंधित यात्रा में भेजा जाने लगेगा।

अब समय आ गया है, हम सब अपना वजन कम करें। खाने पीने पर नियंत्रण तो रखें साथ ही साथ मोबाईल के इस्तेमाल पर भी अंकुश रखें, क्योंकि मोबाईल के अधिक उपयोग से भी वजन बढ़ना तय होता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 181 – लघुकथा – अखंड सुहागन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा अखंड सुहागन”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 181 ☆

☆ लघुकथा 🚩अखंड सुहागन🚩 

सुहागन कहने से नारी का दमकता हुआ मुखड़ा माँथे पर तेज चमकती लाल बिंदी, माँग भरी सिंदूर की रेखा।

भवानी जगदंबा का मंदिर गुप्त नवरात्रि पर्व को जानने, समझने पूजन अर्चन करने सभी भक्त कतारों पर लगे भगवती की आराधना में लीन थे।

सखियों के साथ रश्मि जी, क्या कहें जैसा नाम वैसा रूप गुण और एक आकर्षक व्यक्तित्व की धनी। चेहरे पर तेज नैनों में ममता से भरी दो पुतलियां चारों तरफ निगाह… 🙏 सर्वे भवंतु सुखिनः की मनोकामना लिए सुहागले पूजन करने माँ भवानी के दरबार में पूरे विधि- विधान से पहुंच गई सखियों के साथ।

मंदिर प्रांगण में कई और भी मातृ- शक्तियों की टोलियाँ अपने-अपने समूह में सुहागले पूजा कर रही थी।

नारी की चंचलता और धरा की सुंदरता की कोई सीमा नहीं होती। पूजन का कार्यक्रम सभी सखियों के साथ विधि- विधान से हो रहा था।

आरती कर भोजन प्रसाद ग्रहण करने के समय!एक आकर्षक नयन  नक्श वाली महिला, रंग गहरा काला, एक झोली पर कुछ लाल चुनरियाँ और गोद में एक अबोध मासूम बच्ची लिए धीरे-धीरे पास आते दिखी।

चुनरियाँ ले लो, चुनरियाँ ले लो,माई सुहागन चुनरियाँ ले लो।मै भी एक सुहागन हूँ।

छोटे बड़े भिन्न-भिन्न साइज की लाल – लाल चुनरी सब सखियों का मन मोह रही थी।

अचानक रश्मि ने अपनी भोजन की थाली से मुँह में जाती कौर को रोक कर देखने लगी।

यह कैसी सुहागन न मांग में सिंदूर न माँथे पर बिन्दीं। गोद में बच्ची और दुआएँ सदा सुहागन दे रही। अपने को सुहागन बता रही है।

वह उसे बिना पलक झपकाए देखती रही। डिब्बों से पूरा भोजन प्रसाद देते… उसके मन में विचार उठ रहा था कि?? क्या इनके साथ सुहागले पूजा नहीं होती होगी।

चुनरी वाली महिला अपने आप में बोले जा रही थी…. मैं कब सुहागन बनी पता नहीं चला, परंतु गोद में बच्ची आने पर माँ जरूर बन गई।

आंँखें चार होते देर ना लगी। जयकारा लगाते सभी बस में बैठ गंतव्य घर की ओर चल पड़े। रश्मि ने माता भगवती से दोनों कर जोड़ चुपके से प्रार्थना करती दिखीं… गालों पर अश्रुं मोती लुढ़क आये।

हे जगदंबिके सब की झोली भरना🙏 सभी को खुश सुहागन रखना।

उनकी प्रार्थना और बस से दूर जाती आवाज… चुनरी ले लो माता की की चुनरी ले लो!!!!! आप भी इस बात पर विचार करें।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #224 ☆ परिपाठ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 224 ?

