हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 191 ☆ “महान चित्रकार आशीष स्वामी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण – महान चित्रकार आशीष स्वामी…”)

☆ संस्मरण — “महान चित्रकार आशीष स्वामी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उमरिया जैसी छोटी जगह से उठकर शान्ति निकेतन, जामिया मिलिया दिल्ली, फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में अपना डंका बजाने वाले ख्यातिलब्ध चित्रकार, चिंतक, आशीष स्वामी जी ये दुनिया छोड़कर चले गए।  कोरोना उन्हें लील गया। मैंने एसबीआई ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान उमरिया में तीन साल से अधिक डायरेक्टर के रूप में काम किया। मेरे कार्यकाल के दौरान उमरिया जिले के दूरदराज के जंगलों के बीच से आये गरीबी रेखा परिवार के करीब तीन हजार युवक/युवतियों का साफ्ट स्किल डेवलपमेंट और हार्ड स्किल डेवलपमेंट किया गया और उनकी पसंद के अनुसार रोजगार से लगाया गया। भारत सरकार ने उमरिया आरसेटी के डायरेक्टर को दिल्ली में बेस्ट डायरेक्टर के अवार्ड से सम्मानित भी किया था।  

आरसेटी में ट्रेनिंग लेने आये बच्चों में सकारात्मक सोच भरने और उनकी संस्कृति की अलख जगाने में श्री आशीष स्वामी बड़ी मेहनत करते थे। नये नये आइडिया देकर उन्हें कुछ नया काम करने की प्रेरणा देते थे। क्या भूलूं? क्या याद करूं?

हां एक खास इवेंट आप वीडियो में देखिए,जो हम लोगों ने जनगण तस्वीर खाना लोढ़ा में आयोजित किया था, यूट्यूब में दुनिया भर के लोगों ने जब इस वीडियो को देखा तो दंग रह गए। ऐसा दुनिया में पहली बार हुआ था लोढ़ा में।

जो एक प्रयोग के तौर पर किया गया था, दूर दराज के जंगलों के बीच से प्रशिक्षण के लिए आये गरीब आदिवासी बच्चों द्वारा।

यूं तोआरसेटी में लगातार अलग-अलग तरह के ट्रेड की ट्रेनिंग चलतीं रहतीं थीं, पर बीच-बीच में किसी त्यौहार या अन्य कारणों से एक दिन का जब अवकाश घोषित होता था, तो बच्चों में सकारात्मक सोच जगाने और उनके अंदर कला, संस्कृति की अलख जगाने जैसे इवेंट संस्थान में आयोजित किए जाते थे। उमरिया जिले के दूरदराज से आये 25 आदिवासी बच्चों के दिलों में हमने और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी जी ने झांक कर देखा, और उन्हें उस छुट्टी में कुछ नया करने उकसाया, उत्साहित किया। फिर उन बच्चों ने ऐसा कुछ कर दिखाया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ था। दुनिया भर के लोग यूट्यूब में वीडियो देखकर दंग रह गए। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा वाली कहावत के तहत एक पैसा खर्च नहीं हुआ और बड़ा काम हुआ। आप जानते हैं कि खेतों में पक्षी और जानवर खेती को बड़ा नुक़सान पहुंचाते हैं, देखभाल करने वाला कोई होता नहीं, किसान परेशान रहता है। इस समस्या से निजात पाने के लिए सब बच्चों ने तय किया कि आज छुट्टी के दिन किसानों के लिए अलग अलग तरह के मुफ्त के पहरेदार कागभगोड़ा बनाएंगे। उमरिया से थोड़ी दूर कटनी रोड पर चित्रकार आशीष स्वामी का जनगण तस्वीरखाना कला-संस्कृति आश्रम में तरह-तरह के बिझूका बनाने का वर्कशॉप लगाना तय हुआ,सब चल पड़े। आसपास के जंगल से घांस-फूस बटोरी गयी, बांस के टुकड़े बटोरे गये, रद्दी अखबार ढूंढे गये, फिर हर बच्चे को कागभगोड़ा बनाने के आइडिया दिए गए। जुनून जगा, सब काम में लग गए, अपने आप टीम बन गई और टीमवर्क चालू…। शाम तक ऐतिहासिक काम हो गया था, मीडिया वालों को खबर लगी तो दौड़े दौड़े आये, कवरेज किया, दूसरे दिन बच्चों के इस कार्य को अखबारों में खूब सराहना मिली। अब आप उपरोक्त वीडिओ देखकर बताईए, आपको कैसा लगा। और महान कलाकार आशीष स्वामी जी को दीजिए श्रद्धांजलि…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ख़ुशी ☆ सुश्री प्रिया कोल्हापुरे ☆

सुश्री प्रिया कोल्हापुरे

(सुप्रसिद्ध मराठी लेखिका सुश्री प्रिय कोल्हापुरे जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत।)

☆ कविता ☆ ? ख़ुशी ??☆ सुश्री प्रिया कोल्हापुरे ☆

सुलझे सुलझे सारे सिरे

फिर से उलझ जाते है

दो बूंद खुशी से तेरे

हम अक्सर खुश हो जाते हैं

 

खुशी तो मेहमानों सी

कभी कभी ही आती हैं

दुःख ने डेरा जमा लिया है

शायद रब की यही ख्वाहिश है

 

दर्द अब दर्द सा नही लगता

हमसफर अपना सा लगता हैं

गुस्ताखियो का ही शौक पालू

रेहमत पाने से तेरी अच्छा है

 

खुशी के लिए जिंदगी से झगड़ा

बेवजह सा अब लगता है

सुकून से जनाजे पर सोऊ

ये ख़्वाब सुहाना लगता हैं

 

©  सुश्री प्रिया कोल्हापुरे 

अकोला

मो 97621 54497

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 133 ☆ # नवतपा… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# नवतपा… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 133 ☆

☆ # नवतपा… # ☆ 

अंबर से आग के शोले

बरस रहे हैं

पशु, पक्षी, मानव

छांव को तरस रहे हैं

बहती गर्म हवाएं

शरीर को झुलसा रही है

कंचन, कोमल काया

ताप से कुम्हला रही है

धरती जलकर

गर्म हो गई है

प्रेम में व्याकुल

दुल्हन सी

अंदर से नर्म

हो गई है

उसकी प्यास बढ़ती ही

जा रही है

दूर दूर से

मेघों की बारात

मृगतृष्णा जगा रही है

कभी कभी

छोटी छोटी बूंदें

आसमान से

धरती पर उतर आती है

बादलों में गर्जन

बिजुरी की कड़क

आंधी और तूफान

बहुत है पर कहीं

गर्मी से राहत

नजर नहीं आती है

हर सुबह

हर दोपहर

हर शाम

वो बावरी बन

आकाश में

ताक रही है

हर पल

हर घड़ी

हर वक्त

अपने प्रियंकर

मेघों को

झांक रही है

क्या यह नवतपा

प्रचंड तपकर

घनघोर मानसून लायेगा

या

धरती से झूठे वादे कर

काली घटाओं में छाकर

धरती को व्याकुल छोड़कर

राजनीतिक मौसम की तरह

वो बेवफा हो जायेगा  /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रतीक्षा… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रतीक्षा… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

तू केव्हाही ये … 

मी वाट पहातच आहे …. .

