हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 139 – “सकारात्मकता से संकल्प विजय का”. . .” – सम्पादन – सुश्री मंजु प्रभा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री मंजु प्रभा जी की संपादित पुस्तक  सकारात्मकता से संकल्प विजय कापर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 139 ☆

☆“सकारात्मकता से संकल्प विजय का”. . .” – सम्पादन – सुश्री मंजु प्रभा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

सकारात्मकता से संकल्प विजय का

संपादन मंजु प्रभा

दधीची देहदान समिति

प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली

मूल्य चार सौ रुपये, पृष्ठ १८०, प्रकाशन वर्ष २०२२

चर्चा. . . विवेक रंजन श्रीवास्तव

☆ स्वास्थ्य विमर्श पर साहित्य की यह किताब अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

वर्ष २०२० के पहले त्रैमास में ही सदी में होने वाली महामारी कोरोना का आतंक दुनिया पर हावी होता चला गया. दुनिया घरो में लाक डाउन हो गई. कोरोना काल सदी की त्रासदी है. वर्तमान पीढ़ी के लिये यह न भूतो न भविष्यति वाली विचित्र स्थिति थी. आवागमन बाधित दुनियां में संपर्क के लिये इंटरनेट बड़ा सहारा बना. दूसरी कोरोना लहर के कठिन समय में मोबाइल की घंटी से भी किसी अप्रिय सूचना का भय सताने लगा था. अंततोगत्वा शासन और आम आदमी के समवेत प्रयासो की, जीवंतता की, सकारात्मकता का संघर्ष विजयी हुआ. रचनात्मकता नही रुकी. मानवीयता मुखरित हुई. कोरोना काल साहित्य के लिये भी एक सक्रिय रचनाकाल के रूप में जाना जायेगा. इस कालावधि में एकाकीपन से निपटने लेखन के जरिये लोगों ने अपनी भावाभिव्यक्ति की. इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक, गूगल मीट, जूम जैसे संसाधनो के प्रयोग करते हुये ढ़ेर सारे आयोजन हुये. यू ट्यूब इन सबसे भरा हुआ है.

विगत पच्चीस बरसों से दिल्ली एन सी आर में सक्रिय समाजसेवी संस्था दधीची देहदान समिति ने भी स्वस्फूर्त कोरोना से लड़ने का बीड़ा उठाकर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये. जब आम आदमी विवशता में मन से टूट रहा था, सकारात्मकता के विस्तार की आवश्यकता को समझ कर एक आनलाइन व्याख्यानमाला आयोजित की गई. हमेशा से वैचारिक पृष्ठभुमि ही जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है. सकारात्मक विचार ही जीवन संबल बनते हैं. दस दिनो तक कोरोना की विषमता से निपटने के लिये जन सामान्य में मानसिक ऊर्जा का नव संचार मनीषियों के चिंतन पूर्ण वैचारिक संप्रेषण से संभव हुआ. आन लाइन व्याख्यान की तात्कालिक पहुंच भले ही दूर दूर तक होती है, किन्तु वे शाश्वत संबोधन भी तब तक चिर जीवी संदर्भ नहीं बन पाते जब तक उन व्याख्यानो को पुस्तक का स्थाई स्वरूप न मिले. मंजु प्रभा जी ने यह जिम्मेदारी कुशलता पूर्वक उठाकर यह कृति “सकारात्मकता से संकल्प विजय का “ प्रस्तुत की है. इस द्विभाषी पुस्तक में हिन्दी और अंग्रेजी में स्थाई महत्व की सामग्री चार खण्डो में संग्रहित है. पहले खण्ड में तत्कालीन उप राष्ट्रपति एम वैंकैया नायडू का देहदानियों के सम्मान उत्सव के अवसर पर संबोधन संपादित स्वरूप में शामिल है, उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि- अंगदान से न केवल आप दूसरे के शरीर में जीवित बने रहते हैं बल्कि मानवता को भी जीवित रखते हैं. शंकराचार्य विजयेंद्र सरस्वती जी ने अपने व्याख्यान में अशोक वाटिका में सीता जी के हतोत्साहित मन में सकारात्मकता के नव संचार करने वाले हनुमान जी के सीता जी से संवाद वाले प्रसंग की व्याख्या की है. मोहन भागवत जी ने अपने लेख में ” सक्सेज इज नाट फाइनल, फेल्युअर इज नाट फेटल, द करेज टु कंटीन्यू इज द आनली थिंग दैट मैटर्स “ की विशद व्याख्या की है. उन्होंने चर्चिल को उधृत किया है “वी आर नाट इंटरेस्टेड इन पासिबिलिटीज आफ डिफीट, दे डू नाट एक्जिस्ट “. अजीज प्रेम जी ने आव्हान किया है ” कम टुगेदर एन्ड दू एवरी थिंग वी कैन “. उन्होने कहा कि ” दि कंट्री मस्ट कम टुगेदर एज वन. “ सदगुरु जग्गी वासुदेव जी ने विवेचना करते हुये बताया कि ” दि प्राबलेम इज दैट वी आर मोर डेडीकेटेड टु आवर लाइफ स्टाइल देन अवर लाइफ इटसेल्फ “. उन्होनें समझाया कि ” हाउ वी कैन बी पार्ट आफ द सोल्यूशन “. श्री श्री रविशंकर जी ने कहा कि इस वक्त हमें करनी होगी वही बात कि निर्बल के बल राम. ईश्वर पर विश्वास ही हमको मानसिक तनाव से दूर रखता है. उन्होंने बताया कि योग, प्राणायाम, ध्यान और समुचित आहार ही जीवन का सही रास्ता है.

