हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #194 ☆ व्यंग्य – साहित्यिक ‘ब्यौहार’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहित्यिक ‘ब्यौहार’’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 194 ☆

☆ व्यंग्य ☆  साहित्यिक ‘ब्यौहार’

शीतल बाबू परेशान हैं। चार दिन से उनके पुराने मित्र बनवारी बाबू उनका फोन नहीं उठा रहे हैं। वे बार-बार लगाते हैं, लेकिन उधर से कोई तत्काल काट देता है। पहले रोज़ दोनों मित्रों की बातचीत होती थी। अब बात के लाले पड़ रहे हैं। बनवारी बाबू इतने पास भी नहीं रहते कि दौड़ कर पहुँच जाया जाए। चार-पाँच किलोमीटर दूर रहते हैं।

लाचार शीतल बाबू ने पत्नी के मोबाइल से फोन लगाया। उधर से बनवारी बाबू की आवाज़ सुनायी पड़ी, ‘हैलो, कौन?’

शीतल बाबू बोले, ‘मैं शीतल। कहाँ हो भैया? फोन लगा लगा कर परेशान हैं।’

उधर से रूखा जवाब आया, ‘यहीं हैं। कहाँ जाएँगे?’

शीतल बाबू बोले, ‘क्या बात है? फोन क्यों बार-बार कट रहा है?’

जवाब मिला, ‘आप हमसे ब्यौहार ही नहीं रखना चाहते हैं तो बात करके क्या करेंगे?’

शीतल बाबू घबराकर बोले, ‘कैसा ब्यौहार? कौन से ब्यौहार की बात कर रहे हो?’

बनवारी बाबू बोले, ‘ऐसा ब्यौहार कि पिछले एक साल में हमने फेसबुक पर 1730 पोस्ट मय फोटो के डाली, लेकिन आपने सिर्फ 1460 में ही लाइक या कमेंट दिया। आपने साल भर में 246 पोस्ट डाली, उसमें से हमने 223 में लाइक या कमेंट दिया। हम तो आपका नाम देखते ही लाइक का बटन दबा देते हैं, पढ़ें चाहे न पढ़ें। अब आप ऐसा ब्यौहार रखेंगे तो कैसे चलेगा? शादी-ब्याह के ब्यौहार की तरह फेसबुक में भी ब्यौहार रखना पड़ता है, तभी संबंध चल सकते हैं।’

शीतल बाबू रिरिया कर बोले, ‘गलती हो गई भैया। कई बार पोस्ट दिखायी नहीं पड़ती।’

जवाब मिला, ‘देखोगे तो सब दिखायी पड़ेगा। जिन खोजा तिन पाइयाँ। खोजोगे तो सब मिल जाएगा।’

शीतल बाबू पश्चाताप के स्वर में बोले, ‘आगे खयाल रखूँगा, भैया। अब चूक नहीं होगी।’

बनवारी बाबू का स्वर मुलायम हो गया। बोले, ‘भैया, लगता है आप लाइक और कमेंट का महत्व और असर नहीं समझते। फेसबुक में लिखने वालों के लिए लाइक और अनुकूल कमेंट के डोज़ संजीवनी से कम नहीं होते। आलोचना और उपेक्षा के मारे हुए लेखक को ये अवसाद और हार्ट अटैक से बचाते हैं। ये वैसे ही काम करते हैं जैसे हार्ट अटैक से बचने के लिए सॉर्बिट्रेट और एस्पिरिन काम करते हैं। सुना है कि मेडिकल काउंसिल लाइक और कमेंट को मैटीरिया-मेडिका यानी औषधियों की सूची में शामिल करने की सोच रही है। ये फेसबुक-लेखक के लिए वेंटिलेटर से ज़्यादा ऑक्सीजन देने वाले हैं।’

बनवारी बाबू आगे बोले, ‘भैया, लाइक और कमेंट की अहमियत समझो। जिस भाग्यशाली लेखक को भरपूर लाइक्स और आल्हादकारी कमेंट्स मिलते हैं वह हमेशा प्रसन्न और उत्साहित बना रहता है। उसका स्वास्थ्य उत्तम  रहता है और अनिद्रा का रोग उसे कभी नहीं सताता। ब्लड प्रेशर और नाड़ी की गति दुरुस्त रहते हैं और पाचन क्रिया बढ़िया काम करती है। उसे दुनिया हमेशा खूबसूरत नज़र आती है। जीवन और जगत में आस्था बनी रहती है। उसके परिवार में हमेशा सुख-शान्ति रहती है। प्राणिमात्र के लिए उसके मन में प्रेम का भाव उमड़ता है।

‘इसके विपरीत लाइक और  अनुकूल कमेंट से वंचित लेखक बार-बार डिप्रेशन, अनिद्रा और निराशा का शिकार होता है। जीवन और जगत से उसकी आस्था उठ जाती है। परिवार में कलह होती है। मित्रों-रिश्तेदारों से संबंधों में उसकी रुचि जाती रहती है। ऐसा लेखक राह चलते लोगों से रार लेता है। उसे सारे समय व्यर्थता-बोध घेरे रहता है।

‘इसलिए भैया, लाइक और कमेंट देने में चूक को मित्र के साथ घात समझो। आजकल संबंधों को ठंडा करने में यही चीज़ सबसे बड़ा कारण बनती है। संबंधों को पुख्ता रखना है तो मुक्तहस्त से लाइक और कमेंट देने में कभी चूक मत करना, वर्ना पचीसों साल के बनाये संबंध  एक मिनट में ध्वस्त हो जाएँगे।’

शीतल बाबू यह प्रवचन सुनकर भीगे स्वर में बोले, ‘समझ गया, भैया। आगे सब काम छोड़कर पहले आप को लाइक और कमेंट दूँगा। पीछे जो हुआ उसे मेरी नासमझी मान कर भूल जाएँ।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 141 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 141 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 141) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 141 ?

☆☆☆☆☆

Trend of the World

☆☆☆

जमाने का चलन है ये अब तो

फक्त लफ्जों का क्या कहना

हवा रुख के साथ लोगों के

किरदार भी बदल जाया करते हैं…!

☆☆

This is the trend of the times,

what to say of the words

Even the people’s characters

change with the wind now…!

☆☆☆☆☆

 Strangers 

☆☆☆

आख़िर में हम फ़क़त

दो अजनबी ही थे…

जो एक दूसरे के बारे में

सब कुछ जानते थे…!

☆☆

In the end, we were just

two strangers only…

who knew everything

about each other…!

