(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “परछाई”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 15 ☆
☆ लघुकथा 🌹 परछाई 🌹☆
कमला रोज सिर पर लकड़ी का बोझ लिए चलती जाती। कड़क तेज धूप पसीना पोंछती अक्सर अपनी परछाई को देखती।
उसे लगता क्या?? सारी जिंदगी सिर्फ बोझ ही उठाती रहूंगी। थकी हारी शाम को अपने घर भोजन बनाकर सभी परिवार का रुखा सुखा इंतजाम करती और थकान से चूर बिस्तर पर सोते ही नींद लग जाती।
कभी उसने रात में चांदनी की सुंदरता नहीं देखी थी।
आज पूनम की रात अचानक नींद खुली। बाहर आंगन में निकलकर वह बैठी थी। साड़ी का पल्लू सिर पर डाल रही थी कि पीछे से आज उसकी परछाई किसी खूबसूरत रानी की तरह बनी। ऐसा लगा मानो सिर पर ताज लगा रखी हो।
अपनी परछाई को घंटों निहारते वह बैठी रही। उसने सोचा सही कहा करती थी अम्मा.. पूनम की रात सभी के सपने पूरे होते हैं। खुशी से आंखों से आंसू बहने लगे। दूर से दूधिया रोशनी से नहाती आज वह अत्यधिक प्रसन्न हो रही थी।
परछाई ही सही, मेरी अपनी परछाई ही तो है। तभी पति देव ने आवाज लगाई… आ जा कमला सो जा पूनम का चांद सिर्फ हम सुनते हैं और देखते हैं, हमारे लिए नहीं है हमारे लिए तो सिर्फ तपती दोपहरी की परछाई ही हकीकत है। जो हमें सुख से रात को चैन की नींद सुलाती है।
पति देव की बात को शायद समझ नहीं सकी। परन्तु सोकर जल्दी उठ काम पर जाना है सोच वह सोने चली गई।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 33 ☆ देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज विदेश में प्रातः भ्रमण के समय एक गुरुद्वारे के दर्शन हो गए। हमारी खुशी का ठिकाना ना रहा, मानो कोई साक्षात भगवान के दर्शन हो गए।
करीब बीस एकड़ भूमि में बने गुरुद्वारे में प्रवेश किया, तो वहां एकदम शांति थी। छोटे से कस्बे मिलिस जिला मैसाचुसेट्स जो कि अमेरिका के पूर्वी भाग में स्थित हैं। आस पास लोगों के घर हैं, कोई भारतीय निवासी भी नहीं दिख रहा था।
एक अंग्रेज़ सी दिखने वाली महिला ने अपना भारतीय मूल का नाम जिसमें कौर भी शामिल था, परिचय दिया। वो मूलतः फ्रांस देश से हैं।
गुरुग्रंथ साहब को सम्मान पूर्वक माथा टेकने के पश्चात, महिला से थोड़ी देर गुरुद्वारे की जानकारी ली।
गुरुद्वारे का संबंध “मेरिकन सिख” से हैं। इस देश में करीब सौ वर्ष पूर्व कुछ सिख परिवार इस देश में रच बस गए हैं। हमारी जानकारी में तो इंग्लैंड, कनाडा और अफगानिस्तान में ही सिख समुदाय के लोग बहुतायत से रहते है। अमेरिका में भी सात लाख के करीब सिख बंधु रहते हैं।
ये लोग योग और कुंडलिनी से संबंधित ऑनलाइन शिक्षा देते हैं। वो बात अलग है, कुछ फर्जी प्रकार के कुंडलिनी योग भी अमेरिका में पैसा कमाने का साधन बने हुए हैं।
साहित्य यांत्रिकी की प्रथम गोष्ठी संपन्न ☆ प्रस्तुति – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
भाषा की समृद्धि में उसका तकनीकी पक्ष तथा साहित्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है. यूनीकोड लिपि व विभिन्न साफ्टवेयर में हिन्दी के उपयोग हेतु अभियंताओ ने महत्वपूर्ण तकनीकी योगदान दिया है . तकनीक ने ही हिन्दी को कम्प्यूटर से जोड़ कर वैश्विक रूप से प्रतिष्ठित कर दिया है.
हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में भी अनेक अभियंता साहित्यकारो का भी अप्रतिम योगदान है , स्व चंद्रसेन विराट हिन्दी गजल में, इंजीनियर नरेश सक्सेना हिन्दी कविता के पहचाने हुये नाम है .यद्यपि साहित्य को लेखक की व्यवसायिक योग्यता की खिड़कियों से नहीं देखा जाना चाहिये . साहित्य रचनाकार की जाति, धर्म, देश, कार्य, आयु, से अप्रभावित, पाठक के मानस को अपनी शब्द संपदा से ही स्पर्श कर पाता है. तथापि समीक्षक की अन्वेषी दृष्टि से अभियंताओ के साहित्यिक अवदान को रेखांकित किया जाना वांछित है . इस उद्देश्य से इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स के तत्वावधान में एक राष्ट्रीय अधिवेशन प्रस्तावित है . निरंतरता का साहित्य साधना में बड़ा महत्व होता है . इस भाव से साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय इंजीनियर्स ने साहित्य यांत्रिकी का गठन किया है . संस्था प्रति माह प्रथम रविवार को विचार गोष्ठी , काव्य गोष्ठी का आयोजन नियमित रुप से करेगी .इसी क्रम का श्रीगणेश साहित्य यांत्रिकी की प्रथम गोष्ठी के साथ इंजी प्रियदर्शी खैरा जी के आवासीय सभागार में संपन्न हुआ .
वरिष्ठ व्यंग्यकार एवं कवि श्री हरि जोशी जी की अध्यक्षता में गोष्ठी का प्रारंभ किया इंजी मुकेश नेमा ने….
“ये देखकर मेरी जान जलती है,
मेरी नहीं चलती बस उनकी चलती है “
रवींद्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय वैशाली के कुलपति श्री व्ही के वर्मा ने अपनी गजल तरन्नुम में पढ़ी …
” हर बात जुबां तक आ जाये यह बात तो मुमकिन कभी नहीं,
हर बात तेरी सुन ली जाये यह बात तो मुमकिन कभी नहीं ”
श्री प्रियद्रशी खैरा की बसंत को लेकर पढ़ी गई इन पंक्तियों ने सबका ध्यानाकर्षण किया …
“बस अंत आ गया ,
सोच कर जियो ,
जीवन का हर क्षण ,
सोम रस पियो ,
जीवन दर्शन मौसम सिखा गया ,
लो बसंत आ गया “
गायक एवं कवि मंथन शीर्षक से कई पुस्तकों के रचनाकार श्री अशेष श्रीवास्तव ने पढ़ा
“मैं सूर्य हूं पर कभी बताया नहीं
जीवन देता हूं पर जताया नहीं
अंधकार से कभि घबराया नहीं
अकेला ही सही डगमगाया नहीं “
इंजी अरुण तिवारी प्रेरणा पत्रिका के संपादक हैं. वे राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाने वाले वरिष्ठ कथाकार हैं. उन्होने गोष्ठी का वातावरण बदलते हुये अपनी कहानी “मुखौशे” पढ़ी, जिसकी सभी ने मुक्त कंठ सराहना की.
वरिष्ठ कवि सशक्त हस्ताक्षर श्री अजेय श्रीवास्तव ने फरमाईश पर अपनी लोकप्रिय रचना “बाउजी” एवं “अक्षुण्ण ” पढ़ीं . उनकी अकविता की डिलेवरी शैली ने सभी को प्रभावित किया और इन भाव प्रवण रचनाओ ने श्रोताओ की सराहना अर्जित की .
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ने “शब्द तुम्हारे कुछ लेकर के घर लौटें तो अच्छा हो, कवि गोष्ठी से मंथन करते घर लौटें तो अच्छा हो ” रचना पढ़कर गोष्ठी आयोजन का महत्व प्रतिपादित किया.
अध्यक्षीय व्यक्तव्य में श्री हरि जोशी जी ने कहा कि अभियंताओ के साहित्यिक अवदान को एक मंच देने का भोपाल में किया जा रहा यह प्रयास राष्ट्रीय स्तर पर सर्वथा प्रथम कदम प्रतीत होता है . इस प्रयास की अनुगूंज हिन्दी के समीक्षा साहित्य में अवश्य होगी . उन्होने छोटी छोटी रचनायें भी पढ़ी.
“सिर्फ काम काम अ्वा सोना सोना
दोनों का अर्थ होता है जीवन खोना
सोना और काम दोनो जरूरी
बिना दोनों जिंदगी अधूरी”
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ने गोष्ठी का अत्यंत कुशलता पूर्वक संचालन किया. अंत में श्री प्रियदर्शी खैरा जी के आभार व्यक्तव्य के साथ नियत समय पर गोष्ठी पूरी हुई . इस अभिनव साहित्यिक आयोजन की भोपाल के साहित्य जगत में भूरि भूरि सराहना हो रही है .
