(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कैसा होता प्यार बताओ…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 138 – कैसा होता प्यार बताओ…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “क्षोभदग्धा थी संरचना…”)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नफ़रत का दरिया “।)
अभी अभी ⇒ नफ़रत का दरिया … श्री प्रदीप शर्मा
किसी सयाने ने कहा, नेकी कर, दरिया में डाल, हमें कहां नेकी का अचार डालना था, पूरी की पूरी नेकी, दरिया में डाल दी।
लोग जैसे बहती गंगा में हाथ धोते हैं, लोगों ने लगे हाथ नेकी के दरिये में भी डुबकी मार ली। गंगा ने सारे पाप धो दिए, घर बैठे नेकी भी बिना कौड़ी खर्च किए चली आई। इसे कहते हैं, मुफ्त का सच्चा सौदा।
उधर हम नेक दिल, अपनी नेकी मुफ्त में ही दरिया में बहा आए, तो हमारे पास क्या बचा, बाबा जी का ठुल्लू ! बड़े दरियादिल बने फिरते थे, नेकी के जाते ही संगदिल बन बैठे। ।
जिस तरह खाली दिमाग शैतान का घर होता है, अगर दिल से नेकी निकल जाए तो क्या बचेगा
उसमें नफरत के सिवाय। नेकी के कारण जो दिल दरिया था, नेकी के जाते ही नफरत का समंदर हो गया। आपने सुना नहीं ;
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में।
तेरे दया धरम नहीं मन में ..
ये दया धरम का ही तो नाम नेकी है, आखिर और क्या है नेकी। जब हम धरम की बात करते हैं, तो यह वह धर्म नहीं है, जिस धर्म की ध्वजा फहराई जाती है, और उसका गुणगान किया जाता है, यह साधारण सा, आम आदमी वाला, ईमान धरम है, जो किसी जात पांत और हिंदू मुस्लिम के धर्म को नहीं मानता, सिर्फ इंसानियत के धर्म को मानता है।
जहां ईमान है, वहीं तो धरम है। यारी है ईमान मेरा, यार मेरी बंदगी। जब हम गंगा को मैला होने से नहीं बचा पाए, तो यह नेकी का दरिया क्या चीज है। जिस तरह मन चंगा तो कठौती में गंगा, उसी प्रकार हमारे अंदर अगर नेकी है, तो कभी हमारे दिल में नफरत प्रवेश कर ही नहीं सकती। ।
चारों ओर नेकी ही तो बह रही है। नेक बनाने के भी कई मेक बाजार में उपलब्ध हैं आजकल। गुरुकुल, कॉन्वेंट, सभी नेक बालकों का ही सांदीपनी आश्रम है। सुदामा और कृष्ण दोनों यहीं के रिटर्न हैं। जरा नेकी के दरिये तो देखें, शिक्षक, चिकित्सक, व्यापारी, उधोगपति, वकील, नेता और समाज सुधारक। कितनी नेकी फैल रही है इस देश में, फिर यह नफरत की बू कहां से आ रही है।
नेकी को व्यर्थ दरिया में ना बहाएं, बस नेकदिल बने रहें, तो हर दिल एक मंदर होगा, हर इंसान नेकी का समंदर होगा, नफरत का कहीं नामोनिशान ना होगा ..!!
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य – “बैरन नींद न आय…”।)
☆ माइक्रो व्यंग्य # 187 ☆ “बैरन नींद न आय…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
बहुत दिनों से एक नेता परेशान हैं, रात को सो नहीं पाता। राजधानी से जब अपने गांव आता है तो रास्ते भर कुत्ते उसको देखकर भौंकने लगते हैं। एक बार तो बड़ा गजब हो गया, रास्ते में जब वह लघुशंका के लिए कार से उतरा तो पीछे से एक कुत्ता आया और खम्भा समझकर उसके खम्भे जैसे पैर पर अपनी लघुशंका दूर कर दी। देखकर ड्राईवर मंद मंद मुस्कराया। और गीला पजामा से नेता परेशान हो गया। उसने पिस्तौल निकाली तब तक कुत्ता कईं केईं करता भाग गया, एनकाउंटर से बच गया।
जब घर पहुंचा तो रात हो गई थी, अपनी पत्नी के साथ जब वो सो रहा था तो खिड़की के पास लड़ैया ‘हुआ हुआ’… करने लगे। कई दिन ऐसा चलता रहा। रात को उसकी नींद हराम होती थी और दिन में कुत्ते तंग करने लगे थे।
हारकर उसने अपनी कुंडली एक ज्योतिषी को दिखाई तो ज्योतिषी ने बताया कि नेताजी आपने अपने क्षेत्र के विकास में ध्यान नहीं दिया, सरकारी फायदे उठाते रहे और राजधानी में जाकर सोते रहे। अकूत संपत्ति बनाने और पैसा खाने के चक्कर में रहे आये और जनता के दुख दर्द और परेशानियों भरे आवेदन पत्र जलाकर मुस्कराते रहे।
नेता – कोई इलाज , इनसे बचने के लिए क्या करना चाहिए ?