☆☆☆☆☆ 

Eternal Truth 

राख की कई परतों के

नीचे तक जा कर देखा…

वो गुरूर, रुतबा, रुबाब

कहीं भी नज़र नहीं आया …!

☆☆

Checked under the several

layers of the ashes but

Couldn’t find that vanity

panache or the grandeur…!

☆☆☆☆☆

बड़ी लंबी गुफ्तगू 

करनी  है…

तुम आना एक पूरी

ज़िंदगी लेकर..!

☆☆

Need  to  have

a  long  chat…

You come with

a  whole life..!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 192 – पाणी केरा बुदबुदा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 192 ☆ पाणी केरा बुदबुदा ?

क्षणभंगुरता मनुष्य के जीवन का अनन्य आयाम है। अनेकदा क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी आशंका समझा जाता है। तथापि,  विचार करोगे, विमर्श करोगे तो क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी संभावना पाओगे।

आशंका-संभावना को तौलने के लिए कभी कल्पना करना कि जैसे खाद्य पदार्थों पर या दवाई की पट्टी पर एक्सपायरी डेट लिखी होती है, उसी तरह मनुष्य के जन्म के साथ उसकी मृत्यु की तारीख़ भी यदि तय हो जाए तो मनुष्य आनंद से जी पाएगा या भय और चिंता से मर जाएगा? इसलिए क्षणभंगुरता को जीवन का सबसे बड़ा वरदान मानना चाहिए।

एक परिचित वन्य अधिकारी थे। उन्होंने एक बार एक किस्सा सुनाया। अपने वरिष्ठ के साथ वे दौरे पर थे। वन्य आरक्षित क्षेत्र के आसपास  स्वाभाविक है कि गाँव भी बसे होते हैं। किसी गाँव से गुज़रते हुए उन्होंने देखा कि  पीपल के एक विशाल पेड़ के नीचे औघड़ बाबा बैठे हैं। गाँव के कुछ निवासी अपनी समस्याओं के निवारण के लिए उनके पास बैठे थे। वरिष्ठ अधिकारी ने औघड़ को उपेक्षा से देखा। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है कि पद के मद में वह अपने अस्तित्व की क्षणभंगुरता को भूल जाता है। जीप में बैठे-बैठे अपनी हथेली औघड़ की ओर करके कहा, ‘सचमुच कुछ जानता है तो मेरा भविष्य बता।’ औघड़ बाबा ने जो़रदार अट्टहास किया और कहा, ‘तेरा भविष्य क्या बताऊँ? तेरे पास तो केवल तीन दिन का ही समय बचा है।’ अधिकारी आग बबूला हो उठा। औघड़ को कुछ अपशब्द कहे, निर्देश दिया कि ऐसे धृष्ट को दोबारा उनके क्षेत्र में प्रवेश न करने दिया जाए।

पीछे वन्य अधिकारी को तीसरे दिन किसी काम से वरिष्ठ अधिकारी के कार्यालय में जाना पड़ा। वरिष्ठ अधिकारी ने चाय मंगवाई। दोनों ने चाय का कप उठाया। वरिष्ठ अधिकारी का चाय का कप हाथ से लुढ़क गया। हृदयाघात से जगह पर ही उनका देहांत हो गया। वन्य अधिकारी को औघड़ बाबा याद आए। लौटकर घर पर पत्नी से सारी बात कही। पत्नी ने औघड़ बाबा के दर्शन करने चाहे। वन अधिकारी ने कहा, “दर्शन तो दूर, मैं उस ओर जाना भी नहीं चाहूँगा। जीवन में जो घटना है, वह पहले से पता चल जाए तो जीवन जिया कैसे जाएगा?” वन अधिकारी ने उस क्षेत्र से अपना तबादला करवा लिया।

औघड़ बाबा द्वारा भविष्य देख लेने पर  मतभिन्नता हो सकती है। तीसरे दिन मृत्यु होना संयोग भी हो सकता है। तथापि मत-मतांतर से परे यहाँ अधिक महत्वपूर्ण है घटनाक्रम से उपजा निष्कर्ष।

भविष्य ज्ञात हो जाए तो मनुष्य का वर्तमान जड़ हो जाएगा। विसर्जन है, अतः सृजन है। चूँकि यह विसर्जन किसी भी क्षण हो सकता है, अत: हर क्षण सृजन होना चाहिए।

अखंड सृजन और अविराम विसर्जन का मूल है क्षणभंगुरता। क्षणभंगुरता का अपना दर्शन है, क्षणभंगुरता है तो जीवन है। श्वास की अनिश्चितता, विश्वास को निश्चय प्रदान करती है। बाबा कबीर ने लिखा है,

पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति

मानव जाति पानी के बुलबुले के समान है। क्षण में बनना और अकस्मात मिटना बुलबुले की नियति है।

बुलबुले की क्षणभंगुरता स्मरण रहे तो जीवन की निरंतरता का विश्वास भी बना रहेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 53 ⇒ मुझे तुम याद आए… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुझे तुम याद आए”।)  

? अभी अभी # 53 ⇒ मुझे तुम याद आए? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

याद स्मृति को भी कहते हैं और कुछ भूला हुआ याद आना भी स्मरण ही कहलाता है। मेरी याददाश्त कमज़ोर है, मेरे बचपन के स्मृति – पटल पर आठ वर्ष के पहले की सभी स्मृतियां विस्मृत हो चुकी हैं, या मैं यह कहूं कि वे कभी मुझे याद थी ही नहीं।

सत्तर वर्ष की उम्र भूलने की नहीं होती। अगर होती तो मैं यह भी भूल जाता कि मेरी उम्र सत्तर वर्ष है। लोग मुझे तसल्ली देते रहते हैं, भूलना एक आम समस्या है।

जो अतीत की अप्रिय घटनाएं हम भूलना चाहते हैं, वे बार बार कुरेदकर बाहर आ जाती हैं, और कुछ काम की बातें हम भूलने लग जाते हैं। ।

भूल का भूलने से कोई संबंध नहीं! इस रविवार एक विचित्र घटना हुई। 503 के एक सज्जन मुझसे मिलने आए। ( हमारी मल्टी में लोग फ्लैट नंबर से जाने जाते हैं, नाम से नहीं। अस्पताल में मैं कभी कमरा नंबर 303 का पेशंट था। कैदी को भी जेल में नंबर से ही जाना जाता है।) वे अभी अभी आए हैं। जब भी मिलते हैं, मैं उनका फोन नंबर लेना भूल जाता हूं। इस बार आते ही मैंने उनसे उनका फोन नंबर मांग लिया, कहीं फिर भूल ना जाऊं।

