हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 248 ⇒ नये साल का कैलेंडर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नये साल का कैलेंडर।)

?अभी अभी # 248 ⇒ नये साल का कैलेंडर… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह हर रोज तारीख बदलती है, हर वर्ष कैलेंडर भी बदलता है। कैलेंडर वही जो तारीख भी बताए और तिथि भी ! जब घरों में टीवी, और लोगों के हाथ में मोबाइल नहीं था, तब हर घर में, दीवार पर, कम से कम एक अदद कैलेंडर जरूर टंगा रहता था। समय की पहचान तो घड़ी से हो जाती है, कैलेंडर तो तिथि, तारीख, वार और महीना सबकी जानकारी रखता है।

घर गृहस्थी के बहुत काम आता था कैलेंडर। दूध वाला कितना भी चालाक हो, एक कुशल गृहिणी दूध का पूरा हिसाब कैलेंडर पर लिखकर रखती थी। जिस तारीख को दूध वाला नहीं आया, उस तारीख के आसपास एक घेरा नजर आता था जिसे किसी अदालत में चैलेंज नहीं किया जा सकता था।।

सभी बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान, सरकारी, अर्ध सरकारी विभाग और राष्ट्रीयकृत बैंकें अपने सम्मानित ग्राहकों को आज भी कैलेंडर और डायरियां भेंट करते हैं।

तब घरों में कीलें ठोंकी जाती थी और कपड़े हैंगर पर नहीं, खूंटी पर टांगे जाते थे। नया साल शुरू होते ही, महिलाएं, सौदे के साथ कैलेंडर की मांग भी करती थी। साड़ी की दुकान, किराने वाले की दुकान, दवाई वाला हो अथवा खानदानी ज्वेलर, एक कैलेंडर तो बनता ही था।।

अक्सर कैलेंडरों पर देवी देवताओं के ही चित्र होते थे। बड़े बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठान अधिकतर प्रकृति प्रेमी होते थे। शासकीय कैलेंडर पर सरकारी योजनाओं की तस्वीरें होती थी। अगर कीलें कम पड़ जाती तो और ठोंक दी जाती। वैसे भी घर और दीवारों की शोभा कैलेंडर से ही तो होती है।

हमारे देश में शिवकाशी, तमिल नाडु में केवल फटाके ही नहीं बनते, सस्ते, सुंदर और टिकाऊ कैलेंडर भी थोक में छापे जाते हैं। पूरा कैलेंडर वही रहता है, बस छापने वाले का नाम जोड़ दिया जाता है, ठीक छपे छपाए विवाह के निमंत्रण पत्र के फॉर्मेट की तरह।।

ऊंचे लोग, ऊंची पसंद ! कैलेंडर शराब की कंपनियां भी छापती थी। उनके कैलेंडर शरीफ घरों में नहीं टांगे जाते थे। फिर भी कैलेंडर अगर शौक है तो जरूरत भी। जो अधिक शरीफ और शालीन लोग होते थे, वे तो हर साल अस्पताल से ही कैलेंडर ले आते थे।

आपको तिथि और तारीख ही तो देखनी है, वार त्योहार, व्रत उपवास देखना है, तो घर में एक लाला रामस्वरूप का पंचांग वाला कैलेंडर ही काफी है। वैसे आपकी मर्जी, आपका घर है, जितना जी चाहें कैलेंडर टांगें, लेकिन अस्पताल वाले कैलेंडर तो बस, हम दो हमारे दो। क्योंकि वे कैलेंडर नहीं, आपके दिल के टुकड़े हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #29 ☆ कविता – “अभी तो मैं जवान हूँ…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 29 ☆

☆ कविता ☆ “अभी तो मैं जवान हूँ…☆ श्री आशिष मुळे ☆

दिमाग की तलवार हूँ

समय की मैं धार हूँ

चढ़ता हुआ नशा हूँ

मैं बढ़ती हुई रात हूँ

अभी तो मैं जवान हूँ ।

 

दरिया हूँ भरा हुआ

कश्तियों की जान हूँ

जिगर की मैं शान हूँ

दिल की एक आन हूँ

अभी तो मैं जवान हूँ ।

 

वक्त की जो धूप है

सावन की ये आग है

फूलों की एक छांव हूँ

काँटों की मैं मौत हूँ

अभी तो मैं जवान हूँ ।

 

ज़ुल्फों की जो चांदी है

वो तो गुजरी आंधी है

चमकता एक अंदाज हूँ

जैसे कोई बाज हूँ

अभी तो मै जवान हूँ ।

 

जंगे पाया हजार हूँ

फिर भी आज जिंदा हूँ

पीकर भी एक प्यासा हूँ

जिंदगी का मैं प्यार हूँ

अभी तो मैं जवान हूँ ।

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆विश्व हिन्दी दिवस विशेष  – “अभिमान बनी हिन्दी भाषा…” ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ विश्व हिन्दी दिवस विशेष  – “अभिमान बनी हिन्दी भाषा…” ☆ डॉ निशा अग्रवाल

