हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #184 – कविता – जब से ताबीज़ गले में बाँधा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  “जब से ताबीज़ गले में बाँधा…”)

☆  तन्मय साहित्य  #184 ☆

☆ जब से ताबीज़ गले में बाँधा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

वो बात साफ साफ कहता है   

जैसे नदिया का नीर बहता है।

 

अड़चनें राह में आये जितनी

मुस्कुराते हुए वो सहता है।

 

अपने दुख दर्द यूँ सहजता से

हर किसी से नहीं वो कहता है।

 

हर समय सोच के समन्दर में

डूबकर खुद में मगन रहता है।

 

बसन्त में बसन्त सा रहता

पतझड़ों में भी सदा महका है।

 

इतनी गहराईयों में रहकर भी

पारदर्शी सहज सतह सा है।

 

शीत से काँपती हवाओं में

जेठ सा रैन-दिवस दहता है।

 

जब से ताबीज़ गले में बाँधा

उसी दिन से वो शख्स बहका है।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 09 ☆ देव सभी पत्थर हैं… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “देव सभी पत्थर हैं।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 09 ☆ देव सभी पत्थर हैं… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

शहर गाँव

बस्ती सब जंगल है

लगता है

डर अपने आप से।

 

मन जब

शिकारी का होता है

एक अजब

पागलपन ढोता है

मृगतृष्णा

का मारा ये जीवन

कस्तूरी

उम्र व्यर्थ खोता है

 

झूठ जहाँ

सत्य की नक़ल है

पुते हुए

चेहरे हैं पाप से।

 

अर्थहीन

आदमी की प्रज्ञा है

नपुंसक

विचारों की संज्ञा है

शब्द-शब्द

रक्त में नहाया है

परिभाषित

होना अवज्ञा है

 

आदमी से

आदमी सबल है

देव सभी

पत्थर हैं शाप से।

          ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – या क्रियावान.. ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – या क्रियावान.. ??

बंजर भूमि में उत्पादकता विकसित करने पर सेमिनार हुए, चर्चाएँ हुईं। जिस भूमि पर खेती की जानी थी, तंबू लगाकर वहाँ कैम्प फायर और ‘अ नाइट इन टैंट’ का लुत्फ लिया गया। बड़ी राशि खर्च कर विशेषज्ञों से रिपोर्ट बनवायी गयी। फिर उसकी समीक्षा और नये साधन जुटाने के लिए समिति बनी। फिर उपसमितियों का दौर चलता रहा।

उधर केंचुओं का समूह, उसी भूमि के गर्भ में उतरकर एक हिस्से को उपजाऊ करने के प्रयासों में दिन-रात जुटा रहा। उस हिस्से पर आज लहलहाती फसल खड़ी है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘कवि …’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Poet…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ~ कवि ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – कवि ??

विशेषज्ञ हूँ,

तीन भुजाएँ खींचता हूँ,

तीन कोण बनाता हूँ,

तब त्रिभुज नाम दे पाता हूँ..,

तुम क्या करते हो कविवर?

विशेष कुछ नहीं,

बस, त्रिभुज में

चौथा कोण देख पाता हूँ..!

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Poet ??

I am an expert

I draw three sides

make three angles

Then I name it a triangle..,

And, what do you do, Mr Poet?

Nothing special,

Just in that triangle

I’m able to see

the fourth angle..!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 56 ⇒ कंडक्टर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कंडक्टर”।)  

? अभी अभी # 56 ⇒ कंडक्टर? श्री प्रदीप शर्मा  ?
वैसे तो कंडक्टर का कंडक्ट से कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन इसमें भी दो मत नहीं कि कंडक्टर शब्द कंडक्ट से ही बना है। फिजिक्स में गुड कंडक्टर भी होते हैं और बेड-कंडक्टर भी। मैं अपने कड़वे अतीत को भूल जाना चाहता हूँ, इसलिए फिजिक्स का पन्ना यहीं बंद करता हूँ।

