(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दाहिना हाथ…“।)
अभी अभी # 295 ⇒ दाहिना हाथ… श्री प्रदीप शर्मा
right hand
हम सबके शरीर में दो हाथ और दो पांव हैं। दाहिना और बायां।
एक पांव से भी कहीं चला जाता है। कुछ जानवर तो चौपाये भी होते है, वहां उन्हें दो हाथों की सुविधा नहीं होती। एक से भले दो। एक अकेला थक जाता है इसलिए दोनों हाथ मिल जुलकर आसानी से काम निपटा लेते हैं। किसी से अगर दो दो हाथ करने पड़े, तो दोनों हाथ एक हो जाते हैं। एक हाथ से कहां काम होता है, प्रार्थना में भी दोनों हाथ जुड़ ही जाते हैं।
खाने के लिए मुंह हमें भगवान ने भले ही एक दिया हो, लेकिन वहां भी वह देखने के लिए मस्त मस्त दो नैन और सुनने के लिए दो दो कान देना नहीं भूला। नासिका भले ही हमें एक ही नजर आती हो, लेकिन वहां भी उसके दो द्वार हैं, आगम निगम। सांस इधर से अंदर, उधर से बाहर। हम भले ही ज्यादा अंदर नहीं झांकें, फिर भी दो दो किडनी और एक दिल और सौ अफसाने।।
वैसे तो अपना हाथ जगन्नाथ है ही, लेकिन हमारे दाहिने हाथ के साथ कुछ विशेष बात है। आपने शायद एक्स्ट्रा ab के बारे में नहीं सुना हो, लेकिन हर व्यक्ति के पास एक एक्स्ट्रा दाहिना हाथ होता है, जिसे आप अंग्रेजी में राइट हैंड भी कह सकते हैं। लेकिन यह हाथ अदृश्य होते हुए भी, मौका आने पर सबको नज़र आता है।
यह कोई पहेली नहीं, महज एक कहावत नहीं, एक हकीकत है। जो व्यक्ति संकट में, मुसीबत में, अथवा जरूरत पड़ने पर हमेशा आपके काम आता है, उसे आपका दाहिना हाथ ही कहा जाता है। कहीं कहीं तो गर्व से उस व्यक्ति का परिचय भी कराया जाता है। ये मेरे दाहिने हाथ हैं।
He is my right hand.
He or she, it doesn’t matter. कभी मेरी बहन मेरी राइट हैंड थी, तो उसके बाद एक परम मित्र मेरे जीवन में आए, जो वास्तव में मेरे दाहिने हाथ ही थे।।
हम सबके जीवन में कभी ना कभी ऐसे हितैषी अथवा सहयोगी का प्रवेश अवश्य होता है, जो हमारे हर काम में हमारा हाथ बंटाता है। उसके पीछे उसका कोई स्वार्थ नहीं होता। केवल
परिस्थितिवश ही ऐसे दाहिने हाथ हमसे अलग हो सकते हैं, जिसका हमें हमेशा मलाल और अफसोस बना रहता है।
राजनीति में आपको कई दाहिने हाथ नजर आ जाएंगे, लेकिन कौन कब तक साथ निभाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। यहां दाहिने हाथ तो कम ही होते हैं, strange bed fellows ही अधिक होते हैं। कोई नीतीश कब किसके साथ नातरा कर ले, कुछ कहा नहीं जा सकता। समय समय का फेर है। फिलहाल तो सत्ता के आसपास, एक नहीं कई, दाहिने हाथ नजर आ रहे हैं, जिनमें आजकल हाथ तो काम, पंजे ही अधिक दिखाई दे रहे हैं।।
जब तक इस संसार में इंसानियत है, हमारी नीयत साफ है, हमारे जीवन में भी, ऐसे दाहिने हाथ जरूर आते रहते हैं। अपने दोनों हाथों के लिए तो हम ईश्वर को धन्यवाद देते ही हैं, साथ ही उन सभी दाहिने हाथों को भी नमन करते हैं, जिन्होंने मुसीबत में किसी का हाथ थामा है, सुख दुख में सदा उनका साथ दिया है। निर्बल के बल राम। हम भी किसी के दाहिने हाथ बन सकें, ईश्वर हमें भी ऐसा अवसर प्रदान करे।।
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “जिया जो उम्र भर दामन बचाकर…“)
जिया जो उम्र भर दामन बचाकर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “बैंक: दंतकथा : 1“।)
बैंक की परिपाटी कि “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना जो हमारी विरासत है, हमारी आदत बन चुकी थी और है भी, और शायद बैंक के संस्कारों के रूप में हमने भावी पीढ़ी को सौंपा भी है. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं. इसी परिप्रेक्ष्य में उपयुक्त शीर्षक के साथ इस कथा का सृजन करने का प्रयास है. पात्र और प्रसंग काल्पनिक होते हुये भी सत्य के करीब लग सकते हैं, इसका खतरा तो रहेगा. उम्मीद है इसे भी अन्य रचनाओं की तरह प्रेम और स्नेह मिलेगा.