जान बनी अभिमान बनी हिन्दी भाषा तो अपनी

हर जन की ह्रदय प्रिय बनी हिन्दी भाषा तो अपनी

हिंदुस्तानी हम है तो हिंदी का मान बढ़ाएं

हिंदी भाषी लोगों से हम कभी नहीं कतराएं।

अहसास गर्व का करवाती हिंदी भाषा ही अपनी

हर मन के भाव समझाती हिंदी भाषा ही अपनी

जान बनी अभिमान बनी हिन्दी भाषा तो अपनी

हर दिल की अज़ीज़ बनी हिन्दी भाषा तो अपनी

☆ 

घर परिवार समाज को बांधे एक सूत्र में हिंदी

सारेगामा सात सुरों को साजे ताल में हिंदी

संस्कारों को चिन्हित करती हिंदी भाषा ही अपनी

मनमोहक चित्रण भी करती हिंदी भाषा ही अपनी

☆  

जान बनी अभिमान बनी हिन्दी भाषा तो अपनी

हर दिल की अज़ीज़ बनी हिन्दी भाषा तो अपनी

☆ 

मीरा, तुलसी के दोहे हिंदी भाषा में बने हैं

निर्गुण भाव कबीरा और  वात्सल्य रसखान भरे हैं

गद्य पद्य दोहे सूक्ति मिल पुस्तक बन जाती हिंदी

नैतिक शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान में छाप छोड़ती हिंदी

☆ 

जान बनी अभिमान बनी हिन्दी भाषा तो अपनी

हर दिल की अज़ीज़ बनी हिन्दी भाषा तो अपनी

☆ 

छंदबद्ध, मुक्त छंद काव्य सब हिंदी में रचे गए हैं

शोध ग्रंथ, पाठ्यक्रम पुस्तक सहज ही पढ़े गए हैं

जटिल तथ्य को सहज बनाती हिंदी भाषा ही अपनी

उमंग, खुशी की लहर जगाती हिंदी भाषा ही अपनी

☆ 

जान बनी अभिमान बनी हिन्दी भाषा तो अपनी

हर दिल की अज़ीज़ बनी हिन्दी भाषा तो अपनी

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 189 ☆ बाल गीत – चंदा मामा, चंदा मामा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 189 ☆

☆ बाल गीत – चंदा मामा, चंदा मामा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चंदा मामा, चंदा मामा

हमने सुंदर चित्र बनाए

हम लाए कुर्ता , पाजामा

तुमको पहनाकर  हरषाए।।

 

देखो चित्र एक अपना तो

जिसमें सूत कातती माता

गोल पूर्णिमा की आभा से

धरती का हर जीव सुहाता

 

खीर पेट भर खा लो मामा

काजू , किशमिस फल भी लाए।।

 

देखो एक चित्र अपना तो

चपटी लगे कछुआ – सी पीठ

कभी नारियल – से भूरे हो

कभी लगते बच्चों – से ढीठ

 

देख तुम्हारी सूरत , मूरत

रोज – रोज ही हम मुस्काए।।

 

तरबूजे की खाँफ सरीखे

रसगुल्ला – से लगते सफेद

रूप बनाते न्यारे – न्यारे

और न कभी तुम करते भेद

 

रात तुम्हारी मित्र अनोखी

रोज प्रेम से तुम बतलाए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जिथे… ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? कवितेचा उत्सव ?

जिथे… ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

प्रेमाचा बोल नाही,

ममतेला मोल नाही,

कपाळाला आठि तिथे

जावे कशाला ?

 

ममतेला थारा नाही,

आदराचा वारा नाही,

आस्थाहीन घरांत त्या,

रहा कशाला ?

 

संवादाला जागा नाही,

कलहाला अंत नाही,

दुस्वासाचा ढोल तेथे,

ऐका कशाला ?

 

अंतरीची ओढ नाही,

मायेची ओल नाही,

नात्याचे नाटक तिथे,

करा कशाला ?

 

देव्हार्‍यात देव नाही,

भक्तीचा भाव नाही,

मुक्या मूर्तिला फूल,

वाहू कशाला ?

😟😟 

© सुहास सोहोनी

रत्नागिरी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ गानसरस्वती… ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

श्री विश्वास देशपांडे

? विविधा ?