कंडक्टर को हिंदी में परिचालक कहते हैं। बिना चालक के परिचालक का कोई अस्तित्व नहीं। चालक सिर्फ़ बस चलाता है, परिचालक सवारियों को भी चलाता है। ।

न जाने क्यों, जहाज के पंछी की तरह बार बार कांग्रेस काल में प्रवेश करना पड़ता है। हमारे प्रदेश के राज्य परिवहन निगम का इंतकाल हुए अर्सा गुज़र गया ! वे लाल डिब्बे के दिन थे। 3 x 2 की बड़ी-बड़ी बसें, जिनकी सीटों का फोम अकसर निकाला जा चुका होता था, लकड़ी के बचे हुए पटियों पर बिना काँच की खिड़कियों में सफर करने का मज़ा कुछ और ही था। हॉर्न को छोड़ सब कुछ बजने के मुहावरे पर रोडवेज का ही अधिकार था।

जब किसी मंत्री का, चुनाव में अनियमितता के कारण हाईकोर्ट के निर्णय पर, मंत्री-पद से इस्तीफा ले लिया जाता था, तो उन्हें तुरंत पुरस्कार-स्वरूप किसी बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया जाता था। परिवहन निगम भी ऐसे ही किसी काबिल अध्य्क्ष की भेंट चढ़ जाता था। ।

वह कम तनख्वाह और अधिक काम का ज़माना था। बसों में चालक और परिचालक को छोड़ अन्य के लिए धूम्रपान वर्जित था। ईश्वर आपकी यात्रा सुरक्षित सम्पन्न करे, जेबकतरों से सावधान, और यात्री अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करे के अलावा बिना टिकट यात्रा करना अपराध है, जैसी चेतावनियां, यथासंभव शुद्ध हिंदी में, बसों में लिखी, देखीं जा सकती थी।

पुलिस की पसंद खाकी वर्दी, चालक-परिचालक को पोशाक के रूप में प्रदान की जाती थी, जिसे वे शॉल की तरह एक तरह से ओढ़े रहते थे। बस में थूकना मना रहता था, इसलिए लोग खिड़की वाली सीट अधिक पसंद करते थे। ।

कंडक्टर का खाकी लबादा किसी सांता-क्लाज़ के परिवेश से कम नहीं रहता था। सुविधा के लिए लोग इसे खाकी-कोट भी कहते थे। एक कोट की ही तरह इसमें एक जेब सीने से लगी होती थी, तो दो बड़ी जेब नीचे, जिन्हें बीच के खुले बटन कभी आपस में मिलने नहीं देते थे। वह मोबाइल का ज़माना नहीं था। इसलिए बस जहाँ भी खराब होती थी, बस वहीं अंगद के पाँव की तरह पड़ी रहती थी, और यात्री अपनी ग्यारह नम्बर की बस के भरोसे, अर्थात पैदल ही किसी दूसरे विकल्प की तलाश में निकल पड़ते थे।

कंडक्टर के बैग में यात्रियों के लिए टिकट घर की भी व्यवस्था रहती थी। जो यात्री किसी कारणवश टिकट खिड़की से टिकट नहीं खरीद पाते थे, उन्हें त्वरित सेवा के तहत वहीं टिकट प्रदान कर दिया जाता था। एक कार्बन बिछाकर कान में लगी पेंसिल से भीड़ में खड़े-खड़े कोई कंडक्टर ही टिकट काट सकता है। हमारे सरकारी बाबू तो कुर्सी मेज पर पंखे-कूलर में बैठकर भी कभी कलम खोलने की तकलीफ नहीं करते। कंडक्टर, तुम्हें सलाम। ।

ऐसा नहीं कि कंडक्टर को फुर्सत नहीं मिलती थी। फुर्सत के क्षणों में वह एक शीट भरा करता था, जिसमें सवारियों का ब्यौरा होता था। कोई भी फ्लाइंग स्क्वाड कहीं भी, कभी भी, किसी आतंकवादी की तरह, बस को रोक सकती थी। सवारियों को पहले गिना जाता था। फिर कंडक्टर को दूर झाड़ की आड़ में खड़ी जीप के पास ले जाया जाता था और कुछ ले-देकर बस की रवानगी डाल दी जाती थी।