साध्वी ॠतंभरा के कथन का सार था कि “शुभ कर्मो के बिना कभी भी हुआ नहीं निस्तारा, जीत लिया जिसने मन उसने जीत लिया जग सारा, ५ स दुनियां का सार एक है नित्य अबाध रवानी, अपनी राह बना लेता है, खुद ही बहता पानी “

महंत संत ज्ञानदेव सिंह जी ने अपने व्यक्त्व्य में संदेश दिया “उठो जागो और अपने स्वरूप को पहचानो “. मुनि प्रमाण सागर जी ने मन को प्रबल बनाये रखने कासंदेश दिया उन्होने कहा कि तन की बीमारी को कभी भी मन पर हावी न होने दें. प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंग ने कला को संबल बताया, हमारी हाबी ही हमें मानसिक शारीरिक व्याधियों से बचाकर निकाल लाती है. उन्होंने पाजीटिविटी, ग्रेच्युटी, और प्रेयर का महत्व प्रतिपादित किया. निवेदिता भिड़े जी ने कहा कि जो विष धारण करने की क्षमता विकसित कर लेता है, अंततोगत्वा वही जीतता है और अमृत पीता है. उन्होंने स्वामी विवेकानंद की पुस्तक पावर्स आफ द माइंड का उल्लेख किया. श्री रामरक्षा स्तोत्र  तथा विष्णु सहस्त्र नाम का भी उन्होने महात्म्य समझाया.

समाज के विभिन्न क्षेत्रो की आइकानिक हस्तियों को एक मंच पर इकट्ठा करके एक विषय पर केंद्रित आलेखों का उनका यह संग्रह एक संदर्भ कृति बन गया है. आलोक कुमार जी का आलेख कोरोना और युगधर्म पठनीय है. पुस्तक के दूसरे खण्ड “वे लड़े कोरोना से” में उन कुछ व्यक्तियों की चर्चा है जिन्होंने इस लड़ाई में अपना योगदान दिया है, यद्यपि कहना होगा कि यह खण्ड ही अत्यंत वृहत हो सकता है, क्योंकि हर शहर ऐसे विलक्षण समर्पित जोशीले लोगों से भरा हुआ था तब तो हम कोरोना को हरा सके हैं, किन्तु जो भी सात आठ प्रासंगिक उल्लेख पुस्तक में समावेशित हो सका वह एक प्रतिनिधी चित्र तो अंकित करता ही है. तीसरा खण्ड कथाएं अनुपम त्याग की में समिति के मूल उद्देश्य अंग दान को लेकर महत्वपूर्ण सामग्री है. प्रायः हमें अखबारों में भागते वाहनो में अंग प्रत्यारोपण के लिये ग्रीन कारीडोर की कबरें पढ़ने मिलती हैं. हमारा देश दधीचि का देश है, राजा शिवि का देश है. अंगदान को प्रोत्साहन देता यह खण्ड चिंतन मनन के लिये विवश करता है. चौथे खण्ड में दधीची देहदान समिति के कार्यों का वर्णन है. बीच बीच में समिति के क्रिया कलापों, आयोजनो आदि के चित्र व टेस्टीमोनियल्स भी लगाये गये हैं. एक समीक्षक की दृष्टि से मेरा सुझाव है कि बेहतर होता यदि ये चारों ही खण्ड प्रत्येक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो पाता. इसी तरह हिन्दी तथा अंग्रेजी के आलेख एक साथ रखने की अपेक्षा उनके अनुवादित तथा संपादित आलेख तैयार करके दोनो भाषाओ की दो अलग अलग पुस्तकें बनाई जातीं. यद्यपि यह खिचड़ी प्रयोग भी नवाचारी है. अस्तु मैं दधीची देहदान समिति के इस स्तुत्य साहित्यिक प्रयास की मन से अभ्यर्थना करता हूं. स्वास्थ्य विमर्श पर साहित्य की यह किताब अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ प्रस्तुत करने के लिये मंजु प्रभा जी को हार्दिक बधाई और पुस्तक प्रकाशन हेतु वित्त सुलभ करवाने हेतु लाला दीवान चंद ट्रस्ट तथा प्रकाशन के लिये प्रभात प्रकाशन का भी आभार. यह किताब कोरोना संकट के मानसिक तनाव से उबरने का दस्तावेज बन पड़ी है, पठनीय और संदर्भो के लिये संग्रहणीय है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 55 ⇒ डबल-बेड… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डबल-बेड”।)  