☆ गानसरस्वती… ☆ श्री विश्वास देशपांडे

गानसरस्वती किशोरीताई आमोणकर आज आपल्यात नाहीत. पण त्यांच्याबद्दलचा एक किस्सा नुकताच वाचनात आला. बऱ्याच वर्षांपूर्वीची गोष्ट आहे. पुण्यातील एका सभागृहात किशोरीताईंचे गाणे सुरु होते. कार्यक्रम नुकताच सुरु झाला होता आणि साऊंड सिस्टीम बिघडली. संयोजकांनी बरेच प्रयत्न केले पण काही उपयोग झाला नाही. ताई स्टेजवरून उठून गेल्या. श्रोत्यांमध्ये कुजबुज सुरु झाली. आता काय होईल ? दबक्या आवाजात चर्चा सुरु झाली. कोणी म्हणाले ताईंचा स्वभाव विचित्र आहे. कोणी म्हणाले त्या स्वतःला फार ग्रेट समजतात. ज्याला जे वाटले ते तो बोलू लागला. शेवटी कोणी तरी बराच प्रयत्न करून साऊंड सिस्टीम सुरु केली. ताई आतमध्ये होत्या. कोणीतरी भीतभीतच त्यांना सांगितले की साऊंड सिस्टीम सुरु झाली आहे.

ताई आल्या. त्यांनी गायला सुरुवात केली. हळूहळू मैफलीत रंग भरू लागला. उत्तरोत्तर मैफल अधिकाधिक गहिरी होत गेली. ताईंचा स्वर सप्तकातून सहज विहार करू लागला. जणू आपल्या गायनातून त्यांनी अनंताचा शोध घ्यायला सुरुवात केली. त्यांची गानसमाधी लागली. त्यांच्याबरोबर श्रोते देखील स्वरांच्या पावसात चिंब झाले होते. ताईंच्या सुरात भक्तीभाव होता, बेहोशी होती, माधुर्य होते. आणि त्या सगळ्यांच्या पलीकडे जाणारे आणखी काहीतरी होते. अनंताची आराधना होती. सुरांच्या माध्यमातूनच त्या अनंताचा शोध घेत होत्या. त्यामागे त्यांची खडतर तपश्चर्या होती. आणि अशी खडतर साधना करणाऱ्या साधकाच्या आयुष्यात एक क्षण असा येतो की ज्या क्षणी त्याचा आत्मा परमात्म्याशी एकरूप होतो. मी आणि तू वेगळे नाहीतच. माझ्यातच तू आहेस आणि तुझ्यातच मी आहे असा साक्षात्कार साधकाला होतो. तशी ताईंची गानसमाधी लागली होती. पण आपल्यासवे त्या श्रोत्यांना देखील त्यांनी त्यात सामील करून घेतले होते.  त्यांचा ‘ स्व ‘ विश्वव्यापक झाला होता. हळूहळू त्या समेवर आल्या. श्रोते सुरसागरात डुंबत होते. पाच मिनिटांनी टाळ्यांचा कडकडाट झाला.

अशी ही गानसरस्वतीची गानसमाधी. मला त्यांचा हेवा वाटला. आणि माझेही मन नकळत त्यांच्या तपश्चर्येपुढे लीन झाले. मी त्यांना मनोमन प्रणाम केला. आपण जो काही जीवनमार्ग निवडला आहे त्याच्याप्रती केवढे हे उच्च प्रतीचे समर्पण ! पुन्हा त्यामध्ये स्वार्थाची भावना नाही, हाव नाही, कुठलीही अपेक्षा नाही. ताई कोणासाठी गात होत्या ? म्हटले तर सर्वांसाठी आणि म्हटले तर कोणासाठीच नाही ! त्या गात होत्या आनंदासाठी. आणि हा आनंद श्रोत्यांनाही त्यांनी भरभरून वाटला. त्या आनंदाचे झाड झाल्या. सुरांच्या कल्पवृक्षाला आनंदाची फळे लागली. वृक्ष फळभाराने झुकला. सप्तसुरांची मधुर फळे त्या वृक्षाला लागली. ज्याला हवे त्याने यावे आणि मधुर फळांची गोडी चाखावी.

गीतरामायणातले ग.दि.मांचे शब्द आणि बाबूजींचे स्वर नकळत कानात घुमू लागले.

          सात स्वरांच्या स्वर्गामधुनी

          नऊ रसांच्या नऊ स्वरधुनी

          यज्ञ मंडपी आल्या उतरुनी

          संगमी श्रोतेजन नाहती.

असेच नाही का ताईंच्या मैफलीबद्दल म्हणता येणार ?

आपण ज्या क्षेत्रात काम करतो त्या क्षेत्रात असेच समर्पण आपल्याला करता आले तर …! आपले जीवन ही सुद्धा एक साधना होईल, एक तपश्चर्या होईल. आपल्या कामाचे समाधान, आपल्या कामाचा आनंद आपल्याला तर मिळेलच पण दुसऱ्यांनाही हा आनंदाचा ठेवा आपल्याला वाटता येईल.

© श्री विश्वास देशपांडे

चाळीसगाव

प्रतिक्रियेसाठी ९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मातीची ओढ… भाग-२ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆

श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

? जीवनरंग ❤️

☆ मातीची ओढ… भाग-२ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली   

(पण एखाद्याला सोन्याचे अंडे खाण्यापेक्षा कोंबडीच कापून खायची असेल तर त्याला कोण काय करणार?)  इथून पुढे —–    

“सदाकाका, आम्हाला शेती करण्यात इंटरेस्ट नाहीय. इथे एकरी चार लाख रूपये भाव चालला आहे असं ऐकलंय. बारा लाख रूपये येतील. विकणेच रास्त ठरेल.” सुधीरने सांगून टाकले.