अविनाश बैंक के आंचलिक कार्यालय में उपप्रबंधक के पद पर सुशोभित थे और अभी अभी अपने सहायक महाप्रबंधक से, उनके चैंबर में डांट खाकर बाहर आ चुके थे. उनका यह अटल विश्वास था कि चैंबर की घटनाएं चैंबर के अंदर ही रहती हैं और उनकी गूंज से बाहरवाले अंजान रहते हैं. जो इस गुप्त राज का पर्दाफाश करता है, वो बाहर निकलने वाले पात्र का चेहरा होता है अत: अविनाश की आंचलिक कार्यालय की दीर्घकालीन पदस्थापनाओं ने उनके अंदर यह सिद्धि स्थापित कर दी थी कि उनके चेहरे की रौनक और हल्की मुस्कान बरकरार रहती चाहे वो चैंबर के अंदर हों या बाहर. पर आज उनकी बॉडी लैंग्वेज ने उनका साथ देने से साफ साफ मना कर दिया.
ऐसा माना जाता है कि दुश्मन से ज्यादा दुखी बेवफा दोस्त करता है. जी हां, डांटने वाले और डांट खाने वाले किसी ज़माने में एक ही शाखा में सहायक के रूप में पदस्थ थे, अगल बगल में काउंटरों के संचालक थे और हम उम्र, हमपेशा, और रूमपार्टनर हुआ करते थे. अंतर सिर्फ उनकी संस्कृति, मातृभाषा, काया, रंग और अंग्रेज़ी में वाक्पटुता का होता था. अविनाश भांगड़ा की संस्कृति को प्रमोट करते थे तो कार्तिकेय भरतनाट्यम संस्कृति के हिमायती थे. किसी को कुलचे पराठे लुभाते थे तो किसी को इडली के साथ सांभर की खुशबू अपनी ओर खींचती थी. दोनों की आंखों में पानी आता तो था पर अलग अलग स्वाद की याद आने से. ये उनका दुर्भाग्य था कि उनकी पहली पदस्थापना के उस कस्बे से कुछ बड़ी सी जगह में न कुलचा पराठा मिलता था न ही इडली सांभर. अविनाश के नाम में पंजाबियत का सौंधापन नहीं था बल्कि उत्तरप्रदेश के बनारस या काशी की नगरी की पावनता थी जो बनारस निवासी उनकी माताजी के कारण थी. अब ये तो पता नहीं पर संतान के लक्षणों से अंदाज तो लगाया जा सकता ही था कि अविनाश, पेरेंटल प्रेमविवाह के परिणाम थे.
प्रथम पदस्थापना पर जैसा कि होता है, अविनाश और कार्तिकेय भी अविवाहित थे और दोनों की पाककला का प्रशिक्षण, बैंकिंग सीखने से कदम से कदम मिलाकर चल रहा था. दोनों मित्र दाल चांवल बनाना सीख चुके थे और अविनाश की दाल फ्राई करने की कला न केवल भोजन को स्वादिष्ट बनाती थी, वरन उन्हें कार्तिकेय पर सुप्रीमेसी स्थापित करने का अवसर भी प्रदान करती थी. बदले में स्वादिष्ट और चटपटे अचार की प्रबंधन व्यवस्था कार्तिकेय करते थे.
कथा चलती रहेगी, जमाना विद्युतीय और सौर ऊर्जा का है पर आपकी प्रतिक्रिया भी लेखक को ऊर्जावान बना सकती है.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दलदल।)
☆ लघुकथा – दलदल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
वह युवा शिक्षिका सभी लोगों को तिरंगे परिधान में देखकर एक गहन चिंता में खो गई और अचानक उसके मुंह से निकल गया-
” अरे आज 2 अक्टूबर है?”
गांधी जी के सादा जीवन और उच्च विचार से अवगत कराएंगे,इसी उधेड़बुन में वह जल्दबाजी में चल पड़ी।
चारों तरफ देश के प्रति सम्मान बिखरा पड़ा है,लेकिन अच्छा है बापू आज नहीं है….. उनके नाम पर जाने क्या-क्या होता है?