? अभी अभी # 55 ⇒ डबल-बेड? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आदमी शादीशुदा है या कुंवारा, यह उसके बेड से पता चल जाता है। अगर सिंगल है, तो सिंगल बेड, अगर डबल हो तो डबल- बेड! क्या डबल से अधिक का भी कोई प्रावधान है हमारे यहाँ!

हमारे कमरे-नुमा घर में बेड की कोई व्यवस्था नहीं होती थी। परिवार बड़ा था, घर छोटा! लाइन से बिस्तर लगते थे। बड़ों-बुजुर्गों के लिए एक खाट की व्यवस्था होती थी, जो गर्मी और ठण्ड में घर से बाहर पड़ी रहती थी। घर में प्रवेश केवल निवार के पलंग का होता था। परिवार में पहला लकड़ी का पलंग बहन की शादी के वक्त बना था, जो बहन के ही साथ दहेज में ससुराल चला गया। ।

कक्षा पाँच तक हमारे स्कूल में अंग्रेज़ी ज्ञान निषिद्ध था! Bad बेड और boy बॉय के अलावा अंग्रेज़ी के सब अक्षर काले ही नज़र आते थे। अक्षर ज्ञान में जब bed बेड पढ़ा तो उसका अर्थ भी बिस्तर ही बताया गया, पलंग नहीं।

घर में जब पहला जर्मन स्टील का बड़ा बेड आया, तब भी वह पलंग ही कहलाया, क्योंकि उस बेचारे के लिए कोई बेड-रूम उपलब्ध नहीं था। एक लकड़ी के फ्रेम-नुमा स्थान को टिन के पतरों से ढँककर बनाये स्थान में वह पलंग शोभायमान हुआ और वही हमारे परिवार का ड्राइंग रूम, लिविंग रूम और बेड-रूम कहलाया। पलंग पिताजी के लिए विशेष रूप से बड़े भाई साहब ने बनवाया था, जिस पर रात में मच्छरदानी तन जाती थी। एक पालतू बिल्ली के अलावा हमें भी बारी बारी से उस पलंग पर सोने का सुख प्राप्त होता था। आज न वह घर है, न पलंग, और न ही पूज्य पिताजी! लेकिन आज, 40 वर्ष बाद भी सपने में वही घर, वही पलंग, और पिताजी नज़र आ ही जाते हैं। ।

आज जिसे हम बेड-रूम कहते हैं, उसे पहले शयन-कक्ष की संज्ञा दी जाती थी। कितना सात्विक और शालीन शब्द है, शयन-कक्ष, मानो पूजा-घर हो! और बेड-रूम ? नाम से ही खयालों में खलबली मच जाती है। आप किसी के घर में ताक-झाँक कर लें, चलेगा। लेकिन किसी के बेडरूम में अनधिकृत प्रवेश वर्जित है। बेड रूम वह स्थान है, जहाँ व्यक्ति जो काम आज़ादी से कर सकता है, वही काम अगर वह खुले में करे, तो अशोभनीय हो जाता है।

आदमी जब नया मकान बनाता है, तब सबको शान से किचन के साथ अपना बेडरूम और अटैच बाथ बताना भी नहीं भूलता। ज़मीन से फ़्लैट में पहुँचते इंसान को आजकल सिंगल और डबल BHK यानी बेड-हॉल-किचन से ही संतोष करना पड़ता है। ।