☆ परिपाठ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

जीव भांड्यात पडला

भांडे गॕसवर होते

आग देहाची या माझ्या

विस्तवाशी पक्के नाते

*

सखा हिरमुसलेला

शिट्टी वाजवी कूकर

परातीत पीठ पाणी

तव्यावरती भाकर

*

माझ्या हाताला चटके

त्याची भूक चाळवते

त्याला झुणका आवडे

बेसन मी कालवते

*

पहाटेला उठायाचे

रोजचाच परिपाठ

हाडे मोडती दिवसा

रात्री बिछान्याला पाठ

*

सुख दुःखाचा हा खेळ

त्याला संसार हे नाव

रुक्ष शब्दांनी केलेले

सारे लपवले घाव

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मो क्ष ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

☆ 😞 मो क्ष ! 😞 ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

कसर लागे ग्रंथास आठवणींच्या

सारे विसरण्याची,

वेळ आली साऱ्या ग्रंथांना

जलसमाधी देण्याची !

*

धीर करुनी बुडवता झालो

त्यांना अथांग भवसागरी,

जाऊन पहाता दुसऱ्या दिवशी

सारे तरंगती पाण्यावरी !

*

जरी नव्हती ती अमोल गाथा

तुकयाच्या अभंगापरी,

चाले जीवापाड धडपड त्यांची

लागण्या लगेच पैलतीरी !

*

कळे दोघांना, सुटका नाही

दोघे जीवंत असेपर्यंत,

चितेवरच मिळेल मोक्ष

उमजे दोघांना तो पर्यंत!

उमजे दोघांना तो पर्यंत!

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ दार आणि खिडकी…  ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? विविधा ?

☆ दार आणि खिडकी… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

व्यवहाराच्या पायावर उभारलेल्या संसाराच्या इमारतीची आखणी कितीही योग्य तऱ्हेने केली तरी काही त्रुटी राहतातच असं दिसतं ! घराच्या भिंती सभोवतालच्या समाजाने बंदिस्त केलेल्या असतात, तर परमेश्वरी कृपेचे छप्पर सर्वांनाच नेहमी सावली आणि आधार देतं! दार- खिडकी हे घराचे आवश्यक, अपरिहार्य भाग! जसे घरातील नवरा बायको !कधी कधी वाटतं चुकांचे कंगोरे आपले आपणच बुजवून घ्यायचे असतात! खिडकी आणि दार यांचे प्रपोर्शन योग्य असेल तर ते चांगले दिसते.. खिडकीने जर दाराएवढं बनायचं ठरवलं तर घराचे रूप बिघडते! अर्थात हे माझं मत आहे!

दार ही राजवाट आहे  जिथून प्रवेश होतो, त्याचे मोठेपण मानले तर आपोआपच बाकीचे भाग योग्य रीतीने घर सांभाळतात. खिडकी वाऱ्यासारखी प्रेमाची झुळूक देणारी असली की घरातील हवा नेहमी हसती, खेळती, फुलवणारी राहते.ही खिडकी बंद ठेवली तर चालत नाही, कारण तिची घुसमट वाढते! प्रकाशाचा किरण तिला मिळत नाही. एकेकाळी स्त्रीच्या मनाच्या खिडक्या अशा बंद केलेल्या होत्या! शैक्षणिक प्रगतीच्या सूर्याचे किरण झिरपू लागल्यावर तीच खिडकी आपलं अस्तित्व दाखवू लागली.

बाहेरचे कवडसे तिला- तिच्या मनाला -उजळवून टाकू लागले, पण म्हणून खिडकीचे अस्तित्वच मोठं मोठं करत दाराएवढं बनलं किंवा त्याहून मोठं झालं तर…. इमारतीच्या आतील सौंदर्य कदाचित विस्कटून जाईल! येणाऱ्या वाऱ्या वादळाचा धक्का खिडकी पेलू शकणार नाही.. तिला दाराचा आधार असेल तर जास्त चांगलं असेल!

सहज मनात आलं, ब्रिटिश कालीन इमारतींना दारं आणि खिडक्या दोन्ही मोठीच असत.!जणू काही तेथील स्त्री आणि पुरुष यांचा अस्तित्व फार काळापासून समानतेच्या दिशेने वाटचाल करू लागले, त्या उलट आपल्याकडे वाडा संस्कृतीत दार खूप मोठे असले तरी त्याला एक छोटं खिडकीवजा दार असे, ज्याला दिंडी दरवाजा म्हणत.. त्यातून नेहमी प्रवेश केला जाई! उदा. शनिवार वाड्याचे प्रवेशद्वार जरी मोठे असले तरी आत प्रवेश करण्यासाठी छोटा दिंडी दरवाजा आहेच..