स्कूल के सभागार में पहुंच गई।
वहाँ बापू की प्रतिमा पर फूलों के हार चढ़ाने के बाद सभागृह में सभी उपस्थित लोगों ने भाषण दिया।
शाकाहारी को भोजन हर सार्वजनिक स्थल पर मिलना चाहिए। मांसाहार की दुकानों को बंद करवाने की सफलता का गुणगान में रत।
चारों तरफ जश्न…लाउडस्पीकर पर देशभक्ति, बापू-भक्ति के गाने।
बापू के सिद्धांतों को प्रतिपादित करते हुए 3 बच्चे नजर आए,
बुरा मत देखो बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो की मुद्रा में बैठे थे।
क्या इन बच्चों को इसका मतलब समझ आ रहा है, उसे देखकर अच्छा भी लगा और हंसी भी आ गई।
क्या यह आज के युग में संभव है?
सभा समाप्त हुई।
रास्ते में उसे सभागृह में उपस्थित जो व्यक्ति उपदेश दे रहे थे वही व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे पर लाठी ताने, गाली दे रहे थे ।
कानों में लाउडस्पीकर शोर उड़ेल रहा था –
दे दी हमें आजादी
बिना खड्ग, बिना ढाल…!
गांधीजी के स्वच्छ भारत और नशा मुक्ति अभियान को क्या जनमानस समझ पाएगा!
अरे! यह क्या?
मैं यह कहां फंस गई…
गाड़ी को क्या हो गया?
देश भी तो धार्मिक, जातिवाद, गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक कुरीतियों के बंधन में जकड़ा हैं।
रचनाएँ आमंत्रित – साप्ताहिक स्तम्भ – कहां गए वे लोग?
आपकी अपनी प्रिय वेब पत्रिका ‘ई-अभिव्यक्ति’ जिसे हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी के लाखों पाठक प्रतिदिन पढ़ते और पसंद करते हैं में इस सप्ताह से प्रत्येक सोमवार को साप्ताहिक स्तम्भ – कहाँ गए वे लोग? का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया है। इस स्तम्भ को हमारे प्रबुद्ध पाठकों का अभूतपूर्व प्रतिसाद मिल रहा है।
इस ऐतिहासिक स्तम्भ में हम अपने आसपास की ऐसी महान हस्तियों की जानकारी प्रकाशित करते हैं जो आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु, उन्होने देश के स्वतंत्रता संग्राम, साहित्यिक, सामाजिक या अन्य किसी क्षेत्र में अविस्मरणीय कार्य किया है।
इस संदर्भ में आपसे अनुरोध है कि आपअपने क्षेत्र की ऐसी महान हस्तियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर उनके उल्लेखनीय कार्यों का विवरण लिखकर उनकी एक फोटो के साथ हमें वाट्स अप नंबर 9977318765 पर प्रेषित करें। साथ ही अपना परिचय और फोटो भी प्रकाशनार्थ प्रेषित कीजिये।
संपर्क – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी), मोबाइल न – 9977318765)
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
🙏 💐 वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ अनंत में विलीन – विनम्र श्रद्धांजलि 💐🙏
जबलपुर। प्रतिष्ठित साहित्यकार, लगभग 40 कृतियों के रचयिता, पाथेय साहित्य कला अकादमी के संस्थापक कविवर डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र का कल दिनांक 27 फरवरी 2024 को रात्रि 10 बजे 85 वर्ष की उम्र में निधन हो गया।
आप डॉक्टर भावना तिवारी, श्रीमती कामना, एवं चिरंजीव डॉ. हर्ष कुमार तिवारी के पिता, बाल पत्रकार बेटी प्रियम के पितामह एवं हम सब साहित्य अनुरागियों तथा नए युवा साहित्यकारों के प्रेरणा स्रोत अब हमारी स्मृतियों में शेष रहेंगे।
70 के दशक से सतत गुरुवर का मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद मेरे लिए अविस्मरणीय है। ई-अभिव्यक्ति में आपके “साप्ताहिक स्तम्भ – सुमित्र की लेखनी से” को अब विराम मिल गया।
डॉ. सुमित्र ने अनेक समाचार पत्रों में सम्पादकीय सेवाएं दी ।आप प्रदेश ही नही, सम्पूर्ण देश की साहित्यिक धारा के संवाहक रहे। लगभग 6 दशक उन्होंने साहित्य की अप्रतिम सेवा की।
– हेमन्त बावनकर, पुणे
🙏 मैं पीढ़ा का राजकुंवर हूँ… के सृजनकर्ता सुमित्र जी का महाप्रयाण – श्री गिरीश बिल्लोरे मुकुल 🙏