“ही शेतजमीन बाहेरच्या कुणालाही विकू नये अशी आमच्या आबांची इच्छा होती.”

“ठीक आहे, मग बारा लाख रूपये देऊन तुम्ही विकत घ्या.”

आक्का आणि काशिनाथकडे पाहत सदाभाऊ म्हणाले, “ठरलं तर. पुढच्या आठवड्यात सौदा पूर्ण करू. आमच्या एका भावानं आपला हिस्सा विकून खाल्ला आहे असं गावात बभ्रा व्हायला नको म्हणून विक्रीपत्राच्याऐवजी दानपत्र करून घेऊ. दुसरी अट, यापुढे किसन आमच्याबरोबर इथेच राहील. मंजूर असेल तर बोला.” किसनरावांना एका शब्दानंही न विचारता सुधीर आणि अविनाश यांनी दोन्ही अटी मान्य करून टाकल्या. विशाखाच्या डोळ्यांत पाणी तरारलं. किसनरावांनी मायेनं विशाखाच्या पाठीवर हात ठेवला.

किसनरावांच्या शेतजमीनीची विक्री वा दानपत्र करण्यासाठी सुधीर आणि विशाखाकडून रीतसर संमतीपत्र तसेच किसनरावांच्या नावाने योग्य ते कुलमुख्त्यारपत्र लिहून रजिस्टर करून घेतलं. सदाभाऊ, आक्का आणि काशिनाथ या तिघांनी मिळून बारा लाख दिले. दानपत्र केलंच नाही, किसनरावांचं नांव सातबाऱ्यावर तसंच राहिलं. ते नियमितपणे शेतात जाऊन शेतीची कामं बघायला लागले. अकाउंटिंगच्या आणि बॅंकेच्या कामात काकांच्या रूपाने प्रशांतला मोठा आधार मिळाला.

अविनाशचं क्लिनिक सुरू झालं. सुधीरनं फ्लॅट बुक केला. बघता बघता दोन वर्षे सरून गेली. विशाखा आठवड्यातून एकदा तरी फोन करत होती. सुरूवातीला सुधीरचे येणारे फोन कमी कमी होत गेले. वाड्यावर किसनरावांची सर्वचजण काळजी घ्यायचे. त्यांना त्यांच्या नातवंडांची आठवण यायची.

अलीकडेच त्यांना खोकल्याचा त्रास सुरू झाला. एकदा फोनवर बोलताना ही गोष्ट विशाखाच्या लक्षात आली. “बाबा, आधीच फोन करायचं होतं ना. तुमचे जावईच डॉक्टर आहेत. मी तुम्हाला घेऊन जायला आले असते.”

किसनरावांनी सांगितलं, “बेटा, मला काहीही झालं नाही. प्रशांतने शहरात नेऊन सगळ्या टेस्ट्स करवून घेतल्या आहेत. औषधोपचारदेखील चालू आहे.”

विशाखाने सदाकाकांशी बोलून घेतलं. ‘दोनच दिवसात परत पाठवणार असशील तरच किसनला येऊन घेऊन जा.’ असं सदाभाऊंनी स्पष्टच सांगून टाकलं.

विशाखाने लगोलग सुधीरला फोनवर सांगितलं, ‘सुधीर, बाबांची तब्येत बरी दिसत नाहीये. उद्या सुटीच आहे. सकाळी लवकर ये. आपण जाऊन बाबांना काही दिवसासाठी इकडे घेऊन येऊ.’

सकाळी दोघे कारने गावाकडे निघाले. बाबांना परत आणण्याच्या कल्पनेनेच सुधीर अस्वस्थ झाला होता. अखेर त्यानं तोंड उघडलं, “ताई, बाबांच्या तब्येतीच्या दृष्टिने त्यांनी गावातच राहणं चांगलं आहे. इकडे कशाला बोलावते आहेस? तुला माहीत आहे की मी भाड्याच्या घरात राहतो ते. माझ्याकडे जागा कुठे आहे? बाबांना तुझ्याकडेच का घेऊन जात नाहीस? औषधोपचारासाठी तुमच्याकडे क्लिनिकही आहे.”

विशाखाला सुधीरचं बोलणं आवडलं नाही. पण तिने विचार केला, अविनाशने तर रूग्णांच्या सेवेचंच व्रत घेतलं आहे. पितृतुल्य सासऱ्यांना तो थोडंच नाही म्हणणार आहे?  “बरं, मी घेऊन जाईन. झालं.” विशाखा ठसक्यात म्हणाली.