जुन्या काळी स्वयंपाक घरापर्यंत पोहोचण्याचा मार्ग बाहेरच्याना दुस्तर होता. तसेच भक्कम पुरुषप्रधान दार ओलांडून किंवा डावलून, चौकट तोडून बाहेर पडणे स्त्रीलाही कठीण होते.

साधारणपणे ४०/५० वर्षांपूर्वी स्त्रीवर कठीण प्रसंग आला तर तिची अवघड परिस्थिती होत असे. शिक्षण नाही आणि आर्थिक स्वातंत्र्य कमी असल्यामुळे संसाराचा गाडा ओढण्याची एकटीवर वेळ आली तर हातात पोळपाट लाटणे घेण्याशिवाय पर्याय नसे.

मागील शतकाच्या सुरुवातीला स्त्रियांची परिस्थिती काहीशी अशीच होती. त्यामुळे स्त्री शिक्षण हे महत्त्वाचं ठरलं! शिक्षणामुळे आत्मविश्वास मिळाला , नोकरीमधील संधी वाढल्या..

पण हळूहळू कौटुंबिक वातावरण ही बदलत गेलं. घरातील पुरुष माणसांबरोबरच स्त्रीचं अस्तित्वही समान दर्जाचे होऊ लागले. अर्थातच हे चांगले होते, परंतु काही वेळा स्त्री स्वातंत्र्याचाही अतिरेक होऊ लागतो आणि घराची सगळी चौकट बिघडून जाते.

अशा वेळी वाटते की एक प्रकारचे उंबरठ्याचे बंधन होते ते बरे होते का? अलीकडे संसार मोडणे, घटस्फोट घेणे या गोष्टी इतक्या अधिक दिसतात की दाराचे बंधन तोडून खिडकीने आपलेच अस्तित्व मोठे केले आहे की काय असे वाटावे!

दार आणि खिडकी एकमेकांना पूरक असावे. दाराला इतकं उघड ,मोकळं टाकू नये की, त्याने कसेही वागावे आणि खिडकी इतपतच उघडी असावी की हवा, प्रकाश तर खेळता रहावा आणि चौकट सांभाळावी!

संसाराच्या इमारतीचा हा जो बॅलन्स आहे, त्यात दोघांचेही असणारे रोल दाराने आणि खिडकीने सांभाळावे नाहीतर या चौकटी खिळखिळ्या होऊन संसाररूपी इमारतीची वाताहात होण्यास वेळ लागणार नाही……

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “दाखला !” ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? जीवनरंग ?

☆ “दाखला !श्री संभाजी बबन गायके 

मध्यरात्रीनंतरचा वाढतच जाणारा काळोख त्यात थंडीच्या दिवसांत पडलेलं धुकं. सतरा एकर माळावरच्या एका कोप-यात असलेली सात-आठ खोल्यांची कौलारू शाळा आणि शाळेपासून पायी सात-आठ मिनिटांच्या अंतरावर असलेल्या शिक्षकांसाठीच्या क्वॉर्टर्स या धुक्यात हरवून गेल्या होत्या. गुरूजी आणि त्यांच्या शिक्षिका पत्नी नुकत्याच या क्वार्टर्समध्ये रहायला आले होते. पाच-सातच खोल्या होत्या इथे पण फक्त एक शिपाईच तिथे मुक्कामाला असे. इतर शिक्षकांनी गावातल्या वस्तीत भाड्याने जागा घेऊन राहणं पसंत केलं होतं. कारण माळारानाजवळ सोबतीला वस्ती नव्हती. विंचु-काट्याची,चोरा-चिलटांची भीती होतीच. हे पती-पत्नी दोघंही एकाच संस्थेत असल्यानं दोघांच्या बदल्याही एकाच वेळी आणि एकाच शाळेत होत असत, ते बरं होतं. नुकतंच लग्न झालेलं, नवीन संसार उभा करायचा होता. गावात भाडं भरून राहण्यापेक्षा क्वॉर्टर मध्ये राहणं परवडण्यासारखं होतं. आणि गुरूजींकडे मुख्याध्यापक म्हणून चार्ज असल्याने त्यांनी शाळेजवळच राहणं सोयीचं होतं. शिवाय शिपायाचं कुटुंब सोबतीला होतंच. शिक्षकाच्या घरात चोरांना मिळून मिळून मिळणार तरी काय म्हणा? घाबरायचं काही कारण नाही अशी एकमेकांची समजूत घालून गुरूजी आणि बाई नव्या जागेत रमण्याचा प्रयत्न करीत होते. एके रात्री दरवाजाच्या फटीतून एक नाग घरात शिरला होता. पण गुरूजींनी त्याला वेळीच पाहिल्यामुळे अनर्थ टळला होता. ती आठवण दोघांनाही अस्वस्थ करीत होतीच. 