70 के दशक में अगर किसी महान व्यक्तित्व से मुलाकात हुई थी तो वे थे डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी।
सुमित्र जी के माध्यम से साहित्य जगत को पहचान का रास्ता मिला था। गौर वर्णी काया के स्वामी, मित्रों के मित्र, और राजेश पाठक प्रवीण के साहित्यिक गुरु डॉक्टर राजकुमार सुमित्र जी के कोतवाली स्थित आवास में देर रात तक गोष्ठियों में शामिल होना, अपनी बारी का इंतजार करना उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता था उनके व्यक्तित्व से लगातार सीखते रहना। स्व. श्री घनश्याम चौरसिया “बादल” के माध्यम से उनके घर में आयोजित एक कवि गोष्ठी में स्वर्गीय बाबूजी के साथ देर रात तक हुई बैठक में लगा कि यह कवि गोष्ठी नहीं बल्कि कवियों को निखारने की कार्यशाला है।
धीरे-धीरे कभी ऐसी घरेलू बैठकों की आदत सी पड़ चुकी थी। वहीं शहर के नामचीन साहित्यकारों से मुलाकात हुआ करती थी। उनके कोतवाली के पीछे वाले घर को साहित्य का मंदिर कहना गलत न होगा।
तट विहीन तथाकथित प्रगतिशील कविताओं के दौर में गीत, छंद, दोहा सवैया, कवित्त, आदि के अनुगुंजन ने लेखन को नई दिशा दी थी।
गेट नंबर 2 के पास स्थित नवीन दुनिया प्रेस में बतौर साहित्य संपादक सुमित्र जी द्वारा नारी-निकुंज औसत रूप से सर्वाधिक बिकने वाला संस्करण हुआ करता था।
हमें भी दादा अक्सर पूरे अंक में लिखने की छूट देते थे। कविता के साथ कंटेंट क्रिएशन की शिक्षा शशि जी और सुमित्र जी से ही हासिल की है।
अभी-अभी पूज्य सुमित्र जी के महाप्रयाण का समाचार राजेश के व्हाट्सएप संदेश के जरिए मिला।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.राजकुमार तिवारी सुमित्र का निधन जबलपुर के साहित्यिक समाज के लिए एक दुखद प्रसंग है। नए स्वर नए गीत कार्यक्रम की श्रृंखला प्रारंभ कर पूज्य गुरुदेव सुमित्र जी ने सार्थक सृजन को दिशा प्रदान की है। वे अक्सर कहते थे कि-“उससे बड़ा सौभाग्यशाली कोई नहीं जिसके घर में साहित्यकारों के चरणरज न गिरें।”
अपने आप को पीड़ा का राजकुमार कहने वाले दादा ने ये भी कहा – ” दर्द की जागीर है, बाँट रहा हूँ प्यार।”
गायत्री कथा सम्मान के संस्थापक सुमित्र जी नगर के हर एक रचना कार्य और साहित्य साधकों के केंद्र बिंदु हुआ करते थे। उनकी साहित्यिक सक्रियता से शहर जबलपुर साहित्य साधना का केंद्र था। सृजनकर्ता को दुलारना,उसे मजबूती देना, यहां तक की प्रकाशित करना भी उनका ही दायित्व बन गया था। हम तो उनके आजीवन ऋणी है।
जबलपुर ही नही प्रदेश के प्रतिष्ठित साहित्यकार, लगभग 40 कृतियों के रचयिता, पाथेय साहित्य कला अकादमी के संस्थापक कविवर डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र का आज दिनांक 27 फरवरी 2024 को रात्रि 10 बजे 85 वर्ष की उम्र में निधन हो गया ।
सुमित्र जी डॉक्टर भावना तिवारी, श्रीमती कामना , एवं चिरंजीव डॉ. हर्ष कुमार तिवारी के पिता, बाल पत्रकार बेटी प्रियम के पितामह एवं हम सब साहित्य अनुरागीयों तथा नए युवा साहित्यकारों के प्रेरणा स्रोत अब हमारी स्मृतियों में शेष रहेंगे।
डॉ. सुमित्र ने अनेक समाचार पत्रों में सम्पादकीय सेवाएं दी ।
आप प्रदेश ही नही. देश, प्रदेश की साहित्यिक धारा के संवाहक रहे। यूरोप में भी भारतीय साहित्य का परचम लहराने वाली इस शख्सियत ने लगभग सात दशक साहित्य की अप्रतिम सेवा की है।
– श्री गिरीश बिल्लोरे मुकुल, जबलपुर
🙏 ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी को विनम्र श्रद्धांजलि 🙏
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
नुकताच म्हणजे १४ फेब्रुवारीला प्रेम दिवस सगळ्या जगभर साजरा झाला. कोणाची संस्कृती असो किंवा नसो पण त्या दिवसाची संकल्पना आवडली असावी म्हणून प्रत्येक देशात हा दिवस साजरा केला नव्हे साजरा केला जातो.