पुलिस के थानों की तरह ही, बस के रूट भी कंडक्टरों के ऊपरी कमाई के साधन थे। जिन रूटों पर अधिक कमाई होती थी, वहाँ कर्मचारी छुट्टी भी कम ही लेते थे। बिना मेहनत-मजदूरी के भी कहीं पापी पेट, और परिवार का हिंदुस्तान में पालन-पोषण हुआ है। यात्रियों से दिन-रात की मगजमारी, यात्रा के सभी जोखिमों से जूझना कंडक्टर के लिए किसी यातना से कम नहीं होता। आप क्या समझोगे, केवल ऑनलाइन टिकट बुक कराकर, चार्टर्ड ए.सी. बसों में यात्रा करने वाले यात्रियों ..!। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 66 ☆ पुस्तक चर्चा – “भज-नात” (सर्वधर्मिक) – आत्मकथ्य – “भावाभिव्यक्ति” ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी सद्य प्रकाशित पुस्तक “भज-नात” (सर्वधर्मिक) पर आपका आत्मकथ्य – “भावाभिव्यक्ति”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 66 ✒️

?  पुस्तक चर्चा – “भज-नात” (सर्वधर्मिक)- आत्मकथ्य – भावाभिव्यक्ति ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

सभी जानते हैं कि मेरी परवरिश गंगा-जमुनी तहजीब में हुयी । परिवार (मैका व ससुराल) में धर्म भी था और कर्म भी । घर में धर्म के साथ-साथ कर्मों पर विशेष बल दिया जाता था । क़दम उठाने से पहले यह सोचा जाता था कि कही गुनाह तो नहीं हो रहा ।

मेरी खुशकिस्मती थी कि ससुराल भी इन्हीं विचारों की मिली । मेरे पिता नेक दिल इन्सान

थे । हमको सुबह को नमाज के लिये उठा देते थे । रोज़े भी रखने पड़ते थे । वो कहते थे कि “मन्नते मानों तो रोजे, नमाज की मानो, ताकि जिस्म पर जोर पड़े । पैसे से तो सभी जन्नत खरीद सकते है। पास के मन्दिर में हम बच्चे भजन सुनने पहुँच जाते थे। हिन्दु, मुस्लिम का फर्क, बस दीवाली व ईद में चलता था । बाकी सब दिन बराबर । हमारे यहाँ सभी धर्मो का आदर किया जाता था। और आज भी है ।

विद्वानों ने संगीत को 3 भागों में विभाजित किया है- . शास्त्रीय संगीत 2. सुगम संगीत 3. लोक संगीत।

भजन को सुगम संगीत की श्रेणी में रखा गया है। हम इसे शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत की श्रेणी में रख सकते हैं। लेकिन भजन मूल रूप से देवी-देवताओं की प्रसंशा में गाया जाने वाला गीत है, जिसे ईश्वर की आराधना, उपासना की शैली में भी रखते हैं।

सभी भारतीय पद्धतियों में इसका उपयोग भक्ति-भाव के रूप में किया जाता है।

भजन मन्दिरों में भी गाये जाते है भजन को आमतौर पर हिन्दू अपने सर्वशक्तिमान को याद करके इबारत के रूप में गाते हैं।

हिन्दू धर्म को मानने वाले लोग भजन, कीर्तन पूजा के द्वारा, अपने ईश्वर की प्राप्ति के लिये इनका रास्ता अपनाते हैं। प्रार्थना करते हैं और अज्ञात शक्ति उसे पूरा करती है। भजन व कीर्तन के द्वारा की गयी प्रार्थना बहुत जल्द पूरी होती है। व्यक्ति ज्ञान, कर्म, और भक्ति के मार्गो से ईश्वर को पाने का प्रयास करता है। भजन, ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल सर्वश्रेष्ठ मार्ग है ।