आजकल के संपन्न परिवारों में व्यक्तिगत बेडरूम के अलावा एक मास्टर बैडरूम भी होता है जिस पर परिवार के सभी सदस्य बेड-टी के साथ ब्रेकफास्ट टीवी का भी आनंद लेते है, महिलाएँ दोपहर में सास, बहू और साजिश में व्यस्त हो जाती हैं, और रात का डिनर भी सनसनी के साथ ही होता है। बाद में यह मास्टर बैडरूम बच्चों के हवाले कर दिया जाता है और लोग अपने अपने बेडरूम में गुड नाईट के साथ समा जाते हैं।

नींद किसी सिंगल अथवा डबल-बेड की मोहताज़ नहीं! गद्दा कुर्ल-ऑन का हो, या स्लीप-वेल का, कमरे में भले ही ए सी लगा हो, लोग रात-भर करवटें बदलते रहते हैं, ढेरों स्लीपिंग पिल्स भी खा लेते हैं, लेकिन तनाव है कि रात को भी चैन की नींद सोने नहीं देता। वहीं कुछ लोग इतने निश्चिंत और बेफ़िक्र होते हैं कि जब गहरी नींद आती है तो उन्हें यह भी होश नहीं रहता, वे कुंआरे हैं या शादीशुदा। उनका बेड सिंगल है या डबल। ऐसे घोड़े बेचकर सोने वालों की धर्मपत्नियों को भी मज़बूरी में ही सही, धार्मिक होना ही पड़ता है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 159 – गलती से सीख ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं बालसुलभता  पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “गलती से सीख”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 159 ☆

☆ लघुकथा – गलती से सीख

मालती मैडम अपने बगीचे में घूम रही थी। अभी शहर से स्थानांतरण पर वह गाँव के एक स्कूल में प्रधानाध्यापिका बन कर आई थी। स्कूल के पास ही उसने मकान लिया। उस मकान में चारों तरफ आम के वृक्ष थे। अभी गर्मी की छुट्टियां चल रही थी। मकान में जब मालती मैडम का परिवार रहने आया परिवार के नाम पर सिर्फ उसके पति देव और एक काम करने वाला नौकर। उनका अपना बेटा बाहर नौकरी करता था।

आम वृक्ष पर लगे फल दिखने शुरू हो गए थे और बगीचा भी आम की खुशबू से महक उठा था। सुनने में आया था वह कभी किसी को अपने घर आने जाने देना पसंद नहीं करती थी। अक्सर गाँव के बच्चे खेलते खेलते, वहाँ आते, पेड़ पर लगे फलों पर पत्थर मारते और दो चार आम गिरते, वहीं मिल बांट कर खा लिया करते।

उनके अपने बालपन का अभिन्न अंग बन गया था। खेलते खेलते आकर वही हैंडपंप में पानी भी पी लिया करती थे। चों – चों की आवाज करती उस हैंडपंप को भी बच्चों का इंतजार रहता था। परंतु जब से मालती मैडम आई थी किसी ने कह दिया था “मैडम बहुत सख्त है। कोई नहीं जाएगा, नहीं तो सजा मिलेगी।” बच्चे सहमे वहाँ तक जाते और बस लौट कर चले आते। पर मन में बात उनकी ठहर जाती थी।

आज हिम्मत करके दो बच्चे किसी तरह बगीचे में घुसे। बाकी सब बाहर तांके खड़े थे। खिड़की से मालती देख रही थी। अनायास अपने बेटे के हाथ पर लगी चोट और पुलिस थाना से लेकर कोर्ट कचहरी तक की बात को याद कर वह सहम गई। चुपचाप अनजान बन दूसरे कमरे में चली गई। मालती को वह घटना याद आ गई जब उसका अपना बेटा छोटा था और वह एक आम के बगीचे में आम तोड़ने की सजा उसे मिली थी। मन को आज भी नम  कर रहा था और उसी के कारण वह कभी किसी बच्चे को अपने यहाँ आने नहीं देना चाहती थी।

स्कूल में भी उनका व्यवहार सख्त था। परंतु आज बच्चों की सहमे चुपचाप चलने और बाल सुलभ चंचलता को देख मन बदल गया। वह बाहर निकल ही रही थी। बच्चे भागने लगे, पर देखा मैडम स्वयं बुला रही है और बांस की लंबी लकड़ी से आम तोड़ती नजर आ रही थी। अब तक जो बच्चे बाहर खड़े थे लगभग सभी बगीचे के अंदर आ गए।

उनका उछलना कूदना आज मैडम मालती को बहुत अच्छा लग रहा था। सच!!! इंसान अपनी गलती से ही कुछ सुधार कर सिखता है और आज भी यदि इन  बच्चों को क्रूरता से भगा देती तो यह प्रसन्नता का पल खो देती। अपने जीवन को और अधिक बोझिल और अकेलापन फिर से बना लेती।

