हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 61 ⇒ क्रोध और अपमान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “क्रोध और अपमान।)  

? अभी अभी # 61 ⇒ क्रोध और अपमान? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्रोध और अपमान एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी ने आपका सम्मान किया हो, और आपको क्रोध आया हो। क्रोध को पीकर किसी का सम्मान भी नहीं किया जा सकता। इंसान और पशु पक्षियों की तरह, शब्द भी अपनी जोड़ी बना लेते हैं। खुदा जब हुस्न देता है, तो नज़ाकत आ ही जाती है। बांसुरी कृष्ण के मुंह लग जाती है और गांडीव अर्जुन के कंधे पर ही शोभायमान होता है। हुस्नलाल के साथ भगतराम ही क्यों ! शंकर प्यारेलाल की जोड़ी नहीं बनी, लक्ष्मीकांत जयकिशन के लिए नहीं बने। जहां कल्याणजी हैं, वहां आनंदजी ही होंगे, नंदाजी अथवा भेरा जी नहीं। धर्मेंद्र हेमा की जोड़ी भी रब ने क्या बनाई है। शब्दों की ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे।

करेला और नीम चढ़ा ! भाई तुम आम के पेड़ पर भी चढ़ सकते थे। अगर आपका सार्वजनिक सम्मान हो रहा हो तो आपके मन में लड्डू ही फूटेंगे, आप अपमान के घूंट थोड़े ही पिएंगे। हंसी के साथ खुशी है, वार के साथ त्योहार, आदर के साथ अगर सत्कार है तो नौकरी के साथ धंधा। आसमान में अगर खुदा है तो ज़मीन पर बंदा है। धंदा जो कभी तेज रहा करता था, आजकल मंदा है। सूरज है तो किरन है, चंदा है तो चांदनी है।।

शब्दों में आपस में दोस्ती भी है और दुश्मनी भी। जब दुश्मनी की बात आएगी तो सांप – नेवले, भारत – पाकिस्तान और भारत – चीन का जिक्र होगा। कांग्रेस मोदीजी को फूटी आंखों नहीं सुहाएगी और कंगना कभी शिव सेना को माफ नहीं कर पाएगी। देव – असुर कभी एक थाली में बैठकर खाना नहीं खाएंगे, मोदीजी अब कभी चाय पीने लाहौर नहीं जाएंगे। न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।

जिस तरह बर्फ कभी जमती और कभी पिघलती है, शब्द भी कभी कभी जमते और पिघलते रहते है। ये ही शब्द कभी शोले बन जाते हैं तो कभी शब्दों को सांप सूंघ जाता है। शब्दों की मार से ही कभी किसी को सदमा होता है तो किसी को दमा। शब्द कानों में शहद भी घोल सकते हैं और ज़हर भी। कभी शब्द आंसू बनकर बह निकलते हैं तो कभी आग उगलने लगते हैं।।

शब्द ही भ्रम भी है और ब्रह्म भी। शब्दों का भ्रम जाल ही माया जाल है। शब्द ही जीव है, शब्द ही ब्रह्म। कभी नाम है तो कभी बदनाम। सस्ता शब्द अगर मूंगफली है तो महंगा शब्द बादाम। राम तेरे कितने नाम।

क्या कोई ऐसी रामबाण दवा है इस संसार में कि दुर्वासा को कभी क्रोध न आवे, चित्त की ऐसी स्थिति बन जावे कि मान अपमान दोनों उसमें जगह न पावे। शब्द मार करने के पहले ही पिघल जावे, तो शायद हमें क्रोध ही न आवे। शकर आसानी से पानी में घुल जाती है, सभी रंग मिलकर एक हो जाते। हमारा चित्त बड़ा विचित्र। यहां शब्द ही नहीं पिघल पाते। काश क्रोध और अपमान भी आसानी से द्रवित हो जावे। कितना अच्छा हो यह चित्त, बाल मन हो जावे, सब कुछ अच्छा बुरा, बहुत जल्द भूल जावे। लाख डांटे – डपटे, मारे मां, बच्चा मां से ही बार बार जाकर लिपट जावे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “विश्व पर्यावरण दिन-५ जून २०२३…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

☆ ♻️ “विश्व पर्यावरण दिन-५ जून २०२३…” 🌻 ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

नमस्कार पाठकों,

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के नेतृत्व में १९७३ से हर साल ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। विश्व पर्यावरण दिवस २०२३ की थीम है ‘Beat Plastic Pollution’ अर्थात, ‘प्लास्टिक पॉल्यूशन पर काबू पाओ’, क्योंकि बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण पर्यावरण प्रदूषण का एक प्रमुख कारण पाया गया है। हर साल ४०० मिलियन टन से अधिक प्लास्टिक का उत्पादन होता है, जिसमें से आधे को केवल एक बार उपयोग करने के लिए डिजाइन किया गया है (एकल उपयोग प्लास्टिक अर्थात सिंगल यूज प्लास्टिक)| आज की तारीख में अत्यावश्यक होने के कारण २०२३ की थीम के अंतर्गत प्लास्टिक प्रदूषण पर काबू पाने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के साथ-साथ नागरिकों की भागीदारी के साथ वैश्विक पहल लागू की जाएगी।

प्लास्टिक प्रदूषण के कारण

प्लास्टिक का उत्पादन जीवाश्म ईंधन का उपयोग करता है, जो ग्रीनहाउस गैस (कार्बन डाइऑक्साइड) को बाहर फेंकता है और वैश्विक तापमान में वृद्धि करता है। एकल उपयोग प्लास्टिक, मुख्य रूप से प्लास्टिक बैग, स्ट्रॉ और पानी की बोतलों का अत्यधिक उपयोग, बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। प्लास्टिक का गलत प्रबंधन (मुख्य रूप से कचरे का गैर-पृथक्करण) और प्लास्टिक कचरा कूड़ेदान या अन्य जगहों पर फेंकने से जलमार्गों और महासागरों में प्रवेश करते हुए समुद्री जीवन और पर्यावरण को नुकसान पहुँचा सकता है। इस प्लास्टिक के विघटित होने में १००० वर्ष से अधिक समय लगता है और ये विघटित प्लास्टिक जहरीले रसायनों के रूप में पर्यावरण को प्रदूषित करते रहते हैं। प्लास्टिक प्रदूषण से समुद्री जीवन प्रभावित होता है। महासागरों में कछुओं, मछलियों और अन्य जलीय जीवों की मृत्यु होती है। जलमार्ग भी प्रभावित होते हैं। नदियाँ और नाले प्लास्टिक कचरे से भर सकते हैं, जिससे बाढ़ और प्रदूषण हो सकता है। यह हमारे पीने के पानी को भी प्रदूषित करता है। इसके कारण जैव विविधता (biodiversity) कम हो रही है। प्लास्टिक में मौजूद जहरीले रसायन मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं।

