(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “कहन कहन कहने लगे…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
अच्छी शुरुआत अर्थात आधा कार्य पूर्ण, पर देखने में आता है कि अधिकांश लोग देखा देखी प्रारंभ तो जोर – शोर से करते हैं किंतु बाद में उन्हें समझ आता है कि अमुक कार्य उनकी रुचि का नहीं है, और यहीं से गति धीमी हो जाती है। विचारों की उदासीनता से व्यक्ति बड़बोलेपन का शिकार हो जाता है। नया करने में डर लगने लगता है। जैसे जोरशोर से कार्य आरंभ करते हैं उससे कहीं अधिक हमें उसे पूर्ण करने की ओर ध्यान देना चाहिए। सही प्रक्रिया अपनाते हुई गुणवत्ता पूर्ण कार्यों की ओर अग्रसर होना सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है।
जब हम पूरे मन से कार्य को करेंगे तो अवश्य ही सकारात्मक विचारों के साथ उसे पूर्णता तक पहुँचायेंगे। योग्य मार्गदर्शक के निर्देशन में शुभ परिणाम मिलते हैं। इस संदर्भ में एक बात और विचारणीय है कि यात्रा के बहाने लोगों से जुड़ने का अच्छा माध्यम मिलता है किंतु विचारहीन व्यक्ति सही संप्रेषण नहीं कर पाता। भाषा पर पकड़ यदि मजबूत नहीं होगी तो लोगों के बीच अपने मनोभावों को व्यक्त करना कठिन होगा। शब्दों को अटक – अटक कर बोलने से चेहरे की भाव – भंगिमा भंग होती है जिससे जो कहना है उसे बीच में रोक कर कुछ अनचाहा बोलना पड़ता है।
जो भी हो होते रहना चाहिए ताकि लोगों को ये तो पता लगे कि आप मैदान में हैं। धूप – छाया, दिन – रात, धरती – आकाश, जल- थल, मीठा-कड़वा सभी जरूरी हैं। सो स्वयं को उपयोगी बनाने की दिशा में जुटे रहें। जनमानस के साथ संवाद हो विवाद नहीं।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन।🕉️
💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। कल शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem ~ How I wished… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – भगत सिंह का लाहौर।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 264 ☆
आलेख – भगत सिंह का लाहौर
भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर अमृतसर और लाहौर के बीच है. हर शाम यहाँ बीटिंग रिट्रीट परेड का आयोजन होता है. भारत और पाकिस्तान दोनो ही ओर से हजारों दर्शक सैनिकों की चुस्त दुरुस्त फुर्तीली परेड के गवाह बनते हैं. कभी लाहौर भगत सिंह की प्रमुख कर्मभूमि था. शहीद भगतसिंह १९४७ में होते तो क्या वे आजादी के जश्न को जश्न कह पाते ? कथित आजादी से शहीद भगत सिंह के सपने के टुकड़े हुये हैं. क्या हजारों की तरह दिल में विभाजन का दर्द समेटे अपने लाहौर को पाकिस्तान के हवाले कर भगत सिंह को भी लाहौर छोड़ना पड़ता ? विभाजन के दिनो में लाहौर गवाह रहा है दोनो ओर से पलायन करते हजारो परिवारों के विस्थापन का. सैकड़ो लाशें भी ढ़ोई हैं, इधर उधर होती रेलों ने. कितना वीभत्स्व था वह विभाजन जिसे लोग आजादी का जश्न कहते हैं. बर्लिन की दीवार ढ़हाकर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का पुनर्मिलन हुआ है. यदि कभी इतिहास ने करवट ली और पाकिस्तान को शहीदे आजम भगतसिंह की क्रांतिकारी विचारों ने प्रभावित किया और पुनः दोनो देश मिलकर एक हुये तो तय है भगत सिंह का लाहौर ही उस विलय का गवाह बनेगा. आज का आतंकवाद को प्रश्रय देता पाकिस्तान संकुचित साम्प्रदायिक विचारधारा से मुक्त हो, सपूत शहीदे आजम भगत सिंह के सामाजिक समरसता के दिखाये रास्ते पर भारत का अनुगामी बने. यदि पाकिस्तान मजहबी चश्में से ही देखना चाहे तो ‘अशफ़ाक़ उल्लाह खान’ की याद करे जिन्होंने मजहब के नाम पर देश की आजादी और बंटवारे की स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी. शाह अब्दुल अज़ीज़ ने १७७२ मे ही १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम से ८५ बरस पहले ही अंग्रेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा देकर हिन्दुस्तानियो के दिलों मे आजादी की लौ जलाने का काम किया था, उन्होंने कहा था अंग्रेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो. बहादुर शाह जफर, ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक भोपाल के बरकतुल्लाह थे जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था, गदर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया था, खुदाई खिदमतगार मूवमेंट, अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन के सर सैय्यद अहमद खां जिन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया. अजीज़न बाई, बेगम हजरत महल जैसी महिलाओ सहित, बैरिस्टर आसिफ अली, डॉ.मुख़्तार अहमद अंसारी, वगैरह वगैरह की बहुत लम्बी फेहरिस्त है. भगत सिंह आजादी की उसी मशाल के उनके समय और उनके हिस्से की दौड़ के ध्वज वाहक हैं. हिन्दू मुस्लिम भेद भाव के बगैर भगत सिंह जैसे आजादी के परवानो ने लगातार अपनी जान की आहुतियों से इस मसाल को जलाये रखा. आज भी इस मशाल की आग बुझी नही है, क्योकि भगत सिंह ने कहा था कि पूरी आजादी का मतलब अंग्रेजो को हटाकर हिंदुस्तानियो को कुर्सियो पर बिठा देना भर नहीं, सर्वहारा को राजसत्ता देना है और सच्चे अर्थो में यह काम अभी भी जारी है. शायद कभी इस मशाल के प्रकाश में ही अखण्ड भारत का सपने साकार हों.