पण प्रेम ही संकल्पना एवढी संकुचित आहे का हो? फक्त प्रियकर प्रेयसी या मधे असलेले नाते किंवा भावना म्हणजे प्रेम? मग आई, वडील -मुले, आजी, आजोबा -नातवंडे, पाळीव प्राणी – घरातील सदस्य, बहीण – भाऊ, मित्र – मित्र /मैत्रीण, किंवा इतर काही कारणाने निर्माण झालेले नातेसंबंध, उदा. मालक -कामगार, ज्येष्ठ -कनिष्ठ, स्त्री -पुरुष ई….
या सगळ्यांमध्ये असणारी भावना त्याने निर्माण झालेले नाते म्हणजे काय? हे प्रेम नाही?
मग कोणी म्हणेल आई, वडील – मुले म्हणजे मातृत्व /पितृत्व किंवा ममत्व/वात्सल्य
आजी, आजोबा – नातवंड म्हणजे जिव्हाळा,
पाळीव प्राणी – घरातील सदस्य म्हणजे लळा
बहीण – भाऊ म्हणजे बंधुत्व,
मित्र – मित्र /मैत्रीण, म्हणजे मैत्री
मालक – कामगार म्हणजे जबाबदारी
ज्येष्ठ -कनिष्ठ म्हणजे कुठे तरी समानत्व मान्य करून फक्त आधी -नंतर केलेला भेद
इतर कोणीही ओळखीचे अनोळखीचे आपल्याला भेटल्यावर त्यांच्याशी केलेला व्यवहार म्हणजे आपुलकी
स्त्री – पुरुष यामधे असलेल्या भावना म्हणजे केवळ शारीरिक आकर्षण? व्याभिचार?
जरा नीट विचार केला तर समजेल की मातृत्व /पितृत्व किंवा ममत्व/वात्सल्य,जिव्हाळा,लळा,बंधुत्व,मैत्री ,जबाबदारी,आपुलकी, दया, उपकार काळजी धाक या सगळ्या नावांच्या इमारती या प्रेमाच्या पायावर उभ्या राहिलेल्या आहेत नावे वेगळी असली तरी हेच प्रेम आहे.
मग या सगळ्यासाठी एक दिवस? नाही नाही या सगळ्या साठी वेगवेगळे दिवस आहेत की असे पटकन सगळे म्हणतील. पण तरी सगळे दिवस जरी साजरे केले तरी फक्त एक एक दिवसच?
दुसरे असे की सगळे म्हणतात ईश्वर एक आहे पण मानवाने त्याच्या सोयीनुसार स्वरूप बदलून अनेक देवांची निर्मिती केली. गम्मत आहे ना ज्या देवाने निर्माण केले त्याच देवांना वेगवेगळे रूप देऊन त्याचे क्रेडिट आपण घेतो. असो तो विषय मोठा आहे.
पण हे जसे घडले ना अगदी तसेच प्रेम ही एकच भावना असताना त्याला वेगवेगळी नावे देऊन त्याला वेगवेगळ्या दिवसात विभागले जात आहे. स्त्री – पुरुष हे विवाहा नंतर दुसऱ्या बरोबर दिसलें तर ते लफडे, व्याभिचर… का ते प्रेम नाही होऊ शकत?
वेगवेगळे दिवस वेगवेगळ्या नावाने केले तरी फक्त त्या एका दिवसापुरतेच त्याचे महत्व? बाकी ३६४ दिवसांचे काय? तेव्हा पण या भावना जागृत असल्याच पाहिजेत ना?
प्रेम हे त्रैलोक्यातील त्रिकालाबाधित सत्य आहे. ते सर्वत्र सारखेच आहे त्याला वेगवेगळे नाव देऊन विभागून त्याचा अपमान करू नका. प्रेमाला प्रेमच राहू द्या वेगळे नाव नको. आणि सगळ्याच संतांनी सांगितल्या प्रमाणे फक्त आणि फक्त प्रेमकी गंगा बहाते रहो……