ज्योतिषी – सड़क किनारे की दस बारह एकड़ जमीन हमारे नाम से कर दो, जो हमारे पिताजी से छुड़ायी थी। शान्ति भी रहेगी और नींद भी आयेगी। क्या पता, पिताजी कुत्ता बन कर आपको काट लें तो ?
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# तुमने मेरा साथ दिया… #”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 128 ☆
☆ # तुमने मेरा साथ दिया… # ☆
(श्री श्याम खापर्डे द्वारा उनके विवाह की स्वर्ण जयंती पर रचित भावप्रवण रचना। हार्दिक बधाई।)
☆ विचार–पुष्प – भाग 66 – उत्तरार्ध – रामकृष्ण संघाची स्थापना ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
स्वामी विवेकानंद कलकत्त्यात होते, बंगालमध्ये उत्साहाचे वातावरण होते, योगायोगाने श्रीरामकृष्णांचा जन्मदिवस ७ मार्च ला होता. पश्चिमेकडून विवेकानंद नुकतेच आल्यामुळे हा दिवस मोठ्या प्रमाणात दक्षिणेश्वरच्या कालीमंदिरात साजरा करण्यात आला, प्रचंड गर्दी. गुरुबंधु बरोबर विवेकानंद कालीमातेचे दर्शन घेऊन श्रीरामकृष्णांच्या खोलीकडे वळले, ते ११ वर्षानी या खोलीत पाऊल ठेवत होते. मनात विचारांचा कल्लोळ होता. १६ वर्षांपूर्वी येथे प्रथम आल्यापासून ते आज पर्यन्त गुरु श्रीरामकृष्णांबरोबर चे दिवस, घडलेल्या अनेक घटना, प्रसंग आणि मिळालेली प्रेरणा- ते, हिंदू धर्माची पताका जगात फडकवून मायदेशी परतलेला नरेंद्र आज त्याच खोलीत उभा होता. त्यांच्या डोळ्यांसमोरून या कालावधीचा चित्रपटच सरकून गेला.
या वास्तव्यात विवेकानंद यांना अनेकजण भेटायला येत होते. काही जण फक्त दर्शन घ्यायला येत. काहीजण प्रश्न विचारात, काही संवाद साधत. तर कोणी त्यांचा तत्वज्ञानावरचा अधिकार पारखून घ्यायला येत. एव्हढे सगळे घडत होते मात्र स्वामी विवेकानंद यांना आता खूप शीण झाला होता. थकले होते ते.परदेशातील अखंडपणे चाललेले काम आणि प्रवास ,धावपळ, तर भारतात आल्यावरही आगमनाचे सोहळे, भेटी, आनंद लोकांशी सतत बोलणे यामुळे स्वामीजींची प्रकृती थोडी ढासळली . त्याचा परिणाम म्हणजे मधुमेय विकार जडला. आता त्यांचे सर्व पुढचे कार्यक्रम रद्द केले. आणि केवळ विश्रांति साठी दार्जिलिंग येथे वास्तव्य झाले.
त्यांना खरे तर विश्रांतीची गरज होती पण डोळ्यासमोरचे ध्येय गप्प बसू देत नव्हते. कडक पथ्यपाणी सांभाळले, शारीरिक विश्रांति मिळाली, पण मेंदूला विश्रांति नव्हतीच, त्यांच्या डोळ्यासमोर ठरवलेले नव्या स्वरूपाचे प्रचंड काम कोणावर सोपवून देणे शक्य नव्हते.
मात्र हिमालयाच्या निसर्गरम्य परिसरात साग, देवदारचे सुमारे दीडशे फुट उंचीचे वृक्ष, खोल दर्या, समोर दिसणारी बर्फाच्छादित २५ हजारांहून अधिक उंचीच्या डोंगरांची रांग, २८ हजार फुटांपेक्षा जास्त ऊंच असलेले कांचनगंगा शिखर, वातावरणातील नीरव शांतता, क्षणाक्षणाला बदलणारी आकाशातली लाल निळ्या जांभळ्या रंगांची उधळण, अशा मन उल्हसित आणि प्रसन्न करणार्या निसर्गाच्या सान्निध्यात स्वामीजी राहिल्यामुळे त्यांना मन:शान्ती मिळाली, आनंद मिळाला, बदल ही पण एक विश्रांतीच होती. एरव्ही पण आपण सामान्यपणे, “फार विचार करू नकोस, शांत रहा”, असे वाक्य एखाद्या त्रासलेल्याला समजवताना नेहमी म्हणतो. पण ही मनातल्या विचारांची प्रक्रिया थांबवणे शक्य नसते. शिवाय स्वामीजींसारख्या एखाद्या ध्येयाने झपाटलेल्या व्यक्तिला कुणीही थांबवू शकत नाही. त्यात स्वामीजींचे कार्य अजून कार्यान्वित व्हायचे होते. त्याचे चिंतन करण्यात त्यांनी मागची अनेक वर्षे घालवली होती. आता ते काम उभे करण्याची वेळ आली होती.