आज बरसों बाद मैडम मालती को असीम शांति और प्रसन्नता हो रही थी। आम को जेबों में भर कर हाथ हिलाते बच्चों को आज मालती खड़ी हो कर हाथ हिला रही थी। पतिदेव की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने धीरे से कहा “मेरा गाँव आना सार्थक हो गया।”

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 36 – देश-परदेश – बूट पॉलिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 36 ☆ देश-परदेश – बूट पॉलिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त फोटो अमेरिका के बोस्टन शहर के हवाई अड्डे पर खींचा था। दो महराजा स्टाइल की कुर्सियां जैसे विवाह में नवविवाहितों के लिए ऊंचे मंच पर रखी होती हैं, उसी प्रकार से यहां हवाई अड्डे के अंदर रखी हुई थी, उसी के ऊपर ये बोर्ड लगा हुआ हैं। दो सज्जन अच्छी कद काठी वाले यात्रियों की तरफ लालियत निगाहों से जूते पोलिश करने का इंतजार करते रहते हैं। हमने रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर जूते साफ करने वाले ब्रश से थक थक करने की आवाज़ से ग्राहकों को रिझाते हुए तो अनेकों वर्षों से देखा और महसूस भी किया हैं। लेकिन विमानतल पर पहली बार ये सुविधा देखने को मिली।

हमारी जल्दी पहुंचने की अदातानुसार यहां भी हम निर्धारित समय से बहुत पूर्व ही अपना आसन जमा चुके थे। ये पॉलिश सुविधा की दुकान हमारे बोर्डिंग के अंत्यंत ही करीब थी।

भाव तालिका पर नजर डाली तो जूते के दस अमरीकी रूपे और बूट के पंद्रह राशि अंकित थी। जूते और बूट में अंतर समझने के लिए गूगल बाबा का सहरा लिया, तब कुछ अंतर समझ सके। बचपन से हम तो दिल्ली बूट हाउस या बॉम्बे बूट नामक  से ही  चप्पल,  जूता आदि खरीदते थे।

बूट पॉलिश करने वाले ने जब हमारे पैरों की तरफ नज़र डाली तो थोड़ा सा मुस्करा दिया, क्योंकि हम तो खिलाड़ी (स्पोर्ट्स) जूते पहने हुए थे। बातचीत का सिलसिला आरंभ हुआ तो उसने दुःखी मन से बताया की अब अधिकतर स्पोर्ट्स जूते ही उपयोग करने लगे हैं। उनकी रोज़ी रोटी मुश्किल हो गई हैं। उसी समय वर्दीधारी सज्जन ऊंची कुर्सी पर विराजमान हो गए और एक पॉलिश करने वाला नीचे बैठ कर जूते को चमकाने लगा। कुछ समय में वो बिना पैसे, धन्यवाद बोल कर विदा हो गया। हमने इसका कारण पूछा तो वो बोला ये पायलट है, इसलिए इनको मुफ्त सुविधा, प्रशासन द्वारा उपलब्ध हैं।

हमारे देश में भी स्टेशन/ बस स्टैंड का स्टाफ ऐसे कार्य फ्री में ही करवाता हैं। वैसे पुलिस वाले तो सभी सुविधाएं फ्री में लेने को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं।

हम लोग तो अधिकतर घर पर ही जूते पोलिश करते हैं,  लेकिन जब किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए जाते है, तो अवश्य बूट पालिश वालों की सेवाएं लेते हैं। जैसे की विवाह के लिए लड़की देखने जाना या नौकरी में साक्षात्कार पर जाना हो आदि। इस प्रकार हाथ से कार्य करते बहुत कम लोग ही विदेशों में देखने को मिलते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्वाक्षरी… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ स्वाक्षरी… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

(पादाकुलक)

तुझ्यातले ते झपाटलेले

शमू दे वेड्या सुसाट वादळ

तू आता हो नि:शब्द सळसळ !

 

घनव्याकुळ ना उरले कोणी

कोणास्तव हे दाटुन येणे

टपटप झरणे प्राण उधळणे ?

 

अपार होते परंतु मिथ्या

त्या गगनाने दिधले पंख

त्या गगनाचा जन्मा डंख !

 

कितिदा त्यांनी बळी घेतला

तरी क्रूस हा तुजला प्यारा

तुझ्या जगाचा न्यायच न्यारा !

 

कुठवर लढशिल रण एकाकी

पत्कर तूही दुनियादारी

आणि तहावर करी स्वाक्षरी !

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #190 ☆ सराव… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 190 ?

☆ सराव… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

दुःखांत पोहण्याचा इतका सराव आहे

वाट्यास खूप छोटा आला तलाव आहे

मी सोसल्या उन्हाचे दुःख का करावे ?

त्या तप्त भावनांशी माझा लगाव आहे

केला विरोध जेव्हा मी भ्रष्ट यंत्रणेचा

नाठाळ एक झाले आला दबाव आहे

मारून त्या बिचाऱ्या गेले टवाळ सारे

आता सभोवताली जमला जमाव आहे

उपवास नित्य शनिचा केला जरी इथे मी

हट्टी ग्रहा तुझा रे वक्री स्वभाव आहे

दारी तुझ्या प्रभू मी याचक म्हणून आलो

झाली तुझी कृपा अन् सरला तनाव आहे

यात्रा करून येथे थकलेत पाय माझे

दारात ईश्वराच्या पुढचा पडाव आहे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “चित्रपटनगरीची जादू…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “चित्रपटनगरीची जादू…” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

चित्रपटनगरी तशी अफलातून नगरी.  हे तसं म्हंटलं तर वादळी क्षेत्र.ह्याची दुनियाच वेगळी. ह्या क्षेत्रात सगळंच मुळी बेभरवशाचं बघा.काहींना अल्पावधीतच यश मिळतं तर काहींची हे यश मिळविण्यासाठी संपूर्ण कारकिर्दच पणाला लागते.कुणाला हे यश स्वतःच्या रुपावर मिळतं तर काहींच यश हे त्यांचा उच्चप्रतीचा अभिनय ओढून आणतो. काहींना पचवता येणार नाही इतकी अलोट संपत्ती येथून मिळते तर काहींना ही मायानगरी अक्षरशः कंगाल बनविते. पण तरीही बहुतेकांच्या मनात ह्या चित्रपटसृष्टीविषयी आवड,उत्सुकता, कुतूहल हे असतं, अगदीच खासकरून अभिनेते वा अभिनेत्रींबाबत.

ह्या नगरीत अनेक आवडते कलाकार आपली कला फुलवित भरघोस योगदान देतात  तर काही व्यक्तींनी ह्या क्षेत्रात भरघोस योगदान देण्याआधीच एक्झीट घेतलीयं.

ही मायानगरी म्हणजे एक अख्ख भलमोठं कुटूंबच असत जणू. कुटूंबाप्रमाणेच सगळी कामं ही वेगवेगळ्या लोकांनी वाटून घेतलेली असतात. ह्या क्षेत्राचे कायम आपल्या सामान्य जनतेला आकर्षण, उत्सुकता वाटत असते.काळ खरच खूप बदललायं. आता ह्या मध्ये चांगले वाईट हा वादग्रस्त मुद्दा विचारात न घेता फक्त एक गोष्ट नक्कीच मान्य करुया ,की ह्मा बदलत्या काळामुळे स्थित्यंतरे आलीत, गोष्टी मुळासकट खूप बदलत गेल्यात.काही चांगल्या गोष्टी काळाच्या उदरात गडप झाल्यात तर काही चांगल्या गोष्टींचा उदय पण झाला. असो शेवटी कालाय तस्मै नमः हेच खर.

बदलत्या काळानुसार, वयानुसार आवडीनिवडी ह्या खूप बदलतात. प्रत्येक वयाच्या विशिष्ट टप्प्यावर आपल्या आवडी वा गरजा ह्यामध्ये आमुलाग्र बदल होतो.खरतरं आपण व्यक्ती त्याच असतो पण आपलाच आपल्या बदलत्या आवडी बघितल्यावर प्रश्न पडतो खरचं आपण त्याच व्यक्त आहोत?

अगदी उदाहरणादाखल बघितले तर आपली स्वतःची चित्रपटांची आवड,चित्रपट बघण्याची क्रेझ, त्यासाठी करावी लागणारी खटपट, ह्या विषयातील चोखंदळपणा ह्यात जमीनआसमान चा फरक पडलाय, किंबहुना अजूनही पडतोय.

लहानपणी वा तरुणवयात आठवड्यातून एकदाच टीव्हीवर बघायला मिळणारा चित्रपट हे एक खूप मोठे आकर्षण होते.त्यासाठी त्या दिवसात घरच्यांनी सांगितलेली कामे,अभ्यास ह्या गोष्टी नियमानुसार कटाक्षाने पाळाव्याच लागतं.तेव्हा सर्रास थिएटरमध्ये जाऊन सिनेमा बघायची पद्धत. नव्हती.आधी पालक त्या चित्रपटविषयी जाणून घेऊन मगच सठीसहामाशी आपल्या मुलांना एखादा चित्रपट बघण्यासाठी परवानगी देत असतं. फक्त शाळे कडून दाखविल्या जाणारे इतिहास वा सामाजिक विषयक चित्रपट बघायला मिळायचे.असो तो काळच वेगळा होता.

तरुण वयात फारसा कथानकाचा विचार न करता गाणी,हाणामारी ह्यांनी भरलेले चित्रपट हा आकर्षणाचा केंद्रबिंदू असायचे. नंतर जस वय वाढत गेलं,जरा प्रगल्भता आली तेव्हा कथा

दिग्दर्शक  कलावंत ह्याकडे काळजीपूर्वक चोखंदळपणे अभ्यासपूर्ण बघून मग चित्रपट बघण्याची जाण आली.आणि आता तर अजून थोड वय पुढ गेल्यावर फारशी चित्रपट बघण्याची ईच्छा वा इतका वेळ देण्याचा स्टँमिना पण नाही राहीला.

पूर्वी चित्रपट कमी बघायला मिळायचे म्हणूनही कदाचित त्याची जास्त ओढ होती. अति मिळालं की नाविन्य,गोडी संपुष्टात येते त्यानुसार टीव्ही, वाहिन्या, थिएटर ह्यांच्या मुबलकतेमुळे चित्रपट बघण्यातील गोडवाच कुठेतरी हरवून गेला असं वाटतं.पण त्या चंदेरी आठवणी मात्र  कायम  असतात.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ रानपाखरू – भाग ३ – लेखिका – डॉ. क्षमा शेलार ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई ☆

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

?जीवनरंग ?

☆ रानपाखरू – भाग ३ –  लेखिका – डॉ. क्षमा शेलार ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई ☆

 (मागील; भागात आपण पाहिले – तिनं पार पक्कं ठरीवलं.संध्याकाळची हुरहूर सोडली तर संगी परत घरात हसूखेळू लागली. तिला हसतांना पाहून आतीचा बी जीव भांड्यात पडला.तवर मामाबी दुसऱ्या स्थळांच्या तपासाला लागले. आता इथून पुढे )

येता दिस नव्यासारखा सुरू झाला.

दोघी फुईभाच्यांनी मिळून लोनच्याची तयारी केली.आख्खा दिवस आडकित्त्यानी कैऱ्यांच्या फोडी करन्यात गेला .फोडी साफ करून मिठाचं पानी काढून टाकून हळदमीठ लावून वाळाया घातल्या. करकरीत फोडी आता जरा मऊ पडल्या.

पुढच्या खोलीच्या दाराचे दोन्ही कान उघडल्यावर उन्हाचा कडोसा हक्कान आतमंदी आला व्हता.त्या कडोश्यात न्हालेल्या फोडी हळदूल्या दिसत व्हत्या. जसजसं ऊन चढत गेलं तसतसं फोडींनी अंग चोरलं. आतीच्या कुंकवावानी रंगाच्या लुगड्यावर त्यांचा पिवळा रंग लय तेज दिसत व्हता.

तेवढ्यात त्या समद्या लालपिवळ्या वाळवनावर येक परकरी सावली पडली. जोडीदारीन आली व्हती..

हातात गोधडीचा बोजा.

आती आणि संगीला मोहऱ्या निवडतांना पाहून ती घुटमळली आन हळूच म्हनली,

“मावशे!! संगीला घडीभर पाठवती का माझ्याबरबर  नदीवर?”

आतीनं जरावेळ विचार केला..

“अं..येवढा का गं उशीर आज पान्याला?

बरं जा घेऊन तिला. पन तिन्ही सांज व्हायच्या आधी येऊन लागा बर्का.जा गं संगे! तुझा मामा किर्तनातून परत यायच्या आदी ये “

“हुं” म्हनत हातातलं ताट परातीत सारून संगी पटकन उठली. आतीलाबी वाटलं,

 ‘तेवढाच जीव रमंल पोरीचा.’

दोघी नदीच्या वाटंला लागल्या.जोडीदारीन संगीला उगीच इकडचा तिकडचा विषय काढून बोलतं करायचा प्रयत्न करीत व्हती.संगी वरवर समदं ठीक असल्यासारखं बोलत व्हती.पन अंमळशानं तिचा आतीमामांसमोर घातलेला आनंदी मुखौटा चिरफाटला.जोडीदारनीला समदं समजत व्हतं.

“संगे!! तुला कळलंच असंन ना?”

“काय गं?”

