(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “सौख्य के समंदर में…”)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “फैसला”।)
☆ लघुकथा ☆ “फैसला”☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
नम आंखों से कामेश और शिखा ने अपने बेटे और बहू को जब एक साल पहले विदा किया था तो समर ने वायदा किया था कि हर दिन वह फोन पर बात करेगा। पर साल भर बाद पंखुड़ी ने बताया कि समर इतने अधिक बिजी हो गए हैं कि थोड़ी सी बात करने का भी उन्हें समय नहीं मिलता। हताश कामेश और शिखा हर दिन समर को याद करते रहते और उसके फोन का रास्ता देखते रहते। कामेश लगातार बीमारी से टूट से गए थे, ज्यादा गंभीर होने से एक दिन उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। समर का फोन तो आया नहीं, हारकर शिखा ने समर को फोन लगाया।
– हलो…. बेटा तुम्हारे पापा अस्पताल में बहुत सीरियस हैं तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं, उनका आखिरी समय चल रहा है। यहां मेरे सिवाय उनका कोई नहीं है। कब आओगे बेटा ? वे तुम्हें एक नजर देखना चाहते हैं।
— मां बहुत बिजी हूं। वैसे भी इण्डिया में अभी बहुत गर्मी होगी, इण्डिया में अपने घर में एसी- वेसी भी नहीं है। समीरा से बात करता हूं कि अभी पापा को अटेंड कर ले फिर माँ के समय मैं आ जाऊँगा। तुम तो समझती हो मां… मुझे तुम से ज्यादा प्यार है।
— पर बेटा वे तो मरने के पहले सारी प्रापर्टी तुम्हारे नाम करना चाहते हैं।
☆ कथा कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-३ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆
(श्रमिकों की खस्ता हालत और श्रमिक नेताओं द्वारा किया जाने वाला उनका शोषण.. इसी विषय पर जयंत बाते करता था। सभा, संमेलन, चर्चाऍं, मोर्चा, इसमें वह रात -दिन की, गर्मी की, भूख- प्यास की परवाह न करते हुए जाता रहा )…. अब आगे
एक दिन शाम के वक्त घर के सामने टॅक्सी रुकी। चार-पाच लोग जयंत को उठा के घर ले आए। उसका चेहरा सफेद, तेज विहीन दिख रहा था किसी ने बताया वह चक्कर खाके गिर गया था।
फिर हॉस्पिटल… यूरिन, ब्लड, स्टूलटेस्ट, सलाइन, एक्सरे, कार्डियोग्राम सिलसिला शुरू हो गया।
बेड रेस्ट लेने की डॉक्टर की सलाह के बावजूद उसको घर से निकलने से नहीं रोकना यह मेरा डॉक्टर के हिसाब से अपराध था। डॉक्टर ने सारा गुस्सा मुझ पर उतारा। जयंत डॉक्टर से बहसबाजी करता रहा। उसका आत्मविश्वास, जीने की इच्छा बहुत अपार थी। पर उसकी हेल्थ कंडीशन बद से बदतर होती जा रही थी। उसके हित चिंतक, मिलने आते थे। स्नेही-साथी रात दिन उसकी सेवा कर रहे थे। सांसद, विधायककों के संदेश आते थे। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? उसे हेपेटायटिस बी ने पकड़ लिया था, यह रिपोर्ट बता रहे थे। स्पेशलिस्ट का कहना यही था कि पहले बीमारी में उसको खून चढ़ाया गया था तब कुछ ॳॅफेक्टेड खून उसके शरीर में चला गया था। वह दिन प्रतिदिन ज्यादा ज्यादा कमजोर होने लगा। ज्यादा बोलने से भी वह थक जाता था। आखिर आखिर में वह मेरी तरफ सिर्फ देखता रहता था। हाथ हाथ में लेकर कहता, ” मैंने तुम पर बहुत अन्याय किया है। .. मेरे जाने के बाद तुम फिर शादी कर लेना। मैं कहती, “ऐसी बातें मन में भी मत लाना, मैं तुमको दोष नहीं दे रही हूॅं। मेरा उसको प्यार से समझाना कि तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगे… यह तसल्ली झूठी है, यह बात मैं भी जानती थी.. और वह भी ! बीमारी बढ़ गई और मेरा अभागन का साथ छोड़कर वह भगवान को प्यारा हो गया। आखिर सब खत्म हो गया उसका और मेरा रिश्ता, ऋणानुबंध …सब कुछ !