उन्होने मुझे अपना फोन नंबर बताने के लिए कहा ताकि वह मुझे रिंग दे सकें। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब मुझे अपना मोबाइल नंबर ही याद नहीं आया। मेरे पास घर में जितने फोन है, सबके नंबर मुझे कंठस्थ याद है और जो लोग अपना फोन नंबर याद नहीं रखते, मैं उन पर हंसता हूं। आज मैं खुद पर ही हंस रहा था। वे मेरा मुंह देख रहे थे और मैं अपनी दयनीय स्थिति। ।

परिस्थिति से समझौता करने के लिए मैंने उनका नंबर पूछा और डायल कर दिया। मेरा नंबर उनके पास पहुंच गया और उनका मेरे पास। वे चले गए लेकिन मुझे अपने फोन नंबर में उलझाकर चले गए।

कोई समझदार इंसान होता तो फोन में ही अपना नंबर देख सकता था लेकिन मैं था, जो बार बार अपनी स्मरण शक्ति पर जोर दे रहा था और अपने अंदर ही अपना टेलीफोन नंबर ढूंढ़ रहा था। और वह दस नंबरी टेलीफोन नंबर भी मानो मुझे चिढ़ा रहा था, मो को कहां ढूंढे रे बंदे। मैं तो तेरे पास रे। मैंने भी ठान लिया, भगवान को बाद में, पहले अपना फोन नंबर तो अपने में तलाश लूं।

हमारी कितनी मेमोरी है, और कौन सी बात कहां दबी छुपी है, कहना मुश्किल होता है। जो चीज हमेशा tip of the tongue यानी मुंहजबानी रहती थी, आज मन उसे उगल नहीं रहा था। अक्सर कुछ पुराने फिल्मी गानों के साथ भी यही होता है। जब हम चाहें, तब याद नहीं आते। और वो जब याद आए बहुत याद आए। ।

पूरे रविवार और सोमवार, मैं यादों का पहाड़ खोदता रहा, एक दस डिजिट के नंबर के लिए, लेकिन एक भी डिजिट का पता नहीं चला। बहन से, बेटी से मेरी व्यथा कही। मेरा दर्द न कोई जाना। बस एक ही जवाब। हमारे साथ भी होता है। आपका नंबर मेसेज कर देते हैं। मैंने सख्ती से मना कर दिया। यह मेरी समस्या है। मेरी मुझसे ही लड़ाई है। हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।

मैं पूरी तरह हार थक चुका था। सोचा, हथियार डाल ही दूं। सोचते सोचते कल रात नींद लग गई। रात को बारह बजे अचानक नींद खुली। अनायास पांच डिजिट मन की आंखों के सामने प्रकट हुए। मेरा आधा फोन नंबर साफ नजर आया। यूरेका! मन ने कहा। मैं शवासन की अवस्था में लेटा रहा। मैंने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। न ही उस नंबर को नोट किया। जो मेरे अंदर ही था, कहां जा सकता था, मुझे भरोसा था। कहीं दब गया होगा, सरकारी फाइलों की तरह। गूगल सर्च नहीं, मन के अंदर सर्च जारी थी। मैं निश्चिंत था। तीन चार अपुष्ट नंबर आए। मेरे मन ने ही उन्हें रिजेक्ट कर दिया और अंततः दो घंटे की मशक्कत के बाद जो नंबर आया वह मेरा दस डिजिट वाला मोबाइल नंबर था।।

मैं उठा। अपने मोबाइल पर उसे अंकित किया और बाद में कन्फर्म किया। वह वही नंबर निकला। यह एक अनावश्यक कसरत थी, कुछ लोगों की निगाह में, लेकिन मुझे यह कसरत, बहुत कुछ सिखा गई। हमने अंदर झांकना ही बंद कर दिया है। ईश्वर को हम बाहर खोज रहे हैं। आत्म गुरु को छोड़ जगत गुरु के पीछे पड़े हैं।

हमारे अंदर विचारों के जखीरे में अगर काई और जलकुंभी है तो माणिक मोती भी है। जिन्हें हम सीपी और शंख समझते हैं वे ही तो रत्नों की खान हैं। जिन खोजां तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। कभी मन के पार चलें, कुछ खोने का, कुछ पाने का आनंद लें। अब आइंदा अगर कोई चीज भूलूंगा तो उसकी तलाश भी अंदर ही करूंगा। बाहर तो सिर्फ भटकाव है। नो गूगल सर्च!

INNER SEARCH

VISION & REVISION.

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 140 ☆ गीत: कोई अपना यहाँ… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  गीत: कोई अपना यहाँ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 139 ☆ 

गीत: कोई अपना यहाँ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

मन विहग उड़ रहा,

खोजता फिर रहा.

काश! पाये कभी-

कोई अपना यहाँ??

*

साँस राधा हुई, आस मीरां हुई,

श्याम चाहा मगर, किसने पाया कहाँ?

चैन के पल चुके, नैन थककर झुके-

भोगता दिल रहा

सिर्फ तपना यहाँ…

*

जब उजाला मिला, साथ परछाईं थी.

जब अँधेरा घिरा, सँग तनहाई थी.

जो थे अपने जलाया, भुलाया तुरत-

बच न पाया कभी

कोई सपना यहाँ…

*

जिंदगी का सफर, ख़त्म-आरंभ हो.

दैव! करना दया, शेष ना दंभ हो.

बिंदु आगे बढ़े, सिंधु में जा मिले-

कैद कर ना सके,

कोई नपना यहाँ…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२-५-२०१२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

☆ गाजियाबाद में कथा रंग सम्मान  ☆

गाजियाबाद की संस्था ‘कथा रंग’ की ओर से आयोजित एक दिवसीय कहानी महोत्सव एवं सम्मान समारोह में देश भर से जुड़े रचनाकारों ने विभिन्न सत्रों में अपने विचार प्रकट किए। उद्घाटन सत्र का शुभारंभ प्रसिद्ध लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह ने करते कहा कि – “एक समय था जब इलाहाबाद की पहचान साहित्य की राजधानी के रूप में होती थी। आज गाजियाबाद साहित्य की कुंभ नगरी बन गया है।” उन्होंने कहा कि- “जब सदी बदलती है तो कईं बदलाव लाती है।” वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक अभिषेक उपाध्याय ने कहा कि-  “जीवन में आ रहे बदलाव पर ध्यान देकर किया गया लेखन ही दूर तक जाता है।” अंतिम सत्र की मुख्य अतिथि मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि ऐसे समारोह नए रचनाकारों को साहस व आगे बढ़ने का हौसला प्रदान करते हैं। सुप्रसिद्ध समीक्षक राहुल देव ने कहा कि- “जीवंत भाषा शुद्धता का आग्रह करती है। विराट स्वरूप के बावजूद अंग्रेजी मिश्रित हिंदी भाषा के वजूद के लिए खतरा पैदा कर रही है।” सुप्रसिद्ध लेखिका एवं कवयित्री रेणु हुसैन ने कहा कि- “कहानी हमारे समाज का वह दस्तावेज होती है जो पीढ़ियों को हमारे वर्तमान का बोध करवाती है।”