साभार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
भोपाल, मध्यप्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
संगीत, गाणी आणि आपण त्याचे दर्दी यामध्ये एक अनामिक बंध जुळल्या गेलेले असतात. कुठेही,कधीही,कुठल्याही भाषेतील संगीत, गाणी ऐकू आलं की ठेका हा धरलाच जातो. मला आठवतं आम्ही तेव्हा टिव्ही वर प्रादेशिक चित्रपट, प्रादेशिक गाणी,संगीत काही भाषा कळतं नसूनही आवडायची.पण खरं प्रेम ,लायकींग हे आपल्या मातृभाषेतील गाण्यांवर असतं हे ही खरेच.
प्रत्येकाच्या जीवनात आनंद मिळवून देणाऱ्या गोष्टींपैकी सुमधुर संगीत,गाणी,कविता ह्यांच स्थान पहिल्या काही क्रमांकावरच असतं. सुमधुर संगीत, मनाला जाऊन भिडणारी अर्थपूर्ण गाणी,आशयघन कविता, काव्य हे आपल्या आयुष्यातील अविभाज्य अंगच बनले आहे.
मनाला आनंद मिळवून देणाऱ्या संगीताचे, काव्याचे अनेक प्रकार आहेत. भक्तिगीतं, कविता, भावगीतं, सुगमसंगीत ह्यांच्यामुळे माणसाच्या जीवनात आलेलं एकटेपणं काही प्रमाणात दूर करण्याची किमया ह्या संगीतात आहे.
काही वेळी काही माणसं अश्या अजरामर कलाकृती घडवून जातात की ह्या कलाकृतीच जणू त्यांच्या नावासारखीच त्यांची ओळख बनवितात. असेच एक अवलिया म्हणजे “शुक्रतारा मंदवारा”वाले अरुणजी दाते. आतुन उत्स्फूर्त निघालेली अवीट गोडीची अर्थपूर्ण प्रेमगीत व भावगीतं ऐकावीत ती अरुणजींच्याच आवाजातील. 2010 पर्यंत “शुक्रतारा मंदवारा” ह्या कार्यक्रमाचे थोडेथोडके नव्हे तर तब्बल 2500 कार्यक्रम झालेत.
मे महिन्यातील चार,पाच,सहा ह्या तारखा जणू कलाक्षेत्राशी संबंधित तारखा. 4 मे ही तारीख सुप्रसिद्ध गायक अरुणजी दाते ह्यांचा जन्मदिवस, 6 मे हा अरुणजींचा स्मृतीदिन व 5 मे ही तारीख बालकवी त्र्यंबक बापूजी ठोंबरे ह्यांचा स्मृतीदिन.
अरुणजी दाते ह्यांना ओळखत नसलेली व्यक्ती विरळीच. अरुणजी हे सुप्रसिद्ध मराठी भावगीतं गायक. इंदूरचे सुप्रसिद्ध गायक रामुभैय्या दाते हे त्यांचे वडील. ह्यांचा जन्म 4 मे 1934 रोजी इंदूर येथे झाला. सुरवातीला इंदूर जवळील धार येथे कुमार गंधर्वांकडे ह्यांनी संगीताचे प्राथमिक धडे गिरवले. संगीताचे पुढील शिक्षण त्यांनी के.महावीर ह्यांच्याकडे घेतले. खरतरं दाते हे मुंबईत टेक्स्टाईल इंजिनिअर म्हणून नोकरी करीत पण त्यांना त्यांचा आतला आवाज स्वस्थ बसू देत नव्हता.1955 मध्ये त्यांनी आकाशवाणी ला कार्यक्रम केला.1962 ला त्यांची पहिली ध्वनीमुद्रिका “शुक्रतारा मंदवारा”ह्या नावाने प्रकाशित झाली.खळेकाका ह्यांच्या आग्रहाखातर त्यांनी जाहीर कार्यक्रम घ्यायला सुरवात केली. मंगेश पाडगावकर, यशवंत देव,अरुण दाते ह्या त्रिकुटाने अनुक्रमे कवी, संगीत दिग्दर्शक, गायक असे मराठी भावगीतांचे लोकप्रिय कार्यक्रम सादर केलेत. दातेंनी लता मंगेशकर, आशा भोसले,सुमन कल्याणपूर,कविता कृष्णमुर्ती ,सुधा मल्होत्रा, अनुराधा पौडवाल ह्यांच्या बरोबर अनेक लोकप्रिय द्वंद्वगिते गायलीत. त्यांना 2010 साली गजानन वाटवे पुरस्कार व 2016 साली राम कदम कलागौरव पुरस्कार मिळाला. त्यांची दीर्घकाळ स्मरणात राहणाऱ्या गाण्यांपैकी “भातुकलीच्या खेळमधली”,””जपून चाल पोरी जपून चाल”,”स्वरगंगेच्या काठावरती”,”या जन्मावर या जगण्यावर शतदा प्रेम करावे”,”दिवस तुझे हे फुलायचे”,आणि “शुक्रतारा मंदवारा”ही काही सुप्रसिद्ध गाणी.