प्लास्टिक प्रदूषण को मात देने के तरीके

प्लास्टिक प्रदूषण पर काबू पाने के लिए रिड्यूस, रीयूज और रीसायकल ये तीन आवश्यक R अर्थात उपाय हैं। एकल उपयोग प्लास्टिक का उपयोग कम करें और टिकाऊ विकल्प यानि, प्राकृतिक सामग्री का उपयोग करें। इस लड़ाई में जन जागरूकता जरूरी है। सामाजिक जागरूकता अभियान के साथ-साथ समाज प्रबोधन के लिए सोशल मीडिया बहुत प्रभावी है। एकल उपयोग प्लास्टिक के उत्पादन और उपयोग को सीमित करने वाली सरकारी नीतियों और नियमों का सख्त पालन आवश्यक है। हम प्लास्टिक प्रदूषण को दूर करने के लिए समुद्र तटों, बगीचों, अन्य सार्वजनिक स्थानों और परिसरों में स्वच्छता अभियान चलाकर प्लास्टिक कचरे का नियोजन कर सकते हैं।

‘स्वच्छ रुणवाल’ अभियान

हम न केवल प्लास्टिक का उपयोग करते हैं, बल्कि उसे अपने घरों के बाहर, परिसर में, सड़कों पर और यहां तक कि कूड़ेदान होते हुए भी उसके बाहर फेंकते हैं। यह कचरे का योग्य नियोजित नहीं है। इस संबंध में, रुणवाल गार्डन सिटी, ठाणे पश्चिम के हमारे परिसर में जनवरी २०१७ से ‘स्वच्छ रुणवाल’ नामक उपक्रम चल रहा है। स्वच्छ रुणवाल परियोजना बिसलेरी-बॉटल फॉर चेंज, एंटी प्लास्टिक ब्रिगेड चैरिटेबल ट्रस्ट, परिसर भगिनी विकास संघ, ऊर्जा फाउंडेशन और ठाणे महानगर निगम के सहयोग से कार्यान्वित की जा रही है। आज तक हम २७००० किलो से अधिक प्लास्टिक को पुनर्चक्रण के लिए दान कर चुके हैं, इसपर अभियान में शामिल निवासी और स्वयंसेवक (मैं भी एक स्वयंसेवक हूं) बहुत गर्व महसूस कर रहे हैं। इसी उपक्रम द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे और थर्मोकोल को भी रिसाइकिल करते हैं। वृक्षारोपण अभियान के माध्यम से हरियाली और स्वच्छता को बढ़ावा दिया जाता है। हमारे कुछ स्वयंसेवकों ने ठाणे के पास समुद्र तट सफाई के सरकारी अभियान में योगदान दिया है।

हमने जनवरी २०१७ में प्लास्टिक संग्रह शुरू किया। एकत्रित प्लास्टिक कचरे को स्वयंसेवक अपने वाहनों में पुनर्चक्रण के लिए ऊर्जा फाउंडेशन केंद्रों तक पहुँचाते थे| कॉम्प्लेक्स का योगदान बढते गया, इसलिए हमने ‘बॉटल फॉर चेंज’ और ‘एंटी प्लास्टिक ब्रिगेड चैरिटेबल ट्रस्ट’ के साथ करार किया। अगस्त २०१९ से इसमें तेजी आई है। अब रुनवाल गार्डन सिटी के निवासी हर हफ्ते के आड़े शनिवार को इमारतों के कुछ स्थानों पर प्लास्टिक कचरे को जमा करके प्लास्टिक रीसाइक्लिंग अभियान जारी रखते हैं।हमारा परिसर ‘बॉटल्स फॉर चेंज’ परियोजना के तहत पंजीकृत है। यह संस्था आपकी सोसायटी से प्लास्टिक कलेक्ट करने के लिए आपके घर तक अपनी गाड़ी भेजती है और उनके एप के जरिए ऐसा करना बेहद आसान है| यह एप हमारे परिसर द्वारा एकत्र किए गए प्लास्टिक कचरे का सही वजन बताता है।

प्लॉगिंग

प्रिय पाठकों, हमारे परिसर में ‘प्लॉगिंग’ (यानि जॉगिंग या अन्य व्यायाम करते करते प्लास्टिक का कचरा इकठ्ठा करना तथा उसका योग्य नियोजन करना) भी किया जाता है| हर रविवार को हमारे इस अभियान के सदस्य तथा बच्चे इस बिखरे प्लास्टिक को चुनकर, तो कभी खोद निकालकर सफाई कर्मचारियों के भांति वह जमा करते रहते हैं| इसके अलावा कुछ खास दिनों में (उदा. होली के रंगोत्सव का दूसरा दिन-८ मार्च २०२३ और विश्व वसुंधरा दिवस-२२ अप्रैल २०२३) इनका काम जोर शोर से किया जाता है|

जनजागरण

ये स्वयंसेवक जन जागरूकता पैदा करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं। इस परिसर के हर सार्वजनिक कार्यक्रम में इनकी अपील होती है! कभी सोशल मीडिया संदेश, वीडियो (मुख्यतः व्हाट्सएप और फेसबुक), कभी भाषण, कभी सुंदर नुक्कड़ नाटक, कभी पोस्टर, पेंटिंग प्रतियोगिताएं! इन सबके बीच यह काम निरन्तर जारी है। सबसे आशाजनक और आनन्ददायक बात यह है, कि इस गतिविधि में छोटे और बड़े बच्चे बहुत उत्साह और चाव के साथ सहभागी होते हैं।

पुरस्कार

इस अभियान को कई पुरस्कार और प्रमाण पत्र प्राप्त हुए हैं। वर्ष २०२३ के बारे में कहूं तो ८ मार्च को आयोजित ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के अवसर पर संजय भोईर फाउंडेशन द्वारा ‘उषा सखी सम्मान’ इस कार्यक्रम में माननीय श्री संजय भोईर एवं श्रीमती उषा भोईर द्वारा प्रमाण पत्र देकर रुणवाल के इस प्रोजेक्ट में कार्यरत महिलाओं को सम्मानित किया गया| ११ अप्रैल २०२३ को रुणवाल गार्डन सिटी, ठाणे को गोदरेज और बॉयस के सहयोग से ‘द बेटर इंडिया’ द्वारा प्रस्तुत ‘बेस्ट हाउसिंग इंस्टीट्यूशन अवार्ड’ (स्वच्छ पहल श्रेणी में विजेता) प्राप्त हुआ। यह शहरों को रहने योग्य बेहतर स्थान बनाने और समाज के सभी वर्गों के बीच इसके कार्यान्वित करने और जागरूकता निर्माण में एकत्रित कार्य करने के लिए प्राप्त किया हुआ राष्ट्रीय पुरस्कार है।