 

फक्त एक लक्षात ठेव,

फार उशीर लावू नकोस … 

कारण….

 

पांगारा पुन्हा फुलू लागला आहे

वेलीवर कुंदाची फुलं डुलू लागली आहेत 

गुलमोहोर सर्वांगानी खुलू लागला आहे….

 

कसं फुलायचं असतं

कसं डुलायचं असतं

कसं खुलायचं असतं

हे सारं पहायचं असेल तर …. .

…. फार उशीर लावू नकोस…… 

© सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 134 ☆ अभंग – सूर्य ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 134 ? 

☆ अभंग – सूर्य ☆

मावळता सूर्य, घाईमध्ये होता

निघालाही होता, स्वस्थानाला. !!

 

त्याला मी बोललो, थांब ना रे थोडे

बोलणारे गडे, माझ्यासवे. !!

 

घाईत असता, बोलला तो सूर्य

अरे माझे कार्य, प्रकाशाचे. !!

 

जरी मी थांबलो, सर्व ही थांबेल

दोष ही लागेलं, माझ्या कार्या. !!

 

म्हणोनी न थांबणे, कार्य हे करणे

सदैव चालणे, नित्य-कार्या. !!

 

काल्पनिक भाव, माझा मी मांडला

त्यातून शोधला, गर्भ-अर्थ. !!

 

कवी राज म्हणे, शब्द अंतरीचे

आहे कल्पनेचे, साधे-शब्द. !!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोही मनाच्या… ☆ सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी ☆

सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ डोही मनाच्या… ☆ सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी ☆

स्वच्छ पाण्याचा तळ दिसला की

पाण्यात उतरण्याची भीती वाटत नाही

तसेच माणसांच्या मनाचा तळ समजला की

त्याच्या सहवासाची भीती वाटत नाही

खूप दिवसांनी मला निवांत वेळ मिळालेला.. म्हणजे मी तो काढलेला होता अगदी प्रयासाने. स्वतःसाठी वेळ असतोच कुठे आपल्याला या धावपळीच्या जगात ?. घर, नोकरी, मुलं बाळं, नातेवाईक, सण समारंभ यातच गुरफटुन गेलेलो असतो आपण.. स्वतःकडे बघायला वेळच नसतो. स्वतःसाठी वेळ काढावा असे मनात पण येत नाही. बरं ते असो…

खूप उबग आला होता सगळ्याचा. अगदी सगळ्याचा. खोटं खोटं हसण्याचा, खोटं आनंदी आहे सुखी आहे हे दाखवण्याचा. कंटाळला होता जीव. घुसमट असह्य होत होती. काही सेकंद माझी मलाच भीती वाटली. सगळे मुखवटे फाडून टाकून जावे. . कुठे तरी अशा शांत ठिकाणी जिथे मी आहे तशीच मला दिसेन. देखावे करावे लागणार नाहीत. आपण कसे आहोत हे आपले आपल्याला कळत असतेच ना. जगाला दाखवण्याचा अट्टाहास कशासाठी ? या विचाराने मन सुन्न झाले. नकळत पायात चप्पल चढवली आणि अशीच चालत निघाले न थांबता. कुठे जायचे असा विचारही मनात आलाच नाही. फक्त चालत राहिले… खिन्न मनाने एकटीच. . . बहुतेक निवांतपणा, एकटेपणा शोधत होते माझे मन. कोणत्याच भावना, कल्पना मनाला शिवतच नव्हत्या.

थोडा थंड वारा अंगाला स्पर्श करून गेला, पालापाचोळा वाऱ्याने सळसळला तेव्हा मी भानावर आले. संध्याकाळची वेळ होती. चंद्राचा मंद प्रकाश चोहोबाजूंनी पसरलेला होता. झाडांची सळसळ, पक्षांचा दुरुन येणारा आवाज आणि आल्हाददायक असे वातावरण एरवी मनाला मोहवून टाकणारेच होते. पण आता मनात अनेक प्रश्नांचे वादळ उठले होते त्यामुळे मनाला चैन नव्हती. मी तशीच जड पावलांनी चालत राहिले. थोड्या अंतरावर एक शांत डोह नजरेस पडला. बहुतेक मघाशी आलेली थंड वाऱ्याची झुळूक डोहाला भेटूनच आली असावी. ती झुळुक अंगावरून मोरपीस फिरवून गेल्याचा भास झाला.

पायात वाळलेली पाने घिरट्या घालत होती. एकदम हसू आले मला. . . घरी पायात सगळी सारखी (बंधने ) घुटमळत असतातच, इथे पण या पानांनी त्यांची जागा घेतली की काय असे वाटले. . . .

जरा निरखून पाहिले असता जाणवले की खट्याळ वारा त्या सुकलेल्या पानांशी छान खेळत होता. माझे तिथे असण्याने त्याच्या खेळात काहीच फरक पडत नव्हता. मी थोडी पुढे चालत आले. एक मोठे झाड दिसत होते. तिथे जरा जवळ गेल्यावर झाडाच्या जवळ थोडे हिरवेगार गवत दिसायला लागले. पायातली चप्पल नकळतच मी काढली आणि अनवाणीच झाडाच्या दिशेने चालू लागले. त्या झाडाखाली थोड़ी विसावले. पायातून हिरवाई डोळ्यात उतरावी तसे डोळे एकदम थंड झालेले. डोळे मिटून घ्यावे या विचारात असतानाच समोर निळाशार डोह एकदम शांत असल्याचे जाणवले, जसे की एखादा सन्यस्त. काहीही हालचाल नाही. कोणतीही वलय नाही. एकदम संथ आणि इतका स्वच्छ की तळ दिसावा. मी जरा पुढे येवून डोकावले तर खरंच तळ दिसत होता.