बीबीसी लंडनमधील स्टुडीयोत अगदी बोटावर मोजता येतील इतकीच मराठी गाणी गायली गेली आहेत. त्यापैकीच ही दोन गीतं म्हणजे “शुक्रतारा मंदवारा”आणि” भातुकलीच्या खेळामधली”.
अरुणजी ब्रिटनमध्ये शुक्रताराचे कार्यक्रम करत होते. त्याकाळी विमानप्रवास आजच्या इतका सोपा आणि परवडणारा नव्हता. त्यामुळे तबल्यावर अरुणजीचे काका शामुभैया दाते, सूत्रसंचालक सुप्रसिद्ध लेखक व.पु. काळे आणि अरुणजी स्वतः असा ह्या तिघांनीच कार्यक्रम केला. हार्मोनिअमवाल्याचा खर्च वाचावा म्हणून वपु स्वतः हार्मोनियम शिकले होते, त्यांनी साथ केली. केवळ या दोघांच्या जोडीने ब्रिटनमधील मैफिलीत अरुणजी हजारों श्रोत्यांना कसे मंत्रमुग्ध करतात हे बीबीसीच्या वार्ताहरांनी पाहिल्यावर अरुणजींना बीबीसी स्टुडीयोत आमंत्रित करून त्यांचे ध्वनीमुद्रण झाले.
अरुणजींची सगळीच भावगीतं म्हणजे अक्षरशः मंत्रमुग्ध करुन टाकणारी जणू मास्टरपीसच आहेत.” या जन्मावर या जगण्यावर”, “शुक्रतारा”, “जेव्हा तिची नी माझी” “भातुकलीच्या खेळामधली”, “स्वरगंगेच्या काठावरती”, “दिवस तुझे हे फुलायचे”, “मान वेळावुनी धुंद”, “जपून चाल पोरी जपून चाल”, “डोळे कशासाठी”, “काही बोलायाचे आहे”, “डोळ्यात सांजवेळी”, “सखी शेजारणी,”” धुके दाटलेले उदास उदास”,” भेट तुझी माझी स्मरते”, “सूर मागू तुला मी कसा”, लतादिदिंबरोबरचं संधीकाली ही आणि अशी कितीतरी उल्लेखनीय गीतं अरुणजी दाते ह्यांच नाव घेतल्याबरोबर डोळ्यासमोर येतात,आठवतात, धुंद करतात, तल्लीन करतात.
असं म्हणतात की “या जन्मावर या जगण्यावर शतदा प्रेम करावे” ह्या त्यांच्या गीताने कित्येक नैराश्याने ग्रासलेल्या वैफल्यग्रस्त लोकांना आशेचा नवीन किरण सापडून त्यांचे भविष्य अगदी जणू तिमीराकडून तेजाकडे गेले.
परत एकदा ही मंत्रमुग्ध करणारी सगळी गाणी मनात घोळवत,ह्रदयात साठवत अरुणजींना अभिवादन करते.
सकाळी झाडू मारायला गेली, तेव्हा 705 मधल्या मॅडमनी इडल्या दिल्या होत्या.
रखमानी त्या तेलावर परतून त्यावर तिखट-मीठ भुरभुरून सदाला दिल्या. सदा खूष झाला.
नाष्ट्याचं काम झालं.
दोन-तीन दिवसांपासून त्याचं सारखं चालू होतं ‘मोबाईल पायजे’. माजा समदा अभ्यास त्याच्यावरच असतुया.’ रखमाला काही कळंना. पैसे कुठून आणावं त्या मोबाईलसाठी. पर अभ्यास त्यावर असतो म्हणतुया. रखमानं परोपरीनं त्याला समजावलं. दिवाळीपत्तुर दम धर. दिवाळी मिळंल त्यातनं बघते.
पण त्याला काही पटत नव्हतं. त्याची आदळ-आपट अन् अबोला, यामुळं रखमा मनातून कष्टी होती. रोज कुणी काही शिळं पाकं द्यायचं त्यावरच दोघांचं भागायचं. आज दुपारी त्याला ताजी भाकर करून द्यावी, लेकराला जरा बरं वाटंल असं ठरवून रखमा पुढच्या कामाला गेली. सारी सोसायटी झाडायची म्हणजे तिला बराच वेळ व्हायचा. पण आज रविवार.
शाळेची सुट्टी. त्यामुळे आज तिनं भाजी-भाकरीचा बेत ठरवला होता.