शोभनाथ शुक्ल की कहानी शनिचरी, सायरा बानो और सुजातो क्रिस्टी को प्रथम सम्मान स्वरूप 11 हजार रुपए का शिवम कपूर स्मृति प्रेमचंद कथा सम्मान प्रदान किया गया। द्वितीय पुरस्कार आशा पांडे की कहानी हारा हुआ राजा को जयदेवी जायसवाल स्मृति शिवानी कथा सम्मान तथा वंदना जोशी की कहानी नगर ढिंढोरा को मीनाक्षी वर्मा स्मृति इंदिरा गोस्वामी कथा सम्मान सहित 51-51 सौ रुपए की पुरस्कार राशि प्रदान की गई। तृतीय पुरस्कार स्वरूप सिनीवाली की कहानी रहो कंत होशियार को शकुंतला देवी पाठक स्मृति पुरस्कार प्रदान किया गया । कुल तेइस कथाकारों को पुरस्कृत किया गया ।

शिमला में व्यंग्य पर सम्मान : हिमाचल की राजधानी शिमला में व्यंग्य पर सोलन के डाॅ अशोक गौतम , दिल्ली के डाॅ प्रेम जनमेजय , लालित्य ललित , डाॅ संजीव को व्यंग्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिये सम्मानित किया गया । मुख्य वक्ता डाॅ प्रेम जनमेजय ने दो टूक बात कही कि- “व्यंग्य पगडंडियों पर चलता है न कि राजपथ पर !” डाॅ प्रेम जनमेजय ने व्यंग्य के क्षेत्र में व्यंग्य यात्रा पत्रिका के माध्यम से और अपने लेखन से इस विधा को निरंतर आगे बढ़ाने में जो योगदान दिया वह सराहनीय है । व्यंग्य यात्रा का नवीनतम अंक व्यंग्य में नारी स्वर खूब चर्चित हो रहा है । हिमाचल की कला व साहित्य अकादमी के सहयोग से यह आयोजन किया गया जो बहुत सफल रहा ।

अल्मोड़ा में साहित्योत्सव : अल्मोड़ा में जून माह के शुरू मे साहित्योत्सव करने की घोषणा की गयी है जिसे अल्मोड़ा लिट फेस्ट का नाम दिया गया है । डाॅ दीपा गुप्ता इस आयोजन को लेकर बहुत उत्साहित हैं और दूरदराज पर्वतीय आंचल में साहित्योत्सव का आयोजन गर्मी के मौसम में बहुत खूब रहेगा । साहित्य और मौसम मिलकर जादू कर देंगे !

लघुकथा में योगदान : दिनेशपुर से पिछले 39 साल से प्रकाशित प्रेरणा अंशु पत्रिका का नया अंक लघुकथा विशेषांक के रूप मे आयेगा । संपादक पलाश विश्वास इसके लिये लगातार संपर्क कर रहे हैं कि अच्छी रचनायें मिल सकें । इसी प्रकार दिल्ली के डाॅ कमल चोपड़ा प्रतिवर्ष संरचना नाम से लघुकथाओं की वार्षिकी प्रकाशित करते आ रहे हैं । इसकी चर्चा भी हर बार रहती है । इसमें देश भर के रचनाकारों की श्रेष्ठ रचनायें शामिल रहती हैं । यह डाॅ कमल चोपड़ा का लघुकथा के क्षेत्र में बहुत ही खामोश योगदान है । इधर डाॅ अशोक भाटिया के संपादन में समकाल का लघुकथा विशेषांक भी आने वाला है । डाॅ अशोक भाटिया लघुकथा में अनथक काम कर रहे हैं। सभी मित्रों को अग्रिम शुभकामनायें !

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अग्निदेवता… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अग्निदेवता… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

झळझळणाऱ्या दीपशिखा

तेजोमय या किरण शलाका

दिव्यत्वाची लखलख रेखा

भव्यतेची दिव्यतम शाखा

 

ज्योतिर्मय तव दिव्य प्रकाशी

सुवर्ण झळके बावनकशी

मायेची तव ऊब देऊनी

जीवांसी जगवून  प्रेम देशी

 

समदर्शी रे तू स्वयंप्रकाशी

जीवन फुलवूनी उजळत जाशी

तव साक्षीने मने ही गुंफिशी

जन्मभरीचे बंध बांधून देशी

 

जठराग्नी तू पाचनकारी

चित्ताग्नी रे बुध्दिकारी

सर्वाग्नी तू योगकारी

वडवाग्नी तू सागरांतरी

 

रुपे किती तव  जीवनकारी

सदा  मग्न   तू परोपकारी

कधी होसी परी प्रलयंकारी

रुप तुझे ते अती भयंकरी

 

जसे उग्रतम रुप घेशी

ओले,सुके सर्व जाळीशी

भेदभाव जरा न करिशी

सर्वच  भस्मीभूत करिशी

 

मानबिंदू तू जीवनदाता

समदर्शी रे  प्राणदाता

अग्निदेवता पुराणोक्ता

तवपदी ठेवते त्रिवार माथा

 

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – क्षण सृजनाचे ☆ घड्याळ गणित… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? क्षण सृजनाचे ?

☆ घड्याळ गणित… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆  

भगवद्गिता  ज्ञानेश्वरीतील “सांख्ययोग” या अध्यायात  हेच तर ज्ञानसूत्र फक्त अंकशास्त्राऐवजी तत्वसिध्दांताद्वारे सांगीतले गेले आहे.