संध्याकाळची वेळ. चंद्राची एक छान लकेर सरळ पाण्याच्या आरपार अगदी तळाशी गेलेली मला दिसली. त्या किरणांच्या प्रकाशात काही दगड व वनस्पती एकदम चमकून गेले. थोडा मंद प्रकाश होता. त्यामुळे फारसे काही दिसले नाही, पण जे काही थोडेफार दिसले ते विलक्षण होते. खूप वेळ अशीच बघत राहीले त्या डोहाकडे आणि त्या तळातल्या अद्भुत वाटणाऱ्या निसर्गाच्या चमत्काराकडे. विलक्षण ओढ जाणवली मनाला. डोह आणि मन यांच्यांत काहीतरी साम्य असावे का हा विचार एक क्षणभरच मनात आला आणि गेला पण. मन आणि तेही डोहासारखे ? कसे शक्य आहे. इतके स्वच्छ नितळ मन असते का ?

तळ दिसावा एवढे. . . . .

आपल्या मनात किती चांगल्या वाईट घटना, गोष्टी, क्षण घर करून असतात. द्वेष, राग, मत्सर, घृणा, दुःख, वेदना या सगळ्यांनी मनाचा डोह ढवळून निघालेला असतो. मन अगदी गढूळ झालेले असते. त्यात आपल्याला तरी आपल्या मनाचा तळ दिसेल का ? तळ दिसला तरी तो असेल का या डोहासारखा नितळ. मनाच्या तळाशी धगधगत असतात काही सल, काही आठवणी, अपमान. आणि आपण त्यांनाच जोपासत बसतो. चंद्राची एक लकेरसुद्धा आपण त्यावर पडू देत नाही. त्या शांत स्वच्छ डोहाची तुलना मनाशी केली खरी पण ते बुद्धीला रुचेना.

माझ्या मनात असंख्य वादळे घेऊनच तर मी इथे पोहोचले होते. त्यातील साठलेला गाळ असह्य होत होता. पण याचा निचरा करण्याचा प्रयत्न आपल्यलाच करायला हवा …. चला आपल्याच मनात डोकावून बघूया. दिसतो का मनाचा तळ ते तरी बघूया. दिसत नाही ? हरकत नाही आपणच आपल्या मनातील साठलेला गाळ काढायला हवा. द्वेष, राग, मत्सर, घृणा, दुःख, वेदना या गाळरूपी भावनांना बांध घालू या. श्रध्दा, भक्ती, विश्वास, प्रेम या आनंदरूपी तुरटीने मनाचा डोह स्वच्छ नितळ करण्यास सुरुवात करू. सोपे नाही आणि इतके सोपे नसतेच काही…. पण अशक्यही नाही.

पक्षी हळूहळू घरट्यात परतू लागलेले. त्यांच्या दमलेल्या पण सार्थ चिवचिवाटाने मी भानावर आले. माझे मन एकदम शांत निर्मळ भासू लागले. . अगदी त्या डोहासारखे.

मी डोहाकडे पाहिले. तो माझ्याकडेच पहात होता. त्याने एक आश्वासक स्मितहास्य केले. माझ्या चेहर्‍यावर पण खूप दिवसांनी समाधानाचे हास्य उमटले. ते पण मी त्या डोहाच्या पाण्यातच पहात होते. त्याचे आणि माझे मन एकमेकांचे झालेले अगदी एकरूप …

आता खूप समाधानाने मी माझ्या घरच्या दिशेने भरभर पाऊले टाकत चालू लागले. घरच्या मुलाबाळांच्या ओढीने. पण ही ओढ आता खूप सुखावणारी होती. मी माझे मन जणू डोहाजवळ मोकळे करून निघालेले. दूर जातानाही तो डोह माझ्या मनात स्मरणात तसाच राहिला. अगदी सखा व्हावा असा ….

© सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पीळ… – भाग -2 ☆ श्री दीपक तांबोळी ☆

श्री दीपक तांबोळी

? जीवनरंग ?

☆ पीळ… – भाग -2 ☆ श्री दीपक तांबोळी

 (मागील भागात आपण पाहिले – सात आठ वर्षांपूर्वी ते श्यामलाबाईंचं हक्क सोड प्रकरण झालं आणि जयंतरावांनी दोघा मायलेकांना संजू मामाकडे जायला मनाई केली. तेव्हापासून संजू मामाशी त्यांचे संबंध तुटले होते. आता इथून पुढे )

 जयंतराव संजूचा रागराग करण्याचं अजून एक कारण होतं. जयंतरावांच्या लग्नाच्या वेळी आणि पुढची दहाबारा वर्षं संजूची परिस्थिती जवळजवळ गरीबीचीच होती. पण पुढे संजूने बांधकाम क्षेत्रात पाऊल टाकलं आणि त्याचं नशीब फळफळलं. गरीब संजू म्हणता म्हणता धनाढ्य शेठ होऊन गेला. सात आठ वर्षांपूर्वी त्याने मोठा बंगला बांधला. घरी दोन दोन चारचाकी आल्या. . गावांतल्या मोठमोठ्या लोकांशी, राजकीय पुढाऱ्यांशी त्याची चांगली घसट वाढली. . जयंतरावांचा एक नातेवाईक संजूच्या घराजवळच रहात होता. त्याच्याकडून त्यांना संजूच्या प्रगतीबद्दल कळायचं आणि मग त्यांचा जास्तच जळफळाट व्हायचा.

तिसऱ्या दिवशी संजू आणि विद्या परत आले. निमंत्रण नसतांना ते आल्याचं पाहून जयंतराव खवळले. वैभवला त्यांनी त्यांच्या खोलीत बोलावून घेतलं.

” वैभव तुझ्या मामा, मावशीला कोणी बोलावलं होतं?”त्यांनी रागाने विचारलं,

“मी बोलावलं होतं. का?”वैभव त्यांच्या नजरेला नजर भिडवत धिटाईने बोलला. जयंतराव क्षणभर चुप झाले. मग उसळून म्हणाले,

“आता पुढच्या विधींसाठी तरी त्यांना बोलावू नकोस. त्यांची बहिण गेली संपले त्यांचे संबंध “

” विधी संपेपर्यंत तरी त्यांचे संबंध रहातील बाबा आणि तोपर्यंत तरी मी त्यांना बोलावणारच. मग पुढचं पुढे पाहू “वैभव जोरातच बोलला पण मग त्याचं त्यालाच आश्चर्य वाटलं. आजपर्यंत तो वडिलांशी अशा भाषेत बोलला नव्हता. का कुणास ठाऊक पण आता त्याला वडिलांची भिती वाटेनाशी झाली होती.