खूप दिवसांनी बाबांना पाहिल्यावर विशाखाच्या डोळ्यांत पाणी आलं. किसनराव म्हणाले, “वेडाबाई मला काहीही झालं नाही. हे रिपोर्ट्स बघ आणि ही औषधे.”

“बाबा तुम्हाला इथे काही कमी आहे म्हणून आम्ही न्यायला आलो नाही. तुमची तब्येत बरी नाही हे ऐकून सुधीरही अस्वस्थ झाला होता आणि तुमचे जावई तुम्हाला घेऊन या म्हणून आग्रह करीत होते म्हणून आम्ही आलो.” विशाखाने रेटून सांगितलं. दुपारच्या जेवणानंतर किसनरावला घेऊन विशाखा आणि सुधीर निघाले.

सुधीरची मुलं आतेभावांना भेटायला म्हणून विशाखाच्या घरीच आली होती. सगळ्यांच नातवंडांना एकत्र पाहून किसनराव खूप सुखावले. थकवा वाटत असल्यामुळे जेवण करून ते झोपायला गेले.

अविनाश क्लिनिकहून उशीरा आले. जेवणं झाल्यानंतर विशाखाने अविनाशला सहज सांगितलं, “अहो, सुधीरचा फ्लॅट लहान पडतो म्हणून मी बाबांना आपल्याकडेच घेऊन आले आहे.”

त्यावर अविनाश एकदम भडकला, “इथे का आणलंस? तुझ्या बाबांना सांभाळण्याची जबाबदारी तुझ्या भावाची आहे. फ्लॅटसाठी पैसे घेताना त्याला लाज वाटली नाही. उद्या सकाळीच त्यांना सुधीरच्या घरी पाठव. त्याला जमत नसेल तर वृद्धाश्रमात दाखल कर म्हणावं. माझे बॅंकेचे लोन फिटताच मी घेतलेले पैसे परत करीन, हे तुझ्या बाबांना सांग. कळलं?”

विशाखा पहिल्यांदाच अविनाशचं हे वेगळं रूप पाहत होती. “अविनाश, तुम्ही रात्रंदिवस रूग्णांची इतकी सेवा करीत राहता म्हणून त्यांना चार दिवस इकडे आणलं होतं. तुमच्या मनांत, घरात माझ्या बाबांच्यासाठी काहीच का स्थान नाही? बरोबर आहे म्हणा, इतर रूग्णांची सेवा केल्याने तुम्हाला पैसे मिळतात. हे मी विसरलेच. आणि हो, माझ्या बाबांचे पैसे परत करायचं म्हणत होता, जेंव्हा त्यांचे पैसे परत कराल त्यावेळी पैसे घ्यायला ते असतील की नाही हे त्या देवालाच माहीत. नोकरी सोडायला लावून तुम्ही माझे पंख कापून टाकलेत. आता एक अगतिक कन्या आपल्या बापासाठी तरी काय करणार म्हणा.” असं म्हणून विशाखा पटकन तिथून निघून गेली.

दुसऱ्या दिवशी सकाळी अविनाश क्लिनिकला गेल्यानंतर नाष्टा घेऊन विशाखा बाबांच्या खोलीत गेली. किसनराव सामान बांधूनच बसले होते. “बेटा, काल रात्रीचं तुमचं बोलणं ऐकलंय मी. माझ्यामुळे तू आपल्या संसारात विष कालवू नकोस. मायेची ऊब आणि आपुलकीचा ओलावा गवसत नसल्याने शहरातील बरीचशी वृद्धमंडळी मुळातच खुरटल्यासारखी दिसतात. गजबजल्या गोकुळात असून देखील एखाद्या वृद्धाश्रमात असल्यासारखे ते एकाकीच असतात. मला जाऊ दे.

घाबरू नकोस मी काही वृद्धाश्रमात जाणार नाहीय. कुणी शेतकरी बापडा वृद्धाश्रमात असल्याचं मी तरी आजवर ऐकलेलं नाही. गावाकडे माझी भावंडं माझी आतुरतेने वाट पाहताहेत. मला माझ्या मातीच्या मायेची ओढ लागून राहिलीय. टॅक्सी बोलावून घे. मी जाईन.” विशाखा स्वाभिमानी बाबांची संवेदनशीलता जाणून होती.

घरासमोर एक टॅक्सी येऊन थांबली. अगदी अकल्पितपणे टॅक्सीतून प्रशांत उतरला. “ताई, काका आहेत का ग?” असं म्हणत आत आला.

किसनराव बॅग घेऊन हसतच बाहेर आले. “प्रशांत गावाकडे चाललास ना?  बेटा, मला इथे करमत नाही. चल मी येतो.”

विशाखाच्या डोक्यावर आशिर्वादाचा हात ठेवून किसनराव टॅक्सीत बसले. सुधीरने बाबांच्या तब्येतीची चौकशीही केली नाही. आपलं काळीज ज्या जावयाच्या हातात सोपवलं होतं, तो जावई किमान सासऱ्यांना भेटला  देखील नाही. ‘बाबा इथे आरामात रहा, जायची घाई करू नका’ किमान असं तोंडदेखलं तरी बोलून तरी अविनाशने बाबांचा मान राखायला हवा होता. दोनच दिवसांचा प्रश्न होता. बाबा कुठे इथे आयुष्यभर राहायला आले होते?’ असं विशाखाला वाटून गेलं.

