श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 192 ☆ पाणी केरा बुदबुदा ?

क्षणभंगुरता मनुष्य के जीवन का अनन्य आयाम है। अनेकदा क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी आशंका समझा जाता है। तथापि,  विचार करोगे, विमर्श करोगे तो क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी संभावना पाओगे।

आशंका-संभावना को तौलने के लिए कभी कल्पना करना कि जैसे खाद्य पदार्थों पर या दवाई की पट्टी पर एक्सपायरी डेट लिखी होती है, उसी तरह मनुष्य के जन्म के साथ उसकी मृत्यु की तारीख़ भी यदि तय हो जाए तो मनुष्य आनंद से जी पाएगा या भय और चिंता से मर जाएगा? इसलिए क्षणभंगुरता को जीवन का सबसे बड़ा वरदान मानना चाहिए।

एक परिचित वन्य अधिकारी थे। उन्होंने एक बार एक किस्सा सुनाया। अपने वरिष्ठ के साथ वे दौरे पर थे। वन्य आरक्षित क्षेत्र के आसपास  स्वाभाविक है कि गाँव भी बसे होते हैं। किसी गाँव से गुज़रते हुए उन्होंने देखा कि  पीपल के एक विशाल पेड़ के नीचे औघड़ बाबा बैठे हैं। गाँव के कुछ निवासी अपनी समस्याओं के निवारण के लिए उनके पास बैठे थे। वरिष्ठ अधिकारी ने औघड़ को उपेक्षा से देखा। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है कि पद के मद में वह अपने अस्तित्व की क्षणभंगुरता को भूल जाता है। जीप में बैठे-बैठे अपनी हथेली औघड़ की ओर करके कहा, ‘सचमुच कुछ जानता है तो मेरा भविष्य बता।’ औघड़ बाबा ने जो़रदार अट्टहास किया और कहा, ‘तेरा भविष्य क्या बताऊँ? तेरे पास तो केवल तीन दिन का ही समय बचा है।’ अधिकारी आग बबूला हो उठा। औघड़ को कुछ अपशब्द कहे, निर्देश दिया कि ऐसे धृष्ट को दोबारा उनके क्षेत्र में प्रवेश न करने दिया जाए।

पीछे वन्य अधिकारी को तीसरे दिन किसी काम से वरिष्ठ अधिकारी के कार्यालय में जाना पड़ा। वरिष्ठ अधिकारी ने चाय मंगवाई। दोनों ने चाय का कप उठाया। वरिष्ठ अधिकारी का चाय का कप हाथ से लुढ़क गया। हृदयाघात से जगह पर ही उनका देहांत हो गया। वन्य अधिकारी को औघड़ बाबा याद आए। लौटकर घर पर पत्नी से सारी बात कही। पत्नी ने औघड़ बाबा के दर्शन करने चाहे। वन अधिकारी ने कहा, “दर्शन तो दूर, मैं उस ओर जाना भी नहीं चाहूँगा। जीवन में जो घटना है, वह पहले से पता चल जाए तो जीवन जिया कैसे जाएगा?” वन अधिकारी ने उस क्षेत्र से अपना तबादला करवा लिया।

औघड़ बाबा द्वारा भविष्य देख लेने पर  मतभिन्नता हो सकती है। तीसरे दिन मृत्यु होना संयोग भी हो सकता है। तथापि मत-मतांतर से परे यहाँ अधिक महत्वपूर्ण है घटनाक्रम से उपजा निष्कर्ष।

भविष्य ज्ञात हो जाए तो मनुष्य का वर्तमान जड़ हो जाएगा। विसर्जन है, अतः सृजन है। चूँकि यह विसर्जन किसी भी क्षण हो सकता है, अत: हर क्षण सृजन होना चाहिए।

अखंड सृजन और अविराम विसर्जन का मूल है क्षणभंगुरता। क्षणभंगुरता का अपना दर्शन है, क्षणभंगुरता है तो जीवन है। श्वास की अनिश्चितता, विश्वास को निश्चय प्रदान करती है। बाबा कबीर ने लिखा है,

पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति

मानव जाति पानी के बुलबुले के समान है। क्षण में बनना और अकस्मात मिटना बुलबुले की नियति है।

बुलबुले की क्षणभंगुरता स्मरण रहे तो जीवन की निरंतरता का विश्वास भी बना रहेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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