दशक्रिया विधी झाला पण पिंडाला कावळा शिवेना. कावळे घिरट्या घालत होते पण पिंडाला शिवत नव्हते. श्यामलाबाईंची शेवटची इच्छा काय होती हेच कुणाला कळत नव्हतं. सगळे उपाय थकले. वैभव रडू लागला. जयंतरावांचेही डोळे भरुन आले होते. अचानक संजूमामाला काय वाटलं कुणास ठाऊक. तो पुढे आला आणि वैभवला जवळ घेऊन म्हणाला,

” ताई काही काळजी करु नकोस. आम्ही मरेपर्यंत तुझ्या मुलाला अंतर देणार नाही. त्याचं लग्न, संसार सगळं व्यवस्थित करुन देऊ. “

तो तसं म्हणायचा अवकाश, कावळ्यांची फौज पिंडावर तुटून पडली. वैभव मामाला घट्ट मिठी मारुन रडू लागला. जयंतरावांना मात्र अपमान झाल्यासारखं वाटलं. याचा अर्थ स्पष्टच होता की मेल्यानंतरही बायकोचा त्यांच्यावर विश्वास नव्हता.

तेराव्याचा कार्यक्रम आटोपल्यावर मामा वैभवजवळ आला.

“वैभव आम्ही आता निघतो. आता यापुढे तुझ्या घरी आमचं येणं होईल की नाही ते सांगता येत नाही. पण तू आमच्याकडे नि:संकोच येत जा. काही मदत लागली तर आम्हांला सांगायला संकोचू नको. तुझ्या लग्नाचंही आम्ही बघायला तयार आहोत पण तुझ्या वडिलांना ते चालेल का? हे विचारुन घे. तुझ्या आईला तुझी काळजी घ्यायचं मी वचन दिलंय ते मी मरेपर्यंत विसरणार नाही. अडचणीच्या वेळी रात्रीबेरात्री केव्हाही काँल कर, मी मदतीला हजर असेन. बरं. ताईच्या आजारपणात तुझा खर्च खुप झाला असेल म्हणून मी तुझ्या खात्यात दोन लाख ट्रान्सफर केले आहेत. पाहून घे. आणि हो. परत करायचा वेडेपणा करु नकोस. माझ्या बहिणीच्या कार्यासाठी मी खर्च केलेत असं समज “

वैभवला भडभडून आलं. त्याने मामाला मिठी मारली. रडतारडता तो म्हणाला,

” मी खुप एकटा पडलोय रे मामा. हे बाबा असे तिरसट स्वभावाचे. कसं होईल माझं ?”

“काही काळजी करु नकोस. आता बायको गेल्यामुळे तरी त्यांच्या स्वभावात फरक पडेल असं वाटतंय. “

वैभव काही बोलला नाही पण मामाचं बोलणं कितपत खरं होईल याचीच त्याला शंका वाटत होती.

सगळे पाहुणे गेल्यावर दोनतीन दिवसांनी वैभव वडिलांना म्हणाला,

“तुम्ही त्या मामाचा नेहमी रागराग करता पण बघा, शेवटी तोच मदतीला धावून आला. आईच्या अंत्यविधीसाठी त्यानेच मदत केली. शेवटी जातांनाही मला दोन लाख रुपये देऊन गेला. तुमच्या एकातरी नातेवाईकाने एक रुपया तरी काढून दिला का?”

एक क्षण जयंतराव चुप बसले मग उसळून म्हणाले,

“काही उपकार नाही केले तुझ्या मामाने!वडिलोपार्जित वाडा ८० लाखाला विकला. तेव्हा तुझ्या आईच्या हिश्शाचे ८ लाख त्याने स्वतःच खाऊन टाकले. एक रुपया तरी दिला का त्याने?”” चुकीचं म्हणताय तुम्ही. आई आणि मावशीनेच विनामुल्य हक्क सोडपत्र करुन दिलं होतं. मामा तर त्यांचा हिस्सा द्यायला तयार होता असं आईनेच मला तसं सांगितलं होतं. “

” खोटं आहे ते!गोडगोड बोलून त्याने त्यांच्याकडून सह्या करुन घेतल्या आणि नंतर त्यांना रिकाम्या हाताने घरी पाठवलं. महाहलकट आहे तुझा मामा. “

आता मात्र वैभव खवळला.

“बस करा बाबा. आख्खं आयुष्य तुम्ही मामाला शिव्या देण्यात घालवलं. आता आई गेली. संपले तुमचे संबंध. आणि मला तर कधीच मामा वाईट दिसला नाही. तुम्ही किती त्याच्याशी वाईट वागता. त्याला हिडिसफिडीस करता. पण तो नेहमीच तुमच्याशी आदराने बोलतो. फक्त तुम्हांलाच तो वाईट दिसतो. विद्यामावशीच्या नवऱ्याचं तर त्याच्याशिवाय पान हलत नाही. त्याचा सल्ला घेतल्याशिवाय ते कुठलंही काम करत नाहीत. इतके त्या दोघांचे जिव्हाळ्याचे संबंध आहेत. “

” बस पुरे कर तुझं ते मामा पुराण “जयंतराव ओरडून म्हणाले “मला त्यात आता काडीचाही इंटरेस्ट उरला नाहिये. आणि आता यापुढे मामाचं नावंही या घरात काढायचं नाही. समजलं ” त्यांच्या या अवताराने वैभव वरमला. आपल्या बापाला कसं समजवावं हे त्याला कळेना.

वैभव दिवसभर ड्युटीनिमित्त बाहेर असल्यामुळे जयंतराव घरी एकटेच असायचे. हुकूम गाजवायला आता बायको उरली नसल्याने त्यांना आयुष्यभर कधीही न केलेली कामं करावी लागत होती. घरच्या कामांसाठी बाई होती तरीसुद्धा स्वतःचा चहा करुन घेणं, पाणी भरणं इत्यादी कामं त्यांना करावीच लागायची. त्यामुळे त्यांची खुप चिडचिड व्हायची. स्वयंपाकाला त्यांनी बाई लावून घेतली होती पण बायकोच्या हातच्या चटकदार जेवणाची सवय असणाऱ्या जयंतरावांना तिच्या हातचा स्वयंपाक आवडत नव्हता. तिच्या मानाने वैभव छान भाज्या बनवायचा. म्हणून संध्याकाळी तो घरी आला की ते त्याला भाजी करायला सांगायचे. थकूनभागून आलेला वैभव कधीकधी त्यांच्या आग्रहास्तव करायचा देखील. पण रोजरोज त्याला शक्य होत नव्हतं. त्याने नाही म्हंटलं की दोघांचेही खटके उडायचे.