संस्था! एक नवी संस्था, ब्रम्हानंद आणि इतर दोन गुरुबंधु यांच्या बरोबर स्वामीजी संबंधीत विचार करून तपशील ठरवण्याच्या कामी लागले होते. येथे दार्जिलिंगच्या वास्तव्यात आपल्या संस्थेचे स्वरूप कसे असावे याचा आराखडा केला गेला. युगप्रवर्तक विवेकानंदांना आजच्या काळाला सुसंगत ठरणारी सेवाभावी, ज्ञानतत्पर, समाजहित वर्धक, शिस्त आणि अनुशासन असणारी अशी संन्याशांची संस्था नव्हे, ऑर्गनायझेशन बांधायची होती. त्याची योजना व विचार सतत त्यांच्या डोक्यात होते. ही एक क्रांतीच होती, कारण भारताला संन्यासाची हजारो वर्षांची परंपरा होती. आध्यात्मिक जीवनाचे आणि सर्वसंगपरित्याग करणार्या संन्याशाचे स्वरूप विवेकानंद यांना बदलून टाकायचे होते.
दार्जिलिंगहून १ मे १८९७ रोजी स्वामीजी कलकत्त्याला आले. तेथे त्यांनी श्रीरामकृष्णांचे संन्यासी शिष्य आणि गृहस्थाश्रमी भक्त यांची बैठक बोलवून संस्था उभी करण्याचा विचार सांगितला. पाश्चात्य देशातील संस्थांची माहिती व रचना सांगितली. आपण सर्व ज्यांच्या प्रेरणेने हे काम करीत आहोत त्या श्रीरामकृष्णांचे नाव संस्थेला असावे असा विचार मांडला. श्रीरामकृष्ण यांच्या महासमाधीला दहा वर्षे होऊन गेली होती. या काम करणार्या संस्थेचे नाव रामकृष्ण मिशन असे ठेवावे, आपण सारे याचे अनुयायी आहोत. हा त्यांचा विचार एकमताने सर्वांनी संमत केला.
पुढे संस्थेचे उद्दिष्ट्य, ध्येयधोरण ठरविण्यात आले.आवश्यक ते ठराव करण्यात आले, श्री रामकृष्णांनी आपल्या जीवनात ज्या मूल्यांचे आचरण केले, आणि मानव जातीच्या भौतिक आणि आध्यात्मिक कल्याणचा जो मार्ग दाखविला त्याचा प्रसार करणे हे संस्थेचे मुख्य ध्येय निश्चित करण्यात आले. संस्थेचे ध्येय व कार्यपद्धती आणि व्याप्ती निश्चित केल्यावर पदाधिकारी निवडण्यात आले. विवेकानंद,रामकृष्ण संघाचे पहिले अध्यक्ष निवडले गेले.आध्यात्मिक पायावर उभी असलेली एवभावी आणस्था म्हणून १९०९ मध्ये रीतसर कायद्याने नोंदणी केली गेली. विश्वस्त मंडळ स्थापन झाले. खूप काम वाढले, शाखा वाढल्या, शिक्षण, रुग्णसेवा ही कामे वाढली, १२ वर्षे काळ लोटला. आता थोडी रचना बदलण्यात आली. धार्मिक आणि आध्यात्मिक क्षेत्रात काम करणारी ती ‘रामकृष्ण मठ’ आणि सेवाकार्य करणारी ती संस्था ‘रामकृष्ण मिशन’ अशी विभागणी झाली. या कामात तरुण संन्याशी बघून अनेक तरुण या कामाकडे आकर्षित होत होते, पण अजूनही तरुण कार्यकर्ते संन्यासी कामात येणे आवश्यक होते. नवे तरुण स्वामीजी घडवत होते. या संस्थेतील संन्याशाचा धर्म, आचरण, दिनचर्या, नियम, ध्यान धारणा, व्यायाम,शास्त्र ग्रंथाचे वाचन, त्या ग्रंथाचे रोज परीक्षण समाजवून सांगणे, तंबाखू किंवा कुठलाही मादक पदार्थ मठात आणू नये. अशा नियमांची सूची व बंधने घालण्यात आली. त्या शिवाय प्रार्थना, वर्षिक उत्सव, विविध कार्यक्रमांची योजना ,अशा सर्व नियमांची आजही काटेकोरपणे अंमलबजावणी केली जाते.
स्वामी विवेकानंद यांच्या या संस्थेचे बोधवाक्य होते
|| ‘आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च’ ||
आज शंभर वर्षे आणि वर १४ वर्षे अशी ११४ वर्षे हे काम अखंडपणे सुरू आहे.