कामावरून येतांना भाजीला पाच रुपयांचा पाला घेऊन आली. भराभरा पाला फोडणीला घातला. भाकरी थापली न् सदाला हाक मारली. ‘‘ये रं पोरा. ज्यवायला ये. ताजी भाकर केलिया तुझ्यासाठी. माझ्या सोताच्या हातानं. आपल्या घरात. ये माझ्या राजा.’’
सदानं हू, की चू केलं नाही. जेवायलाही आला नाही. रखमानं उठून पाहिलं, तर फुरगंटून बसला होता. तिच्याकडं बघायलाही तयार नव्हता. रखमानं लाख मिनतवार्या केल्या, पण तो काही बधला नाही. शेवटी तणतणत पाय आपटत खोपटातनं निघून गेला.
रखमाच्या काळजाचं पाणी-पाणी झालं. कधी नव्हं ते घरला ताजी भाकरी केली.
लेकरासाठी. पण त्यानं ती शिळीच केली. शिळी करून बी खायचं नाव नाही. रखमानं डोळ्याला पदर लावला. तिच्या तरी घशाखाली घास कसा उतरणार? त्या दिवशी दोघंही उपाशीच झोपले.
रखमाला त्या भाकरीकडं पाहून राहून राहून दुःखाचे कढ येत होते. पोरासाठी जीव तुटत होता. त्याचा बाप गेल्यापासून रखमानं तळहाताच्या फोडासारखा जपला होता पण पैश्याची सोंगं ती कुठून आणणार? पोरगं हट्टापायी जिवाला त्रास करून घेतंय म्हणून तिला वाईट वाटायचं.
आज तर अबोलाच धरून बसला होता.
दुसर्या दिवशी शाळेत गेला तोही उपाशीच. आला तो ओरडतच. ‘‘आये, मपले शाळेचे कपडे धून ठीव. उद्याच्याला कारेक्रम हाय शाळत.’’
‘‘कसला रं?’’
‘‘मला न्हाय म्हाइत. पर गांधीबाबाचं काय तरी हाय!’’ पर कापडं चमकून ठीव झाक.
दोन ऑक्टोबरचं स्वच्छता अभियान होतं शाळेत. बरं बरं म्हणून रखमा उठलीच. कालचा राग सोडून पोरगं दोन शब्द बोललं म्हणून रखमा हुरळून गेली. तिनं डाळ-भात शिजवला. त्यानंही मुकाट्यानं खाल्ला. रखमाचा जीव भांड्यात पडला.
दुसर्या दिवशी दुपारी चार वाजता रखमा समोरची सोसायटी झाडून आली तर सदा धावत आला. ‘‘चल शाळेत चल. लौकर चल’’ असं म्हणून ओढतच तिला शाळेत घेऊन गेला.
अंगावरच्या मळक्या पातळातच तिला ओढून शाळेत घेऊन गेला.
शाळेत सगळी पोरं पटांगण साफ करत होते. मास्तर लोकही पोरांना सांगून साफसफाई करून घेत होते. पाहुणे, पुढारी आलेले होते.
सदानी आईला मास्तरांसमोर उभं केलं. रखमाचा जीव लाजेनं कांडकोंडा झाला. मास्तरांनाही कळंना. कोण आहे ही? कशाला आली आहे? त्यांनी सदाला विचारलं, ‘‘काय रे सदा, कोण आहेत ह्या? कशाला आणलंस त्यांना?’’
‘‘मास्तर, मपली आय हाय ती.’’
‘‘कशाला आणलंस शाळेत आईला? आज पालकांना नाही बोलावलेलं.’’
‘‘मास्तर का न्हाय बोलावलं मपल्या आयेला आज? आज तिचा खरा मान हाये. म्हून म्या आणलंय तिला फोटू काढाया.’’
‘‘काय? कसला मान? कसला फोटू?’’
‘‘आज शाळेत स्वच्छता… (अभियान) चालू हाय ना? त्यासाठी आणलंय आयला. त्या फोटुग्राफरला सांगा आयेचा फोटो काढाया लावा त्येंना.’’
लाज-शरमेनं रखमाचा जीव पाणी पाणी झाला. ‘‘हत् येड्या. मपला कसला फोटु? येडा का खुळा? सोड मला. जाऊं दे घरला. अजून सारी सोसायची झाडायची हाय मागली.’’
‘न्हाय-न्हाय, मी तुला जाऊन देणार न्हाय. रोज सारा जनमभर झाडत असतीया. मंग तुझाच फोटु काढाय पायजे. हे सगळे काय रोज झाडतात का कधी? तुझ्यावाणी? नुसता हातात झाडू घेऊन फोटु काढत्याती अन् पेपरात देतात.
सूज्ञ प्रेस फोटोग्राफरला इथं काही तरी बातमी दिसली. त्यानी लगेच रखमाच्या हातात झाडू दिला अन् तिचा फोटो काढला.