दोन वाजत आलेले असावेत. दरवाजावर थाप पडली. नव्या जागेत आधीच लवकर झोप लागता लागत नाही. गुरूजींची झोप तशीही जागसूदच असे. ते चटकन अंथरूणवर उठून बसले. बाईही जाग्या झाल्या आणि दाराकडे पाहू लागल्या. एवढ्या रात्री कोण आलं असावं? एरव्ही फक्त रातकिड्यांचा आवाज ऐकण्याची सवय असलेल्या त्या माळालाही दरवाजावरची ही थाप ऐकू गेली असावी. गुरूजींनी खोलीतला चाळीस वॅटचा बल्ब लावला. दाराबाहेरचा बल्ब गेलेला होता. बाई म्हणाल्या… एकदम दरवाजा उघडू नका…खिडकीच्या फटीतून पहा आधी! आणि त्या गुरूजींच्या मागे येऊन उभ्या राहिल्या. डोक्याला मुंडासं, गुडघ्यापर्यंत धोतर, अंगावर काळी घोंगडी पांघरलेले कुणीतरी दरवाजात उभे होते. सोबत अर्ध्या बाहीचा सदरा आणि आणि पांढरा पायजमा घातलेला पोरसवदा तरूण उभा होता. थंडीमुळे कानावर रुमाल बांधलेला होता त्याने. दोन्ही हात काखेत घालून उभा होता पोरगा. म्हाता-याच्या हातात काठी आणि कंदील होता. दारावरचा आवाज शिपाईही जागा झाला होता, पण त्यानेही लगेच दार उघडायची हिंमत केली नाही. साहजिकच होतं ते. 

गुरूजी खिडकीशी आल्याचं पाहून म्हाता-यानं कंदिल त्याच्या चेह-यावर उजेड पडेल असा धरला आणि म्हणाला, “गुरूजी, माफी असावी. पण कामच तातडीचं आहे. म्हणून तुम्हांला त्रास देतो आहे.” त्याच्यासोबत असलेल्या त्या तरूणाने गुरूजींना पाहून हात जोडून नमस्कार केला. गुरूजींनी दरवाजा उघडला आणि ते बाहेर गेले. 

म्हातारा त्या पोराचा आज्जा होता. पोरगा याच शाळेत मामाच्या घरी राहून सातवी पर्यंत शिकला होता. त्याचा बाप मरून गेला म्हणून त्याची आई माहेरी येऊन राहिली होती. आता आईही वारल्यानं पोरगं पुन्हा आज्ज्याकडं राहायला गेलं होतं. या गावापासून त्याच्या वडिलांचं गाव वीस बावीस कोसावर असावं. पोरगं काही पुढं शिकलं नाही. पण शेतात कामं करून, तालमीत कसून त्याची तब्येत मात्र काटक झाली होती. तालुक्याच्या गावात फौजेची भरती निघाल्याचं त्याला आज सांजच्यालाच समजलं होतं. त्यानं आज्ज्याकडं फौजेतच जाणार म्हणून हट्ट धरला होता. शाळा सोडल्याचा दाखला लागणार होता भरतीत दाखवायला. आणि शाळा सोडली तेंव्हा त्यानं दाखला नेला नव्हता. आणि उद्या शाळा उघडेपर्यंत थांबण्याएवढा वेळ त्यांच्याकडे नव्हता. सकाळी सात वाजता भरती मैदानावर कागडपत्रांसह हजर राहायचं होतं. म्हाता-यानं गुरूजींना हात जोडले, “मास्तर, एवढा एक उपकार करा. पोरगं फौजेत गेलं तर चार घास सुखानं खाईल तरी…रांकेला लागंल.” 