माना जाता है कि लाहौर की स्थापना भगवान श्री राम के पुत्र लव ने की थी. आज भी इसके प्रमाण मिलते हैं. लव मंदिर की दीवारों को लाहौर ने संभाल रखा है. लव का पंजाबी उच्चारण लह भी किया जाता है, जिससे कि लाहौर शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है. कृष्णा मंदिर और वाल्मीकि मंदिर, गुरुद्वारा डेरा साहब, गुरुद्वारा काना काछ, गुरुद्वारा शहीद गंज, जन्मस्थान गुरु राम दास, समाधि महाराजा रणजीत सिंह जैसे स्थान लाहौर में आज भी जीवंत हैं. मेरी उस विविधता की संस्कृति के गवाह हैं, जिसका सपूत था अमर शहीद भगत सिंह.
रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत पाकिस्तान सीमा पर आज मैं पाकिस्तान के प्रांत पंजाब की राजधानी हूं. आज मैं पाकिस्तान का दिल हूं.इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में मेरा योगदान विशिष्ट है. मुझे बाग बगीचो के शहर के रूप में भी जाना जाता है. मेरा स्थापत्य मुगल कालीन एवं औपनिवेशिक ब्रिटिश काल का है जिसे मैंने आज भी धरोहर के रूप में अपनी थाथी बनाकर छाती से लगा रखा है. आज भी लाहौर में बादशाही मस्जिद, अली हुजविरी शालीमार बाग, लाहौर फोर्ट, अकबरी गेट, कश्मीरी गेट, चिड़ियाघर, वजीर खान मस्जिद एवं नूरजहां तथा जहांगीर के मकबरे मुगलकालीन स्थापत्य की जीवंत उपस्थिति है. महत्वपूर्ण ब्रिटिश कालीन भवनों में लाहौर उच्च न्यायलय, जनरल पोस्ट ऑफिस जैसे भवन मुगल एवं ब्रिटिश स्थापत्य का मिलाजुला नमूना हैं. पंजाबी की तड़के वाली मिठास जिसके चलते लाहौरी बोली को “लाहौरी पंजाबी” कहा जाता है. लाहौर में वही पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी भी सुनने मिलती है, जो भगतसिंह की आजादी के आंदोलन की जुबान थी. इन दिनो बदलते वैश्विक समीकरणो से भगत सिंह के लाहौर में चीनी भाषा भी सुनने के मौके मिल रहे हैं.
भारत और पाकिस्तान में कितनी भी वैचारिक दुश्मनी क्यो न हो, पर दोनो देशो की जनता निर्विवाद रूप से शहीद भगत सिंह के प्रति बराबरी से श्रद्धा नत है.
भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर अमृतसर और लाहौर के बीच है. हर शाम यहाँ बीटिंग रिट्रीट परेड का आयोजन होता है. भारत और पाकिस्तान दोनो ही ओर से हजारों दर्शक सैनिकों की चुस्त दुरुस्त फुर्तीली परेड के गवाह बनते हैं. कभी लाहौर भगत सिंह की प्रमुख कर्मभूमि था. शहीद भगतसिंह १९४७ में होते तो क्या वे आजादी के जश्न को जश्न कह पाते ? कथित आजादी से शहीद भगत सिंह के सपने के टुकड़े हुये हैं. क्या हजारों की तरह दिल में विभाजन का दर्द समेटे अपने लाहौर को पाकिस्तान के हवाले कर भगत सिंह को भी लाहौर छोड़ना पड़ता ? विभाजन के दिनो में लाहौर गवाह रहा है दोनो ओर से पलायन करते हजारो परिवारों के विस्थापन का. सैकड़ो लाशें भी ढ़ोई हैं, इधर उधर होती रेलों ने. कितना वीभत्स्व था वह विभाजन जिसे लोग आजादी का जश्न कहते हैं. बर्लिन की दीवार ढ़हाकर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का पुनर्मिलन हुआ है. यदि कभी इतिहास ने करवट ली और पाकिस्तान को शहीदे आजम भगतसिंह की क्रांतिकारी विचारों ने प्रभावित किया और पुनः दोनो देश मिलकर एक हुये तो तय है भगत सिंह का लाहौर ही उस विलय का गवाह बनेगा. आज का आतंकवाद को प्रश्रय देता पाकिस्तान संकुचित साम्प्रदायिक विचारधारा से मुक्त हो, सपूत शहीदे आजम भगत सिंह के सामाजिक समरसता के दिखाये रास्ते पर भारत का अनुगामी बने. यदि पाकिस्तान मजहबी चश्में से ही देखना चाहे तो ‘अशफ़ाक़ उल्लाह खान’ की याद करे जिन्होंने मजहब के नाम पर देश की आजादी और बंटवारे की स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी. शाह अब्दुल अज़ीज़ ने १७७२ मे ही १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम से ८५ बरस पहले ही अंग्रेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा देकर हिन्दुस्तानियो के दिलों मे आजादी की लौ जलाने का काम किया था, उन्होंने कहा था अंग्रेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो. बहादुर शाह जफर, ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक भोपाल के बरकतुल्लाह थे जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था, गदर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया था, खुदाई खिदमतगार मूवमेंट, अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन के सर सैय्यद अहमद खां जिन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया. अजीज़न बाई, बेगम हजरत महल जैसी महिलाओ सहित, बैरिस्टर आसिफ अली, डॉ.मुख़्तार अहमद अंसारी, वगैरह वगैरह की बहुत लम्बी फेहरिस्त है. भगत सिंह आजादी की उसी मशाल के उनके समय और उनके हिस्से की दौड़ के ध्वज वाहक हैं. हिन्दू मुस्लिम भेद भाव के बगैर भगत सिंह जैसे आजादी के परवानो ने लगातार अपनी जान की आहुतियों से इस मसाल को जलाये रखा. आज भी इस मशाल की आग बुझी नही है, क्योकि भगत सिंह ने कहा था कि पूरी आजादी का मतलब अंग्रेजो को हटाकर हिंदुस्तानियो को कुर्सियो पर बिठा देना भर नहीं, सर्वहारा को राजसत्ता देना है और सच्चे अर्थो में यह काम अभी भी जारी है. शायद कभी इस मशाल के प्रकाश में ही अखण्ड भारत का सपने साकार हों.
माना जाता है कि लाहौर की स्थापना भगवान श्री राम के पुत्र लव ने की थी. आज भी इसके प्रमाण मिलते हैं. लव मंदिर की दीवारों को लाहौर ने संभाल रखा है. लव का पंजाबी उच्चारण लह भी किया जाता है, जिससे कि लाहौर शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है. कृष्णा मंदिर और वाल्मीकि मंदिर, गुरुद्वारा डेरा साहब, गुरुद्वारा काना काछ, गुरुद्वारा शहीद गंज, जन्मस्थान गुरु राम दास, समाधि महाराजा रणजीत सिंह जैसे स्थान लाहौर में आज भी जीवंत हैं. मेरी उस विविधता की संस्कृति के गवाह हैं, जिसका सपूत था अमर शहीद भगत सिंह.
रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत पाकिस्तान सीमा पर आज मैं पाकिस्तान के प्रांत पंजाब की राजधानी हूं. आज मैं पाकिस्तान का दिल हूं.इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में मेरा योगदान विशिष्ट है. मुझे बाग बगीचो के शहर के रूप में भी जाना जाता है. मेरा स्थापत्य मुगल कालीन एवं औपनिवेशिक ब्रिटिश काल का है जिसे मैंने आज भी धरोहर के रूप में अपनी थाथी बनाकर छाती से लगा रखा है. आज भी लाहौर में बादशाही मस्जिद, अली हुजविरी शालीमार बाग, लाहौर फोर्ट, अकबरी गेट, कश्मीरी गेट, चिड़ियाघर, वजीर खान मस्जिद एवं नूरजहां तथा जहांगीर के मकबरे मुगलकालीन स्थापत्य की जीवंत उपस्थिति है. महत्वपूर्ण ब्रिटिश कालीन भवनों में लाहौर उच्च न्यायलय, जनरल पोस्ट ऑफिस जैसे भवन मुगल एवं ब्रिटिश स्थापत्य का मिलाजुला नमूना हैं. पंजाबी की तड़के वाली मिठास जिसके चलते लाहौरी बोली को “लाहौरी पंजाबी” कहा जाता है. लाहौर में वही पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी भी सुनने मिलती है, जो भगतसिंह की आजादी के आंदोलन की जुबान थी. इन दिनो बदलते वैश्विक समीकरणो से भगत सिंह के लाहौर में चीनी भाषा भी सुनने के मौके मिल रहे हैं.