भजन व कीर्तन में थोड़ा फ़र्क होता है । भजन एक गीत है और कीर्तन किसी मंत्र विशेष का उच्चारण है। जो कुछ भी है, सब ईश्वर को पाने के लिये है ।

नात का अर्थ होता है – नाता, नातेदार, सम्बन्ध। नात उर्दू साहित्य में एक इस्लामी पद्य रूप है। जिसमें पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब की तारीफ़ करते हुए लिखी जाती है। नात को बड़े अदब वे एहतिराम से गाया जाता है। अक्सर नात ए शरीफ लिखने वाले आम शायर को नात गो शायर कहते हैं, और गाने वाले को नात ख़्वां कहते हैं। नात भी एक तरह से दिल को सुकून और खुद को पैगम्बर साहब के क़रीब होने का अहसास दिलाती है। सूफ़ी सन्त इसे इबादत का जरिया मानते हैं। दूसरा जरिया कव्वाली है।

उर्दू में हम्द व सना लिखी जाती है। हम्दो सना ख़ुदा की तारीफ में लिखी जाती है। इस्लाम धर्म को मानने वाले मुस्लिम लोग इसे तरन्नुम में गाते हैं।

क्रिश्चियन लोग कारोल के माध्यम से प्रभु की प्रशंसा करते हैं। ऐसे ही सिक्ख धर्मावलम्बी संगत के द्वारा वाहे गुरू की गाकर प्रसंशा करते है। अरदास (प्रार्थना) करते हैं ।

हम कह सकते है कि भारत एक ऐसा गुलदस्ता या चमन है, जिसमें तरह-तरह के रंग-बिरंगे, खुशबू के जाति धर्म के फूल खिले हैं। मगर सभी की जमीन एक है। फिर हम अलग-अलग कैसे हो सकते हैं। हम हिन्दुस्तान के चमन के फूल हैं। अलग-अलग भाषा, प्रान्त, जाति, संस्कृति, धर्म हैं। मगर हमारी जड़े एक ही जमीन जिसका नाम हिन्दोस्तान है, से जुड़ी हुई है। जिस दिन मुस्लिम भजन और हिन्दू, नात का आदर करते हुये स्वयं को एक-दूसरे की संस्कृति, धर्म को सम्मान सहित अपनायेंगे । उस इबादत को हम भजन + नात – भजनात कहेंगे । मेरा सपना है कि हम भारतीयों में यह गंगा-जमुनी तहजीब का ईजाद हो। हम प्यार मुहब्बत से रहे। नफ़रतों की फ़सल काटें, मुहब्बत के बीज बोयें।  शायद यही एक सच्चे देशभक्त का, साहित्यकार का मजहब है। गुरुनानक देव ने कहा है।

अवल अल्लाह नूर उपाइया, क़ुदरत के सब बन्दे ।

एक नूर से सब जग उपजया, को भले को मंदे ।।

मेरा सपना है, एक दिन ऐसा आये, जब हमारा धर्म से ज्यादा कर्म पर जोर हो। तब शायद हम ना होंगे । परन्तु इसका सुख हमारी भावी नस्‍लें उठायेंगी ।

मैं अपने परिवार- बेटे-बहू, बेटी-दामाद, नाती-नातिनों, पोता-पोती को इस मार्ग पर चलते देखना चाहती हूं। सभी साहित्यकार को, भाई-बहिनों को, मेरे सरपरस्त वरिष्ठ जनों को, मित्रों -सहेलियों , पड़ोसियों को धन्यवाद देती हूँ । जिनके प्यार से मुझे ताकत मिली और मैं भज-नात पुस्तक की रचना करने में सफ़ल हुई ।

सभी वरिष्ठ जनों का मुझपर आशीष बना रहे ।

धन्यवाद

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 68 – किस्साये तालघाट… भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 68 – किस्साये तालघाट – भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