बाहेर नुकताच पाऊस पडून गेला होता पण या विचारांच्या वावटळीत, अगतिक विशाखाच्या डोळ्यांतला पाऊस मात्र थांबतच नव्हता.

— समाप्त — 

© श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

बेंगळुरू

मो ९५३५०२२११२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ रांगोळी… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

??

☆ रांगोळी… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

सकाळी लवकर ऊठून अंगणात सडा टाकायचा मग त्यावर छानशी रांगोळी काढायची असा दिवस सुरू व्हायचा•••

तेव्हा आजीला विचारले “ का गं आजी सडा रांगोळी करायची? “ तेव्हा आजीने सांगितले••••

“ या कृतीतच संसाराचे सार दडलेलं आहे गं•••

आश्चर्याने मी विचारले “ ते कसं?”

तशी आजी म्हटली, “ ते मी सांगते. पण तू मला सांग, सडा रांगोळीचे अंगण पाहिले तर तुला काय वाटते?”

मी म्हटलं “ काय वाटणार? छान वाटते. प्रसन्न वाटते. अजून काय?”

आजी म्हटली, “ बरं आता मी सांगते बरं का ! सकाळी उठून जेव्हा बाई आधी अंगण झाडते ना••• तेव्हा कालची मनातली घाण रुसवे फुगवे कुरबुरी यांचा कचरा ती बाहेर फेकून देते. नंतर जेव्हा पाण्याने ती सडा टाकते ना•••• तेव्हा आपल्याच मनावर ती समजुतीची, सामंजस्याची शिंपण करीत असते आणि सगळी नकारात्मकता ती दाबून टाकत असते. मग जेव्हा ती या दाबलेल्या मनावर अर्थात सडा टाकलेल्या अंगणावर रांगोळी काढते ना? तेव्हा सगळी सकारात्मकता त्यात येते. माझे अंगण चांगले दिसावे, माझ्या घरातल्या प्रत्येक सदस्याला मी सूख द्यावे याकडे तिचे चित्त जाते.  मग कोणासाठी काय काय करायचे कसे करायचे याचे नियोजन ती रांगोळी काढताना करते. .. मग असे सकारात्मक उर्जेने भरलेलं मन तिला दिवसभर सळसळतं ठेवतं. तिच्याकडून घरातील सदस्यांना सुखावण्याचा आटोकाट प्रयत्न करतं.  पर्यायाने तिच्या बाजूने घरातील शांतता प्रसन्नता टिकवण्याचा प्रयत्न होत असतो…. तसेच बाहेरून येणारी व्यक्ती जेव्हा सुंदर रांगोळी पहाते तेव्हा ती पण प्रसन्न होते. जरी वाईट विचार मनात घेऊन आली असेल तरी त्याचाही काही अंशी निचरा होतो. पर्यायाने त्याचा या घराला मोठा फायदाच होतो.”  

अशा प्रकारचा सकारात्मकतेचा एक स्त्रोत सध्याच्या काळात आपणच बंद केला आहे. सध्या अंगणच नाही तर त्यापुढे रांगोळी तरी कशी येणार?

पण असा विचार करण्यापेक्षा दारात जेवढी रिकामी जागा असेल तेवढ्या जागेतच छोटीशीच रांगोळी काढूया.  सगळी नकारात्मकता घालवून जेवढी सकारात्मकता घेता येईल तेवढी घेऊया. दिवसाची सुरुवात चला निर्मळतेने करू या…

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ✹ ३१ डिसेंबर ✹ इतिहासाचार्य वि. का. राजवाडे स्मृतिदिन — संकलन : श्री मिलिंद पंडित ☆ प्रस्तुती – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? इंद्रधनुष्य ?

☆ ✹ ३१ डिसेंबर ✹ इतिहासाचार्य वि. का. राजवाडे स्मृतिदिन — संकलन : श्री मिलिंद पंडित ☆ प्रस्तुती – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

जन्म – १२ जुलै १८६३ (वरसई,रायगड)

स्मृती – ३१ डिसेंबर १९२६ (धुळे)