भारत और पाकिस्तान में कितनी भी वैचारिक दुश्मनी क्यो न हो, पर दोनो देशो की जनता निर्विवाद रूप से शहीद भगत सिंह के प्रति बराबरी से श्रद्धा नत है.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पैसा और प्रेम…“।)
अभी अभी # 303 ⇒ पैसा और प्रेम… श्री प्रदीप शर्मा
हम प्रेमी, प्रेम करना जानें।
अभी कुछ दिनों पहले ही हमने एक पैसे वाले का पशु प्रेम देखा, और उसके तुरंत ही बाद अन्य पैसे वालों का उस पैसे वाले इंसान के प्रति प्रेम भी देखा। पैसे से प्रेम तो खैर सभी करते हैं, लेकिन पशुओं से प्रेम में यह व्यक्ति हमसे बहुत आगे निकल गया।
ईश्वर ने जिसे मुंह दिया है, उसे दाना भी वही देता है। आज के युग में जहां इंसान केवल अपना पेट भरने में लगा है, वहीं एक इंसान ऐसा भी है जो अस्सी करोड़ लोगों के पेट की चिंता पाल रहा है।
लेकिन उस व्यक्ति को क्या कहें जो मूक अशक्त और बूढ़े बीमार पशुओं की ना केवल चिंता करे, उनके भोजन की भी व्यवस्था करे।।
हम किंकर्तव्यविमूढ़ हों, इस व्यक्ति के प्रति नतमस्तक हों, उसके पहले ही हमारा ध्यान जामनगर की ओर चला गया। वहां हमने पैसे वालों का इस व्यक्ति के प्रति जो प्रेम देखा, तो हमें भी पैसे की भूख लग गई। भले ही पैसा खाने की चीज ना हो, लेकिन दिखाने की तो है।
हमने कहीं सुना है, देख पराई चूपड़ी, मत ललचावै जीव। हमारे पास पैसा ना सही, हम पशु प्रेमी ना सही, लेकिन भोजन प्रेमी तो हैं ही। जब भी हमें लार टपकती है, हम कुछ अच्छा सा खा लेते हैं, मन तृप्त और संतुष्ट हो जाता है और कुछ समय के लिए, पैसे की भूख भी शांत हो जाती है।।
भोजन किसे प्रिय नहीं। सबका अपना अपना प्रिय भोजन होता है, कहीं दाल रोटी तो कहीं हलवा पूरी।
कहीं बिरयानी तो कहीं इडली वड़ा और डोसा। ब्राह्मण को तो भोजन प्रिय होता ही है। छककर खाने के बाद डकार के साथ जो आशीर्वाद निकलता है, वह बड़ी दूर तक जाता है।
हम भारतीय अगर अच्छा खाते हैं तो अच्छा खिलाते भी हैं। मेहमाननवाजी कोई हमसे सीखे। जामनगर में तो प्री वेडिंग सेरेमनी में ही पूरी दुनिया मुट्ठी में समा गई थी। भाई साहब, अंबानी परिवार ने जामनगर के 51000 मेहमानों को आग्रहपूर्वक अपने हाथों से परोस परोसकर भोजन कराया।
भगवान ने जब सीलिंग तोड़ पैसा दिया है, तो उतना ही बड़ा दिल भी तो दिया है। इसे ही तो कहते हैं, सभ्यता और संस्कार।।
सिर्फ एक हजार करोड़ की शादी। एक भोजन प्रेमी तो ईश्वर से इनके लिए यही दुआ करेगा ;
समकालीन हिंदी बाल साहित्य में जो नाम अत्यंत प्रभावी स्तर पर दस्तक दे रहे है, उनमें इंजी. ललित शौर्य अत्यंत उल्लेखनीय है। मुवानी, पिथौरागढ़, उत्तराखंड में 16 जून 1990 को जन्में इंजी. ललित शौर्य की अभिरुचि अध्ययन काल से ही साहित्य में रही है। ललित ने बरेली से बीटेक किया है। श्री जगत सिंह राठौर एवं श्रीमती द्रोपदी राठौर के सुपुत्र इंजी. ललित शौर्य ने कालान्तर में बाल-साहित्य को अपनी रचनाशीलता का केंद्र बनाया और पिछले पांच वर्षों से लगातार लेखन के साथ इस क्षेत्र की श्रीवृद्धि करते आ रहे हैं। उनकी अनेक कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं और लोकप्रियता हासिल करती रही