मित्रों, कोई भी सामाजिक उद्यम, चाहे सरकारी हो या निजी, नागरिकों की भागीदारी के बिना सफल नहीं हो सकता। कोई भी गतिविधि स्वयं से ही शुरू होती है। हम सब को एकल उपयोग प्लास्टिक बैग, पानी की बोतल, प्लेटें, डिब्बे, बर्तन, चम्मच, स्ट्रॉ, कप आदि का उपयोग बंद करना चाहिए। वैकल्पिक सामग्री (जैसे कि, कपडे के थैले, स्टील की पानी की बोतलें, केले के छिलके से बनी प्लेटें, कटोरे आदि) से बनी चीजों का उपयोग करके कई टन प्लास्टिक के उपयोग को रोका जा सकता है। शासन स्तर पर हर परिसर में कूड़ा निस्तारण व अलग से प्लास्टिक के संग्रह की योजना शुरू हो चुकी है, इसे सफल बनाना निवासियों का सामाजिक कर्तव्य है। मेरा मानना है कि, ‘मेरा प्लास्टिक कचरा, मेरी जिम्मेदारी’ इस मंत्र को ध्यान में रखते हुए हम जितना हो सके योगदान दें उतना अच्छा! मित्रों, याद रहे, आप जो भी प्लास्टिक रीसायकल करने के लिए देते हैं, वह हरीभरी वसुंधरा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है!

धन्यवाद! 🌹

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

फोन नंबर: ९९२०१६७२११

टिप्पणी –

ऊपर बताए उपक्रम से सम्बन्धित विडिओ की लिंक लेख के अन्त में दी है। इस लेख के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी का उपयोग किया है।

कृपया यह प्रतिक्रिया अग्रेषित करनी हो तो, साथ में मेरा नाम तथा फोन नंबर उसमें रहने दें!

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 191 ☆ “महान चित्रकार आशीष स्वामी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण – महान चित्रकार आशीष स्वामी…”)

☆ संस्मरण — “महान चित्रकार आशीष स्वामी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उमरिया जैसी छोटी जगह से उठकर शान्ति निकेतन, जामिया मिलिया दिल्ली, फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में अपना डंका बजाने वाले ख्यातिलब्ध चित्रकार, चिंतक, आशीष स्वामी जी ये दुनिया छोड़कर चले गए।  कोरोना उन्हें लील गया। मैंने एसबीआई ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान उमरिया में तीन साल से अधिक डायरेक्टर के रूप में काम किया। मेरे कार्यकाल के दौरान उमरिया जिले के दूरदराज के जंगलों के बीच से आये गरीबी रेखा परिवार के करीब तीन हजार युवक/युवतियों का साफ्ट स्किल डेवलपमेंट और हार्ड स्किल डेवलपमेंट किया गया और उनकी पसंद के अनुसार रोजगार से लगाया गया। भारत सरकार ने उमरिया आरसेटी के डायरेक्टर को दिल्ली में बेस्ट डायरेक्टर के अवार्ड से सम्मानित भी किया था।  

आरसेटी में ट्रेनिंग लेने आये बच्चों में सकारात्मक सोच भरने और उनकी संस्कृति की अलख जगाने में श्री आशीष स्वामी बड़ी मेहनत करते थे। नये नये आइडिया देकर उन्हें कुछ नया काम करने की प्रेरणा देते थे। क्या भूलूं? क्या याद करूं?

हां एक खास इवेंट आप वीडियो में देखिए,जो हम लोगों ने जनगण तस्वीर खाना लोढ़ा में आयोजित किया था, यूट्यूब में दुनिया भर के लोगों ने जब इस वीडियो को देखा तो दंग रह गए। ऐसा दुनिया में पहली बार हुआ था लोढ़ा में।

जो एक प्रयोग के तौर पर किया गया था, दूर दराज के जंगलों के बीच से प्रशिक्षण के लिए आये गरीब आदिवासी बच्चों द्वारा।

यूं तोआरसेटी में लगातार अलग-अलग तरह के ट्रेड की ट्रेनिंग चलतीं रहतीं थीं, पर बीच-बीच में किसी त्यौहार या अन्य कारणों से एक दिन का जब अवकाश घोषित होता था, तो बच्चों में सकारात्मक सोच जगाने और उनके अंदर कला, संस्कृति की अलख जगाने जैसे इवेंट संस्थान में आयोजित किए जाते थे। उमरिया जिले के दूरदराज से आये 25 आदिवासी बच्चों के दिलों में हमने और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी जी ने झांक कर देखा, और उन्हें उस छुट्टी में कुछ नया करने उकसाया, उत्साहित किया। फिर उन बच्चों ने ऐसा कुछ कर दिखाया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ था। दुनिया भर के लोग यूट्यूब में वीडियो देखकर दंग रह गए। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा वाली कहावत के तहत एक पैसा खर्च नहीं हुआ और बड़ा काम हुआ। आप जानते हैं कि खेतों में पक्षी और जानवर खेती को बड़ा नुक़सान पहुंचाते हैं, देखभाल करने वाला कोई होता नहीं, किसान परेशान रहता है। इस समस्या से निजात पाने के लिए सब बच्चों ने तय किया कि आज छुट्टी के दिन किसानों के लिए अलग अलग तरह के मुफ्त के पहरेदार कागभगोड़ा बनाएंगे। उमरिया से थोड़ी दूर कटनी रोड पर चित्रकार आशीष स्वामी का जनगण तस्वीरखाना कला-संस्कृति आश्रम में तरह-तरह के बिझूका बनाने का वर्कशॉप लगाना तय हुआ,सब चल पड़े। आसपास के जंगल से घांस-फूस बटोरी गयी, बांस के टुकड़े बटोरे गये, रद्दी अखबार ढूंढे गये, फिर हर बच्चे को कागभगोड़ा बनाने के आइडिया दिए गए। जुनून जगा, सब काम में लग गए, अपने आप टीम बन गई और टीमवर्क चालू…। शाम तक ऐतिहासिक काम हो गया था, मीडिया वालों को खबर लगी तो दौड़े दौड़े आये, कवरेज किया, दूसरे दिन बच्चों के इस कार्य को अखबारों में खूब सराहना मिली। अब आप उपरोक्त वीडिओ देखकर बताईए, आपको कैसा लगा। और महान कलाकार आशीष स्वामी जी को दीजिए श्रद्धांजलि…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ख़ुशी ☆ सुश्री प्रिया कोल्हापुरे ☆