एक दिवस वैभव संतापून त्यांना म्हणाला,

“एवढंच जर चटकदार जेवण तुम्हांला आवडतं तर आईकडून शिकून का नाही घेतलंत?”

” मला काय माहीत ती इतक्या लवकर जाईल म्हणून!”

“हो. पण कधी तरी आपण स्वयंपाक करुन बायकोला आराम द्यावा असं तुम्हांला वाटलं नाही का?आईच्या आजारपणातही तुम्ही तिला स्वयंपाक करायला लावायचात. तिचे हाल पहावत नव्हते म्हणून मीच स्वयंपाक शिकून घेतला पण तुम्हांला कधीही तिची किंव आली नाही ” ” मीच जर स्वयंपाक करायचा तर बायकोची गरजच काय?”

“याचा अर्थ तुम्ही आईला फक्त स्वयंपाक करणारी, घरकाम करणारी बाई असंच समजत होतात ना?माणूस म्हणून तुम्ही तिच्याकडे पाहिलंच नाही ना?”

“चुप बैस. मला शहाणपणा शिकवू नकोस. नसेल करायची तुला भाजी तर राहू दे. मी बाहेर जाऊन जेवून येतो “

“जरा अँडजस्ट करायला शिका बाबा. एवढंही काही वाईट बनवत नाहीत त्या स्वयंपाकवाल्या मावशी “

जयंतरावांनी त्याच्याकडे जळजळीत नजरेने पाहिलं मग ते कपडे घालून बाहेर निघून गेले. ते हाँटेलमध्ये जेवायला गेलेत हे उघड होतं.

वैभवला आता कंपनीतून घरी यायचीच इच्छा होत नव्हती. एकतर घरी आल्याआल्या हातात चहाचा कप हातात ठेवणारी, सोबत काहीतरी खायला देणारी आई नव्हती शिवाय घरी आल्याआल्या वडिलांचा चिडका चेहरा बघितला की त्याचा मुड खराब व्हायचा. त्यांच्या तापट स्वभावामुळे वडिलांबद्दल त्याला कधीही प्रेम वाटलं नव्हतं. जयंतरावांनी नोकरीत असतांना कधी घरात काम केलंच नव्हतं पण निव्रुत्तीनंतरही सटरफटर कामं सोडली तर दिवसभर टिव्ही पहाण्याव्यतिरिक्त ते कोणतंही काम करत नव्हते. बायको होती तोपर्यंत हे सगळं ठिक होतं पण ती गेल्यावरही वैभवच्या अंगावर सगळी कामं टाकून ते मोकळे व्हायचे. वैभवची त्याच्यामुळे चिडचिड व्हायची.

एक दिवस त्याने वैतागून मामाला फोन लावला,

” मामा या बाबांचं काय करायचं रे? खुप वैताग आणलाय त्यांनी. आजकाल घरातच थांबावसं वाटत नाही बघ मला “

” हे असं होणार याची कल्पना होतीच मला. तुझ्या वडिलांना मी गेल्या तेहतीस वर्षांपासून ओळखतोय. एक नंबरचा स्वार्थी माणूस आहे. तुझ्या आईलाही खूप त्रास दिलाय त्यांनी. विचार कर कसा संसार केला असेल तिने. पण इतका त्रास सहन करुनही कधीही तिने आम्हांला नवऱ्याबद्दल वाईट सांगितलं नाही. कधी तक्रार केली नाही. ” पदरी पडलं आणि पवित्र झालं “एवढंच ती म्हणायची. तू एकदोन महिन्यातच त्यांना कंटाळून गेला. तिने तेहतीस वर्ष काढली आहेत अशा माणसासोबत. आम्हीही सहन केलंच ना त्यांना. माझा तर कायम दुःस्वास केला त्या माणसांने. कधी आदराने, प्रेमाने बोलला नाही. उलट संधी मिळेल तेव्हा चारचौघात अपमान करायचा. खुप संताप यायचा. कधीकधी तर ठोकून काढायची इच्छा व्हायची. पण बहिणीकडे बघून आम्ही शांत बसायचो. तुही जरा धीर धर. लवकरात लवकर लग्न करुन घे म्हणजे तुलाही एक प्रेमाचं माणूस मिळेल. “

“मी लग्नाला तयार आहे रे पण येणाऱ्या सुनेशी तरी बाबा चांगले वागतील का? की तिलाही आईसारखाच त्रास देतील?”

” हो. तोही प्रश्न आहेच. पण लग्न आज उद्याकडे करावंच लागणार आहे. आता तुही २८ वर्षाचा असशील. मुली बघताबघता आणि लग्न ठरेपर्यंत एक वर्ष तर निघूनच जाईल. मी असं करतो, मुली बघायला सुरुवात करतो “

क्रमश: भाग २

© श्री दीपक तांबोळी

जळगांव

मो – 9503011250

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “कोसळलेली आभाळं सावरताना…!” —☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

 

? मनमंजुषेतून ?

☆ “कोसळलेली आभाळं सावरताना…!” —  ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

मानवी जीवनाच्या डोईवर मृत्यू नावाचं आभाळ कायमच कोसळण्याच्या बेतात असतं. जन्माच्या सोहळ्याची सांगता मृत्यूच्या अभ्रछायेखाली होताना दशदिशा काळवंडून गेलेल्या असतात. हे आभाळ कोसळतं तेव्हा मनाच्या पृष्ठभागावरचं सर्वच जमीनदोस्त होतं… आणि मनाच्या खोल समुद्राचा तळ भूकंपाच्या धक्क्यानं शतविक्षत होतो… आणि वेदनेच्या लाटा उसळी मारून वर येऊ पाहतात. हा अनुभव मरणा-याला येऊच शकत नाही, मात्र मरणा-याच्या रक्त-नात्यांना हा अनुभव विस्कटून टाकतो. अशा वेळी खांद्यावर ठेवला गेलेला हलका हात, पाठीवरून अलगद फिरणारी मायेची बोटं, कपाळावरून डोक्यावर हळूहळू स्पर्शत जाणारा एखाद्या थरथरत्या हाताचा तळवा. . वेदनांकित तळहाताच्या उपड्या पृष्ठभागावर एखाद्या हाताची सहज थपथप आणि कुणीतरी अतीव सहवेदनेने मारलेली मिठी… किती मोठा दिलासा असतो ! शब्द तर नंतर आणि तेही बिचारे गलितगात्र झालेले ! संवेदनेच्या फुलांतून सहवेदनेचा सुगंध अवतरतो तेव्हा आभाळ सुखावून जात असावं ! आपली स्वत:ची दु:खं एकवेळ सुसह्य असतीलही, पण दुस-याच्या दु:खाला सामोरं जाणं म्हणजे जणू श्वास रोखून पाण्याखालून चालत जाऊन पैलतीर गाठण्याएवढं गुदमरून टाकणारं. आणि एरव्ही हाताच्या अंतरावर दिसणारे हे पैलतीर अशावेळी क्षितीजाच्याही पल्याडची वाटतात… आणि असतातही ! 