हैं। इसमें बाल भारती, चम्पक, नंदन, देवपुत्र, साहित्य अमृत, बाल किलकारी, बालभूमि, बाल भास्कर, बच्चों का देश, बाल प्रहरी, बच्चों की प्यारी बगिया, उजाला, हंसती दुनिया, वात्सल्य, बाल प्रभात, उदय सर्वोदय, आजकल , हरदौल वाणी, पर्वत पीयूष, प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त प्रमुख समाचार पत्रों दैनिक जागरण, नई दुनिया, अमर उजाला, सहारा समय, हिंदुस्तान दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर आदि में भी नियमित रूप से उनके लेख, लघु कथाएं, व्यंग्य, बाल कहानियां प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी बाल कहानी संग्रह ‘दादाजी की चौपाल’ एवं कोरोनाकाल में लिखा गया देश का पहला बाल कहानी संग्रह ‘कोरोना वॉरियर्स’ पर्याप्त चर्चित रहा। इसके अतिरिक्त उनके द मैजिकल ग्लब्ज, फॉरेस्ट वॉरियर्स, स्वच्छता ही सेवा, जल की पुकार, स्वच्छता के सिपाही, जादुई दस्ताने, गंगा के प्रहरी, गुलदार दगड़िया, परियों का संदेश, बाल तरंग बाल कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। इंजी ललित शौर्य पूर्ण रूप से बाल साहित्य को समर्पित हैं। उन्होंने “ बच्चों को मोबाईल नहीं, पुस्तक दो” अभियान चलाया है। जिसके माध्यम से अब तक शौर्य विभिन्न माध्यमों से तीस हजार बच्चों तक बाल साहित्य वितरित कर चुके हैं।
बाल साहित्य के प्रति उनकी रचना सक्रियता को समय-समय पर विभिन्न साहित्यिक संगठनों ने सम्मानित किया है। इनमें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, भाऊ राव देवरस न्यास द्वारा प्रताप नारायण मिश्र युवा साहित्यकार सम्मान, माध्यम साहित्यिक संस्थान लखनऊ द्वारा ‘सारस्वत सम्मान’, बाल वाटिका पत्रिका का वैभव कालरा राष्ट्रीय बाल साहित्य सम्मान, राष्ट्रीय हिंदी परिषद मेरठ द्वारा ‘हिंदी भूषण सम्मान’, माँ सेवा संस्थान लखनऊ द्वारा ‘ ध्रूव सम्मान’, स्वदेशी जागरण मंच उत्तराखंड द्वारा ‘हिंदी सेवा रत्न सम्मान’, बाल प्रहरी द्वारा ‘साहित्य सृजन सम्मान’, राजा राममोहन सेवा आश्रम एवं पर्यावरण सोसायटी द्वारा ‘पर्यावरण मार्तण्ड’ प्रमुख हैं।
इंजी. ललित शौर्य अब तक उन्नीस किताबें लिख चुके हैं। जिनमें 12 बाल कहानी संग्रह, छ: साझा संकलनों का सम्पादन, एक व्यक्तिगत काव्य संग्रह ‘सृजन सुगन्धि’ सम्मिलित है।
1- अपने रचनाकर्म को क्यों अपनाया है?
उत्तर:लेखन में रुझान बचपन से ही रहा है। कहानियां, कविताएं पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता था, पढ़ने की आदत आज भी बनी हुई है। साथ ही लेखन कार्य भी सतत जारी है। मैं बाल कहानी लेखन में अधिक समय दे रहा हूँ। रचना कर्म अपनाने का मंतव्य यही है कि अधिक से अधिक बच्चों तक बाल साहित्य पहुंचा सकूं। आधुनिक मोबाइल वाली पीढ़ी के हाथों में बाल साहित्य की किताबें भी हूँ इसी उद्देश्य से कलम उठाई है। उसी ओर अग्रसर हूँ। अब तक मैंने मोबाइल नहीं, पुस्तक दो अभियान के तहत विभिन्न माध्यमों से 30 हजार से अधिक बच्चों तक बाल साहित्य पहुँचाने का प्रयास किया है।
2- आप भविष्य में इस क्षेत्र में क्या करना चाहते हैं और प्रबुद्ध पाठकों को क्या संदेश देना चाहते हैं?