सुश्री प्रिया कोल्हापुरे

(सुप्रसिद्ध मराठी लेखिका सुश्री प्रिय कोल्हापुरे जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत।)

☆ कविता ☆ ? ख़ुशी ??☆ सुश्री प्रिया कोल्हापुरे ☆

सुलझे सुलझे सारे सिरे

फिर से उलझ जाते है

दो बूंद खुशी से तेरे

हम अक्सर खुश हो जाते हैं

 

खुशी तो मेहमानों सी

कभी कभी ही आती हैं

दुःख ने डेरा जमा लिया है

शायद रब की यही ख्वाहिश है

 

दर्द अब दर्द सा नही लगता

हमसफर अपना सा लगता हैं

गुस्ताखियो का ही शौक पालू

रेहमत पाने से तेरी अच्छा है

 

खुशी के लिए जिंदगी से झगड़ा

बेवजह सा अब लगता है

सुकून से जनाजे पर सोऊ

ये ख़्वाब सुहाना लगता हैं

 

©  सुश्री प्रिया कोल्हापुरे 

अकोला

मो 97621 54497

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 133 ☆ # नवतपा… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# नवतपा… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 133 ☆

☆ # नवतपा… # ☆ 

अंबर से आग के शोले

बरस रहे हैं

पशु, पक्षी, मानव

छांव को तरस रहे हैं

बहती गर्म हवाएं

शरीर को झुलसा रही है

कंचन, कोमल काया

ताप से कुम्हला रही है

धरती जलकर

गर्म हो गई है

प्रेम में व्याकुल

दुल्हन सी

अंदर से नर्म

हो गई है

उसकी प्यास बढ़ती ही

जा रही है

दूर दूर से

मेघों की बारात

मृगतृष्णा जगा रही है

कभी कभी

छोटी छोटी बूंदें

आसमान से

धरती पर उतर आती है

बादलों में गर्जन

बिजुरी की कड़क

आंधी और तूफान

बहुत है पर कहीं

गर्मी से राहत

नजर नहीं आती है

हर सुबह

हर दोपहर

हर शाम

वो बावरी बन

आकाश में

ताक रही है

हर पल

हर घड़ी

हर वक्त

अपने प्रियंकर

मेघों को

झांक रही है

क्या यह नवतपा

प्रचंड तपकर

घनघोर मानसून लायेगा

या

धरती से झूठे वादे कर

काली घटाओं में छाकर

धरती को व्याकुल छोड़कर

राजनीतिक मौसम की तरह

वो बेवफा हो जायेगा  /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रतीक्षा… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रतीक्षा… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

तू केव्हाही ये … 

मी वाट पहातच आहे …. .

 

फक्त एक लक्षात ठेव,

फार उशीर लावू नकोस … 

कारण….

 

पांगारा पुन्हा फुलू लागला आहे

वेलीवर कुंदाची फुलं डुलू लागली आहेत 

गुलमोहोर सर्वांगानी खुलू लागला आहे….

 

कसं फुलायचं असतं

कसं डुलायचं असतं

कसं खुलायचं असतं

हे सारं पहायचं असेल तर …. .

…. फार उशीर लावू नकोस…… 

© सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 134 ☆ अभंग – सूर्य ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 134 ? 

☆ अभंग – सूर्य ☆

मावळता सूर्य, घाईमध्ये होता

निघालाही होता, स्वस्थानाला. !!

 

त्याला मी बोललो, थांब ना रे थोडे

बोलणारे गडे, माझ्यासवे. !!

 

घाईत असता, बोलला तो सूर्य

अरे माझे कार्य, प्रकाशाचे. !!

 

जरी मी थांबलो, सर्व ही थांबेल

दोष ही लागेलं, माझ्या कार्या. !!

 

म्हणोनी न थांबणे, कार्य हे करणे

सदैव चालणे, नित्य-कार्या. !!

 

काल्पनिक भाव, माझा मी मांडला

त्यातून शोधला, गर्भ-अर्थ. !!

 

कवी राज म्हणे, शब्द अंतरीचे

आहे कल्पनेचे, साधे-शब्द. !!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोही मनाच्या… ☆ सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी ☆

सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ डोही मनाच्या… ☆ सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी ☆

स्वच्छ पाण्याचा तळ दिसला की

पाण्यात उतरण्याची भीती वाटत नाही

तसेच माणसांच्या मनाचा तळ समजला की

त्याच्या सहवासाची भीती वाटत नाही

खूप दिवसांनी मला निवांत वेळ मिळालेला.. म्हणजे मी तो काढलेला होता अगदी प्रयासाने. स्वतःसाठी वेळ असतोच कुठे आपल्याला या धावपळीच्या जगात ?. घर, नोकरी, मुलं बाळं, नातेवाईक, सण समारंभ यातच गुरफटुन गेलेलो असतो आपण.. स्वतःकडे बघायला वेळच नसतो. स्वतःसाठी वेळ काढावा असे मनात पण येत नाही. बरं ते असो…

खूप उबग आला होता सगळ्याचा. अगदी सगळ्याचा. खोटं खोटं हसण्याचा, खोटं आनंदी आहे सुखी आहे हे दाखवण्याचा. कंटाळला होता जीव. घुसमट असह्य होत होती. काही सेकंद माझी मलाच भीती वाटली. सगळे मुखवटे फाडून टाकून जावे. . कुठे तरी अशा शांत ठिकाणी जिथे मी आहे तशीच मला दिसेन. देखावे करावे लागणार नाहीत. आपण कसे आहोत हे आपले आपल्याला कळत असतेच ना. जगाला दाखवण्याचा अट्टाहास कशासाठी ? या विचाराने मन सुन्न झाले. नकळत पायात चप्पल चढवली आणि अशीच चालत निघाले न थांबता. कुठे जायचे असा विचारही मनात आलाच नाही. फक्त चालत राहिले… खिन्न मनाने एकटीच. . . बहुतेक निवांतपणा, एकटेपणा शोधत होते माझे मन. कोणत्याच भावना, कल्पना मनाला शिवतच नव्हत्या.

थोडा थंड वारा अंगाला स्पर्श करून गेला, पालापाचोळा वाऱ्याने सळसळला तेव्हा मी भानावर आले. संध्याकाळची वेळ होती. चंद्राचा मंद प्रकाश चोहोबाजूंनी पसरलेला होता. झाडांची सळसळ, पक्षांचा दुरुन येणारा आवाज आणि आल्हाददायक असे वातावरण एरवी मनाला मोहवून टाकणारेच होते. पण आता मनात अनेक प्रश्नांचे वादळ उठले होते त्यामुळे मनाला चैन नव्हती. मी तशीच जड पावलांनी चालत राहिले. थोड्या अंतरावर एक शांत डोह नजरेस पडला. बहुतेक मघाशी आलेली थंड वाऱ्याची झुळूक डोहाला भेटूनच आली असावी. ती झुळुक अंगावरून मोरपीस फिरवून गेल्याचा भास झाला.