तालघाट शाखा सोमवार से शुक्रवार तक अलग मूड अलग गति से चलती थी पर शनिवार का दिन मूड और गति बदलकर रख देता था. DUD हों या WUD सब “चली गोरी पी से मिलन को चली”के मूड में उसी तरह आ जाते थे जैसे होली के ढोल बजते ही “रंग बरसे भीगे चुनरवाली” वाला रंग गुलाल मय खुमार चढ़ जाता है. जाने की खुशी पर, रविवार को नहीं आने की खुशी हावी हो जाती थी. परिवार भी अपने निजी मुख्य प्रबंधक के शनिवार को आने और रविवार को नहीं जाने के खयालों में रविवारीय प्लान बनाने में व्यस्त हो जाता था. पत्नीजी हों या संतानें, सबकी छै दिनों से सोयी अपनी अपनी डिमांड्स जागृत हो जाती थीं. पत्नियों की शपथ होती कि बंदे को “संडे याने रेस्ट डे ” नहीं मनाने देना है और ये तो मारकाट याने मार्केटिंग के लिये उपयोग में लाया जाना है. शाखा में परफॉर्मेंस कैसी भी हो पर आउटिंग में शतप्रतिशत परफारमेंस का आदेश घर पहुंचते ही हाथों के जरिए मन मष्तिष्क में जबरन घुसा दिया जाता था और तथाकथित घर के मालिकों की हालत “आसमान से गिरे तो खजूर में अटके” वाली हो जाती थी. ऐसे मौके पर उन्हें अपनी शाखा और नरम दिलवाले याने सहृदय शाखा प्रबंधक याद आते थे.

और शाखा प्रबंधक के खामोश सुरों से यह गाना निकलता “तुम तो ठहरे परदेशी साथ क्या निभाओगे, जैसे ही मिलेगा मौका, घर को भाग जाओगे” यहाँ साथ का बैंकिंग भाषा में वीकली और पी फार्म बनाने से है. अंततः जो जाने वालों के तूफान के बाद शाखा में बच जाते, वो होते परिवार सहित रहने वाले शाखा प्रबंधक और अभय कुमार. अभय कुमार कौमार्य अवस्था में थे, सबसे जूनियर पर सबसे ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ और प्रतिभा शाली स्टाफ थे. “कुमार ” न सिर्फ उनका अविवाहित होने का साइनबोर्ड था बल्कि उन्हें नितीश कुमार और आनंद कुमार और हमारे आंचलिक कार्यालय वाले “राजकुमार” वाले बिहार प्रांत का वासी होने की भी पहचान देता था. चूंकि एक बिहारी ही सबपर भारी माना जाता है तो पिता सदृश्य शाखाप्रबंधक के सानिध्य और मार्गदर्शन में अभय कुमार वीकली और पी फार्म बनाने में निपुण हो रहे थे और कम से कम इस क्षेत्र में नियंत्रक महोदय की अपेक्षाओं पर खरे उतर रहे थे. उनका याने अभय कुमार का दीर्घकालिक लक्ष्य तो द्रुतगति से कैरियर की पायदानों पर चढ़ना था पर अल्पकालिक लक्ष्य शाखाप्रबंधक का स्नेह प्राप्त करना और अपने गृहनगर के क्वार्टरली प्रवास पर कुछ दिनों की फ्रांसीसी याने फ्रेंच लीव का उपहार पाना भी होता था. चूंकि ऐसे लोग हर इस तरह की शाखा में नहीं होते थे तो शाखाप्रबंधक भी उन्हें अपने युवराज सदृश्य स्नेह और व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया करते थे और प्यार से अभिभावक की तरह डांटने का भी अधिकार पा चुके थे. रविवार का लंच बिना स्टाफ की संगत के हो नहीं सकता तो रविवार के विशेष पक्के भोजन (पूड़ी, पुलाव और छोले) के साथ खीर की मृदुलता युवराज याने अभय कुमार की आंखों को तरल कर देती थीं और इस परिवार का साथ और संरक्षण और साप्ताहिक फीस्ट पाकर न केवल वे तृप्त थे बल्कि “होम सिकनेस” नामक सिंड्रोम से भी दूर हो जाते थे.