बाई दारात उभे राहून सारं ऐकत होत्या. गुरूजींनी बाईंकडे पाहिलं. खोलीत आले,शर्ट,पॅन्ट चढवली. खिशाला पेन आहे याची खात्री केली,छोटी विजेरी घेतली आणि बाहेर पडले. तोवर शिपाई बाहेर आला होता. गुरूजींनी त्याच्याकडून शाळेची किल्ली मागून घेतली. तू बाईंना सोबत म्हणून इथंच थांब असं त्याला म्हणून गुरूजी त्या दोघांसोबत शाळेकडे निघाले सुद्धा.

त्या अंधारात, त्या माळावर आता ही सहा पावलं पायाखालचं वाळलेलं गवत तुडवत तुडवत निघाली होती. तुम्हाला उगा तकलीप द्यायला नको वाटतंय मास्तर, पण नाईलाज झालाय असं काहीबाही म्हातारा बोलत होता. पोरगा मात्र थोडंसं अंतर ठेवून अपराधी भावनेनं चालत होता, त्यालाही इतक्या रात्री गुरूजींना त्रास द्यावसा वाटत नव्हता. पण शेती धड नाही,रोजगार नाही. वय वाढत चालेलं. काहीतरी केलं पाहिजे पोटापाण्यासाठी , यासाठी फौजेसारखी दुसरी संधी मिळणार नाही, असा त्याचा विचार होता. त्याच्या गावातले जवान सुट्टीवर आलेले तो पहायचा. रूबाबादार युनिफॉर्म,काळी ट्रंक,त्यात घरच्यांसाठी आणलेलं काहीबाही. त्यात नोकरी संपवून गावी आलेले लोकही त्याला माहित होते. फौजेतच जायचं असं त्याने मनोमन ठरवलं होतं. 

गुरूजींनी शाळेचे कार्यालय उघडलं. कपाटातून रजिस्टर बाहेर काढलं. पोराचं प्रवेशाचं आणि शाळा सोडल्याचं वर्ष विचारून घेतलं. पोरानं अंदाजे वर्ष सांगितलं. गुरूजींना अचूक नोंद शोधून काढली. आपल्या वळणदार अक्षरात शाळा सोडल्याचा दाखला लिहून काढला. दाखल्याच्या कागदाखाली कार्बन पेपर ठेवायला ते विसरले नाहीत. त्यांच्या सहीचा त्या शाळेतून दिला जात असलेला तो पहिला दाखला होता. गुरुजींनाही त्यांच्या तरूणपणी फौजेत जायचं होतं पण तो योग नव्हता.

म्हाता-याचे डोळे भरून आले होते. त्याने गुरूजींचे दोन्ही हात आपल्या हातात घेतले आणि त्या हातांवर त्याचं मस्तक ठेवलं…उपकार झालं बघा! पोरगं खाली वाकून पाया पडलं आणि ते तिघेही शाळेच्या बाहेर पडले. म्हाता-याला आणि त्या पोराला शाळेपासून पुढच्या बाजूला असलेल्या रस्त्याने त्यांच्या मार्गाला जाता आलं असतं. पण ते दोघं गुरूजींना सोडवायला पुन्हा क्वॉटरपर्यंत आले. 