पायात वाळलेली पाने घिरट्या घालत होती. एकदम हसू आले मला. . . घरी पायात सगळी सारखी (बंधने ) घुटमळत असतातच, इथे पण या पानांनी त्यांची जागा घेतली की काय असे वाटले. . . .

जरा निरखून पाहिले असता जाणवले की खट्याळ वारा त्या सुकलेल्या पानांशी छान खेळत होता. माझे तिथे असण्याने त्याच्या खेळात काहीच फरक पडत नव्हता. मी थोडी पुढे चालत आले. एक मोठे झाड दिसत होते. तिथे जरा जवळ गेल्यावर झाडाच्या जवळ थोडे हिरवेगार गवत दिसायला लागले. पायातली चप्पल नकळतच मी काढली आणि अनवाणीच झाडाच्या दिशेने चालू लागले. त्या झाडाखाली थोड़ी विसावले. पायातून हिरवाई डोळ्यात उतरावी तसे डोळे एकदम थंड झालेले. डोळे मिटून घ्यावे या विचारात असतानाच समोर निळाशार डोह एकदम शांत असल्याचे जाणवले, जसे की एखादा सन्यस्त. काहीही हालचाल नाही. कोणतीही वलय नाही. एकदम संथ आणि इतका स्वच्छ की तळ दिसावा. मी जरा पुढे येवून डोकावले तर खरंच तळ दिसत होता.

संध्याकाळची वेळ. चंद्राची एक छान लकेर सरळ पाण्याच्या आरपार अगदी तळाशी गेलेली मला दिसली. त्या किरणांच्या प्रकाशात काही दगड व वनस्पती एकदम चमकून गेले. थोडा मंद प्रकाश होता. त्यामुळे फारसे काही दिसले नाही, पण जे काही थोडेफार दिसले ते विलक्षण होते. खूप वेळ अशीच बघत राहीले त्या डोहाकडे आणि त्या तळातल्या अद्भुत वाटणाऱ्या निसर्गाच्या चमत्काराकडे. विलक्षण ओढ जाणवली मनाला. डोह आणि मन यांच्यांत काहीतरी साम्य असावे का हा विचार एक क्षणभरच मनात आला आणि गेला पण. मन आणि तेही डोहासारखे ? कसे शक्य आहे. इतके स्वच्छ नितळ मन असते का ?

तळ दिसावा एवढे. . . . .

आपल्या मनात किती चांगल्या वाईट घटना, गोष्टी, क्षण घर करून असतात. द्वेष, राग, मत्सर, घृणा, दुःख, वेदना या सगळ्यांनी मनाचा डोह ढवळून निघालेला असतो. मन अगदी गढूळ झालेले असते. त्यात आपल्याला तरी आपल्या मनाचा तळ दिसेल का ? तळ दिसला तरी तो असेल का या डोहासारखा नितळ. मनाच्या तळाशी धगधगत असतात काही सल, काही आठवणी, अपमान. आणि आपण त्यांनाच जोपासत बसतो. चंद्राची एक लकेरसुद्धा आपण त्यावर पडू देत नाही. त्या शांत स्वच्छ डोहाची तुलना मनाशी केली खरी पण ते बुद्धीला रुचेना.

माझ्या मनात असंख्य वादळे घेऊनच तर मी इथे पोहोचले होते. त्यातील साठलेला गाळ असह्य होत होता. पण याचा निचरा करण्याचा प्रयत्न आपल्यलाच करायला हवा …. चला आपल्याच मनात डोकावून बघूया. दिसतो का मनाचा तळ ते तरी बघूया. दिसत नाही ? हरकत नाही आपणच आपल्या मनातील साठलेला गाळ काढायला हवा. द्वेष, राग, मत्सर, घृणा, दुःख, वेदना या गाळरूपी भावनांना बांध घालू या. श्रध्दा, भक्ती, विश्वास, प्रेम या आनंदरूपी तुरटीने मनाचा डोह स्वच्छ नितळ करण्यास सुरुवात करू. सोपे नाही आणि इतके सोपे नसतेच काही…. पण अशक्यही नाही.

पक्षी हळूहळू घरट्यात परतू लागलेले. त्यांच्या दमलेल्या पण सार्थ चिवचिवाटाने मी भानावर आले. माझे मन एकदम शांत निर्मळ भासू लागले. . अगदी त्या डोहासारखे.

मी डोहाकडे पाहिले. तो माझ्याकडेच पहात होता. त्याने एक आश्वासक स्मितहास्य केले. माझ्या चेहर्‍यावर पण खूप दिवसांनी समाधानाचे हास्य उमटले. ते पण मी त्या डोहाच्या पाण्यातच पहात होते. त्याचे आणि माझे मन एकमेकांचे झालेले अगदी एकरूप …

आता खूप समाधानाने मी माझ्या घरच्या दिशेने भरभर पाऊले टाकत चालू लागले. घरच्या मुलाबाळांच्या ओढीने. पण ही ओढ आता खूप सुखावणारी होती. मी माझे मन जणू डोहाजवळ मोकळे करून निघालेले. दूर जातानाही तो डोह माझ्या मनात स्मरणात तसाच राहिला. अगदी सखा व्हावा असा ….

© सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पीळ… – भाग -2 ☆ श्री दीपक तांबोळी ☆

श्री दीपक तांबोळी

? जीवनरंग ?

☆ पीळ… – भाग -2 ☆ श्री दीपक तांबोळी

 (मागील भागात आपण पाहिले – सात आठ वर्षांपूर्वी ते श्यामलाबाईंचं हक्क सोड प्रकरण झालं आणि जयंतरावांनी दोघा मायलेकांना संजू मामाकडे जायला मनाई केली. तेव्हापासून संजू मामाशी त्यांचे संबंध तुटले होते. आता इथून पुढे )

 जयंतराव संजूचा रागराग करण्याचं अजून एक कारण होतं. जयंतरावांच्या लग्नाच्या वेळी आणि पुढची दहाबारा वर्षं संजूची परिस्थिती जवळजवळ गरीबीचीच होती. पण पुढे संजूने बांधकाम क्षेत्रात पाऊल टाकलं आणि त्याचं नशीब फळफळलं. गरीब संजू म्हणता म्हणता धनाढ्य शेठ होऊन गेला. सात आठ वर्षांपूर्वी त्याने मोठा बंगला बांधला. घरी दोन दोन चारचाकी आल्या. . गावांतल्या मोठमोठ्या लोकांशी, राजकीय पुढाऱ्यांशी त्याची चांगली घसट वाढली. . जयंतरावांचा एक नातेवाईक संजूच्या घराजवळच रहात होता. त्याच्याकडून त्यांना संजूच्या प्रगतीबद्दल कळायचं आणि मग त्यांचा जास्तच जळफळाट व्हायचा.