जगण्यासारखीच मरणाचीही अनंत रूपे असतात. त्यातलं सर्वाधिक पवित्र मरण म्हणजे देशासाठी… परोपकारासाठी, दुस-याच्या प्राणांचे रक्षण करताना आलेलं ! ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं… ’. या भगवंताच्या चिरंजीव आशीर्वादाचे फळ म्हणून असे मरण पावणारे स्वर्गास प्राप्त होतात. पण त्यांच्या मागे राहणा-यांना वेदनांच्या, विरहाच्या नरकास सामोरे जावे लागते… हेही खरेच ! आणि कोणी होऊ म्हटला तरी त्यांच्या या दु:खाचा वाटेकरी होऊ शकत नाही. शेवटी दु:ख हे अगदीच स्वतंत्र असते… स्वाभिमानी असते ! परंतू कुणी फुंकर घातल्यास हा दाह क्षणिक का होईना, गारवा अनुभवू शकतो… हे ही नसे 

थोडके !‍ कितीतरी वेळा दुखण्यापेक्षा कुणी फुंकर घालायला आलं नाही, याच्या वेदना अधिक असतात. बालकं त्यांच्या जखमेवर आई, आजी फुंकर घालते तेव्हा रडायची थांबतात ! कदाचित पुन्हा रडू लागतील, पण फुंकरीची आठवण मनाच्या कोप-यात जपून ठेवतील ! अंधाराला घाबरणारी मुलं, “आई, तु आहेस ना?” असं विचारत विचारत अंधाराला भिडतात तेव्हा ती कमाल आईच्या ‘असण्याची’ असते… लांबून का होईना !

रणभूमी मोठी चोखंदळ असते… निवडक देहांनाच आपल्या अंकावर विसावू देते. इथं प्राणांचं भय मुठीत घेऊन पावलं मागं खेचणारे तिचे नावडते ! तळहातावर शीर घेऊन मृत्यूला मरणमिठी मारण्यास धजावणारे देह जेव्हा नश्वरतेच्या काळोखात दिसेनासे होतात तेव्हा त्या देहांनी जीवनप्रवासात जोडलेले आप्तसंबंध सर्वाधिक क्षतिग्रस्त होतात. आई, बाप, पत्नी, अपत्यं, बहिण, भाऊ, मित्र… दु:खाची ही किती परिमाणं ! पण आई आणि पत्नी ही नाती सर्वांत हुळहुळी… मुळापासून हादरून जाणारी… काहीवेळा उन्मळूनही पडणारी ! 

अशी नाती वेदनेची न संपणारी वाट चालत असतात, तेव्हा त्यांना चार पावलं सोबत चालून सोबत करणं हे प्रत्येक सहृदय माणसाचं आद्य कर्तव्यच ठरावे ! आपण त्यांच्या त्यागाबद्दल त्यांच्याविषयी सदैव कृतज्ञ असावे ! जगाच्या व्यवहारात हा मृत्यूचा बाजार सदोदित गजबजत राहणार आहेच… पण या मृत्यूला संवेदनशीलतेचं कोंदण आपण सर्वजण मिळून देऊ शकलो तर मृत्यू ‘ अर्थपूर्ण ‘ होईल, नाही का? 

भारताच्या राष्ट्रपती महामहिम आदरणीय श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ह्या आपल्या प्रथम नागरीक आणि देशाच्या कुटुंबप्रमुख. हुतात्म्यांच्या आप्तांप्रती त्यांनी कृतीतून दर्शवलेली आत्मीयता, जिव्हाळा आणि सहवेदना आदर्शवत ठरावी. सर्वोच्च पदाचे शिष्टाचार, संकेत बाजूला सारून त्यांनी आपल्या गमावलेल्या माणसांच्या आठवणीने व्याकूळ झालेल्यांच्या खांद्यावर ठेवलेला हात, त्यांना दिलेलं आलिंगन, राष्ट्राच्या वतीने आभारार्थ जोडलेले हात ही दृश्ये खूप बोलकी आहेत… हे पाहून दिवंगत आत्मेही शहारून गेले असतील !

(हुतात्म्यांच्या कुटुंबियांसाठी काम करणारी खूप माणसं, संघटना आपल्या देशात आहेत. त्यांची संख्या वाढली पाहिजे, जनतेनेही यांना साथ द्यायला पाहिजे. किमान बलिदानाची दखल तरी घेतली पाहिजे. वेदना जाणावया जागवू संवेदना ! जय हिंद ! )

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ जागतिक पर्यावरण दिन-५ जून २०२३… ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

🌈 इंद्रधनुष्य 🌈

☆ ♻️ जागतिक पर्यावरण दिन-५ जून २०२३… 🌻 ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

नमस्कार मैत्रांनो,

युनायटेड नेशन्स एन्व्हायर्नमेंट प्रोग्राम (UNEP) च्या नेतृत्वाखाली १९७३ पासून दर वर्षी ५ जूनला ‘जागतिक पर्यावरण दिन’ आयोजित केला जातो. २०२३ च्या जागतिक पर्यावरण दिनाची थीम आहे ‘Beat Plastic Pollution’ अर्थात ‘प्लास्टिक प्रदूषणावर मात करा’, कारण वाढते प्लास्टिक प्रदूषण हे पर्यावरण प्रदूषणाचे एक प्रमुख कारण असल्याचे दिसून आले आहे. दरवर्षी ४०० दशलक्ष टनांहून अधिक प्लास्टिकचे उत्पादन केले जाते, त्यातील निम्मे प्लास्टिक एकदाच वापरण्यासाठी (एकल वापर प्लास्टिक अर्थात सिंगल यूज प्लास्टिक) डिझाइन केलेले आहे. म्हणूनच आजच्या काळाची नितांत गरज बनलेल्या २०२३ च्या थीमच्या अंतर्गत प्लास्टिक प्रदूषणावर मात करण्याविषयी सार्वजनिक व निजी क्षेत्र तसेच नागरिकांचा सहभाग असलेले जागतिक उपक्रम राबवल्या जातील.