भरती झाल्यावर सुट्टीवर आलास की शाळेत येऊन जा. बाकीच्या पोरांनाही स्फुर्ती मिळेल देशसेवेची. बाईंनी त्या पोराला सांगितलं आणि त्याच्या हातावर साखर ठेवली. वीस रुपयाची नोट त्याच्या खिशात ठेवली. आईकडून आलेल्या लाडवांमधून चार लाडू त्याला शिदोरी म्हणून रुमालात बांधून दिले. पोरगं बाईंच्याही पाया पडलं आणि निघालं. पहाटेचे तीन वाजत आले होते. त्याला तालुक्यापर्यंत पायी जायला तीन-साडेतीन तास लागणार होते. सह्याद्रीचा पोरगा हिमालयाच्या रक्षणाला निघाला होता… त्याच्या पाठमो-या आकृतीकडे गुरूजी आणि बाई पहात राहिले ते दृष्टीआड होईपर्यंत. बाहेर झुंजुमुंजु होऊ लागलं होतं….गुरूजी आणि बाई यांच्या मनात समाधानाची पहाट उगवू लागली होती! 

(बोल श्री छत्रपती शिवाजी महाराज की जय ही युद्धगर्जना, मानचिन्हात अशोकस्तंभातील तीन सिंह,तुतारी असलेल्या, कर्तव्य,मान,साहस असे ब्रीदवाक्य असलेल्या लढवय्या ‘दी मराठा लाईट इन्फंट्री’चा आज ४ फेब्रुवारी हा स्थापना दिन. यानिमित्ताने एका गुरुजींची ही सत्यकथा सादर केली आहे. देशासाठी लढणा-या सैनिकांना आणि विद्यार्थ्यांसाठी अहोरात्र तत्पर असणा-या शिक्षकांना विनम्र अभिवादन.) 

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ व्यक्ती तितक्या प्रकृतीही — ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? मनमंजुषेतून ?

व्यक्ती तितक्या प्रकृतीही — ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

काही वेळा आपल्या बघण्यात येते, लोक तरी किती विविध प्रवृत्तीचे असतात ना. कोणी फक्त भविष्यात जगतात तर कोणी भूतकाळात.

वर्तमानात जगायचे, पण भविष्याची स्वप्ने बघायची,हा तर मानवी स्वभाव आहे. त्यात गैर काहीच नाही पण काही लोक असे बघण्यात येतात जे फक्त आणि फक्त भूतकाळातच रमलेले असतात.

मी डॉक्टर असल्याने आपोआपच माझा समाजाशी जास्त संबंध आला,येत असतोही. निरनिराळ्या वेळी माणसे कशी  वागतात, हेही मला चांगलेच अनुभवाला आलेले आहे.

काहीवेळा आडाखे चुकतात पण आपण बांधलेले अंदाज तंतोतंत खरे आले की मजा वाटते. माझ्या बघण्यात आलेले काही लोक खूप मजेशीर आहेत. 

माझी एक मैत्रीण आहे… ती कधीही भेटली तरी मी – माझे – मला, या पलीकडे जातच नाही. कधीही भेटली की “ अग ना, काय सांगू, आमचे हे ! इतके बिझी असतात.. इथपासून,आमची पिंकी कशी हुशार, हे आख्यान सुरू. लोकांना बोलायला मध्ये जागाच नाही. मग मी नुसती श्रोत्यांची भूमिका घेऊन “ हो का ? वावा, “ इतकेच म्हणू शकते.

दवाखान्यात  अप्पा बोडस यायचे. अतिशय सज्जन साधे मध्यमवर्गीय गृहस्थ. पण सतत भूतकाळातच रमलेले… “ काय सांगू  बाई तुम्हाला.. .काय ते वैभव होते आमचे. मोठा वाडा, पूर्वापार चालत आलेला,रोज १५-२० माणसे असत पंक्तीला. गेले ते दिवस.” .. मग मला विचारायचा मोह अनावर व्हायचा की “ अहो, मग ते राखले का नाही कोणी? तुम्ही का चाळीत रहाताय?” पण मी हे नुसते ऐकून घेते. त्यांचा विरस मी का करू? 