उत्तर:बाल साहित्य में अभी करने को बहुत कुछ है। व्यक्तिगत रूप से मुझे अभी बहुत कुछ सीखना। मैं अभी बाल कहानियां, बाल एकांकी , बाल कविताएं लिख रहा हूँ। भविष्य में बाल उपन्यास लिखने का भी मन है।
बाल साहित्यकारों के पाठक प्रायः बच्चे होते हैं।(वैसे तो बड़े भी बाल साहित्य बड़े चाव से पढ़ते हैं।) बच्चों के लिए यही संदेश है कि अधिक से अधिक बाल साहित्य पढ़ें। इससे उनके भीतर पढ़ने और सीखने की आदत विकसित होगी। जो उनके स्वर्णिम भविष्य के लिए मददगार साबित होगी।
☆ बाल कथा- रहस्यमयी संदूक ☆ इंजी. ललित शौर्य ☆
चंपकवन में रहस्यमयी संदूक की बात जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी। सभी जानवर उस संदूक को देखने के लिए उत्सुक थे। नदी किनारे पड़ा वह संदूक आठवां अजूबा बन चुका था।
“मुझे तो वह संदूक जादुई जान पड़ता है। ना बा ना मैं तो उसके पास बिल्कुल भी नहीं जाऊंगा। उसे पैर से छुउंगा भी नहीं। ना ही अपनी प्यारी पूंछ के बाल उस पर लगने दूँगा। क्या पता उसे छूते ही मैं खरगोश बन जाऊं। फिर चीकू की तरह कान खड़े कर ईधर उधर भागना पड़े।” संदूक के पास खड़े जिफर घोड़े ने कहा।
“छूना तो मुझे भी नहीं है। क्या पता उसमें से कोई जादुई राक्षस निकले और उसके गुस्से से मैं घोड़ा बन जाऊं। फिर जिंदगी भर जिफर की तरह मुझे भी दुलत्ती चलानी पड़ेगी।” चीकू ने भी चुटकी ली।
“अरे तुम दोनों बहस करना छोड़ो। ये सोचो कि उस संदूक में आखिर क्या हो सकता है। कहीं उसमें खाने पीने की चींजें तो नहीं हैं। या फिर वह हीरे मोतियों से तो नहीं भरा हुआ है।” सिप्पी सियार बोला।
“ये भी हो सकता है। लेकिन हमें इन सबके सामने उस संदूक को नहीं खोलना है। जब सब यहां से चले जाएंगे तभी हम उसे हाथ लगाएंगे।” बैडी लोमड़ सिप्पी के कान में फुसफुसाया।
यह सुनकर सिप्पी की आंखों में चमक आ गई। उसने जोर से चिल्लाना शुरू किया, ” कोई भी इस संदूक को हाथ नहीं लगाएगा। इसमें कोई भूतिया चीज लगती है। या फिर गोला बारूद भी हो सकता है। सब इससे दूर रहेंगे। हम महाराज शेरसिंह को इस बारे में जानकारी देकर आते हैं। वही इस बात का निर्णय लेंगे की संदूक का क्या करना है।”
सभी जानवर यह बात सुनकर वहां से चले गए। सिप्पी और बैडी वहीं बने रहे। जब चारों ओर कोई नहीं बचा तो सिप्पी ने मौका देख बैडी से कहा, “खोलो संदूक।”
“मैं…मैं… कैसे खोलूं, तुम खोलो।” बैडी ने डरते हुए कहा।
“तुम ही तो बोल रहे थे इसमें हीरे मोती हो सकते हैं।” सिप्पी ने कहा।
“अगर राक्षस या फिर बारूद हुआ तो। मेरी हड्डियों का क्या होगा। मेरी तो यहीं समाधि लग जायेगी।” बैडी ने कहा।
“डरो नहीं। चलो मिलकर खोलते हैं। अगर कीमती सामान निकला तो अपना। नहीं तो संदूक यहीं छोड़कर भाग निकलेंगे।” सिप्पी ने संदूक की ओर बड़ते हुए कहा।
“रुको। किसी लकड़ी की सहायता से संदूक का दरवाजा खोलते हैं। हाथ लगाने का जोखिम उठाना ठीक नहीं है।” बैडी ने अक्लमंदी दिखाई।
बैडी और सिप्पी लकड़ी की सहायता से संदूक का दरवाजा खोलने लगे। बहुत प्रयासों के बाद दरवाजा खुला। दरवाजा खुलते ही उनकी आंखें फटी की फटी रह गई। उसमें लंबी-लंबी जटाएं थी। कुछ कटे हुए सिर थे। संदूक खुलते ही बंद हो गया। एक जटा बक्से से बाहर निकल गई। बैडी यह सब देखकर थरथर कांपने लगा। सिप्पी की सिट्टी पिट्टी भी गुल हो गई। दोनों वहां से दुम दबाकर भागे। उन्होंने सारा हाल राजा शेर सिंह को बता दिया। शेर सिंह भी यह सुनकर चौंक पड़े। उन्होंने तुरंत सेनापति हेवी हाथी को बुलाया। उसे साथ लेकर संदूक को देखने चल पड़े। जब यह बात जंगल के अन्य जानवरों को पता चली तो वे भी साथ हो लिए। थोड़ी ही देर में शेर सिंह, हेवी जिफर, सिप्पी, चीकू, बैडी सभी जानवर उस संदूक के पास पहुंच गए। उन सबने भी संदूक पर लटकती जटा को देखा।