प्लास्टिक प्रदूषणाची कारणे

प्लॅस्टिकचे उत्पादन करतांना जीवाश्म इंधन वापरतात, जे ग्रीन हाऊस गॅस (कार्बन डाय ऑक्साईड) बाहेर टाकते आणि जागतिक तापमान वाढवते. एकल वापर प्लास्टिक, मुख्यत्वे करून प्लॅस्टिकच्या पिशव्या, स्ट्रॉ आणि पाण्याच्या बाटल्या यांचा अतिरेकी वापर हे वाढत्या प्लास्टिक प्रदूषणाचे प्रमुख कारण आहे. प्लास्टिक कचऱ्याचे चुकीचे व्यवस्थापन (मुख्यत्वे कचऱ्याचे वर्गीकरण न करणे), कचराकुंडीच्या बाहेर किंवा इतरत्र प्लास्टिक फेकल्यास प्लास्टिक जलमार्ग आणि महासागरांमध्ये प्रवेश करून सागरी जीवन आणि पर्यावरणास हानी पोहोचवू शकते. या प्लास्टिकचे विघटन होण्यास १००० हून जास्त वर्षे लागतात, शिवाय हे विषारी रसायनाच्या रूपात विघटित झालेले प्लास्टिक पर्यावरण कलुषित करीत राहते. सागरी जीवनावर प्लास्टिक प्रदूषणाचा परिणाम होतो. महासागरांतील कासव, मासे आणि इतर जलचरांच्या जीवांची हानी होते. तसेच जलमार्ग प्रभावित होतात. नद्या आणि नाले प्लास्टिकच्या कचऱ्याने तुंबू शकतात, ज्यामुळे पूर आणि प्रदूषण होते. यात आपल्या पिण्याचे पाणी देखील प्रदूषित होते. यामुळे जैवविविधता (biodiversity) कमी होत आहे. प्लास्टिकच्या विषारी रसायनांनी मानवी आरोग्यावर वाईट परिणाम होतो.

प्लास्टिक प्रदूषणावर मात करण्याचे मार्ग

प्लास्टिक प्रदूषणावर मात करण्याकरता रिड्यूस, रीयूज और रीसायकल, हे तीन आवश्यक R अर्थात उपाय आहेत. एकल वापर प्लास्टिकचा वापर कमी करून त्याऐवजी शाश्वत पर्याय अर्थात नैसर्गिक साहित्य वापरावे. या लढ्यात जनजागृती करणे महत्त्वाचे आहे. सामाजिक जागरूकता अभियान, तसेच समाज प्रबोधन यासाठी समाज माध्यमे खूप परिणामकारक ठरतात. एकल-वापरणाऱ्या प्लास्टिकचे उत्पादन आणि वापर मर्यादित करणारी सरकारी धोरणे आणि नियम यांचे पूर्ण कसोशीने पालन करणे गरजेचे आहे. तसेच प्लास्टिक प्रदूषणावर मात करण्यासाठी समुद्रकिनारे, बगीचे, इतर सार्वजनिक ठिकाणे आणि संकुलात स्वच्छता अभियान आयोजित करून आपण प्लास्टिक कचऱ्याचे नियोजन करू शकतो.

‘स्वच्छ रुणवाल’ अभियान 

मैत्रांनो, आपण प्लास्टिकचा वापर करतोच, पण ते आपल्या घराबाहेर, संकुलाच्या परिसरात, रस्त्यांवर तसेच कचराकुंडीच्या असतानाही तिच्या बाहेर हा कचरा टाकतो. हे कचऱ्याचे योग्य नियोजन नाही. या दृष्टीने रुणवाल गार्डन सिटी, ठाणे पश्चिम या आमच्या संकुलात जानेवारी २०१७ पासून ‘स्वच्छ रुणवाल’ हा उपक्रम कार्यान्वित आहे. बिस्लेरी-बॉटल फॉर चेंज, अँटी प्लास्टिक ब्रिगेड चॅरिटेबल ट्रस्ट, परिसर भगिनी विकास संघ, उर्जा फाउंडेशन आणि ठाणे महानगरपालिका यांच्यासोबत ‘स्वच्छ रुणवाल’ हा प्रकल्प राबवल्या जात आहे. आजपावेतो आम्ही २७००० किलो पेक्षाही अधिक प्लास्टिक पुनर्वापर करण्याकरता दिलेले आहे, याचा रहिवासी आणि या मोहिमेत सहभागी असलेल्या स्वयंसेवकांना (मी यात स्वयंसेवक आहे) रास्त अभिमान आहे. याच उपक्रमात इलेक्ट्रॉनिक कचरा आणि थर्माकोलचाही पुनर्वापर केल्या जातो. वृक्षारोपण मोहिमेद्वारे हिरवळ आणि स्वच्छतेला प्रोत्साहन दिल्या जाते. ठाणे लगतच्या समुद्रकिनाऱ्यावरील सरकारी स्वच्छता मोहीमेत आमच्या कांही स्वयंसेवकांनी योगदान दिलेले आहे.

जानेवारी २०१७ मध्ये आम्ही प्लॅस्टिक संकलनाची सुरुवात केली. यात गोळा केलेला प्लास्टिक कचरा स्वयंसेवक त्यांच्या स्वतःच्या वाहनातून पुनर्वापरासाठी ऊर्जा फाउंडेशन केंद्रांमध्ये नेत असत. संकुलाचे योगदान वाढत गेले, म्हणून आम्ही ‘बॉटल फॉर चेंज’ आणि ‘अँटी प्लास्टिक ब्रिगेड चॅरिटेबल ट्रस्ट’ शी करार केला. ऑगस्ट २०१९ पासून याला चांगलीच गती मिळाली. आता एका आठवड्याआडच्या शनिवारी रुणवाल गार्डन सिटीच्या रहिवाशांनी प्लॅस्टिक कचरा इमारतींच्या ठराविक ठिकाणी जमा करून प्लास्टिक पुनर्वापराची मोहीम सुरू ठेवली आहे. आमचे संकुल ‘बॉटल फॉर चेंज’ च्या प्रकल्पांतर्गत नोंदणीकृत आहे. यात ही संस्था तुमच्या सोसायटीमधून प्लास्टिक गोळा करण्यासाठी त्यांचे वाहन तुमच्या दारात पाठवते आणि त्यांच्या ऍपद्वारे हे काम करणे खूप सोपे असते. हे ऍप आमच्या सोसायटीने त्यांच्याकडे जमा केलेल्या प्लॅस्टिक कचऱ्याचे नेमके वजन सांगते.