दुसर्याच दिवशी झाडझूड करताना आमदार साहेबांच्या फोटोशेजारी रखमाचाही फोटो छापला होता. ‘विशेष’ मधे. खाली लिहिलं होतं- ‘‘सत्कार्यासाठी फोटो – अन् फोटो हेच सत्कार्य’’
शाळेतही नोटीस बोर्डवर तो पेपर लावला होता. सदानं धारिष्ट्यानं सरांना तो पेपर मागितला. सरांनी शाळा सुटल्यावर सदाला तो पेपर दिला. सार्या वस्तीत तो पेपर दाखवत
माणसाला दोनच गोष्टी हुशार बनवतात. एक वाचलेली पुस्तके आणि दोन, भेटलेली माणसे.
वाचन हे चांगलं व्यसन आहे. ज्यामुळे माणसाचे मानसिक आरोग्य निरामय होऊ शकतं. ज्या व्यक्तीला वाचनाची आवड असते त्या व्यक्तीचे आयुष्य कधीही कंटाळवाणे होऊ शकत नाही. वेळ कसा घालवावा हा प्रश्न पडत नाही. एकटेपणा जाणवत नाही. कारण पुस्तक हा असा मित्र आहे की जो आपली संगत कधीही सोडत नाही. आपल्या सुखदुःखात तो, त्याच आनंदी, मार्गदर्शक चेहऱ्याने, कळत नकळत सतत आपल्या सोबत असतो.
एका इंग्रजी लेखकाने म्हटले आहे की,
“BOOKS ARE OUR COMPANIONS… THEY ELEVATE OUR SOULS… ENLIGHTEN OUR IDEAS… AND ENABLE US TO THE GATES OF HEAVEN”
— कल्पनाशक्ती, ज्ञान आणि शब्दसंग्रह उन्नत करण्याचं एकमेव माध्यम म्हणजे वाचन. कारण पुस्तके ही माहिती आणि ज्ञानाचा समृद्ध स्त्रोत आहेत.
वयानुसार आपल्या वाचनाच्या आवडीनिवडी बदलत जातात. लहानपण चांदोबा, गोट्या,फास्टर फेणे, जातक कथा, बिरबलाच्या कथा वाचण्यात रमलं. कुमार वयात, तारुण्यात, नाथ माधव, खांडेकर, फडके यांच्या स्वप्नाळू साहसी, शृंगारिक, वातावरणात आकंठ बुडालो. शांताबाई, तांबे, बालकवी, इंदिरा संत, विंदा, पाडगावकर, यांनी तर कवितेच्या प्रांगणात मनाभोवती विचारांचे, संस्कारांचे एक सुंदर रिंगणच आखलं. धारप, मतकरी यांच्या गूढकथांनी तर जीवनापलीकडच्या अफाट, अकल्पित वातावरणात नेऊन सोडलं. ह. ना आपटे यांच्या “पण लक्षात कोण घेतो..” या कादंबरीने तर वैचारिक दृष्टिकोनच रुंदावला. त्यांची यमी आजही डोक्यातून जात नाही. श्रीमान योगी, ययाती, छावा, शिकस्त, पानीपत या कादंबऱ्यांनी इतिहासातला विचार शिकवला. आणि पु.लं. बद्दल तर काय बोलावं? त्या कोट्याधीशाने तर आमच्या मरगळलेल्या जीवनात हास्याची अनंत कारंजी उसळवली. जीवन कसं जगावं हे शिकवलं. विसंगतीतून विनोदाची जाण दिली. व्यक्ती आणि वल्लीच्या माध्यमातून त्यांनी माणसं वाचायला शिकवलं. लक्ष्मीबाई टिळकांची स्मृती चित्रे …कितीही वेळा वाचा प्रत्येक वेळी निराळा संस्कार घडवतात….. ही यादी अफाट आहे, न संपणारी आहे. यात अनेक आवडते परदेशी लेखकही आहेत. साॅमरसेट माॅम,अँटन चेकाव, हँन्स अँडरसन, बर्नाड शाॅ, पर्ल बक,डॅफ्ने डी माॉरीअर,जेफ्री आर्चर,रॉबीन कुक.. असे कितीतरी. ही सारी मंडळी मनाच्या गाभाऱ्यात चीरतरुण आहेत कारण त्यांच्या लेखनाने आपली वाचन संस्कृती, अभिरुची, अभिव्यक्ती तर विस्तारलीच, पण जगण्याला एक सकारात्मक दिशा मिळाली. त्यांनी आशावादही दिला, एक प्रेरणा दिली.