तिसऱ्या दिवशी संजू आणि विद्या परत आले. निमंत्रण नसतांना ते आल्याचं पाहून जयंतराव खवळले. वैभवला त्यांनी त्यांच्या खोलीत बोलावून घेतलं.

” वैभव तुझ्या मामा, मावशीला कोणी बोलावलं होतं?”त्यांनी रागाने विचारलं,

“मी बोलावलं होतं. का?”वैभव त्यांच्या नजरेला नजर भिडवत धिटाईने बोलला. जयंतराव क्षणभर चुप झाले. मग उसळून म्हणाले,

“आता पुढच्या विधींसाठी तरी त्यांना बोलावू नकोस. त्यांची बहिण गेली संपले त्यांचे संबंध “

” विधी संपेपर्यंत तरी त्यांचे संबंध रहातील बाबा आणि तोपर्यंत तरी मी त्यांना बोलावणारच. मग पुढचं पुढे पाहू “वैभव जोरातच बोलला पण मग त्याचं त्यालाच आश्चर्य वाटलं. आजपर्यंत तो वडिलांशी अशा भाषेत बोलला नव्हता. का कुणास ठाऊक पण आता त्याला वडिलांची भिती वाटेनाशी झाली होती.

दशक्रिया विधी झाला पण पिंडाला कावळा शिवेना. कावळे घिरट्या घालत होते पण पिंडाला शिवत नव्हते. श्यामलाबाईंची शेवटची इच्छा काय होती हेच कुणाला कळत नव्हतं. सगळे उपाय थकले. वैभव रडू लागला. जयंतरावांचेही डोळे भरुन आले होते. अचानक संजूमामाला काय वाटलं कुणास ठाऊक. तो पुढे आला आणि वैभवला जवळ घेऊन म्हणाला,

” ताई काही काळजी करु नकोस. आम्ही मरेपर्यंत तुझ्या मुलाला अंतर देणार नाही. त्याचं लग्न, संसार सगळं व्यवस्थित करुन देऊ. “

तो तसं म्हणायचा अवकाश, कावळ्यांची फौज पिंडावर तुटून पडली. वैभव मामाला घट्ट मिठी मारुन रडू लागला. जयंतरावांना मात्र अपमान झाल्यासारखं वाटलं. याचा अर्थ स्पष्टच होता की मेल्यानंतरही बायकोचा त्यांच्यावर विश्वास नव्हता.

तेराव्याचा कार्यक्रम आटोपल्यावर मामा वैभवजवळ आला.

“वैभव आम्ही आता निघतो. आता यापुढे तुझ्या घरी आमचं येणं होईल की नाही ते सांगता येत नाही. पण तू आमच्याकडे नि:संकोच येत जा. काही मदत लागली तर आम्हांला सांगायला संकोचू नको. तुझ्या लग्नाचंही आम्ही बघायला तयार आहोत पण तुझ्या वडिलांना ते चालेल का? हे विचारुन घे. तुझ्या आईला तुझी काळजी घ्यायचं मी वचन दिलंय ते मी मरेपर्यंत विसरणार नाही. अडचणीच्या वेळी रात्रीबेरात्री केव्हाही काँल कर, मी मदतीला हजर असेन. बरं. ताईच्या आजारपणात तुझा खर्च खुप झाला असेल म्हणून मी तुझ्या खात्यात दोन लाख ट्रान्सफर केले आहेत. पाहून घे. आणि हो. परत करायचा वेडेपणा करु नकोस. माझ्या बहिणीच्या कार्यासाठी मी खर्च केलेत असं समज “

वैभवला भडभडून आलं. त्याने मामाला मिठी मारली. रडतारडता तो म्हणाला,

” मी खुप एकटा पडलोय रे मामा. हे बाबा असे तिरसट स्वभावाचे. कसं होईल माझं ?”

“काही काळजी करु नकोस. आता बायको गेल्यामुळे तरी त्यांच्या स्वभावात फरक पडेल असं वाटतंय. “

वैभव काही बोलला नाही पण मामाचं बोलणं कितपत खरं होईल याचीच त्याला शंका वाटत होती.

सगळे पाहुणे गेल्यावर दोनतीन दिवसांनी वैभव वडिलांना म्हणाला,

“तुम्ही त्या मामाचा नेहमी रागराग करता पण बघा, शेवटी तोच मदतीला धावून आला. आईच्या अंत्यविधीसाठी त्यानेच मदत केली. शेवटी जातांनाही मला दोन लाख रुपये देऊन गेला. तुमच्या एकातरी नातेवाईकाने एक रुपया तरी काढून दिला का?”

एक क्षण जयंतराव चुप बसले मग उसळून म्हणाले,

“काही उपकार नाही केले तुझ्या मामाने!वडिलोपार्जित वाडा ८० लाखाला विकला. तेव्हा तुझ्या आईच्या हिश्शाचे ८ लाख त्याने स्वतःच खाऊन टाकले. एक रुपया तरी दिला का त्याने?”” चुकीचं म्हणताय तुम्ही. आई आणि मावशीनेच विनामुल्य हक्क सोडपत्र करुन दिलं होतं. मामा तर त्यांचा हिस्सा द्यायला तयार होता असं आईनेच मला तसं सांगितलं होतं. “

” खोटं आहे ते!गोडगोड बोलून त्याने त्यांच्याकडून सह्या करुन घेतल्या आणि नंतर त्यांना रिकाम्या हाताने घरी पाठवलं. महाहलकट आहे तुझा मामा. “

आता मात्र वैभव खवळला.