नोट : ये हमारी बैंक की दुनियां थी जहाँ रिश्तों के हिसाब किताब का कोई लेजर नहीं होता. हम बैंक में जिनके साथ होते हैं, वही हमारी दुनियां में रंग भरते हैं और रंग कैसे हों ये हम पर ही निर्भर करता. कुछ खोकर भी बहुत कुछ पा लेने वाले ही बैंकिंग के जादूगर कहलाते हैं और अगर आप चाहें तो बाजीगर भी कह सकते हैं. अगर आप चाहेंगे तो यह श्रंखला आगे भी जारी रह सकती है. खामोशी और निष्क्रियता में ज्यादा फासले नहीं होते.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 184 ☆ मर्मबंधातली ठेव ही… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 184 ?

🌸 मर्मबंधातली ठेव ही… 🌸 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

तुला पाहिलं एका कार्यक्रमात,

त्याच्या बरोबरच!

प्रेमलग्न का  ?

विचारलं त्याला—

तसं छानसं हसून,

‘हो’ म्हणाला !

खूप छान वाटली,

तुमची जोडी!

नंतर….

कुठल्याशा लग्नात…

छान सजलेली तू …

एखाद्या स्वप्नसुंदरी…सारखीच !

तू असायचीच त्याच्याबरोबर,

असलीस, नसलीस तरीही…

अपूर्णच दोघे,

एकमेकांशिवाय!

“मेड फॉर

  इच अदर”

अशीच जोडी ‐—-

तरीही–

दोघांचं स्वतंत्र अस्तित्व!

तुझ्या कसोटीच्या

 क्षणीही,

 त्यानं तुला असं हळूवार

जपताना पाहून ,

जाणवून जातं,

नुसतीच तनामनाची,

नाती नसतातच ही…

नजरच सांगून जाते…

प्राण ओतलेला असतो

एकमेकांत!

तुमच्या दोघांविषयी वाटणारं,

जे काही…दुसरं -तिसरं ,

काही नाही …

 ही ठेव मर्मबंधातली !

© प्रभा सोनवणे

२५ मे २०२३

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “त्या” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “त्या” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

किती आल्या अन किती गेल्या

काही घुटमळल्या, काही थांबल्या

काही बोलल्या, काही बुजल्या

काही हसल्या अन काही रडल्या ।

 

थांबणाऱ्या नंतर आबोल झाल्या

जाणाऱ्या न बोलता बोलून गेल्या

हसणाऱ्या हसत हसत रडवून गेल्या

रडणाऱ्या नंतर हास्यास्पद झाल्या ।

 

काही मात्र जिवाभावाच्या झाल्या

जणू माझेच प्रतिबिंब झाल्या

काही हवा करून गेल्या

काही हवेत विरून गेल्या ।

 

पण….

 

सगळ्याच काहीतरी शिकवून गेल्या

प्रगतीत माझ्या हातभार झाल्या

आयुष्याच्या रखरखीत उन्हात

माझ्या ‘कविता‘ माझी सावली झाल्या ।

© श्री आशिष मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “फोन स्टोरी…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

श्री कौस्तुभ परांजपे

? विविधा ?

☆ “फोन स्टोरी…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

फोनवर बोलणाऱ्यांचे किती प्रकार सांगता येतील. काहींना निरोप सांगितला, किंवा मिळाला, की फोन ठेवण्याची घाई असते. काही फक्त हं……. बरे……. ठिक आहे……. बघतो……. चालेल….. नक्की असे म्हणत फोन ठेवतात. आपल्याला अजूनही काही सांगायचे असते‌…… पण त्याने फोन ठेवल्याने आपण फक्त फोनकडे बघतो…. कारण फोन ठेवणारा आपल्या समोर नसतो. (मग आपण सवडीने त्याला बघतो.)

पण बायकांचे फोनचे तंत्र वेगळेच असते. ज्या कारणासाठी फोन केला आहे तो विषय सोडून इतर विषयांवर देखील थोडक्यात विस्तृत चर्चा करण्याचे कसब यांच्याकडे असते.