मग आठवतात इंदूबाई. सध्या करतात दहा घरी पोळ्या आणि स्वयंपाकाची कामे. पण आल्या की सुरूच करतात. “ काय सांगू बाई तुम्हाला ? किती श्रीमंत होतो आम्ही. काय सुरेख माझं माहेर. पण ही वेळ आली बघा. तुमच्यासारखी शिकले असते, तर हाती पोळपाट नसता आला.” .. मला हसायला येते. मी त्यांना विचारले, “ अहो,मग तेव्हा का नाही शिकलात?” .. उत्तर असे..  “ तेव्हा कंटाळाच यायचा बघा मग दिली शाळा सोडून.” — आता अशा इंदूताईंचे भविष्य सांगायला ज्योतिषी नको. पण त्या रमतात आपल्याच आठवणीत. माझा दवाखाना हे एक चावडीचे ठिकाण होते लोकांना.

निम्न वस्तीत माझा दवाखाना, त्यामुळे उच्चभ्रू लोकांचे नियम यांना लागू नाहीतच. मी जराशी रिकामी बसलेली दिसले की सरळ येऊन,  आपल्या मनीची उकल करायला सुरुवात.

लता एक कॉलेज कन्यका… बुद्धी अतिशय सामान्य, रूप बेताचेच. माना वेळावत दवाखान्यात यायची.     “ बाई,येरहोष्टेश व्हायला काय करावे लागते हो? “ मी कपाळावर हात मारून घेतला.

“लता, तो शब्द एअरहोस्टेस असा आहे. आणि अगं लता तुझे स्वप्न खूप छान आहे, पण त्याला डिग्री लागते. इंग्लिश लागते उत्तम. तू आधी बी ए तर हो, मग मी सांगते पुढचे.” 

मग कधीतरी यायचे एक कवी… “ बाई वेळ आहे का?” नसून कोणाला सांगते. पेशंट नाहीत हे बघूनच ते आलेले असत. “ बघा किती सुंदर कविता केलीय आत्ताच. तुम्हीच पहिल्या हं ऐकणाऱ्या.” – ती निसर्ग कविता,पाने फुले मुले प्रेम,– असली ती बाल कविता ऐकून मला  भयंकर वैताग यायचा. कवी आणि कविता दोन्हीही बालच..

मग आठवतात काळे आजी. या मात्र इतक्या गोड ना. “ बाई,तुमच्यासाठी ही बघा मी स्वतः पर्स विणली आहे.आवडेल का ?वापराल का? “ किती सुंदर विणायच्या त्या. पुन्हा जराही मी मी नाही. ती माझी पर्स बघून माझ्या बहिणीने त्यांना बारा पर्सेस करायची ऑर्डर दिली आणि नकळत त्यांचा तो छोटासा व्यवसाय सुरू झाला. त्यांना चांगले पैसे मिळायला लागले अगदी सहज. असेही उद्योगी लोक मला भेटले.

असेच मला काळेकाका आठवतात. आले की हातात स्मार्ट फोन आणि फेसबुक उघडून, मला त्या पोस्ट दाखवण्याची हौस ! वर,वावा किती छान म्हणावे ही अपेक्षा. सतत यांच्या पोस्ट्स फेसबुकवर. त्याही जुन्या,अगदी जपून ठेवलेल्या. हे फेसबुक प्रकरण माझ्या आकलनापलीकडले आहे.

— काय  ते  अहो रुपम् अहो ध्वनिम्… आपल्या कविता,आपल्या पाककृती लोक वेड्यासारखे टाकत असतात. बघणारे रिकामटेकडे, तयार असतातच, लाईक्स द्यायला,अंगठे वर करायला. काय हा वेळेचा अपव्यय… 

तर हेही  माझे असेच एक पेशंट !!—  मी  2000 साली गेलो होतो ना चीनला, ते बघा फोटो. ही माझी बायको. बघा,कशी दिसतेय चिनी ड्रेस घालून..  हे आम्ही,आफ्रिकेला गेलो होतो तेव्हाचे फोटो. हा माझा लेख बघा बाई..  २०११  साली आला होता .” —-  सतत जुन्या गोष्टींचा यांना नॉस्टॅल्जिया.  हे जपून तरी किती ठेवतात असले फुटकळ लेख , कोणत्यातरी  सदरात आलेले.  मग त्यांनी केलेल्या परदेशीच्या ट्रिप्स. पुन्हा,मी मी आणि मी… लोकांना काय असणार हो त्यात गम्य. नाईलाज म्हणून देतात आपले  भिडेखातर   लाईक्स. पण लोकांनी कौतुक करावे याची केवढी हो हौस. त्यातूनही  खरोखरच चांगले ध्येय  असणारे, काहीतरी करून दाखवायची जिद्द असणारे लोकही भेटले.