इतिहासाचार्य विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे यांचा जन्म रायगड जिल्ह्यातील वरसई येथे झाला. ते मराठी इतिहास संशोधक होते. त्यांनी संपादित केलेले ‘मराठ्यांच्या इतिहासाची साधने’ या ग्रंथाचे २२ खंड हे मराठा साम्राज्याच्या इतिहासाच्या अभ्यासासाठीचे महत्त्वाचे साधन मानले जाते. बीए पर्यंतचे शिक्षण झाल्यावर त्यांनी पुण्याच्या न्यू इंग्लिश स्कूल मध्ये काही दिवस शिक्षक म्हणून काम केले. इंग्रजी भाषेतील उत्कृष्ट ग्रंथांचे भाषांतर करून ते प्रकाशात आणण्यासाठी त्यांनी भाषांतर नावाचे मासिक सुरू केले. १८९८ साली त्यांनी लिहिलेल्या ‘मराठ्यांच्या इतिहासाची साधने’ या ग्रंथाचा पहिला खंड प्रकाशित झाला. ७ जुलै १९१० रोजी भारत इतिहास संशोधक मंडळाची स्थापना त्यांच्या पुढाकाराने झाली. राजवाडे म्हणायचे, “ज्ञानार्जनाची हौस असेल तर माझी मराठी भाषा पाश्चिमात्य लोक शिकतील; माझ्या ग्रंथांची पूजा करतील. मी परकीय भाषेत माझा ग्रंथ लिहिणार नाही. मी कीर्तीला हपापलेला नाही.”।महाराष्ट्राच्या विचारविश्‍वात इतिहासाचार्य वि. का. राजवाडे यांचा मोठा दरारा, दबदबा आणि धाक होता. राजवाडे आपल्या हयातीतच एक आख्यायिका बनून गेले होते. राजवाडे यांच्यावर भरपूर टीका झाली. त्यांच्या हयातीतच प्रबोधनकार के.सी. ठाकरे, विठ्ठल रामजी शिंदे, जिवाजी मंगेश तेलंग यांनी त्यांना चांगलंच धारेवर धरले होते. नंतरही इतिहास संशोधक त्र्यं.शं. शेजवलकर यांनी राजवाडे यांच्या मर्यादा स्पष्ट केल्या. तथापि, या सर्व गोष्टी एकत्र केल्या तरी राजवाडे यांचे वाक्‍य न्‌ वाक्य ब्रह्मवाक्‍य मानणारा एक वर्ग अस्तित्वात राहिलाच आणि विशेष म्हणजे मराठी विचारविश्‍वात याच वर्गाचे वर्चस्व असल्यामुळे राजवाडे यांचे स्थान अबाधित राहिले. राजवाडे यांच्या नावावर स्वतंत्र असा एकही ग्रंथ नाही. त्यांनी नियतकालिकांमधून किरकोळ स्वरूपाचे लेख लिहिले. ‘महिकावतीची बखर’ आणि ‘राधामाधवविलास चंपू’ या प्राचीन ग्रंथांचं संपादन केले आणि मुख्य म्हणजे मराठ्यांच्या इतिहासाची साधने गोळा करून ती तब्बल बावीस खंडांमध्ये छापली. त्यांच्यापैकी काही खंडांना प्रस्तावना लिहिल्या. राजवाडे संपादनांपेक्षा अधिक गाजले ते या प्रस्तावनांमुळे. ज्यांना या प्रस्तावना आवडल्या नाहीत, त्यांनाही राजवाडे यांनी अविश्रांत कष्ट घेऊन, प्रचंड भ्रमंती करून जमा केलेल्या इतिहासाच्या साधन सामग्रीसाठी त्यांच्या ऋणात राहण्यावाचून पर्यायच नव्हता. राजवाडे यांनी लिहिलेली ‘ज्ञानेश्वरीतील मराठी भाषेचे व्याकरण’ या पुस्तकाची प्रस्तावना मूळ पुस्तकापेक्षा अधिक वाचनीय आहे. असेच त्यांच्या बहुतेक पुस्तकां बद्दल म्हणता येईल. राजवाडे बुद्धिमान तर होतेच; पण त्यांना प्रतिभा शक्तीचीही देणगी लाभली होती. जबरदस्त आत्मविश्‍वास हे त्यांचे आणखी एक वैशिष्ट्य होते. त्यामुळं साधा अंदाज किंवा कयास सुद्धा ते अशा पद्धतीने व अशा आक्रमकपणाने मांडत, की जणू काही तो त्रिकालाबाधित सत्य असलेला महासिद्धान्तच आहे.

संकलन : श्री मिलिंद पंडित, कल्याण

संदर्भ : विकिपीडिया

संग्रहिका –  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र

मो. 9403310170, email-id – [email protected] 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ माझा संसार व मी…… – लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? वाचताना वेचलेले ?

माझा संसार व मी… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे

माझ्या लग्नानंतर मला कळलेल्या व पटलेल्या आणि मनाला भिडलेल्या, बऱ्याच गोष्टी या लेखात मला वाचण्यास मिळाल्या, पहा वाचा तुम्हालाही कदाचित पटतील व विचार करण्यास भाग पाडतील…

आपल्या नवयुवकाना याची फार मदत होईल नक्की वाचा…

— संसार काय असतो हे नेमक्या आणि मोजक्या शब्दात येथे मांडलंय

कागदावर जुळलेली पत्रिका आणि काळजावर जुळलेली पत्रिका यात  अंतर राहतं…

लाखो मनांच्या समुद्रातून योगायोगाने २ मनं अगदी एकमेकांसारखी समोर ठाकणं जवळ-जवळ 

अशक्य आहे, हे मानूनच हा डाव मांडायचा असतो.