वाचनाने आमचे जीवन समृद्ध केले, निरोगी केले, आनंदी केले., कसे? हे बघा असे.
विंदा म्हणतात,
“वेड्या पिशा ढगाकडून
वेडे पिसे आकार घ्यावे
रक्तामधल्या प्रश्नांसाठी
पृथ्वीकडून होकार घ्यावे…”
कुसुमाग्रज म्हणतात,
” मोडून पडला संसार
तरी मोडला नाही कणा
पाठीवरती हात ठेवून
फक्त लढ म्हणा…”
शेक्सपियर म्हणतात,
“प्रेम सर्वांवर करा, विश्वास थोड्यांवर ठेवा, पण द्वेष मात्र कोणाचाच करू नका.”
किंवा,
“सुंदर फुले हळुवारपणे उमलत असतात, तर गवत झपाट्याने उगवते.”
साने गुरुजींनी सांगितले,
“खरा तो एकची धर्म… जगाला प्रेम अर्पावे..”
हे सारंच विचारांचं धन आहे. अनमोल आहे ! अनंत, अफाट आहे आणि हे असं धन आहे की, जगण्याच्या कोणत्याही टप्प्यावर तुम्ही स्वतःसाठी वापरा, दुसऱ्यांना द्या.. ते कमी होत नाही. वैचारिक धनासाठी डेबिट हे प्रमाणच नाही. ते सदैव तुमच्या क्रेडिट बॅलन्समध्येच राहतं. आणि फक्त आणि फक्त ते वाचनातूनच उपलब्ध असतं . म्हणूनच म्हणतात “वाचाल तर वाचाल”
वाचनाचे अनेक प्रकार असू शकतात. अध्यात्मिक ग्रंथ वाचन, चरित्रात्मक वाचन, कविता, ललित, कथा, कादंबरी, रहस्यमय ,गूढ, भयकारी, साहसी, अद्भुत, शृंगारिक, विनोदी, नाट्य, लोकवाङमय, प्रवास, संगीत, अगदी पाकशास्त्र सुद्धा. अशा अनेक साहित्याच्या शाखा आहेत. आता तर डिजिटल वाङमयही भरपूर आहे. ज्याने त्याने आपल्या बुद्धीच्या कुवतीनुसार, आवडीनुसार स्वभावानुसार, वाचावे. पण वाचावे.नित्य वाचावे.
वाचन हे माणसाला नक्कीच घडवतं. प्रेरणा देतं. कल्पक, सावध ,जागरुक बनवतं. केसरी आणि मराठा वाचून अनेक क्रांतीकारी निर्माण झाले. सावरकरांच्या कविता वाचताना आजही राष्ट्रभावना धारदार बनते.
वाचन आणि कुठलीही आवड अथवा छंद याचं एक अदृश्य नातं आहे. जसं आपण एखादं झाड वाढावं म्हणून खत घालतो आणि मग ते झाड बहरतं. तसेच वाचनाच्या खाद्याने आवडही बहरते. ती अधिक फुलते. चारी अंगानी ती समृद्ध होत जाते. आवडीला आणि पर्यायाने व्यक्तीमत्वाला आकार येतो.
मात्र जशा नाण्याला दोन बाजू असतात तशाच वाचनालाही आहेत. संगत माणसाला घडवते नाही तर बिघडवते. वाचनातून अशी काही धोक्याची वळणं जीवनाला विळखा घालू शकतात. पण हे व्यक्तीसापेक्ष आहे. ज्याचे त्याने ठरवावे काय वाचावे. या नीरक्षीरतेची रेषा जर वाचकाला ओलांडता आली तर मात्र तो स्वतःची आणि इतरांची जीवनसमृद्धी घडवू शकतो.
कित्येक वेळा जाहिराती, रस्त्यावरच्या पाट्या, भिंतीवर लिहिलेले सुविचार, पानटपरीवरचे लेखन, ट्रकवर लिहिलेली वाक्येही तुम्हाला काहीबाही शिकवतातच. आणि वाचनाची आवड असणारा हे सारं सहजपणे वाचत असतो.आणि या विखुरलेल्या ज्ञानाची फुलेही परडीत गोळा करतो.
मला वयाची पंचाहत्तरी ओलांडली तरी बालवाङमय वाचायला आवडते. मी आजही परीकथेत रमते. रापुन्झेल, सिंड्रेला, हिमगौरी मला मैत्रिणी वाटतात. हळूच विचार डोकावतो, माझ्यासारख्या त्या मात्र वृद्ध होणार नाहीत. त्यापेक्षा त्या आहेत म्हणून माझेही शैशव अबाधित आहे. आजही मी बोधकथेत गुंतते.
भाकरी का करपली?
घोडा का अडला?