“ये जरूर किसी राक्षस की जटा है। संदूक खुलते ही वह नींद से जाग जाएगा। हमे इस सन्दूक को फौरन जंगल से बाहर कर देना चाहिए।” जिफर हिनहिनाते हुए बोला।
“पहली बार जिफर ने सही बात की है। कहीं इस सर कटे राक्षस ने हमारे सरों का भी फुटबॉल बना दिया तो बड़ी आफत आ जायेगी।” चीकू ने कहा।
सभी जानवर अपनी- अपनी राय रख रहे थे। राजा शेर सिंह और हेवी सभी को बड़ी ध्यान से सुन रहे थे।
अचानक शेर ने दहाड़ मारी। चारों ओर सन्नाटा छा गया। शेरसिंह ने कहा, “हेवी तुम कुछ सुझाव दो।इस संदूक का क्या करना है।”
हेवी ने मुस्कुराते हुए सूंड उठाते हुए कहा, “महाराज अभी इस संदूक का दरवाजा खोल देता हूँ दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।”
“ठीक है। जल्दी करो।” शेरसिंह ने कहा।
हेवी ने जैसे ही संदूक का दरवाजा खोला तो सभी वहां से भागने लगे। लेकिन हेवी जोरजोर से हंसने लगा। उसने सूंड से एकएक कर संदूक में रखी चींजें बाहर निकाली। उसमें राक्षसों के मुखौटे, जटाएं, दाड़ी-बाल रखे हुए थे।
“महाराज लगता है। यह संदूक इंसानी बस्ती से यहां आया है। इसमें उनके द्वारा नाटक में प्रयोग किये जाने वाले मुखौटे हैं। कोई भूत या राक्षस नहीं है।”हेवी ने एक मुखौटा अपने माथे पर रखते हुए कहा।
यह देखकर शेर सिंह भी हंसने लगा। सभी जानवर वापस आ गए। सभी उन मुखौटों और जटाओं को अपने चेहरे पर लगाकर नाचने लगे। राजा शेरसिंह ने ऐलान किया इस बार जंगल उत्सव में इन्हीं मुखौटों का प्रयोग कर के नाटक किया जाएगा। हेवी की सूझबूझ से संदूक का रहस्य खुल चुका था।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
☆ खेड्यातील स्त्री जीवन… ☆ सौ.वनिता संभाजी जांगळे ☆
कुटूंबाचा भक्कम आधार मानली जाणारी खेड्यातील स्त्री ही नोकरी करणार्या अथवा शहरी स्त्रीच्या दोन पावले पुढेच असते .आपला देश हा शेतीप्रधान देश मानला जातो. तसे पाहिले तर शेतीविषयक ग्रामीण स्त्रीचे योगदान खुपच अमुल्य आहे. खेड्यातील स्त्री ही जास्त करून आपल्या रानात रमलेली असते.तिच्या कष्टाळू आणि धैर्यवान वृत्तीतून ती आपले घर आणि शेत दोन्ही सावरत असते .खेड्यातून पाहिले तर जास्त करून कुटुंबाचे प्रतिनिधित्व हे त्या कुटुंबातील स्त्रीच करते. कुटुंबाचे पालनपोषण , तसेच आर्थिक नियोजन या गोष्टी ग्रामीण स्त्री मोठ्या धैर्याने पार पाडते.
खेड्या-पाड्यातून पाहिले तर सरसकट स्त्रीया या शेतावर राबताना दिसतात. यातील बर्याचजणी तर दुसर्याच्या शेतावर मोलमजूरी करून आपल्या कुटुंबाचे पालनपोषण करतात. आपल्या कुटुंबावर येणाऱ्या प्रत्येक संकटांचा सामना त्या मोठ्या धैर्याने करत असतात. पिकणाऱ्या शेतमालातून किंवा मोलमजूरीतून, तसेच दुग्ध व्यवसाय, कुक्कुटपालन इत्यादी मार्गातून पैसा उपलब्ध करून खेड्यातील स्त्री आथिर्क नियोजन करते. आपल्या कुटुंबाची आर्थिक नियोजनाची घडी ती उत्तम बसवते.
ग्रामीण भागातून निरीक्षण केले तर काही अपवाद ओघळता ग्रामीण स्त्रीच आर्थिक व्यवहार संभाळताना निदर्शनास येते. त्यामुळेच तीआपल्या कुटुंबाचा भक्कम आधार असते. मोठ्या चतुराईने आणि नियोजनबद्ध नेतृत्व यातून ती आपले कुटूंब आर्थिकदृष्टय़ा सुरळीत चालविते. कुटूंबाची काही कारणाने विस्कटलेली घडी ,सुरळीत करणे हे कौशल्य जणू ग्रामीण स्त्रीच्या अंगी रूळलेले असते. त्यानुसार ती स्वतःला आपल्या कुटुंबासाठी सर्वस्व वाहून देते.