आपण सगळे वेळेच्या बंधनात हे कर्म करीत असतो.प्रत्येक घडणार्या क्रिया ठरलेल्या वेळेनुसार एक जीवनाचे गणितीय सिध्दांतानुसार फिरत असते. पंचमहाभूते आणि हे त्रिगुणातीत सजीव घड्याळ भगवंताचे एक सांख्यीकिय कालगतीचे चक्र आहे. जिथे मृत्यू हा नाहीच. फक्त आत्मा एक देह सोडून दुसर्या देहात प्रवेश करतो. जसे घड्याळातील वजाबाकीचे उणे होत जाणारे काटे परत बेरजेतून तासात मोजतो तसे.🙏

☆ घड्याळ गणित… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

यालाच म्हणतात वेळ

यालाच म्हणावे गणित.

यातच आयुष्य नि वय

सरते सुख-दुःखी नित.

बेरजेचे ऊत्तर एक

वजाबाकी उणे प्रत.

आडवे समान उत्तर

वेळ  समांतर गत.

सेकंद मिनीट तास

अंकांचे गुपीत द्युत.

घडती फेर्यांचे चक्र

प्रभात-संध्येचे रथ.

ड्याळ बुध्दि प्रमाण

जीवन तैसेची पथ.

कर्म फळ नि भोगांचे

अंतर जन्मांचे नत.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ रानपाखरू – भाग १ – लेखिका – डॉ. क्षमा शेलार ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई ☆

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

?जीवनरंग ?

☆ रानपाखरू – भाग १  – लेखिका – डॉ. क्षमा शेलार ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई ☆

बांधावरला आंबा मव्हारला तवाच आती म्हनली ,

“यंदाच्या वर्साला मोप आंबे येतीन..पोरीचं हात याच वर्सी पिवळे केले पायजेल…बिना आईबापाचं लेकरू त्ये. मव्हारला आंबा लगेच डोळ्यात भरतोय.गावात  कुतरमुतीवानी ठाईठाई माजलेल्या रानमुंज्यांची काई कमी नाई..”

चुलीपुढं बसलेल्या आतीच्या तोंडातून काई शब्द

मामांशी आन् सोत्ताशी निगत व्हते.आविष्याला पुरलेल्या भोगवट्यामुळं तिला अशी मोठ्यांदी बोलायची सवय लागली व्हती. ती बोलत असली की, मामा जराजरा ईळानं आपसूक ‘हुं, हूं’ करत पन तंबाखू मळायच्या नादात नेमकं कायतरी मत्त्वाचं हुकून जाई आन आती पिसाळल्यागत करी.

“या मानसाला मुद्द्याचं बोलनं कवाच ऐकू जायचं नाई “.

बारीक असतांना संगीला त्यांच्या या लुटपुटच्या तंट्याची लय गंमत वाटायची पन जशी ती शानी व्हत गेली तसतशी तिला आती आन मामांच्या डोंगरावरढ्या उपकाराची जानीव झाली. म्हनूनच मग

हुशार असूनबी धाव्वीतूनच तिचा दाखला काडला , तवा ऊरी फुटुन रडावा वाटलं तरीबी ती रडली नाई.तसं ऊरी फुटून रडावं असे परसंग आतीमामांनी येऊ दिलेच नव्हते तिच्यावर. लोकंबी नवल करीत,

‘भाची असूनबी पोटच्या पोरीसारखी वाढीवली शांताबाईनं संगीला’ असं म्हनत. 

कोनी म्हनायचं , ‘ माह्यारचं तर कुत्रं बी गोड लागातंय बायांना.ही तर आख्खी रक्तामांसाची भाची.खरा मोठेपना असंल तर तो तिच्या नवऱ्याचा.’

‘अवो! कशाचं काय? त्याला सोत्ताचं पोरच झालं नाई. त्याचा कमीपना झाकायला म्हनून त्यानं बी मोडता घातला नसंल.’

‘ खरंय बया तुजं.त्याचं सोत्ताचं पोर झालं असतं तर कशाला त्यानं बायकूच्या माह्यारचं मानूस संभाळलं असतं?’

लोक धा तोंडांनी धा गोष्टी बोलत पन संगीसाठी तर ती दोघं विठ्ठलरुक्माईच व्हती.संगीचा बाप घरच्याच बैलानं भोसकला..समदी आतडी चिरफाडली गेली. त्या दुखन्यातच त्यो गेला आन् त्याच्यामागे दोनच वर्सांत मायबी. कुरडईचा घाट घेता घेता अचानक पेटली.कांबळं टाकेपर्यंत अर्धीनिर्धी करपली व्हती.शेवटी गेलीच.संगी तवा तीन वर्सांची व्हती. मायबाप आठवतबी नव्हती तिला.पन तरीबी कदीतरी ‘मायबापं कशानं गेली’ हे कुन्या नातेवाईकानं भसकन सांगितल्यावर तिला रडू आलं व्हतं.

साळंच्या पैल्या दिशी मामांनी साळंत नेऊन घातलं, तवा तर तिनं रडून हैदोस घातला व्हता. वर्गात मुसमुसत असलेल्या संगीला मास्तरीन म्हनली व्हती, ” सख्खी पोर नसूनही शाळा शिकवत आहेत.किती मोठी गोष्ट आहे ही.” समदं तिला समजलं नाई पन रडू आपोआप थांबलं ह्येबी खरं… 

आतीमामांनी घातलेल्या मायेच्या पायघड्यांवरून संगी चालत राहिली.दुडदुडत पळत जानारी तिची चाल जलम येईस्तवर नागिनीसारखी तेज व्हत गेली. 

आज आतीच्या तोंडून अवचित सोत्ताच्या लग्नाची बोलनी ऐकल्यावर, बांधावरच्या आंब्यावानी संगीच्या मनातबी मव्हर डवारला व्हता.निराळ्याच तंद्रीत आता तिची कामं व्हत व्हती. रामाकिसनाच्या काळापासून तिच्या रक्तात भिनल्यालं बाईपन आता ठसठशीत व्हत चाललं. सोत्ताच्या नकळत ती आतीचा सौंसारातला वावर निरखू निरखू बघू लागली व्हती.

आतीबी ‘ पोर आता शानीसुरती झाली,तिला सौंसारातलं बारीकनिरीक कळाया पायजेल.कुडं अडायला नकं’ या इचारानं येवढीतेवढी गोष्ट तिला दाखवू दाखवू करीत व्हती. आत्तीच्या अनभवांच्या ठिपक्यांवरून संगी भविष्याची रांगुळी वढत चालली व्हती.