चाक का गंजले?— या प्रश्नांना बिरबलाने एकच उत्तर दिले ” न फिरविल्याने “.
हे वैचारिक चातुर्य बालसाहित्य वाचनातून मला आजही मिळतं.
“तुपात पडली माशी चांदोबा राहिला उपाशी ” .. या ओळीतला गोडवा माझ्या कष्टी मनाला आजही हसवतो.
बालवयात वाचलेल्या अनेक कविता नवे आशय घेऊन आता उतरतात. आणि पुन्हा पुन्हा मनाला घडवतात.
वाचनाचा हा प्रवास न संपणारा आहे. शेवटचा श्वास हेच त्याचे अंतिम स्थानक असणार आहे. बाकी सगळं तुम्ही ठेवून जाणार आहात इथेच. कारण ते भौतिक आहे. पण वाचन हे आधिभौतिक आहे. पारलौकिक आहे. हे धन, ही समृद्धी, हे विचारांचे माणिक–मोती, तुमच्या बरोबर येणार, कारण ते तुमच्या आत्म्याचा भाग आहेत …
☆ “महानायक “… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे☆
” राम ” आणि ” कृष्ण ” हे भारतीय इतिहासातील दोन अतुल्य महानायक आहेत. !!
एकाने “अयोध्या ते रामेश्वर”, तर दुसऱ्याने “द्वारका ते आसाम” पर्यंतचा भूभाग आपल्या चरित्राद्वारे सांधत गेली हजारो वर्षे या भारतभूमीला संस्कारांच्या अनोख्या बंधनात बांधून ठेवले आहे.!
तसं पाहिलं तर दोघांच्या चरित्रात जन्मापासूनच किती विरोधाभास आहे. एकाचा जन्म रणरणत्या उन्हाळ्यात दुपारी, तर दुसऱ्याचा मुसळधार पावसाळ्यात मध्यरात्री !!
एकाचा राजमहालात तर दुसऱ्याचा कारागृहात !!
साम्य म्हणावं तर दोघांच्याही हातून पहिले मारल्या गेल्या त्या राक्षसिणी….. त्राटिका आणि पुतना !
शबरीची बोरे आणि सुदाम्याचे पोहे त्यांच्या मनमिळाऊ मैत्रीपूर्ण स्वभावाचे उदाहरण म्हणून आजही सांगितले जातात.
ज्यांच्यामुळे त्यांच्या चरित्राला वेगळे वळण लागले, त्या कैकेयी आणि गांधारी एकाच प्रांतातल्या…ह्या दोघी मातांच्या कटू शब्दांना वंद्य मानत त्यांनी स्वीकारले.!!
एकाने सुग्रीवाला त्याचे राज्य मिळवून दिले, तर दुसऱ्याने युधिष्ठिराला !
एकाने लोकापवादाखातिर पत्नीचा त्याग केला, तर दुसऱ्याने लोकापवादाची चिंता न बाळगता सोळा सहस्त्र स्त्रियांचा स्वीकार केला.!!
एकाने पुत्रधर्मासाठी कुटुंबीयांचा त्याग करत वनवास स्वीकारला, तर दुसऱ्याने क्षत्रिय धर्मासाठीच कुटुंबियांवर शस्त्र उगारण्यास देखील गैर मानले नाही.
एकाने जन्मभूमीला स्वर्गासम मानले, तर दुसऱ्याने कर्मभूमीला स्वर्ग बनवले.
एकाने अंगदाकरवी, तर दुसऱ्याने समक्ष शत्रूच्या दरबारी जात, शिष्टाई करत, युद्धहानी टाळण्याचा प्रयत्न अखेरपर्यंत केला.
एकाने समुद्र ओलांडून सोन्याची लंकापुरी नष्ट केली, तर दुसऱ्याने समुद्र ओलांडून सोन्याची द्वारकापुरी उभारली.
एकाने झाडामागून बाण मारल्या गेलेल्या वालीच्या मुखातून झालेली निंदा स्वीकारली, तर दुसऱ्याने झाडामागुन बाण मारणाऱ्या व्याधाच्या हातून मृत्यू पत्करला.
एक Theory…. तर…दुसरा Practical !!
दोन प्रचंड विरोधाभास असलेल्या ह्या व्यक्तीरेखा गेली हजारो वर्षे नाना विविध प्रक्षिप्त कथांचा स्वीकार करत, आपल्या चरित्राच्या मूळ गाभ्याला धक्का न लावता, ह्या देशापुढे दीपस्तंभ बनून उभे आहेत आणि इथून पुढे देखील राहील.!!
जय श्रीराम … जय श्रीकृष्ण !!
इदं न मम ……
संग्राहक : श्री सुनीत मुळे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