वेगळ्या वातावरणात, संपूर्ण निराळे संस्कार लाभलेले  २ जीव, एकमेकांसारखे  असतीलच कसे?

सुख-दुःख, प्रेम, भांडणाचे काळे पांढरे चौकोन ओलांडण्याचा खेळ खेळवणं हीच तर नियतीची जुनी हौस आहे. सरळ सोपं आयुष्य नियतीने देवालाही दिलेले नाही. या न देण्याचंच ‘देणं’ स्वीकारून संसारात पाऊल टाकायचं असतं.

निसर्गात एक पान दुसऱ्या पानासारखं नाही, तर तुला मिळणारा ‘जीवन साथीदार’ अगदी तुला हवा तसा 

असणार कसा?. 

त्याचे – आपले, काही गुण जुळणारे नसणारच.. त्या वेगळ्या आपल्याला न पटणाऱ्या गुणांतच, त्याचं माणूस म्हणून वेगळेपण आहे, हे मान्य करणार असाल तरच संसारात पाऊल टाकावं.

—- अशा आशयाचं समुपदेशन ही आज काळाची गरज आहे.

कागदावरच्या कितीही कुंडल्या बघा.. बघण्याच्या समारंभात गच्चीवर गप्पा मारताना छंद, महत्त्वाकांक्षा, 

श्रद्धा-अंधश्रद्धा असे तेलकट प्रश्न विचारा..  या प्रश्नांची उत्तर ही सौंदर्य-स्पर्धेतील मेकअप केलेल्या 

सुंदर मुलींच्या भंपक उत्तरांसारखीच.

लग्नानंतर मग खरं काय ते एकमेकांना कळत जातं…..  

तेव्हा म्हणाली होती, ‘वाचनाचा छंद आहे’  पण नंतर साधं वर्तमानपत्र एकदाही उघडलं नाही बयेनं…

जाब विचारू शकतो आपण?

किंवा — 

तो म्हणाला होता – ‘प्रवासाची आवड आहे; जगप्रवास करावा, हिमालयात ट्रेकिंग करावं – असं स्वप्न आहे!’

पण – 

प्रत्यक्षात कळतं; कामावरून आला की जो सोफ्यावर लोळतो की गव्हाचं पोतं जसं. जेवायला वाढलंय.. 

हे ही चारदा सांगावं लागतं…

प्रवासाची आवड कसली? कामावर दादरला जाऊन घरी परत येतो ते नशीब… 

वर्षभर सांगतेय, माथेरानला जाऊ तर उत्तर म्हणून फक्त जांभया देतो…

कसले मेले ३२ गुण जुळले देव जाणे… उरलेले न जुळलेले ४ कुठले ते कळले असते तर…

मनापासून सांगतो, त्या न जुळलेल्या गुणांशीच खरं तर लग्न होत असतं आपलं.

तिथं जमवून घेणं ज्या व्यक्तीला जमलं, तीच व्यक्ती टिकली… नाही जमलं की विस्कटली.

अन्याय -शोषण, सहन न करणं, हा पहिला भाग झाला… 

पण न जुळलेल्या गुणांमध्ये एकमेकांच्या वेगळ्या क्षमतांचा शोध घेऊन नातं जुळतंय का हे पाहण्याची सहनशीलता दोघांमध्ये हवी….. 

…. पण आज हे लग्नाळू मुला-मुलींना सांगितलंच जात नाहीये;

आपल्याला ‘हवी तशी’ व्यक्ती मिळणं हे एक परीकथेतील स्वप्न असेल; 

पण वेगळ्या रंगाच्या धाग्याने टाके घालीत आयुष्य जोडतं ठेवावं लागतं हेच खरं वास्तव आहे.

धुमसत राहणाऱ्या राखेत कसली फुलं फुलणार ?..‘ एकमेकांचे काही गुण जुळणारच नाहीत, ते मी स्वीकारणार आहे का?’–या प्रश्नाचं प्रामाणिक उत्तर स्वत:शी देऊन मगच संसार मांडायला हवा.

आपल्यापेक्षा कोणत्याही वेगळ्या व्यक्तीचं वेगळेपण सहज स्विकारणं हे या वाटेवरच 

पहिलं पाऊल…

ते पाऊल योग्य विश्वासाने पडलं की इतर सहा पावलं सहज पडत जातात.. 

आणि मग ती “सप्तपदी” – “तप्तपदी” होत नाही..

हेच संसाराचं खरं मर्म आहे.

हरीॐ

“मेड फॉर इच अदर” आपोआप होत नाहीत… होत जातात…

लेखक : अज्ञात

संग्रहिका : प्रभा हर्षे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares