(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – हरि की माँ
हरि को गोद में आए केवल दस महीने हुए थे जब हरि का बाप उसे हमेशा के लिए छोड़कर चला गया। हरि की माँ ने हिम्मत नहीं हारी। हरि की माँ हरि के लिए डटकर खड़ी रही। हरि की माँ को कई बार मरने के हालात से गुज़रना पड़ा पर हरि की माँ नहीं मरी।
हरि की माँ बीते बाईस बरस मर-मरकर ज़िंदा रही। हरि की माँ मर सकती ही नहीं थी, उसे हरि को बड़ा जो करना था।
हरि बड़ा हो गया। हरि ने शादी कर ली। हरि की घरवाली पैसेवाली थी। हरि उसके साथ, अपने ससुराल में रहने लगा। हरि की माँ फिर अकेली हो गई।
हरि की माँ की साँसें उस रोज़ अकस्मात ऊपर-नीचे होने लगीं। हरि की माँ की पड़ोसन अपनी बेटी की मदद से किसी तरह उसे सरकारी अस्पताल ले आई। हरि की माँ को जाँचकर डॉक्टर ने बताया, ज़िंदा है, साँस चल रही है।
हरि की माँ नीमबेहोशी में बुदबुदाई, ‘साँस चलना याने ज़िंदा रहना होता है क्या?’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सर्कस“।)
अभी अभी # 35 ⇒ सर्कस… श्री प्रदीप शर्मा
हम लोगों ने बचपन में कॉमिक्स नहीं पढ़े, टीवी पर डिस्ने वर्ल्ड, पोगो और nicks जैसे बच्चों के प्रोग्राम नहीं देखे, नर्सरी राइम्स नहीं गाई, बस अमर चित्र कथा पढ़ी और पिताजी के साथ सर्कस देखा।
घर के पास ही तो था, चिमनबाग मैदान जहां अक्सर सर्कस का तंबू गड़ जाता था, जोर शोर से सड़कों, मोहल्लों पर प्रचार प्रसार होता था, आपके शहर में शीघ्र आ रहा है, खूंखार शेर के हैरतअंगेज कारनामे और मौत के कुएं में करतब दिखाते फटफटी सवार। दिल दहला देने वाले और मनोरंजन से भरपूर करतबों के साथ जेमिनी सर्कस। रोजाना दो शो ! दोपहर ३.३० बजे और शाम ६.३० बजे।।
दिन भर जानवरों के चीखने, चिंघाड़ने की आवाज तो घर तक ही सुनाई दे जाती थी। रात को सर्च लाइट के द्वारा पूरे शहर में रोशनी फैलाई जाती थी, और आखरी शो के सबसे अंतिम प्रोग्राम मौत के कुएं में फटफटी चलाने की आवाज भी हम घर बैठे ही सुन लेते थे।
सर्कस के करतबों में और सर्कस में चल रहे संगीत के बीच गजब का तालमेल रहता था। संगीत मन को न केवल एकाग्र ही करता है, अपितु भयमुक्त भी बनाता है। संतुलन में एकाग्रता चाहिए और सैकड़ों दर्शकों के बीच चाहे झूले के करतब हों, अथवा चलती साइकिल पर अविश्वसनीय व्यायाम बच्चों का खेल नहीं।।
फिल्मों में अभिनय होता है, ट्रिक फोटोग्राफी होती है, जो भी होता है, सिर्फ पर्दे पर होता है, लेकिन सर्कस का प्रदर्शन जीवन्त होता है, आंखों के सामने होता है, जहां हर पल खतरा ही खतरा है, गहरा जोखिम है। दुबली पतली, गुड़िया जैसी सुंदर लड़कियां सर्कस की जान होती हैं, लेकिन बड़ी सस्ती होती है, इनकी जान की कीमत।
बॉन्बे सर्कस को दुनिया का सबसे बड़ा सर्कस माना जाता है। द ग्रेट इंडियन सर्कस भारत का सबसे पहला सर्कस था जिसे विष्णुपंत मोरेश्वर द्वारा स्थापित किया गया था।हमारे शोमैन राजकपूर भी पीछे नहीं रहे। फिल्मी पर्दे पर भी मेरा नाम जोकर ले ही आए।।
राजकपूर की टीम भी बड़ी विचित्र थी। जूता जापानी, पतलून इंग्लिस्तानी, सर पर लाल टोपी रूसी उनकी टीम की असली पहचान थी, लेकिन दिल तो हिंदुस्तानी था, कोई शक ? और शायद इसीलिए मेरा नाम जोकर में हमें रशियन पात्र नजर आते हैं, और नजर आती है प्रेम कहानी, जो राजकपूर की कमजोरी है।
सिर्फ मेरा नाम जोकर का ही नहीं, आवारा और श्री४२० का भी रशिया में।खूब प्रचार हुआ। राजकपूर की टीम का रूस में भव्य स्वागत हुआ। हमारा देश, आय लव माय इंडिया तो बहुत समय बाद हुआ है। लेकिन कोई इंसान एक शोमैन यूं ही नहीं बन जाता। शैलेंद्र ने अपने गीतों में इसका पूरा ख्याल रखा ;
होठों पे सचाई रहती है
जहां दिल में सफाई रहती है।
हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में गंगा बहती है।।
एक सर्कस के जोकर के प्रति भले ही राजकपूर ने भले ही करुणा पैदा कर दी हो, ताश में भले ही एक जोकर का बोलबाला हो, असली जीवन में जोकर अभी भी हंसी और अपमान का ही पात्र है।
क्या आपको भी नहीं लगता कि आज का विपक्ष, महज एक bunch of Jokers यानी जोकरों का समूह है।
जंगली जानवरों पर तो आदमी सदियों से, शिकार के बहाने, अत्याचार करता चला आया है, क्या सर्कस में भी उन्हें पहले पिंजरे में बंद कर, और फिर हंटर से डरा डराकर तमाशे और मनोरंजन का पात्र नहीं बनाया जा रहा। हमसे अधिक जागरूक इस बारे में पशु पक्षी संरक्षण कानून है। वैसे भी राजनीतिक सर्कस और कॉमेडी सर्कस के रहते, सर्कस के दिन तो कब के लद गए। टीवी पर ही इतने सनसनीखेज और रोमांचक प्रोग्राम देखने को मिल जाते हैं कि दर्शक तौबा कर लेता है। आजकल बच्चों को वैसे भी सर्कस में नहीं मोबाइल पर ब्लू व्हेल जैसे खतरों से खेलने में अधिक आनंद जो आने लग गया है।।
(ई-अभिव्यक्ति में श्री अरविन्द मोहन नायक जी का हार्दिक स्वागत। जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से इलेक्ट्रॉनिक्स एवं टेलीकम्यूनिकेशन में स्नातक। सार्वजनिक क्षेत्रों में 37 वर्षों में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए ओएनजीसी से महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत। कंप्यूटर सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के स्थानीय एवं राष्ट्रीय स्तर की समितियों में वरिष्ठ पदों का सफलतापूर्वक निर्वहन। आजीवन सदस्यता – FIETE, FIEI, SMCSI, MISTD। प्रकाशित कार्य – चार काव्य संकलन, यथा – ‘प्रयास’, ‘एहसास’, ‘आरोह’ एवं ‘सफर’। भावी योजनाएँ (सूक्ष्म संकेत) – लेखन के साथ-साथ जन जागरण और युवाओं में नई चेतना के संचार हेतु प्रयासरत। हम आपके साहित्य को अपने प्रबुद्ध पाठकों से समय -समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना ‘दीदार यूँ भले न हो‘।)
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
शाखा में मंगलवार का प्रारंभ तो शुभता लेकर आया पर उनको लेकर नहीं आया जिनसे काउंटर शोभायमान होते हैं. मौसम गर्मियों का था और बैंकिंग हॉल किसी सुपरहिट फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो की भीड़ से मुकाबला कर रहा था. ये स्थिति रोज नहीं बनती पर बस/ट्रेन के लेट होने की स्थिति में और बैंकिंग केलैंडर के विशेष दिनों में होती है. जब भी ब्रेक के बाद बैंक खुलते हैं तो आने वाले कस्टमर्स हमेशा यह एहसास दिलाते हैं कि बैंक उनके लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने हमारे लिए. यह महत्वपूर्ण होना ही कस्टमर्स का, विशेषकर ग्रामीण और अर्धशहरीय क्षेत्रों के कस्टमर्स का, हमसे अपेक्षाओं का सृजन करता है. विपरीत परिस्थितियों को पारकर या उनपर विजय कर कस्टमर्स की भीड़ को देखते देखते विरल करने की कला से हमारे बैंक के कर्मवीर सिद्धहस्त हैं और जब शाखाप्रबंधक अपने चैंबर से बाहर निकलकर इस रणभूमि में पदार्पण करते हैं तो शाखा की आर्मी का उत्साह और गति दोनों कई गुना बढ़ जाती है.
शाखा प्रबंधक जी के बैंकीय संस्कारों में भी यही गुण था और उस पर उनकी धार्मिकता से जड़ित सज्जनता ने इस विषम स्थिति पर बहुत शालीन और वीरतापूर्ण ढंग से विजय पाई. बस/ट्रेन के लेट आने पर देर से आने वाले भी इस संग्राम में चुपचाप जुड़ गये और अपने दर्शकों याने कस्टमर्स के सामने बेहतरीन टीमवर्क का उदाहरण पेश किया. कुछ कस्टमर्स की प्रतिक्रिया बड़े काम की थी “कि माना कि शुरुआत में परेशान थे पर “बिना लटकाये, टरकाये, रिश्वतखोरी” के हमारा काम हो गया. बहुत बड़ी बात यह भी रही कि इन बैंक के कर्मवीरों में इस प्रक्रिया में पद, कैडर, मनमुटाव, व्यक्तिगत श्रेष्ठता कहीं नजर नहीं आ रही थी. बैंक में आये लोगों के काम को निपटाने की भावना नीचे से ऊपर तक एक सुर में ध्वनित हो रही थी और यह भेद करना मुश्किल था कि कौन मैनेजर है और कौन मेसेंजर. जिनका बैंक में पदार्पण के साथ ही कस्टमर्स की भीड़ से सामना होता है, वो ऐसी विषम स्थितियों से घबराते नहीं है बल्कि अपने साहस, कार्यक्षमता, हाजिरजवाबी और चुटीलेपन से तनाव को आनंद में बदल देते हैं. इसमें वही शाखा प्रबंधक सफल होते हैं जो अपने कक्ष में कैद न होकर बैंकिंग हॉल की रणभूमि में साथ खड़े होते हैं. जैसा कि परिपाटी थी, विषमता से भरे इस दिन की समाप्ति सामूहिक और विशिष्ट लंच से हुई जिसने “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना को सुदृढ़ किया. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं.
नोट: किस्साये चाकघाट जारी रहेगा क्योंकि यही हमारी मूलभूत पहचान है. राजनीति, धर्म और आंचलिकता हमें विभाजित नहीं कर सकती क्योंकि हमें बैंक ने अपने फेविकॉल से जोड़ा है.
(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशनाधीन ।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)
☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… पिया प्रीत के गीत… ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆
☆ संत एकनाथांची गौळण : एक भावानुभव! ☆ रसग्रहण – प्रा. भारती जोगी ☆
संत एकनाथांची गौळण : एक भावानुभव! 🙏🏻
असा कसा देवाचा देव बाई ठकडा
देव एका पायाने लंगडा! शिंकेचि तोडितो मडकेचि फोडितो
करी दह्या दुधाचा रबडा! वाळवंटी जातो किर्तन करितो
घेतो साधुसंतांसी झगडा! एका जनार्दनी भिक्षा वाढा बाई
देव एकनाथाचा बछडा!!
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मराठी भाषेचे पहिले संपादक संत म्हणजे…संत एकनाथ! भागवत धर्माचे जे चार बळकट खांब आहेत ; त्यांपैकी एक…भागवत ग्रंथ प्रदान करणारे संत एकनाथ! मानवी जीवनातील उच्च मूल्यांची ओळख करून देणारे…एक उत्तम साधक, कथा-कथक, ज्ञान प्रसारक!एक उत्कृष्ट कीर्तनकार!!त्यांनी अमृताहुनी गोड अशा मराठी भाषेला लोकभाषा बनवली. साधी सोपी सर्वांना समजेल अशी, निरूपणातील भाषेपेक्षा , प्रबोधन करणारी, सामान्यांना कळेल अशी भाषा वापरून गौळण हा काव्यप्रकार समाज मनात रूढ केला रूजवला. सुंदर अशा काव्य वैभवाने नटलेला हा काव्यप्रकार श्रोत्यांची गानसमाधी लावणारा, भक्ती चे अमृतपान करविणारा ठरला. श्रोते तन्मयतेने डोलू लागले. अशाच एका प्रसिद्ध गौळणीचा आनंद लुटू यात… शब्द वैभव, शब्द योजनेतली चतुराई, नादमाधुर्य आणि कानांत रुंजी घालत रहाणारे शब्द… या सगळ्याच शब्द गुंफणीचा अनोखा अनुभव देणारी ही गौळण!!
एकनाथांनी लोकांना समजेल अशी साधी सोपी सुलभ भाषाशैली वापरत लोकव्यवहारातील शब्द वापरलेली ही गौळण….देवाबरोबर सलगी साधत, लटक्या तक्रारीच्या सुरात एकनाथ सांगताहेत…
” आश्चर्य च नाही कां हे??? अहो, हा रांगणारा बाळकृष्ण लंगडा म्हणवला जात असला तरी मोठा ठकडा आहे. लब्बाड आहे.भुरळ घालून कधी डोळ्यात धूळ घालून… फसवून गोपींच्या घरी जाऊन… शिंकं तोडून, मडकं फोडून,दही-दूध सांडून त्याचा रबडा करतो..पत्ताच लागत नाही. एकनाथांनी कृष्णाच्या बाललीलांचं वर्णन करतांना लोकव्यवहारातील ठकडा हा शब्द प्रयोग करत..यमक चा प्रभाव साधत… काव्यात गेयता तर आणलीच आहे… पण जोडीला जो एक ठसका जाणवतोयं ना त्यात त्यामुळे साधलेली परिणाम कारकता आणि मना-मनांची घेतलेली पकड.. .शब्दातीत!! मधुरा भक्ती चा अननूभूत असा अविष्कार आहे ही गौळण! ही भक्ती लोकांपर्यंत पोहोचावी म्हणून च एकनाथांनी लोकभाषा आणि बोली भाषेतील शब्द प्रयोग केला आहे.
संस्कृत भाषेतील ज्ञानामृत सर्वसामान्यांना मिळावे यासाठी एकनाथ विद्वत्जनांचा विरोध सहन करत…वाळवंटी जाऊन किर्तन करीत. एकनाथ आपल्या कवनांत आपल्या गुरूदेवांचा नेहमीच उल्लेख करत… एका जनार्दनी!!!!🙏🏻 ही त्यांची नाममुद्रा च आहे! या गौळणीत शेवटी एकनाथांनी त्यांच्या लाडक्या देवाशी… त्याला बछडा असं संबोधत… फक्त साहचर्य च नाही तर एकरूपत्व. …तद् रूपत्व लाभावे अशी भिक्षा मागत कृपादृष्टी चं दान पदरात द्यावं अशी याचना ही केलीयं! प्रपंच आणि परमार्थ यांचा मेळ घालत लोकभाषेतील शब्द बद्ध असा हा गीत प्रकार समाजात त्यातल्या सहजता आणि सुलभता, गेयता या रचनावैशिष्ठ्यांमुळे जास्त रूजला, बहरला, कीर्तन-भजनात म्हंटला जाऊ लागला. वरील गौळण आजही मोठ्या ठसक्यात आणि तिच्या शब्दालंकार युक्त लावण्या चा आस्वाद देत श्रोत्यांच्या मनात ठसते हे वेगळं सांगायला नको ना??
☆ तीन अनुवादित लघुकथा ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆
(1) अतिसामान्य तडफड – श्री संतोष सुपेकर (2) सन्मानास कारण की — सुश्री मीरा जैन (3) पुन्हा कधीतरी — श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’
☆ ☆ ☆ ☆ ☆
☆ अतिसामान्य तडफड – श्री संतोष सुपेकर ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆
नुकतंच त्याचं कॉलेज शिक्षण पूर्ण झालं होतं, आणि एक नवा ‘ सामान्य ‘ माणूस म्हणून तो या जगात प्रत्यक्ष पाय टाकू पहात होता.
एक दिवस तो एका जगप्रसिद्ध मंदिरात गेला.. ‘ नवं आयुष्य सुरु करण्यापूर्वी देवाच्या पाया पडावं आणि त्याचे आशिर्वाद घ्यावेत ‘ असं त्याला मनापासून वाटलं होतं. पण आत जाताच तिथे लागलेली लांबलचक रांग पाहून तो चक्रावूनच गेला – “ बाप रे … इतकी मोठी रांग ? “ तो नकळत म्हणाला.
“ हो रे भावा.. अशी खूप मोठी रांग लागणं हे रोजचंच आहे इथे.. “ शेजारी उभे असलेले एक गृहस्थ आपणहून त्याला म्हणाले.
“ अशाने तर देवाचं दर्शन होईपर्यंत संध्याकाळ होईल इथेच .. “ घड्याळ बघत तो वैतागून म्हणाला.
“ अरे बाबा, संध्याकाळ कसली.. रात्र जरी झाली तरी त्यात विशेष काही नाही. “
“ आणि ती रांग? तिथे काय आहे ? “….. या रांगेला समांतर, पण जराशी अंतरावर असलेली तशीच एक रांग पाहून त्याला आश्चर्य वाटलं .. “ त्या रांगेतले लोक जरा जास्त शिकले-सवरलेले आणि श्रीमंत असावेत असं वाटतंय मला . “
.. ‘ आता या मुलाला वास्तव कळायलाच हवे ‘ या हेतूने, त्याच्याहून वयस्क असणारे ते गृहस्थ शांतपणे त्याला म्हणाले … “ असतीलही त्या रांगेतली माणसं थोडी श्रीमंत… पण बाळा, ही रांग नावाची गोष्ट आहे ना ती प्रत्येक माणसाला त्याचे स्थान … किंवा योग्यता म्हणू या … दाखवून देतेच . तीही एक रांगच आहे
— फक्त “paid line “….
“paid line ? – पण ती रांगही या रांगेइतकीच लांब आहे की.. मग तरी अशी वेगळी का ? “
“ ते … ते काय आहे ना बाळा… या सामान्य.. म्हणजे general रांगेत उभं रहावं लागू नये ना, एवढ्याचसाठी लावलेली आहे ती वेगळी ‘स्पेशल’ रांग…. फक्त तेवढ्याचसाठी ही धडपड …पैसे देऊन …. बाकी काही नाही . पण शेवटी उभं रहावं लागतं आहे रांगेतच “ ……
मूळ हिंदी कथा – ‘आम छटपटाहट’ – कथाकार – श्री संतोष सुपेकर
अनुवाद : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे
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☆ सन्मानास कारण की (अनुवादित लघुकथा) — सुश्री मीरा जैन ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆
“ वृद्धाश्रमाचे सर्वश्रेष्ठ संचालक “ हा एक मानाचा समजला जाणारा सामाजिक सन्मान यावर्षी कुणाला मिळणार हे त्या कार्यक्रमात घोषित करण्यात येणार होते. त्यासाठी उत्सुक असणाऱ्यांची आणि अर्थातच त्यांच्या आप्तांची बरीच गर्दी तिथे जमलेली होती.
अखेर एकदाचा तो क्षण आला. निर्णायक मंडळाने या सन्मानाचे मानकरी म्हणून श्री. गौतम यांच्या नावाची घोषणा केली —– आणि —- आणि तिथे उपस्थित असलेल्या इतर संचालकांमध्ये अस्वस्थ कुजबुज सुरु झाली. ज्या एका संचालकांना स्वतःलाच हा सन्मान मिळणार याची पुरेपूर खात्री वाटत होती, त्यांचा राग तर अनावर व्हायला लागला होता….. “ काय ? त्या गौतमला हा सन्मान मिळतो आहे ? – हे कसं शक्य आहे ? – माझा वृध्दाश्रम तर इतका स्वच्छ असतो कायम, आणि इतरही खूप सोयी-सुविधा आहेत तिथे. एवढंच नाही, तर मी जेव्हापासून त्या आश्रमाचा कारभार सांभाळायला लागलो आहे तेव्हापासून तिथल्या व्यवस्थेत सातत्याने काही ना काही सुधारणा होताहेत. म्हणूनच आधी जिथे फक्त दहा वृद्ध होते, तिथे आता पन्नास वृद्ध रहाताहेत. आणि या गौतमचा आश्रम — तिथे एकूण व्यवस्था कशी काय आहे कोण जाणे , कारण मी कधीच तिथे गेलेलो नाही. पण आकडे मात्र असं सांगताहेत की गौतम जेव्हापासून तिथला कारभार पाहतोय, तेव्हापासून वृद्धांची संख्या सतत रोडावत चालली आहे. आता तर फक्त वीस वृद्ध उरलेत म्हणे तिथे….. नक्कीच काहीतरी गडबड असणार तिथे, ज्यामुळे ही संख्या सारखी कमीच व्हायला लागली आहे. तरी त्याचा सन्मान ???? नक्कीच काहीतरी चमचेगिरी केलेली असणार …. नाहीतर त्या गौतमने निर्णायक मंडळाचे खिसे गरम केलेले असणार …. दुसरं काय ? “
तेवढ्यात ट्रॉफी घेण्यासाठी श्री. गौतम मंचावर आले. निर्णायक मंडळाच्या अध्यक्षांनी त्यांचे अगदी मनापासून भरभरून कौतुक करतांना सांगितले की — “ आम्ही तुम्हा सर्वांच्या संस्थांचे निरीक्षण केले. प्रत्येक ठिकाणी वृद्धांची व्यवस्था अगदी उत्तम ठेवली जाते हे आम्ही पाहिले. पण या सन्मानासाठी गौतमजी यांचं नाव निवडलं जाण्याचं कारण हे आहे की,, आज त्यांच्या संस्थेत फक्त निपुत्रिक वृद्ध तेवढे रहात आहेत. बाकीच्यांना त्यांच्या मुलाबाळांबरोबर राहता यावे म्हणून त्यांनी स्वतः अथक प्रयत्न केले आहेत – करत आहेत, आणि त्यांना परत स्वतःच्या घरी पाठवण्यात त्यांनी अभूतपूर्व असे यशही मिळवलेले आहे. आणि हे त्यांचं काम मुळातच खूप मोठं आणि अद्वितीय, अद्भुत म्हणावं असंच आहे. “ —
मूळ हिंदी कथा – ‘सन्मानकी वजह’ – कथाकार – सुश्री मीरा जैन
अनुवाद : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे
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☆ पुन्हा कधीतरी (अनुवादित लघुकथा) — श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆
‘‘साधारण किती पैसे मिळतील?” अयोध्या प्रसाद, ऊर्फ ए.पी.च्या बायकोने विचारलं. पगार वाढ होणार अशी घोषणा झाली होती, आपल्याला किती ॲरिअर्स मिळतील याचा ते दोघे हिशोब करत बसले होते.
‘‘मिळतील बहुतेक चोवीस-पंचवीस हजार…”
‘‘फक्त एवढेच?” त्याच्या हातात चहाचा कप देत तिने विचारलं.
‘‘हो, टॅक्सही कापला जाईल ना गं.”
‘‘हो तर, तुम्हा लोकांचा एक पैसाही लपून रहात नाही. सगळ्यात आधी, आणि तुम्हाला न विचारताच टॅक्स कापून घेतात.”
शेजारीच अभ्यास करत बसलेल्या पम्मीचं लक्ष बहुतेक त्या दोघांच्या बोलण्याकडेच होतं… ‘‘बाबा, आता तरी मला सायकल आणता येईल ना?” तिने मध्येच विचारलं.
‘‘हो बाळा, नक्की आणता येईल.”
‘‘पण मी गिअरवाली सायकलच घेणार हं!”
‘‘नको, आत्ता साधीच घे बाळा. गियरवाल्या सायकलची किंमत किती जास्त सांगताहेत, ऐकलंस ना? फार महाग आहे ती. दहा हजारांपेक्षाही जास्त किंमतीची.”
‘‘आई, घ्यायची असली तर गियरवालीच घ्यायची. मला साधी सायकल नकोय. माझ्या सगळ्या मैत्रिणींकडे गिअरवाली सायकल आहे, मग फक्त माझ्याकडेच का नाही?”
‘‘ठीक आहे. गियरवालीच घेऊ या. पण या वर्षीही तुला ‘ए’ ग्रेडच मिळाली पाहिजे… तरच…” ए.पीं.नी तिला अट घातली.
‘‘तुम्ही गियरवाली सायकल घेऊन दिलीत ना, तर नक्कीच मिळेल यावर्षीही ‘ए’ ग्रेड.’’
‘‘तुम्ही तर काय हो? विनाकारण डोक्यावर बसवताय तिला…”
‘‘अगं एकतर मुलगी आहे आपली. आणि सायकलने जायला लागली, तर बसचे पैसेही वाचतील ना,” ए.पीं.नी हळूच बायकोला म्हटलं.
‘‘बरं, मी काय म्हणत होते… यावेळी आईंना ‘गुजरात दर्शन’ सहलीला पाठवायचं का? गेल्या तीन वर्षांपासून म्हणताहेत त्या. पण दरवेळी काही ना काही सबब सांगून मी त्यांचं म्हणणं टाळते आहे.”
‘‘एकूण किती खर्च सांगताहेत?”
‘‘आठ हजारात होईल सगळं धरून, आणि मुख्य म्हणजे यावेळी त्यांच्या दोन मैत्रिणी चालल्यात या ट्रीपला. दोघी येऊन सांगून गेल्या तसं. आई म्हणत होत्या की त्या दोघींची सोबत असली, तर काळजी करण्याचं काही कारणच असणार नाही.”
‘‘कधीपर्यंत करावं लागेल बुकींग?”
‘‘अजून दोन आठवड्यांची मुदत आहे. तोपर्यंत ॲरिअर्स मिळतीलच ना? आणि समजा नाही मिळाले, तरी ते गजानन-ट्रॅव्हल्सवाले आपल्या ओळखीचे आहेत. थोडा जास्त वेळ देतील ते आपल्याला.”
‘‘ठीक आहे. तूच त्यांच्याशी बोल, आणि बुकींग करून टाक.”
‘‘आणि हो… शक्य असेल तर आणखी एक छोटंसं काम करून घ्यायचं आहे.”
‘‘कोणतं काम?”
‘‘माझं मंगळसूत्र तुटलंय्. गेल्या दिवाळीत दुरूस्त केलं होतं, पण आता परत तुटलंय्. खरं तर त्याची चेन बरीच झिजून गेली आहे. सोनार म्हणत होता की आणखी एक-दोन ग्रॅम सोनं घातलं, तर ती पक्की होईल.”
‘‘म्हणजे ६-७ हजार तर नक्कीच लागतील.”
‘‘हो, हल्ली सोन्याचा भाव किती वाढलाय. मी नुसती काळी पोत वापरते आहे आता. पण कुठे बाहेर जायचं असेल, तर ते बरं नाही वाटत.”
‘‘घे मग करून तसं,” ए.पी. म्हणाले, आणि त्यांनी हिशोबाचा कागद बाजूला ठेवून दिला.
चहाचे कप उचलून बायको आत निघून गेली. पम्मी पुन्हा अभ्यास करायला लागली. ए.पी. गुपचुप आतल्या खोलीत गेले… ‘आता हे कपडे वापरायचे नाहीत’ असं ठरवून, कपड्यांचं जे एक गाठोडं त्यांनी बांधून बाजूला काढून ठेवलं होतं, ते उचलून घेऊन त्यांनी उघडलं. एवढ्यातच त्यात टाकलेल्या दोन पॅंटस् काढून, त्या उजेडात नेऊन त्यांनी नीट पाहिल्या… चांगल्या दोन-चारदा झटकल्या… आणि ‘आता तुमचा नंबर पुन्हा केव्हातरी’, असं मनातच म्हणत, इस्त्रीला द्यायच्या कपड्यांच्या बॅगेत त्या नेऊन ठेवल्या.
मूळ हिंदी कथा – ‘फिर कभी’ – कथाकार – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’
अनुवाद : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे
९८२२८४६७६२.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ “देहाची कॅपिटल व्हॅल्यू” ☆ श्री राजेंद्र वैशंपायन☆
नुकतीच एक गमतीशीर बातमी वाचली. अमेरिकेमध्ये दर वर्षी एक कोटी पन्नास लाख (१,५०,००,०००) इतक्या दातांच्या रूट कॅनालच्या केसेस होतात. प्रत्येक रूट कॅनाल चा सरासरी खर्च ८०० डॉलर्स इतका असतो. म्हणजे दरवर्षी अमेरिकेमध्ये १२ अब्ज डॉलर्स (१२,००,००,००,०००) इतका खर्च केवळ दातांच्या रूट कॅनाल वर होतो. या सरासरी अंदाजित संख्या जरी धरल्या तरी १० अब्ज डॉलर तरी केवळ दातांच्या इलाजासाठी खर्च होतात असं नक्कीच म्हणता येईल. मी चक्रावलोच. रूट कॅनाल सारख्या साधारणतः सोप्या समजल्या जाणाऱ्या शस्त्रक्रियेचा जर हा खर्च असेल तर बाकीच्या अवयवांच्या त्या मानाने अधिक गुंतागुंतीच्या शस्त्रक्रियांचा खर्च तर माझ्या विचार करण्यापलीकडे गेला. म्हणजे अगदी पायांच्या नखापासून ते डोक्याच्या केसांपर्यंत प्रत्येक अवयवाची किंमत काढायचं ठरवलं तर एक मनुष्यदेह किती किमतीचा असेल? माझं कुतूहल अधिक चाळवलं गेलं आणि जरा अधिक माहितीसाठी गुगल महाराजांना विचारलं की केसाचं ट्रान्सप्लांट होतं त्यावेळा एक केस ट्रान्सप्लांट करण्याचा काय खर्च आहे? उत्तर आलं एका केसाला ३ डॉलर ते ९ डॉलर. त्याची सरासरी धरली तर उत्तर ६ डॉलर. सामान्यपणे माणसाच्या डोक्यावर सरासरी दीड लाख(१,५०,०००) इतके केस असतात. म्हणजे याचाच अर्थ माणसाच्या डोक्यावरच्या केसांचीच किंमत साधारणपणे ९ लाख डॉलर इतकी आहे. मी अधिकच चक्रावलो. या संख्या डोळ्यासमोर आल्या आणि एकंदर मनुष्यदेहाची किंमत किती येईल हे गणितही माझ्याच्याने पूर्ण होईना.
विचार करताना शरीराची सगळी आकृती समोर उभी राहिली. हात, पाय, त्यांची बोटं, डोळे, कान, नाक, श्वासनलिका, अन्ननलिका, फुफुस, हाडांचा सापळा, हृदय, यकृत, प्लिहा, लहान आतडं मोठं आतडं, जननेंद्रिय, रक्त, इतर एन्झाइम्स आणि सर्वात महत्वाचा मेंदू… काय चमत्कार आहे शरीर म्हणजे. मी एका ठिकाणी वाचलं होतं की माणसाच्या शरीरात चालणाऱ्या ज्या सगळ्या व्यवस्था आहेत, यांची शरीरात चालणाऱ्या अचूकतेने प्रतिकृती करायची म्हटली तर कमीत कमी पाच एकर इतका मोठा आणि अतिशय क्लिष्ट यंत्रांनी बनलेला कारखाना निर्माण करावा लागेल. आणि हेच काम निसर्गाने म्हणा, ईश्वराने म्हणा सहा फूट लांब दीड फूट रुंद अशा मानवी देहात करून दाखवलं आहे. एका तज्ज्ञाने सांगितलेलं मी ऐकलं आहे की शरीरातील अवयव हे साधारणपणे 150 ते 200 वर्ष पर्यंतसुद्धा सक्षमपणे काम करू शकतात आणि म्हणूनच एका शरीरातून दान केलेले अवयव दुसऱ्या शरीरात पुन्हा व्यवस्थित आयुष्यभर काम करतात. माणसाच्या देहाची ही शक्ती आहे, हा चमत्कारच नाही का? चमत्कार म्हणजे वेगळा अजून काय असू शकतो?
मनात आलं, फुकट मिळाला म्हणून कसा देह वापरतो आपण. देहाचा प्रत्येक अवयव संपूर्ण आयुष्यभर माणसाने केलेल्या अत्याचाराचा भडीमार सहन करत करत शक्य होईल तितकी साथ देण्याचा प्रयत्न करतो आणि माणूस देहाला पायपोस असल्यासारखं का वागवतो? काहीही खातो, कधीही खातो, काहीही पितो कधीही पितो, कधीही झोपतो, कधीही उठतो. व्यसनं करतो आणि काय काय. का असं? ज्या परमेश्वराने हा चमत्कार प्रयेक मनुष्याला बहाल केला आहे त्याची किंमत आहे का आपल्याला? आपण ३००० रुपयाचा साधा चस्मा, त्याची किती काळजी घेतो त्याला नीट केसमध्ये ठेवतो पण तशी डोळ्यांची काळजी घेतो का? कॉन्टॅक्ट लेन्सेस अगदी काळजीपूर्वक दररोज रात्री सोलुशनमध्ये बुडवून ठेवतो पण डोळ्यांसाठी दिवसातून एकदातरी नेत्रस्नान करतो का? जसं डोळ्याचं तसंच इतर अवयवांचं. आपल्या संस्कृतीत अष्टांगयोग आणि आयुर्वेद हे दोन अमृतकुंभ या देह नावाच्या चमत्काराचा सांभाळ करण्यासाठीच दिले आहेत. शरीरात बिघाड होऊच नये म्हणून अष्टांगयोग आणि काही कारणांनी झालाच तर पुन्हा पूर्ववत शरीर करण्यासाठी आयुर्वेद. या दोघांचा किती सुंदर मेळ आपल्या संस्कृतीत घालून दिलेला आहे. किती भाग्यवान आहोत आपण की आयुष्यातील प्रत्येक गोष्ट अनुभवण्यासाठी शरीर नावाची सुंदर भेट आपल्याला ईश्वराने दिलेली आहे. त्याचा निदान योग्य तो सांभाळ करण्याची जबाबदारी आपली नाही का?
मी लहानपणी एक प्रार्थना शिकलो की जी मी दररोज रात्री निजण्याअगोदर म्हणतो. ती प्रार्थना अशी;
डोळ्यांनी बघतो, ध्वनी परिसतो कानी, पदी चालतो ।
जिव्हेने रस चाखतो, मधुरसे वाचे आम्ही बोलतो।
हाताने बहुसाळ काम करितो, विश्रांतीही घ्यावया ।
घेतो झोप सुखे, फिरोन उठतो, ही ईश्वराची दया ।।
मी ही प्रार्थना हात जोडून म्हणतो. पण मला वाटतं या प्रार्थनेचं अधिक महत्व पटण्यासाठी आणि मनावर याचा गांभीर्याने परिणाम होण्यासाठी मी ही प्रार्थना खिशात हात घालून म्हटली पाहिजे. कारण तरच दररोज आठवण राहील की या देहाची एकूण कॅपिटल व्हॅल्यू किती! किती अमूल्य आहे हा देह. आणि खिशात हात घालून प्रार्थना केल्यामुळे याचीही आठवण राहील की माझ्या शरीराची मीच जर काळजी नाही घेतली तर त्याच खिशातून एकेक केस परत मिळवण्यासाठी सहा डॉलर बाहेर काढायला लागतील कधीतरी…