अब इसका भवितव्य क्या? मेरे मायके वाले… ससुराल वाले …स्नेही संबंधी… सबके मन में एक ही सवाल था। जयंत के दफ्तर में ही मुझे नौकरी मिल गई। एक महत्वपूर्ण समस्या का अस्थाई रूप से हल निकला। जाने वाला तो चला गया, पीछे रह गये लोगों की जिंदगी थोड़े ही रुक जाती है। काल प्रवाह के साथ उनको आगे बढ़ना ही होता है, ….जैसा भी बन पड़ेगा…। मम्मी दुखी थी, परेशान थी। एक बात उसके दिमाग से उतर ही नहीं रही थी। कहती थी, “उसने हमें धोखा दिया, जरूर उसको कोई बड़ी बीमारी थी। तभी तो दहेज भी नहीं लिया उसने!….वही पुरानी टेप !लेकिन मुझे तभी भी वैसा नहीं लगा था और अभी भी नहीं लगता है। वह सीधे सरल मन का था। कोई दांवपेच, छक्के-
पंजे, छल कपट उसके पास थे ही नहीं। …..यह तो मेरी ही बदकिस्मती और क्या? इतना सुंदर, आकर्षक पति मिला, और पूरी पहचान होने से पहले ही वह दूर चला गया। फिर कभी वापस न लौटने के लिए। सह- जीवन के कितने सुंदर सपने मैंने देखे थे। जीवन भर के लिए नहीं कम से कम थोड़े पल के लिए ही सही… पर उतना भी उसका साथ नहीं मिला।
फिर तीन साल बाद मेरी प्रभाकर जी से शादी हुई। प्रभाकर बहुत नामांकित रिसर्च सेंटर में रिसर्च ऑफिसर थे। जयंत से भी सुंदर, अच्छी खासी तनख्वाह पाने वाले, खुद की बड़ी कोठी…. आगे पीछे बाग बगीचा ! मेरे भाई के दोस्त उनको जानते थे। उन्होंने ही पहल करके शादी की बात छेडी और मेरी शादी हो गई। मेरी यह दूसरी शादी, लेकिन उनकी पहली ही थी। आजकल के हिसाब से मेरेसे उनकी उम्र थोड़ी ज्यादा थी। उनके रुप में मुझे एक दोस्त नहीं एक धीर गंभीर प्रवृत्ति का पति मिला। शादी न करने का उनका इरादा था। लेकिन ऊपर वाले ने स्वर्ग में ही हमारा जोड़ा बनाया था ना तो वैसे ही हुआ। मेरे पहले ससुराल वालों ने भी समझदारी दिखाई, ” इसमें कुछ भी गलत नहीं है। बेचारी अकेली कब तक रहेगी? वैसे भी जयंत की आखिरी इच्छा यही थी। उसकी आत्मा को शांति मिलेगी!” उन्होंने कहा। आत्मा का शरीर में अस्तित्व होना… उसका शरीर से निकल जाना…. यह बातें सच्ची होती है क्या? अगर होती है, तो मुझे यकीन है कि मेरी आज की हालत देख कर उसकीआत्मा जरूर दुखी हुई होगी।
मेरी शादी के साथ ही मेरे ससुराल वाले, पीहर वाले, सब ने राहत महसूस की। मेरे मम्मी पापा, भाई-बहन सारे तो मेरे अपने, अंतरंग के लोग, लेकिन जिंदगी भर का साथ कौन किसको देता है? ससुराल में जेठ, जेठानी ननद इनसे मेरा ज्यादा परिचय भी नहीं हुआ था। बाकी बचे रिश्तेदारों ने शायद मेरे भाग्य पर अचरज किया होगा। किसी -किसी को जलन भी हुई होगी। ” देखो पहले से भी अच्छा घर बार, ज्यादा सुंदर दुल्हा, कहीं पर भी समझौता नहीं करना पड़ा। लोगों की नजर में तो सब कुछ बहुत ही सुंदर, मनलुभावन था।
प्रभाकर नाक की सीध में चलने वाले आदमी। आराम से जो मिल रहा है वह लेने वाले या कभी-कभी ना लेने वाले! मितभाषी, घून्ने, खुद में ही मस्त, थोड़े से रिजर्व नेचर के। बेशक ये सब मुझे शादी के बाद धीरे-धीरे ज्ञात हुआ। शुरू शुरू में यह सब अच्छा भी लगा।
मानो हम दोनों सागर में पास पास रहने वाले दो अलग-अलग द्वीपखंड है। एक द्विप के आसमान में पूरा वनस्पति शास्त्र भरा पड़ा हैं। दूसरे द्विप के आसमान में बस, जयंत की यादें ही यादें हैं। कभी कभार दो द्वीप- खंड अनजाने में ही, पानी के बहुत तेज प्रवाह से पास आते हैं। एक दूसरे को टकराते हैं। ओवरलैप भी करते हैं, फिर पानी का प्रवाह के संथ होते ही अपनी जगह पर स्थिर हो जाते हैं।
