श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुझे तुम याद आए”।)  

? अभी अभी # 53 ⇒ मुझे तुम याद आए? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

याद स्मृति को भी कहते हैं और कुछ भूला हुआ याद आना भी स्मरण ही कहलाता है। मेरी याददाश्त कमज़ोर है, मेरे बचपन के स्मृति – पटल पर आठ वर्ष के पहले की सभी स्मृतियां विस्मृत हो चुकी हैं, या मैं यह कहूं कि वे कभी मुझे याद थी ही नहीं।

सत्तर वर्ष की उम्र भूलने की नहीं होती। अगर होती तो मैं यह भी भूल जाता कि मेरी उम्र सत्तर वर्ष है। लोग मुझे तसल्ली देते रहते हैं, भूलना एक आम समस्या है।

जो अतीत की अप्रिय घटनाएं हम भूलना चाहते हैं, वे बार बार कुरेदकर बाहर आ जाती हैं, और कुछ काम की बातें हम भूलने लग जाते हैं। ।

भूल का भूलने से कोई संबंध नहीं! इस रविवार एक विचित्र घटना हुई। 503 के एक सज्जन मुझसे मिलने आए। ( हमारी मल्टी में लोग फ्लैट नंबर से जाने जाते हैं, नाम से नहीं। अस्पताल में मैं कभी कमरा नंबर 303 का पेशंट था। कैदी को भी जेल में नंबर से ही जाना जाता है।) वे अभी अभी आए हैं। जब भी मिलते हैं, मैं उनका फोन नंबर लेना भूल जाता हूं। इस बार आते ही मैंने उनसे उनका फोन नंबर मांग लिया, कहीं फिर भूल ना जाऊं।

उन्होने मुझे अपना फोन नंबर बताने के लिए कहा ताकि वह मुझे रिंग दे सकें। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब मुझे अपना मोबाइल नंबर ही याद नहीं आया। मेरे पास घर में जितने फोन है, सबके नंबर मुझे कंठस्थ याद है और जो लोग अपना फोन नंबर याद नहीं रखते, मैं उन पर हंसता हूं। आज मैं खुद पर ही हंस रहा था। वे मेरा मुंह देख रहे थे और मैं अपनी दयनीय स्थिति। ।

परिस्थिति से समझौता करने के लिए मैंने उनका नंबर पूछा और डायल कर दिया। मेरा नंबर उनके पास पहुंच गया और उनका मेरे पास। वे चले गए लेकिन मुझे अपने फोन नंबर में उलझाकर चले गए।

कोई समझदार इंसान होता तो फोन में ही अपना नंबर देख सकता था लेकिन मैं था, जो बार बार अपनी स्मरण शक्ति पर जोर दे रहा था और अपने अंदर ही अपना टेलीफोन नंबर ढूंढ़ रहा था। और वह दस नंबरी टेलीफोन नंबर भी मानो मुझे चिढ़ा रहा था, मो को कहां ढूंढे रे बंदे। मैं तो तेरे पास रे। मैंने भी ठान लिया, भगवान को बाद में, पहले अपना फोन नंबर तो अपने में तलाश लूं।

हमारी कितनी मेमोरी है, और कौन सी बात कहां दबी छुपी है, कहना मुश्किल होता है। जो चीज हमेशा tip of the tongue यानी मुंहजबानी रहती थी, आज मन उसे उगल नहीं रहा था। अक्सर कुछ पुराने फिल्मी गानों के साथ भी यही होता है। जब हम चाहें, तब याद नहीं आते। और वो जब याद आए बहुत याद आए। ।

पूरे रविवार और सोमवार, मैं यादों का पहाड़ खोदता रहा, एक दस डिजिट के नंबर के लिए, लेकिन एक भी डिजिट का पता नहीं चला। बहन से, बेटी से मेरी व्यथा कही। मेरा दर्द न कोई जाना। बस एक ही जवाब। हमारे साथ भी होता है। आपका नंबर मेसेज कर देते हैं। मैंने सख्ती से मना कर दिया। यह मेरी समस्या है। मेरी मुझसे ही लड़ाई है। हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।

मैं पूरी तरह हार थक चुका था। सोचा, हथियार डाल ही दूं। सोचते सोचते कल रात नींद लग गई। रात को बारह बजे अचानक नींद खुली। अनायास पांच डिजिट मन की आंखों के सामने प्रकट हुए। मेरा आधा फोन नंबर साफ नजर आया। यूरेका! मन ने कहा। मैं शवासन की अवस्था में लेटा रहा। मैंने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। न ही उस नंबर को नोट किया। जो मेरे अंदर ही था, कहां जा सकता था, मुझे भरोसा था। कहीं दब गया होगा, सरकारी फाइलों की तरह। गूगल सर्च नहीं, मन के अंदर सर्च जारी थी। मैं निश्चिंत था। तीन चार अपुष्ट नंबर आए। मेरे मन ने ही उन्हें रिजेक्ट कर दिया और अंततः दो घंटे की मशक्कत के बाद जो नंबर आया वह मेरा दस डिजिट वाला मोबाइल नंबर था।।

मैं उठा। अपने मोबाइल पर उसे अंकित किया और बाद में कन्फर्म किया। वह वही नंबर निकला। यह एक अनावश्यक कसरत थी, कुछ लोगों की निगाह में, लेकिन मुझे यह कसरत, बहुत कुछ सिखा गई। हमने अंदर झांकना ही बंद कर दिया है। ईश्वर को हम बाहर खोज रहे हैं। आत्म गुरु को छोड़ जगत गुरु के पीछे पड़े हैं।

हमारे अंदर विचारों के जखीरे में अगर काई और जलकुंभी है तो माणिक मोती भी है। जिन्हें हम सीपी और शंख समझते हैं वे ही तो रत्नों की खान हैं। जिन खोजां तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। कभी मन के पार चलें, कुछ खोने का, कुछ पाने का आनंद लें। अब आइंदा अगर कोई चीज भूलूंगा तो उसकी तलाश भी अंदर ही करूंगा। बाहर तो सिर्फ भटकाव है। नो गूगल सर्च!

INNER SEARCH

VISION & REVISION.

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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