प्लॉगिंग

मंडळी, आमच्या संकुलात ‘प्लॉगिंग’ (म्हणजेच जॉगिंग किंवा इतर व्यायाम करता करता प्लास्टिकचा कचरा गोळा करणे आणि त्याचे योग्य नियोजन करणे) देखील करण्यात येते. दर रविवारी आमच्या या प्रकल्पातील सदस्य आणि मुले हे विखुरलेले प्लास्टिक वेचून, तर कधी खोदून काढत सफाई कर्मचाऱ्यांप्रमाणे ते जमा करीत असतात. या व्यतिरिक्त कांही खास दिवशी (उदा. धुळवडीचा दुसरा दिवस- ८ मार्च २०२३ आणि जागतिक वसुंधरा दिन-२२ एप्रिल २०२३) हे काम जोमात सुरु असते.

जनजागरण

हे स्वयंसेवक जनजागरण करण्याची कुठलीच संधी सोडत नाहीत. या संकुलातील प्रत्येक सार्वजनिक कार्यक्रमात यांचे आवाहन असतेच! कधी समाजमाध्यमातीळ संदेश, व्हिडीओ (मुख्यतः व्हाट्स ऍप आणि फेस बुक) कधी भाषण तर कधी सुंदर पथनाट्य, कधी पोस्टर, पेन्टिंग स्पर्धा! या सर्व माध्यमातून हे काम अव्याहत सुरूच असते. अत्यंत आशाजनक आणि आनंददायी गोष्ट ही की, या उपक्रमात लहान मोठी मुले खूप उत्साहात आणि हिरीरीने सहभागी होतात.

पुरस्कार

या अभियानाला कित्येक पुरस्कार आणि प्रमाणपत्रे मिळाली आहेत. २०२३ विषयी सांगायचे तर, ८ मार्च रोजी झालेल्या ‘जागतिक महिला दिनाचे’ औचित्य साधत, संजय भोईर प्रतिष्ठान तर्फे ‘उषा सखी सन्मान’ या कार्यक्रमात माननीय श्री संजय भोईर आणि सौ उषा भोईर यांच्या हस्ते प्रमाणपत्र देऊन रुणवालच्या या प्रकल्पासाठी काम करणाऱ्या स्त्रियांचा गौरव करण्यात आला. ११ एप्रिल २०२३ ला गोदरेज आणि बॉयस यांच्या सहकार्याने ‘द बेटर इंडिया’ ने सादर केलेला ‘सर्वोत्कृष्ट गृहनिर्माण संस्था पुरस्कार’ (स्वच्छ पुढाकार श्रेणीतील विजेते) रुणवाल गार्डन सिटी, ठाणेला मिळाला आहे. शहरांना राहण्यायोग्य अशी चांगली ठिकाणे बनवण्याच्या दिशेने एकत्रितपणे काम करणे आणि समाजातील सर्व घटकांमध्ये त्याची अंमलबजावणी आणि जागरूकता निर्माण केल्याबद्दल हा राष्ट्रीय पुरस्कार आहे.

मंडळी सामाजिक उपक्रम सरकारी असो वा खाजगी, तो नागरिकांच्या सहभागाशिवाय सिद्धीस जात नसतो. कुठल्याही उपक्रमाची सुरुवात स्वतः पासूनच होते. आपण सर्वांनी एकल वापर प्लास्टिकच्या पिशव्या, पाण्याच्या बाटल्या, प्लेट, डबे, भांडी, चमचे, स्ट्रॉ, कप इत्यादींचा वापर थांबवला पाहिजे. पर्यायी वस्तूंपासून बनलेले साहित्य (उदा. कापडी पिशव्या, स्टीलच्या पाण्याच्या बाटल्या, केळ्याच्या सालीपासून तयार केलेल्या प्लेट, वाट्या इत्यादी) वापरात आणल्यास कित्येक टन प्लास्टिकचा वापर थांबवता येईल. सरकारी पातळीवर प्रत्येक संकुलात कचऱ्याचे नियोजन करणे आणि प्लास्टिक वेगळे जमा करणे या योजना आधीच सुरु झाल्या आहेत, त्या यशस्वी करणे हे त्या रहिवाश्यांचे सामाजिक कर्तव्य आहे. ‘माझा प्लास्टिक कचरा, माझी जबाबदारी’ हा मंत्र ध्यानात ठेवत आपण या प्रकल्पात खारीचा वाटा उचलावा, असे मला वाटते. लक्षात असू द्या मंडळी, आपण पुनर्वापरासाठी दिलेले प्रत्येक प्लास्टिक हे हरित वसुंधरेच्या दिशेने एक महत्वाचे पाऊल आहे !

धन्यवाद ! 🌹

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे, फोन नंबर – ९९२०१६७२११

टीप-

वरील उपक्रमासंबंधी विडिओच्या लिंक लेखाच्या शेवटी दिलेल्या आहेत. या लेखासाठी इंटरनेटवर उपलब्ध माहितीचा उपयोग केला आहे.

कृपया प्रतिक्रिया अग्रेषित करायची असल्यास माझे नाव आणि फोन नंबर त्यात असू द्यावे!

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-10… ☆भावानुवाद- सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-10…  ☆भावानुवाद-  सुश्री शोभना आगाशे ☆

 पाण्याची खोली मोजण्यासि

मीठ तेथ जाई बुडी मारण्यासि

स्वतःच तेथे विरघळून ते जाता

कशी पाण्याची खोली, मोजे हाता

आत्मभाव तुझा मापु न शकतो

माझा आत्मभाव तयात विरतो

एकरूप होता पाणी व लवण

कोण कोणा करी उपदेश जाण॥४६॥

 

नसे जिथे मी स्वतः, तुज जातो पाहू

आत्मरूपी लीन तूही, तुज कैसे पाहू॥४७॥

 

जागा राहुनिया निद्रेसि कसा पाहू

स्वरूपी एकरूप तुला कसा पाहू॥४८॥

 

अंधार असता प्रकाश नसे, परि

स्वतः असण्याची जाणीव उरी

अंधार दूर करि जरी सूर्यप्रकाश

पाहू न शके तो कधी अंधारास

जंव पाही मी तुजकडे चांगदेवा

मज दिसे केवळ आत्मस्वरूप ठेवा

मम स्वरूपे, पहावे तव स्वरूप

मम देह, तव देहाचे न पाही रूप

इंद्रियस्थ केवळ पाहणे, दिसणे

आत्मतत्वी भेटता, विरून जाणे॥४९॥

 

तव आत्मस्वरूपा मी शोधू जाता

माझे मीपण, तुझे तूपण नष्ट होता

अशा भेटी, अद्वैत आत्मतत्वांचे

घेशील सुख आत्मसाक्षात्काराचे॥५०॥

 

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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