खेड्यातील स्त्री ही फक्त कष्टाळूच असते असे नाही. ती प्रेमळ, मनमिळाऊ सुध्दा असते. शेतावर एकत्र राबताना एक भाजी चारचौघीत वाटून खाण्याची तिला सवय झालेली असते. त्यामुळे ग्रामीण स्त्रीमध्ये मदतीचा हात पुढे करण्याची भावना शहरातील स्त्रीयांच्या तुलनेत जास्त असते. एकमेकींच्या प्रसंगाना, गरजेला उभे रहाण्यास त्या क्षणाचाही विचार करत नाहीत. अनेक सण , उत्सव , सांस्कृतिक कार्यक्रम खेड्यातील स्त्रीया एकत्र येऊन साजरे करतात. यासर्वाचा आनंद देखील घेतात. या सर्वात त्यांचा सहभाग आणि आनंदाचा वाटा जास्त असतो. हे सर्व त्यांना शेतीवाडीने दिलेले असते. शेतात टोकणी,भांगलण ,सुगी करत असताना अनेकजणी एकत्र येतात. शेतात राबताना एकमेकींजवळ व्यक्त होतात.एक दुसरीच्या सुख-दुःखाच्या भागीदार होतात. हे सर्व शहरातील स्त्रियाच्या वाट्याला येत नसते. शहरातील स्त्रीचे जीवन एका विशिष्ट चाकोरीतून जाते.तिला घड्याळाकडे पाहून कामे करण्याची सवय झालेली असते. ग्रामीण स्त्रीच्या जगण्याचा परीघ विस्तृत असतो. पहाटेला उठून ती आपल्या दैनंदिनीत मग्न होते सकाळपासून ते दिवस मावळेपर्यत तिचे हात रानासी बांधलेले असतात. आलेल्या संकटाना तोंड देतादेता या तिच्या संघर्षमय जीवनवाटाच तिला खंबीर , साहसी कष्टाळू, चातुर्यवान बनवितात.
खेड्यातील स्त्री कोणत्याच परिस्थितीत आपल्या कुटुंबाची वाताहात होऊन देत नाही. कुटुंबाला आर्थिकदृष्ट्या प्रबल ठेवण्यास तिची धडपड असते. ती काटकसर करून आर्थिक नियोजन ठेवते. येणारे सण, उत्सवात मोठेपणाची अवाढव्यता न दाखविता ती आपल्या ऐपतीनुसार सण साजरे करते. यामध्ये ती स्वतः आनंदात रहाते आणि आपल्या कुटुंबालासुध्दा आनंदी ठेवण्याचा प्रयत्न करते. आजची ग्रामीण स्त्री ही आपल्या मुलांच्या शिक्षणाच्या बाबतीत सुध्दा तत्पर झाली आहे. त्यामुळेच खेड्यातील मुले सुध्दा आज उच्चशिक्षित होत आहेत इतकेच नाहीआपल्या मुलीच्या शिक्षणाचा सुध्दा ती सकारात्मक विचार करत असते. अर्थात ग्रामीण स्त्रीदेखिल प्रगतशील वाटचाल करत आहे. ती आपले कुटूंब एकसंध मायेच्या धाग्यात बांधून ठेवते.
आपले दुःख ,वेदना ,येणारी संकटे याचा ग्रामीण स्त्री कधी त्रागा करत नाही. यासगळ्याची घुटकी घेऊन ती जगत असते. तिला तशा जगण्याची जणू सवय झालेली असते. त्यामुळे येणारी संकटे झेलण्याची क्षमता ग्रामीण स्त्रीमध्ये जास्त असते. तिचा बहुतांश वेळ शेतावर जातो. आपले कुटुंब ,शेती ,पाऊस या गोष्टीत ती रमलेली असते. फडक्यात बांधून आणलेली भाजी भाकरी ती शेताच्या बांधावर बसून समाधानात खाते.
कुणास ठाऊक ‘ जागतिक महिला दिन ‘ त्या खेड्यातील, रानात राबणाऱ्या बाईला माहित आहे की नाही. तिच्यासाठी प्रत्येक दिवस कष्टाला सोबत घेऊन उगवतो आणि रानासोबत समाधानाने मावळतो. “येणारा प्रत्येक दिवस जी अनेक बुध्दीकौशल्यानी आपलासा करते , तिच्या कार्यास सलाम असो आणि तिच्या आयुष्यातील प्रत्येक दिवसाला खुप खुप शुभेच्छा ”