” हे बघ!! हे आसं करायचं..दानं आसं पाखडायचं.. समदं सुपातून वर उधळायचं, वाऱ्यावर झूलवायचं..वाईट-साईट, कुचकं-नासकं टाकून द्यायचं आन निर्मळ तेवढंच पोटात ठिवायचं. बाईच्या जातीला पाखडाया आलं पाहिजेल…”

आती काई सोत्ताशी, काई पोरीशी, काई चार भितीतलं तर काई पोथीतलं ती बोलत व्हती.संगी जशी उमज पडंल तसं समदं साठवून घेत व्हती. 

‘शांताबाईची संगी लग्नाची हाये’ आसं समद्या भावकीत आता म्हाईत झालं व्हतं.येक दिस सांजच्याला मामा हातावर मशेरी मळत असताना आतीनं ईषय काडला,

“काय कुठे उजेड दिसतोय का?”

मामांनी वर न बघताच मशेरीची यक जोरदार फक्की मारून तोंडात कोंबली आन् सावकाशीनं सांगितलं,

” यक जागा हाये. महिपत्या नाय का? खंडोबाचा साडू, त्या जनाबाईच्या चुलतभावाचा पोरगा..”

” हा मंग!! चांगला लक्षात हाये तो.

गिरजीच्या पोरीच्या लग्नात त्यानीच तर देन्याघेन्यावरून गोंधूळ घातला व्हता.लय वंगाळ मानूस…”

आतीला मधीच थांबवीत मामा म्हनले,

” त्याचा पोरगा हाये लग्नाला..”

आतीला जरा ईळ काई बोलायलाच सुधारलं नाई. उलसंक थांबून ती म्हनली,

“तसा येवढाबी वंगाळ नाई .गिरजी तरी कुठं लय शानी लागून चालली??”

आतीचा उफराटा पवित्रा पाहून मामांना मिशीमंदी हसाया आलं.

” बरं ते हसायचं नंतर बघावा.. पोरगा कसाय? काय करतो? “

” लय भारी हाय म्हंत्यात दिसायला. घरची पंचवीस येकर बागायती शेती, पोटापुरतं शिक्षेनबी हाये. सोभावबी त्याच्या आईसारखा हाये.. गरीब.महिपत्यासारखा नाई.

…पोर सुंदर पाहिजेल पोराला फक्त”

संगीचं समदं काळीज त्या बोलन्याकडं लागून रायलं व्हतं.तिच्या मनात बागायती शिवार डोळ्यांपुढं नाचत व्हतं. बांधावर असलेल्या आंब्याच्या बुडी बसलेल्या आपल्या रांगड्या नवऱ्याला ती न्याहारी घेऊन जायाचं सपान बघू लागली.मनातल्या कोऱ्या चेहऱ्याला आकार येऊ लागला. तेज तलवारीवानी नाक आन् काळ्याभोर मधाच्या पोळ्यासारखा दाट मिशीचा आकडा आसं काईबाई तिच्या मनात उगवत व्हतं,मावळत व्हतं.

आतीमामांनी लय जीव लावला पन समज आल्यापासून मिंधेपनाची जानीव संगीचा पिच्छा करीत व्हती. सख्ख्या मायबापापाशी जसा हट्ट करता आला असता तसा तिनं आतीमामांपाशी कदीच केला नाई. जे हाय ते गोड मानून घेत रायली. आता नवरा नावाचं हक्काचं मानूस तिला मिळनार व्हतं..ज्याला ती सांगू शकनार व्हती, कच्च्या कैर्‍या पाडायला. ज्याच्या मोठाल्या तळव्यात चिचाबोरं ठेवून येक येक उचलून खायला, दोघांनी मिळून बांधावर मोकळ्यानं फिरायला, मास्तरांच्या इंदीकडे हाये तशी झुळझुळीत पोपटी रंगाची साडी घ्यायला, इहिरीत पवायला शिकवायला. राहून गेलेल्या कितीतरी हौशी..ज्या आतीमामांनी भीतीपोटी आन् संगीनं भिडंपोटी कधीच पुरवून घेतल्या नव्हत्या.

तिच्या मनातल्या मव्हरलेल्या आमराईवर आता रानपाखरं गाऊ लागली व्हती‌. 

तंद्रीत हरवल्यानं तिला आतीमामांचं पुढचं बोलनं ऐकाया गेलं नाई.

आती काळजीच्या आवाजात म्हणत होती,

“महिपत्याचं काई सांगता येत नाई.त्याला आपली संगी पसंत पडती,ना पडती?”

“लगीन महिपत्याच्या पोराला करायचंय का महिपत्याला? आन काय म्हनून नाकारतीन?अशी कंच्या बाबतीत डावी हाये आपली पोर? गोरीदेखनी हाये,घरकामात चलाख, शेतीत घातली तर सोनं पिकवील..अजून काय पायजेल? आन तुला वाटत असंल आपल्या परस्थितीचं…तर महिपत्यापासून काय आपली परस्थिती लपून नाई.. जिरायती का व्हईना पन जमिनीचा टुकडा हाये..लय डामाडौलात नाई पन पावन्यारावळ्यात कमीपना येनार नाई असं लगीन लावून द्यू.”

” या वरसाला पावसानं दगा दिला नाईतर..”

” रीनपानी करू सावकाराकडून..नायतर म्हैस हायेच आपली.बघता यील कायतरी”

“अवो पन..म्हैस हाये म्हनून दुधदूभतं तरी मिळातंय..ती इकल्यावर कसं व्हायचं?”

“त्ये बघू अजून..पावनी अजून यायचीत,त्यांनी पोर पसंत करायची..मग पुडलं बोलनं.लय हुरावल्यासारखं नको करू”

“लगीन तर लावू कसंबी पन देन्याघेन्यावर अडून बसले मंग..?”

“नाईतर त्याचा बाप दुसरा.. एवढं काय पानी पडलंय त्या पोरावर?त्याला काय सोन्याचा पत्रा बशिवलाय? आपल्या पोरीसारखी  पोर कुठं घावनारे त्यान्ला?”

यावर आतीनं मान डोलावली.बोलनं तिथच थांबलं खरं ,पन दोघांन्लाबी आशा लागलीच व्हती. 

दुसऱ्या दिशी सक्काळ सक्काळ आती म्हनली,

“मळ्यातला आंबा तरी उतरून घ्या तेवडा. जमलंच संगीचं लगीन तर लोनचं-बिनचं घालता नाई यायचं.थोडं वडं,पापड,शेवया केल्या पायजेल. यावर्साला पोर हाये हाताखाली.पुडल्या वरसाला कसंबी होवो.”