शुरू में सब बहुत ही अजीब लगा। …बाद में ठीक लगने लगा। क्योंकि जयंत की यादों में बने रहने की आजादी मुझे मिल रही थी। लगता था प्रभाकर के इस घर में भी जयंत ही मुझे साथ दे रहा है। कभी-कभी नहीं, बहुत बार मन दुखी भी हो जाता हैं। लगता हैं यह प्रभाकर को धोखा देने वाली बात है। शादी तो उनसे की, पर पूरे मन से मैं पत्नी धर्म का पालन नहीं कर रही हूॅं। यह बहुत बड़ी प्रतारणा है। पाप है। लेकिन मैं बेबस हूॅं। प्रभाकर अच्छे वैज्ञानिक, अच्छे संशोधक जरूर है, पर अच्छे पति, अच्छे जीवन साथी बिल्कुल नहीं बन पाए।
फिर दो साल बाद गौरी का जन्म हुआ। यह भी लगता है शायद सागर में दो द्वीप आपस में टकराने से यह दुर्घटना घटी होगी। लेकिन बेटी को पाके इधर-उधर भटकने वाले मेरे मन को बहुत शांति मिली। मानो गौरी हमारे दोनों द्वीप को जोड़ने वाला पुल थी। गौरी की देखभाल, परवरिश करते हुए मैं उसमें इस कदर व्यस्त हो गई कि धीरे-धीरे मन में बसी जयंत की छवि भी धुंधली हो गयी।
तभी अचानक भैया जी और भाभी वापस आ गए। हमारे शादी के वक्त वे लोग कनाडा में अपने बेटे के पास गए थे। फिर लंदन वाली बेटी के घर। इधर-उधर करते करते अब तीन साल बाद फिर भारत वापस आए थे। मुझे मिलने के लिए वे मेरे दफ्तर आ पहुॅंचे। वैसे भैया जी के बेटे का एड्रेस मेरे पास था, लेकिन भैया जी को शादी की खबर देनी चाहिए यह बात मुझे उस वक्त सुझी ही नहीं… पता नहीं क्यों?
…जब भैया जी, भाभी जी हमारे घर पर आए, मन ही मन मैं बहुत सकुचाई थी। लेकिन दोनों ने बताया, पहले से हम तुम्हें बहू मानते आए हैं, और अब भी तुम हमारी बहू ही हो, और प्रभाकर हमारा बेटा है। हम लोगों का एक दूसरे के घर आना जाना पहले जैसा ही रहना चाहिए। “ऑफ कोर्स आप लोगों की इच्छा नहीं हो तो फिर”….भैया जी बहुत भावुक हो गए थे। उनकी ममता उनके स्वर में छलक रही थी।
वे दोनों, …कभी-कभी अकेले भैया जी…आते जाते रहे। बीच-बीच में कभी-कभार हम भी उनके घर जाते। भैया जी के लिए प्रभाकर सर, प्रभाकर जी, सिर्फ प्रभाकर कब बने पता ही नहीं चला। हमेशा से मितभाषी, आत्ममग्न रहने वाला यह इंसान उनके साथ खुलकर बातें कैसे करता है? …यह अद्भुत पहेली मेरे समझ से परे है। अब सब कुछ अच्छा ही चल रहा है। घर का बदला हुआ माहौल भी प्यारा है। फिर भी मैं बेचैन हो जाती हूॅं। भैया जी के आते ही जयंत बहुत याद आता है। मन के किसी सिकूडे कोने में दुबक कर यादों में पड़ा जयंत दुबारा से स्पष्ट हो जाता है। नायक की भूमिका में मेरे सामने खड़ा हो जाता है। धीरे-धीरे मेरे मन पर छा जाता है। मेरा मन अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। उसका घना साया मन को बेचैन करता रहता है। ….और यह बेचैनी मैं किसी के सामने व्यक्त भी नहीं कर सकती।
– समाप्त –
मूल मराठी कथा (त्याची गडद सावली) –लेखिका: सौ. उज्ज्वला केळकर
हिन्दी भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे
माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घड़ियाल/मगरमच्छ”।)
अभी अभी # 108 ⇒ घड़ियाल/मगरमच्छ… श्री प्रदीप शर्मा
घड़ियाल और मगरमच्छ का मामला कौआ कोयल जैसा नहीं है। दोनों ही जलचर हैं, हिंसक जीव हैं, दोनों की ही मोटी चमड़ी है, और कथित रूप से दोनों ही आंसू बहाते हैं। इनके आंसुओं पर ना तो कोई शोध हुआ है और ना ही इनकी आंसू बहाता हुई कोई तस्वीर, हमारे नेताओं की तरह, कभी वायरल हुई है।
नर और वानर की तरह इनकी भी शारीरिक रचना में थोड़ा अंतर होने के कारण अगर कोई घड़ियाल है तो कोई मगरमच्छ। हम तो जब रोजाना मंदिर जाते हैं तो भव्य आरती के वक्त घंटा और घड़ियाल में भी भेद नहीं कर पाते। कोरोना काल में तो जिसके जो हाथ में आया, उसने उसे ही ईमानदारी से, कोरोना वॉरियर्स के सम्मान में बजाया। दूध सांची का हो या अमूल का, टूथपेस्ट पतंजलि का हो अथवा कोलगेट का, दोनों में ज्यादा अंतर नहीं। ।
एक कथा के अनुसार जब एक हाथी जल पीने तालाब किनारे गया, तो किसी मगरमच्छ ने उसका पांव पकड़ लिया और उसे अपना ग्रास बनाने चला। हाथी ने बहते हुए एक कमल के फूल को अपनी सूंड में उठाया और अपनी प्राण रक्षा के लिए हरि हरि पुकारा। विष्णु भगवान ने तत्काल प्रकट होकर उस हाथी के प्राण बचाए। इस कथा में भी अगर किसी के आंसू बहे होंगे तो हाथी के ही बहे होंगे, मगरमच्छ के नहीं। मुफ्त में ही किसी को बदनाम करने का हमारे यहां चलन बहुत पुराना है।
आंसू बहाना औरतों का काम है। भक्त के आंसू तो बारहमासी सावन भादो के आंसू होते हैं। भक्ति भाव में अश्रुओं की धारा सतत बहती रहती है। जंगली जानवरों को तो सुख दुख से परे ही होना पड़ता है, वहां तो पल पल पर संघर्ष है और एक जीव का जन्म ही इसलिए हुआ है कि वह किसी अन्य जीव का भोजन बने। ईश्वर दयालु है, जो उन्हें इन संघर्ष के क्षणों में मनुष्य के समान मानसिक आघातों से बचाकर रखता है। ।
लेकिन फिर भी जब सृजन का प्रश्न आता है, तो प्रजनन के वक्त सृष्टि के हर प्राणी में संवेदना जाग उठती है। मादा कछुआ हो अथवा मगरमच्छ, समुद्र की रेत के किनारे जब अपने बच्चों को जन्म देती है, तब वह साक्षात जननी बन जाती है। सभी हिंसक जीव इन सृजन के पलों में कहीं से मदरकेयर का पाठ पढ़कर आते हैं, हर मां अपने बच्चे को छाती से चिपकाए रखती है, जान पर खेलकर अपने बच्चों की रक्षा करती है।
ऐसे कई अवसरों पर हमें तो इन सभी हिंस पशु -पक्षी और जानवरों में मानवीय गुणों के दर्शन हो जाते हैं, लेकिन केवल इंसान ही ऐसा प्राणी है जो अपनी इंसानियत छोड़ हैवानियत पर उतर आता है। ।
झूठे मगरमच्छ अथवा घड़ियाली आंसुओं से हमें क्या लेना देना। उसके आंसुओं से आपका वास्ता तो तब पड़ेगा जब देवताओं को दुर्लभ इस मानवीय देह की जगह आपको भी इन जानवरों की देह में जन्म लेना पड़े।
चौरासी का चक्कर जो काट रहा है, और अपनी भोग योनि के वशीभूत असहाय है, अशक्त है, उसके प्रति हमारे मन में दया का भाव हो, हम संवेदनशील हों, हमारे छल कपट और बनावटी आंसुओं की तुलना कम से कम उनके साथ तो ना करें।
मनुष्य के अलावा कभी किसी अन्य प्राणी ने प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं किया और न ही कभी अपनी सीमा लांघी। केवल मनुष्य ही अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता है, अपनी मानवीय कमजोरियों और दोषों पर उनका कॉपीराइट घोषित करता है। आदमी का जहर और एक कपटी नेता के बनावटी आंसुओं की तुलना किसी घड़ियाल अथवा मगरमच्छ से नहीं की जा सकती। अब इन झूठे और बनावटी आंसुओं पर इन पाखंडियों का ही कॉपीराइट है किसी मूक और असहाय प्राणी का नहीं।।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# तुम सावन बन आ जाते हो… #”)
ई-अभिव्यक्तीच्यालेखिका व कवयत्री सौ. जयश्री अनिल पाटील यांच्या शब्दवेल व बालजगत काव्यसंग्रहाचे प्रकाशन रविवार दि. 23 जुलै रोजी, मा. श्री दिनकर पाटील व मा. श्री अरविंद पाटील दोघांच्या हस्ते झालं. त्यांचे अभिनंदन व पुढील वाटचालीसाठी शुभेच्छा! 💐
आजच्या अंकात वाचा त्यांची कविता, ‘गाथा तुकोबांची’.
संपादक मंडळ
ई-अभिव्यक्ती मराठी.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