“बस करा बाबा. आख्खं आयुष्य तुम्ही मामाला शिव्या देण्यात घालवलं. आता आई गेली. संपले तुमचे संबंध. आणि मला तर कधीच मामा वाईट दिसला नाही. तुम्ही किती त्याच्याशी वाईट वागता. त्याला हिडिसफिडीस करता. पण तो नेहमीच तुमच्याशी आदराने बोलतो. फक्त तुम्हांलाच तो वाईट दिसतो. विद्यामावशीच्या नवऱ्याचं तर त्याच्याशिवाय पान हलत नाही. त्याचा सल्ला घेतल्याशिवाय ते कुठलंही काम करत नाहीत. इतके त्या दोघांचे जिव्हाळ्याचे संबंध आहेत. “

” बस पुरे कर तुझं ते मामा पुराण “जयंतराव ओरडून म्हणाले “मला त्यात आता काडीचाही इंटरेस्ट उरला नाहिये. आणि आता यापुढे मामाचं नावंही या घरात काढायचं नाही. समजलं ” त्यांच्या या अवताराने वैभव वरमला. आपल्या बापाला कसं समजवावं हे त्याला कळेना.

वैभव दिवसभर ड्युटीनिमित्त बाहेर असल्यामुळे जयंतराव घरी एकटेच असायचे. हुकूम गाजवायला आता बायको उरली नसल्याने त्यांना आयुष्यभर कधीही न केलेली कामं करावी लागत होती. घरच्या कामांसाठी बाई होती तरीसुद्धा स्वतःचा चहा करुन घेणं, पाणी भरणं इत्यादी कामं त्यांना करावीच लागायची. त्यामुळे त्यांची खुप चिडचिड व्हायची. स्वयंपाकाला त्यांनी बाई लावून घेतली होती पण बायकोच्या हातच्या चटकदार जेवणाची सवय असणाऱ्या जयंतरावांना तिच्या हातचा स्वयंपाक आवडत नव्हता. तिच्या मानाने वैभव छान भाज्या बनवायचा. म्हणून संध्याकाळी तो घरी आला की ते त्याला भाजी करायला सांगायचे. थकूनभागून आलेला वैभव कधीकधी त्यांच्या आग्रहास्तव करायचा देखील. पण रोजरोज त्याला शक्य होत नव्हतं. त्याने नाही म्हंटलं की दोघांचेही खटके उडायचे.

एक दिवस वैभव संतापून त्यांना म्हणाला,

“एवढंच जर चटकदार जेवण तुम्हांला आवडतं तर आईकडून शिकून का नाही घेतलंत?”

” मला काय माहीत ती इतक्या लवकर जाईल म्हणून!”

“हो. पण कधी तरी आपण स्वयंपाक करुन बायकोला आराम द्यावा असं तुम्हांला वाटलं नाही का?आईच्या आजारपणातही तुम्ही तिला स्वयंपाक करायला लावायचात. तिचे हाल पहावत नव्हते म्हणून मीच स्वयंपाक शिकून घेतला पण तुम्हांला कधीही तिची किंव आली नाही ” ” मीच जर स्वयंपाक करायचा तर बायकोची गरजच काय?”

“याचा अर्थ तुम्ही आईला फक्त स्वयंपाक करणारी, घरकाम करणारी बाई असंच समजत होतात ना?माणूस म्हणून तुम्ही तिच्याकडे पाहिलंच नाही ना?”

“चुप बैस. मला शहाणपणा शिकवू नकोस. नसेल करायची तुला भाजी तर राहू दे. मी बाहेर जाऊन जेवून येतो “

“जरा अँडजस्ट करायला शिका बाबा. एवढंही काही वाईट बनवत नाहीत त्या स्वयंपाकवाल्या मावशी “

जयंतरावांनी त्याच्याकडे जळजळीत नजरेने पाहिलं मग ते कपडे घालून बाहेर निघून गेले. ते हाँटेलमध्ये जेवायला गेलेत हे उघड होतं.

वैभवला आता कंपनीतून घरी यायचीच इच्छा होत नव्हती. एकतर घरी आल्याआल्या हातात चहाचा कप हातात ठेवणारी, सोबत काहीतरी खायला देणारी आई नव्हती शिवाय घरी आल्याआल्या वडिलांचा चिडका चेहरा बघितला की त्याचा मुड खराब व्हायचा. त्यांच्या तापट स्वभावामुळे वडिलांबद्दल त्याला कधीही प्रेम वाटलं नव्हतं. जयंतरावांनी नोकरीत असतांना कधी घरात काम केलंच नव्हतं पण निव्रुत्तीनंतरही सटरफटर कामं सोडली तर दिवसभर टिव्ही पहाण्याव्यतिरिक्त ते कोणतंही काम करत नव्हते. बायको होती तोपर्यंत हे सगळं ठिक होतं पण ती गेल्यावरही वैभवच्या अंगावर सगळी कामं टाकून ते मोकळे व्हायचे. वैभवची त्याच्यामुळे चिडचिड व्हायची.

एक दिवस त्याने वैतागून मामाला फोन लावला,

” मामा या बाबांचं काय करायचं रे? खुप वैताग आणलाय त्यांनी. आजकाल घरातच थांबावसं वाटत नाही बघ मला “

” हे असं होणार याची कल्पना होतीच मला. तुझ्या वडिलांना मी गेल्या तेहतीस वर्षांपासून ओळखतोय. एक नंबरचा स्वार्थी माणूस आहे. तुझ्या आईलाही खूप त्रास दिलाय त्यांनी. विचार कर कसा संसार केला असेल तिने. पण इतका त्रास सहन करुनही कधीही तिने आम्हांला नवऱ्याबद्दल वाईट सांगितलं नाही. कधी तक्रार केली नाही. ” पदरी पडलं आणि पवित्र झालं “एवढंच ती म्हणायची. तू एकदोन महिन्यातच त्यांना कंटाळून गेला. तिने तेहतीस वर्ष काढली आहेत अशा माणसासोबत. आम्हीही सहन केलंच ना त्यांना. माझा तर कायम दुःस्वास केला त्या माणसांने. कधी आदराने, प्रेमाने बोलला नाही. उलट संधी मिळेल तेव्हा चारचौघात अपमान करायचा. खुप संताप यायचा. कधीकधी तर ठोकून काढायची इच्छा व्हायची. पण बहिणीकडे बघून आम्ही शांत बसायचो. तुही जरा धीर धर. लवकरात लवकर लग्न करुन घे म्हणजे तुलाही एक प्रेमाचं माणूस मिळेल. “

“मी लग्नाला तयार आहे रे पण येणाऱ्या सुनेशी तरी बाबा चांगले वागतील का? की तिलाही आईसारखाच त्रास देतील?”

” हो. तोही प्रश्न आहेच. पण लग्न आज उद्याकडे करावंच लागणार आहे. आता तुही २८ वर्षाचा असशील. मुली बघताबघता आणि लग्न ठरेपर्यंत एक वर्ष तर निघूनच जाईल. मी असं करतो, मुली बघायला सुरुवात करतो “

क्रमश: भाग २

© श्री दीपक तांबोळी

जळगांव

मो – 9503011250

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “कोसळलेली आभाळं सावरताना…!” —☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

 

? मनमंजुषेतून ?