संगीच्या रूपाकडं पाहून ‘पावनी नाई म्हननार नाईत.लगीन जमल्याशिवाय रहायचं नाई’ असं तिला मनापासून वाटत व्हतं.बोलता बोलता आती मशेरी थुकायला म्हनून भाईर गेली आन डोळ्याचं पानी पुसून आली ह्ये कोनलाच कळलं नाई.

संगी कुरडयांसाठी गहू भिजू घालीत व्हती.कुरडयचा ढवळासफीद, ऊन ऊन चीक साखर टाकून खायला तिला लय आवडायचा.तिच्या जोडीदारनी तिच्यासाठी ध्यान करून चीक आनीत.तिची आवड माहित असूनबी आतीनं कुरडयांचा घाट घरी कदीच घातला नव्हता. वानळा आलेल्या कुरडयांवरच त्यांचं वरीस निघून जाई.पन् यावर्षाला मातूर आतीनं कुरडयांचं मनावर घेतलं व्हतं.संगीला प्रश्र्न पडला.तिनं विचारलंबी,सावकाशीनं आती बोलली,

“इतके दिस तुला काई म्हनले नाई..पन माझी वयनी,तुझी माय कुरडयाचा घाट घेता घेता भाजली त्ये मीच पाह्यलं व्हतं डोळ्यानं..मोप हाकबोंब केली पन वयनी नाई वाचली.तवापासून कुरडया करूशीच वाटल्या नाई कदी.”

संगी गुमान ऱ्हायली..

“आता तू म्हनशील..मग या वर्सालाच का घाट घातला? तर बयो त्याचं असंय..सांजसकाळ तू लगीन करून दुसऱ्याच्या घरला जाशीन. उद्याला तुझ्या सासूनं म्हनाया नको, का ही पोर बिनआईची म्हनून हिला कुरडया येती नाईत.तिच्या आतीनं येवढंबी शिकवलं नाई..”

बोलता बोलता आतीचं हुरदं दाटून आलं. 

क्रमश: भाग १

लेखिका – डॉ. क्षमा शेलार

प्रस्तुती – श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

संपर्क – ‘अनुबंध’, कृष्णा हॉस्पिटल जवळ, सांगली, 416416.        

मो. – 9561582372, 8806955070.

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “दग्ध शौर्य- आम्रफले !” —☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? मनमंजुषेतून ?

दग्ध शौर्य- आम्रफले ! —  ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

आपल्या देश-वृक्षाला लगडलेल्या एकशे चाळीस कोटी विविध फळांपैकी पाच आम्रफळं काल-परवा जळून गेली… याची एकशे चाळीस कोटींमधल्या किती जणांना माहिती आहे, देव जाणे!

रमज़ानचा महिना संपायला दोनेक दिवसच शिल्लक आहेत. दिवसभराचा उपवास सोडणं म्हणजे ‘इफ्तार’ एक आनंदाचा क्षण असतो… सर्वधर्मसमभाव तत्वाला जागून आणि उच्च दर्जाच्या सैन्य परंपरेचा एक अविभाज्य भाग म्हणून जम्मूमध्ये तैनात असलेल्या भारतीय सैन्यानं तिथल्या एका गावासाठी ‘इफ्तार’ देऊ केला आहे… त्याचं आमंत्रण साऱ्या गावानं स्वीकारले आहे… कार्यक्रम ठरला आहे. सैन्य या पवित्र कार्यासाठी तयारीला लागलं आहे. आज रात्री सारं गाव एकत्रित उपवास सोडेल… त्यासाठी लागणारी साधनसामग्री आणि विशेषत: फळं खरेदी करून काही जवान शहरातून लष्करी-वाहनातून निघाले आहेत.

दुपारनंतरची साधारणत: चारची वेळ. जोराचा पाऊस सुरू झाला… अंधारून आलं आहे. समोरचं दिसणं दुरापास्त झालेलं आहे… आणि अचानक जवानांच्या वाहनांवर जणू वीज कोसळते… म्हणजे उठलेला आगीचा प्रचंड मोठा लोळ आणि झालेला आवाज यावरून कुणालाही वाटावं… वाहनावर वीजच कोसळली आहे ! 

पण ती वीज नव्हती… प्रचंड शक्तीचा आणि रॉकेट डागतात त्या उपकरणातून डागला गेलेला हातबॉम्ब होता… जोडीला ऑटोमॅटिक रायफल्समधून काही क्षणांसाठी केला गेलेला गोळीबार. हे सारं काही क्षणांत घडलं.

आग भडकली आहे…. शक्य झाले त्या जवानांनी वाहनाबाहेर उड्या घेतल्या… पण पाच तरूण, तडफदार, शूर, बळकट देह मात्र त्या गदारोळात वेळेत बाहेर नाही पडू शकले. त्यांच्या देहाला आगीने एखाद्या अजस्र अजगरासारखा विळखा घातला होता… 

अग्निदेवतेने या देहांवर कोणतीही दयामाया नाही दाखवली… कारण आगीला माणसं नाही ओळखता येत. ही तर नामर्द, भित्र्या, पळपुट्या शत्रूनं लपून लावलेली आग. आग लावलेले नपुंसक लगेच पसारही झाले तिथल्या जंगलात. 

बचावलेल्या सैनिकांनी ही जळती शरीरं कशीबशी वाहनाबाहेर ओढून काढली… वेदनेनं आकांत मांडलेला होता… देहापासून त्वचेने फारकत घेतलेली आणि प्राणवायू देहात प्रवेश करायला कचरत असलेला… आणि बाहेर पडलेला श्वास पुन्हा न परतण्यासाठी निघून चाललेला…

काही क्षणांत चौघांचा जीवनवृक्ष जळून गेला… पाचवा त्याच मार्गावर निघून गेला काही वेळानं. त्यांच्या सवंगड्यांच्या दु:खाला, रागाला, अगतिकतेला पारावर नाही राहिला… कसा रहावा… सततचा सहवास… घट्ट मैत्री.. एकमेकांसाठी जीव द्यायची आणि घ्यायचीही तयारी असलेले हे रणबहाद्दर… पण असल्या भित्र्या हल्ल्यात लढण्याची साधी संधीही न मिळता बळी गेले… त्यांच्यासोबत त्यांनी नेलेली फळेसुद्धा काळीठिक्कर पडलेली होती… फुलांची राखरांगोळी झालेली होती. पाच माणसंच नव्हे तर पाच कुटुंबं बेचिराख झाली होती क्षणार्धात! 