अशीच भेटली अबोली. अतिशय हुशार, गुणी, पण दारिद्र्य पाचवीला पुजलेले. बारावीला उत्तम मार्क्स

आणि आईवडील म्हणाले ‘ बस झालं शिक्षण.आता लग्न करून टाकू तुझं.’ बिचारी आली रडत माझ्याकडे. “ बाई,मला नाही लग्न करायचं इतक्यात. मी काय करू ते सांगा. मला पायावर उभं रहायचं आहे माझ्या.”  मी तिला ट्रॅव्हल टुरिझमचा कोर्स करायला आवडेल का ते विचारलं. पहिली फी मी भरली तिची. तिने तो कोर्स मन लावून पूर्ण केला. छान मार्क्स मिळवून पास झाली आणि तिला एका चांगल्या ट्रॅव्हल कंपनीत नोकरीही मिळाली. तिच्या ऑफिसमध्ये मी मुद्दाम तिने बोलावले म्हणून भेटायला गेले होते. सुंदर युनिफॉर्म घातलेली अबोली किती छान दिसत होती ना. मला फार कौतुक वाटलं तिचं. असेही जिद्दी लोक भेटले मला माझ्या आयुष्यात.

असाच अभय अगदी गरीब कुटुंबातला. सहज आला होता भेटायला. तेव्हा माझा  मर्चंट नेव्ही मधला भाचा काही कामासाठी दवाखान्यात आला होता. मी अभयची त्याच्याशी ओळख करून दिली. अभय म्हणाला, “ दादा,मला माहिती सांगाल का मर्चंट नेव्हीची. अभय त्याच्या घरी गेला. माझ्या भाच्याने, अभयला सगळी माहिती नीट सांगितली.अभयकडे एवढी फी भरण्याइतके पैसे नव्हते. इतके  पैसे भरण्याची ऐपतच नव्हती त्यांची. पण मग त्याने माझ्या भाच्याच्या सल्ल्याने इंडियन नेव्हीची परीक्षा दिली. तो पास झाला,आणि आज इंडियन नेव्हीमध्ये छान ऑफिसर आहे तो… त्या मुलाने, मानेवर बसलेले दारिद्र्य मोठ्या जिद्दीने झटकून टाकले. आज त्याचा मोठा फ्लॅट,  छान बायको मुले बघून मला अभिमान वाटतो.

— असेही छान जिद्दी लोक मला भेटले आणि नकळत का होईना, हातून त्यांचे भलेही झाले.

तर लोकहो, असे जुन्या वेळेत सतत भूतकाळात गोठलेले राहू नका. इंग्लिशमध्ये छान शब्द आहे,

‘फ्रोझन  इन  टाईम.’  जुन्या स्मृती खूप रम्य असतात हे मान्य. पण त्या तुमच्या पुरत्याच ठेवा, नाही तर हसू होते  त्याचे. आपला आनंद आपल्या पुरताच असतो… असावा. लोकांना त्यात अजिबात रस नसतो.

म्हणून तर आपले रामदासस्वामी  सांगून गेलेत ना…

                                             आपली आपण करी जो स्तुती,

                                                         तो येक पढत मूर्ख.

आणि केशवसुत म्हणतात …… 

                                         जुने जाऊद्या, मरणा लागुनी

                                          जाळूनी किंवा पुरुनी टाका 

                                          सडत न एक्या ठायी ठाका 

                                           सावध ! ऐका पुढल्या हाका 

— आपणही हे नक्कीच शिकू या.

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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