☆ “कोसळलेली आभाळं सावरताना…!” —  ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

मानवी जीवनाच्या डोईवर मृत्यू नावाचं आभाळ कायमच कोसळण्याच्या बेतात असतं. जन्माच्या सोहळ्याची सांगता मृत्यूच्या अभ्रछायेखाली होताना दशदिशा काळवंडून गेलेल्या असतात. हे आभाळ कोसळतं तेव्हा मनाच्या पृष्ठभागावरचं सर्वच जमीनदोस्त होतं… आणि मनाच्या खोल समुद्राचा तळ भूकंपाच्या धक्क्यानं शतविक्षत होतो… आणि वेदनेच्या लाटा उसळी मारून वर येऊ पाहतात. हा अनुभव मरणा-याला येऊच शकत नाही, मात्र मरणा-याच्या रक्त-नात्यांना हा अनुभव विस्कटून टाकतो. अशा वेळी खांद्यावर ठेवला गेलेला हलका हात, पाठीवरून अलगद फिरणारी मायेची बोटं, कपाळावरून डोक्यावर हळूहळू स्पर्शत जाणारा एखाद्या थरथरत्या हाताचा तळवा. . वेदनांकित तळहाताच्या उपड्या पृष्ठभागावर एखाद्या हाताची सहज थपथप आणि कुणीतरी अतीव सहवेदनेने मारलेली मिठी… किती मोठा दिलासा असतो ! शब्द तर नंतर आणि तेही बिचारे गलितगात्र झालेले ! संवेदनेच्या फुलांतून सहवेदनेचा सुगंध अवतरतो तेव्हा आभाळ सुखावून जात असावं ! आपली स्वत:ची दु:खं एकवेळ सुसह्य असतीलही, पण दुस-याच्या दु:खाला सामोरं जाणं म्हणजे जणू श्वास रोखून पाण्याखालून चालत जाऊन पैलतीर गाठण्याएवढं गुदमरून टाकणारं. आणि एरव्ही हाताच्या अंतरावर दिसणारे हे पैलतीर अशावेळी क्षितीजाच्याही पल्याडची वाटतात… आणि असतातही ! 

जगण्यासारखीच मरणाचीही अनंत रूपे असतात. त्यातलं सर्वाधिक पवित्र मरण म्हणजे देशासाठी… परोपकारासाठी, दुस-याच्या प्राणांचे रक्षण करताना आलेलं ! ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं… ’. या भगवंताच्या चिरंजीव आशीर्वादाचे फळ म्हणून असे मरण पावणारे स्वर्गास प्राप्त होतात. पण त्यांच्या मागे राहणा-यांना वेदनांच्या, विरहाच्या नरकास सामोरे जावे लागते… हेही खरेच ! आणि कोणी होऊ म्हटला तरी त्यांच्या या दु:खाचा वाटेकरी होऊ शकत नाही. शेवटी दु:ख हे अगदीच स्वतंत्र असते… स्वाभिमानी असते ! परंतू कुणी फुंकर घातल्यास हा दाह क्षणिक का होईना, गारवा अनुभवू शकतो… हे ही नसे 

थोडके !‍ कितीतरी वेळा दुखण्यापेक्षा कुणी फुंकर घालायला आलं नाही, याच्या वेदना अधिक असतात. बालकं त्यांच्या जखमेवर आई, आजी फुंकर घालते तेव्हा रडायची थांबतात ! कदाचित पुन्हा रडू लागतील, पण फुंकरीची आठवण मनाच्या कोप-यात जपून ठेवतील ! अंधाराला घाबरणारी मुलं, “आई, तु आहेस ना?” असं विचारत विचारत अंधाराला भिडतात तेव्हा ती कमाल आईच्या ‘असण्याची’ असते… लांबून का होईना !

रणभूमी मोठी चोखंदळ असते… निवडक देहांनाच आपल्या अंकावर विसावू देते. इथं प्राणांचं भय मुठीत घेऊन पावलं मागं खेचणारे तिचे नावडते ! तळहातावर शीर घेऊन मृत्यूला मरणमिठी मारण्यास धजावणारे देह जेव्हा नश्वरतेच्या काळोखात दिसेनासे होतात तेव्हा त्या देहांनी जीवनप्रवासात जोडलेले आप्तसंबंध सर्वाधिक क्षतिग्रस्त होतात. आई, बाप, पत्नी, अपत्यं, बहिण, भाऊ, मित्र… दु:खाची ही किती परिमाणं ! पण आई आणि पत्नी ही नाती सर्वांत हुळहुळी… मुळापासून हादरून जाणारी… काहीवेळा उन्मळूनही पडणारी ! 

अशी नाती वेदनेची न संपणारी वाट चालत असतात, तेव्हा त्यांना चार पावलं सोबत चालून सोबत करणं हे प्रत्येक सहृदय माणसाचं आद्य कर्तव्यच ठरावे ! आपण त्यांच्या त्यागाबद्दल त्यांच्याविषयी सदैव कृतज्ञ असावे ! जगाच्या व्यवहारात हा मृत्यूचा बाजार सदोदित गजबजत राहणार आहेच… पण या मृत्यूला संवेदनशीलतेचं कोंदण आपण सर्वजण मिळून देऊ शकलो तर मृत्यू ‘ अर्थपूर्ण ‘ होईल, नाही का? 

भारताच्या राष्ट्रपती महामहिम आदरणीय श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ह्या आपल्या प्रथम नागरीक आणि देशाच्या कुटुंबप्रमुख. हुतात्म्यांच्या आप्तांप्रती त्यांनी कृतीतून दर्शवलेली आत्मीयता, जिव्हाळा आणि सहवेदना आदर्शवत ठरावी. सर्वोच्च पदाचे शिष्टाचार, संकेत बाजूला सारून त्यांनी आपल्या गमावलेल्या माणसांच्या आठवणीने व्याकूळ झालेल्यांच्या खांद्यावर ठेवलेला हात, त्यांना दिलेलं आलिंगन, राष्ट्राच्या वतीने आभारार्थ जोडलेले हात ही दृश्ये खूप बोलकी आहेत… हे पाहून दिवंगत आत्मेही शहारून गेले असतील !

(हुतात्म्यांच्या कुटुंबियांसाठी काम करणारी खूप माणसं, संघटना आपल्या देशात आहेत. त्यांची संख्या वाढली पाहिजे, जनतेनेही यांना साथ द्यायला पाहिजे. किमान बलिदानाची दखल तरी घेतली पाहिजे. वेदना जाणावया जागवू संवेदना ! जय हिंद ! )

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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