हल्ल्याचा कट कुणी रचला, कुणी मदत केली, कुणी घात केला… सारं शोधून काढलं जाईलच… आणि प्रतिशोधही घेतला जाईल एक न एक दिवस! समोरासमोरच्या हातघाईच्या लढाईत तर शत्रू वाऱ्यालाही उभा राहण्याच्या लायकीचा नाही. पण कपटाने वार करतो! 

त्या पाच जवानांच्या आई-वडिलांच्या, बहिणींच्या, भावांच्या, पत्नींच्या, लहानग्या लेकरांच्या प्रश्नांना उत्तर नाही आजमितीला कुणाकडे. शत्रूला उत्तर दिले जातेच… पण हे पाच देह पुन्हा दिसणार नाहीत. आधीच जळून गेलेले हे देह आता तर खऱ्याखुऱ्या सरणामध्ये जळून राख झालेत आणि कदाचित जळाला अर्पितही झाले असतील. 

ज्या देशाच्या सार्वभौमत्वाच्या रक्षणासाठी हि कोवळी फुलं अकाली गळून जातात, जळून जातात त्यांची या देशातल्या सामान्य जनतेला काही तमा आहे की नाही, हा प्रश्नच आहे. की केवळ एकशे चाळीस कोटी वजा पाच असा हिशेब होणार आहे… यापूर्वी झाला तसा? 

हा देश या शूरवीरांच्या सन्मानार्थ एक क्षणही स्तब्ध होत नाही. या राज्यातील जनतेला त्या राज्यातील गेलेल्या सैनिकाबद्दल विशेष काही वाटत नाही. वृत्तपत्रांत, दूरदर्शन वाहिन्यांवर एक बातमी म्हणून ही घटना दिसते आणि लुप्त होऊन जाते. आप्तांचे शोकग्रस्त चेहरे दाखवण्यात, आजकालच्या प्रथेनुसार झालंच तर शॉर्ट रील बनवून ते लाईक्स, शेअरसाठी प्रसृत केले जातात. ‘तेरी मिट्टी में मिल जावॉ…’ ‘याद करो कुर्बानी’ म्हणून झालं की राष्ट्रीय कर्तव्य संपले. चित्रपटगृहात सिनेमापूर्वी बावन्न सेकंद कसंबसं उभं राहून नंतर हवं ते एन्जॉय करायला प्रेक्षक सज्ज होतात तशातली त-हा! 

का नाही हा देश हुतात्म्यासाठी एक दोन मिनिटं देत त्या दिवशी? का नाही सार्वजनिक प्रार्थना होत, शोकसभा होत ठिकठिकाणी? का बलिदानं प्रादेशिक झालीत आजकाल? विदर्भातील जवान धारातीर्थी पडला की फक्त विदर्भानेच आसवं गाळायची? बाकीच्यांनी आयपीएलच्या लुटुपुटुच्या लढाया बघण्यासाठी महागडी तिकीटं विकत घेऊन मज्जा करायची! 

सैनिकांच्या कल्याणासाठी देणारे नियमित देणग्या देतात… ज्यांची ऐपत नाही त्यांनी देऊ नये. हुतात्मा, जखमी सैनिकांच्या परिवारांची काळजी घेणारी काही सहृदय माणसं आहेत या देशात… इतरांना नसेल जमत हे तर नको जमू देत. पण ज्यांनी आपल्यासाठी आपले प्राण वाहिले त्यांच्या प्रती एका दमडीची संवेदनाही दर्शवू नये लोकांनी याचे सखेद आश्चर्य वाटते. 

जनतेची चूक नाही. जनता अनुकरणशील असते. ह्या सवयी राज्यकर्त्यांनी, समाजधुरीणांनी लावायच्या असतात, संवेदंशीलतेच्या, कृतज्ञतेच्या परंपरा निर्माण करायच्या असतात. रशियात नवविवाहित जोडपी पहिली भेट देतात ती त्या देशासाठी लढताना प्राणार्पण केलेल्या सैनिकांच्या थडग्यांना ! आपण कधी बोध घेणार… हाच सवाल आहे. 

“धगधगत्या समराच्या ज्वाळा… या देशाकाशी… जळावयास्तव संसारातून उठोनिया जाशी “ ..  हे कुसुमाग्रजांचे शब्द सत्यात उतरत राहतीलच… कारण सैनिक कधी मरणाला घाबरणार नाही ! पण आपले काय? आपण प्रार्थनाही करू शकणार नाही का निघून गेलेल्या सैनिकांच्या आत्म्यासाठी? धीराचे दोन शब्दही नाही का देऊ शकणार रडणाऱ्या विधवांसाठी, म्हातारपणाची काठी हरवलेल्या आई-बापांसाठी, तडफडणाऱ्या बहिणींसाठी, मूकपणाने आसवं ढाळणाऱ्या भावांसाठी आणि विव्हळणाऱ्या बालकांसाठी? 

 सैनिकांच्या हौतात्म्याचा शोक घरातून जेव्हा राष्ट्रीय सार्वजनिक पातळीवर पोहोचेल तेव्हाच हुताम्याच्या हौतात्म्याला अर्थ प्राप्त होईल ! तुमच्या आमच्या सुदैवाने हे हुतात्मे यापेक्षा अधिक काही मागत नाहीत ! 

 २० एप्रिल,२०२३ रोजी जम्मू जवळच्या पूंछ येथे झालेल्या अतिरेकी भ्याड हल्ल्यात धारातीर्थी पडलेले लान्स नायक कुलवंत सिंग यांचे वडील बलदेव सिंग हे सुद्धा कारगील युद्धात हुतात्मा झाले होते. कुलवंत सिंग यांनी आपल्या वडिलांच्या पावलावर पाऊल ठेवून सैन्यात पाऊल ठेवले होते. या दुर्दैवी घटनेत हवालदार मनदीप सिंग, लान्स नायक देबाशिष बसवाल, शिपाई हरिक्रिशन सिंग, शिपाई सेवक सिंग ही चार आणखी आम्रफळे देशाच्या वृक्षावरून खाली कोसळून पडली…. हा वृक्ष याची वेदना अनुभवतो आहे का? 

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

(जरा जास्तच झालं ना लिहिताना? पण इलाज नाही. इतर कुणाला हे सांगावंसं वाटलं तर जरूर सांगा. नावासह कॉपीपेस्ट्, शेअर करण्यासाठी परवानगीची गरज नाही. शक्य झाल्यास या जळीताचा व्हिडीओ बघून घ्या इंटरनेटवर… धग जाणवेल !)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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