हे समजण्याचे कारण आज सकाळी झालेले फोन. विषय साधाच होता. केरला स्टोरी सिनेमा बघायला जायचे का? किती वाजता? सह जायचे की आपले आपण…..

पहिला फोन झाला….. जायचे की नाही या चर्चेत काय सुरू आहे?….. अशी सुरुवात झाली……स्वयंपाक…….  पलीकडून उत्तर……. मग आज काय करते आहेस? यावर भाजी पोळी पासून आमरसापर्यंत सगळा स्वयंपाक फोनवर सांगून झाला…… आता त्यांच्याकडची भाजी आम्हाला नवीन होती…… झालं….. केरला स्टोरी थोडी बाजूला राहिली, आणि भाजीची स्टोरी (डायरेक्शन सह) अगोदर संपली…….

मग दुसरा फोन…… (पहिला फोन संपेपर्यंत माझा चहा गरम करून, पिऊन देखील संपला होता.) परत सुरुवात काय करतेस? केरला स्टोरी ला जायचे का?….. हो जाऊ……. पण आत्ता साडी खरेदी करायला जाणार आहे……. मग काय? कुठे? कोण? काय विशेष? यावर माहिती असणाऱ्या सगळ्या साड्यांच्या प्रकाराची आणि काय घ्यायचे यांची स्टोरी फोनवरच सुरू झाली……. (तो पर्यंत दुध वर येते आहे का ते बघणे, आणि कुकरच्या तीन शिट्या झाल्या की गॅस बंद करायची जबाबदारी माझ्यावर होती ती देखील संपली. कदाचित प्रेशर देखील उतरले असावे…….. यांच्या लांबलेल्या फोनमुळे कुकरने देखील रागारागातच शिट्या दिल्या असाव्यात असे वाटले.) पण फोन सुरुच……. केरला स्टोरी अगोदर साडी स्टोरी झाली…..

कपड्यांच्या बाबतीत मला यांचे कळत नाही……. (हे त्यांनी पदोपदी खरेतर पदरोपदरी मला ऐकवले आहे……) म्हणजे यांनी नवीन कपडे घेतल्यामुळे यांचे आधीचे कपडे जुने होतात. का कपडे जुने झाल्यामुळे हे नवीन कपडे घेतात. (आधी कोंबडी की आधी अंड इतकाच हा कठीण प्रश्न आहे.)

अजुनही फोन करायचे होतेच. मग तिसरा फोन…….. तो पर्यंत माझे मोबाईलवर कोणत्या ठिकाणी किती वाजता

शो आहेत याचा अभ्यास सुरू झाला होता. यांची परत फोन लाऊन विचारणा सुरू झाली. केरला स्टोरी…….. बास येवढेच म्हटले असेल…….. तो पर्यंत पलिकडून हो…. नक्की……. मी पण तेच विचारणार होते……… मागचा एक कार्यक्रम माझा मिस झाला…….. मग तो मिस झालेला कार्यक्रम कोणता होता……. तो कसा मिस झाला……. यावर त्यांची (मिसींग) स्टोरी….. आणि त्याच कार्यक्रमात किती मजा आली……. कोण कोण आले होते…….. यावर यांची स्टोरी…….. असा स्टोरी टेलींगचा कार्यक्रम सुरू झाला…… यांच्या स्टोरी संपेपर्यंत माझा जवळपास सगळा पेपर वाचून झाला होता…….

शेवटी एकदाचे किती जणांनी आणि कोणत्या शो ला जायचे हे ठरले आणि मी तिकिटे बुक करायला फोन हातात घेतला.

आता जेवणानंतर कोण कसे येणार…. आपण कोणाला कुठून बरोबर घ्यायचे की आपण कोणाबरोबर जायचे यासाठी परत फोन होतीलच. तेव्हा अजुनही काही वेगळ्या स्टोरी ऐकायला येतीलच……

अशी ही केरला स्टोरी ची तिकीटे काढायची स्टोरी……

©  श्री कौस्तुभ परांजपे

मो 9579032601

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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