“शिंदेसायबाच्या मोठ्या पोरीचं जमलं म्हनत्यात.”

यदौळ खालमानेनं चालनाऱ्या संगीनं चमकून वर पायलं.तिच्या चेहऱ्याची थरथर व्हवू लागली. निसतंच कानावर पडनारं बोलनं आता थेट काळजात शिरलं व्हतं..जखम करीत व्हतं.ती काई बोलली नाई. आशेचा बारकासा धागाबी तटकन तुटून गेला.काळजाच्या डव्हात गरगरत दिसेनासा झाला.

जराशानं संगीनं मोठा श्र्वास घेतला,सुटल्यासारखं हसली. तिनं मनाच्या पाटीवरून मागल्या ऐतवारचा परसंग पार पुसून टाकला.पैल्यासारख्या..पार पैल्यासारख्या गप्पा सुरू केल्या.जोडीदारनीला हायसं वाटलं.

नदीकाठची त्यांची नेहमीची गप्पांची जागा जवळ आली .दोन काळेभोर ,मोठाले दगड..त्यांच्या बाजूला चाफ्याची चारदोन झाडं जीव खाऊन फुलल्याली.जुन्यापान्या झाडांचा वाळला पाचोळा साऱ्या वाटंवर पायाखाली इथूनतिथून गालिचासारखा अंथरलेला.पोरींच्या पायतळीच्या रेषा त्या वाटेला ठावकी व्हत्या. भुईचंपा,पळशी,पाचुंद्याची फुलं उन्हाला वाकूल्या दाखवीत व्हती. समद्या झाडांवर पिवळ्या,पोपटी,हिरव्या रंगांच्या पानांचे पक्षी अंगभर फुल्लारलेले.नदीवरून गार गार वारं येत व्हतं.मातीचा वल्ला वास मनाचा ताबेदार झाला व्हता.सोबत पाखरांच्या गप्पा..

नदीमायच्या साक्षीनं दोघी गूज बोलू लागल्या.गोधडीला धुता धुता मनबी निर्मळ झालं जनू.

गोधडी वाळू घातल्यावर दोघीही कातळावर ओनावल्या.पाय नदीच्या पान्याबरबर नाचत व्हते.पैंजनं गानी म्हनत व्हती.वल्लं शरीर कातळाच्या खरबरीत पन मायाळू पाठीवर सैलावलं .दोघींचेबी डोळे निळ्या आकाशात ढगांच्या कापूसगोंड्यांकडं टुकूरटुकूर बघत व्हते..     जरावेळ पाठीचा काटा मोडल्यावर जोडीदारीन म्हनली, “संगे चल आपून तो जुना खेळ खेळू…कपच्यांचा.बघू कुनाची कपची नदीवर जास्त उड्या मारती??”

निळ्या आकाशाकडे बघतांना निळ्याच डोळ्यांची मालकीन झालेली संगी निळाईचा हात धरूनच म्हनली,

“चल.”

दोघींच्या चेहऱ्यावर हसन्याचं खुळं फूल उमललं.दोघींनीबी खेळासाठी बऱ्याच कपच्या शोधून   आनल्या.चढाओढीनं नदीच्या डव्हाचा तलम पदर छेदू लागल्या. आधी आधी घटकेत बुडी मारनाऱ्या कपच्या जुन्या दिसांची शपथ आठवल्यावर पान्यावर नाचू लागल्या.तो तो पोरींच्या हसण्याला उफाळ आला.संगीची कपची तर दोन दोन डुबक्या घेत लांबवर पळत व्हती‌.जोडीदारनीला तर काई जमंना.ती फुरंगाटली,

“संगे!! तुझी कपची कसं काय बरं दोन डुबक्या मारती? माझी तर बळंबळं येवढीतेवढी येक उडी मारती आन् खुशाल बुडी घेती बघ..आता गं?”

तेवढ्यात मागून एक कपची तीरासारखी सरसरत आली आन नदीच्या पदराशी नाजूक छेडखानी करीत तीन डुबक्या मारीत दुसऱ्या तीराच्या दिशेनं  गेलीबी. दोघींनाबी काई सुधरलंच नाई. संगीच्या हातातली कपची तशीच व्हती.येवढा नेम कुनाचा बरं? असा आचार करून दोघींनी मागं वळून पाह्यलं.

“काय जमतंय का?” पल्लेदार पुरूषी आवाज आला. मिशीच्या आकड्यावर ताव भरत कूनाचीतरी रांगडी आकृती कातळावर येक पाय ठिवून उभी व्हती.त्याच्या दंडावर तटतटलेले स्नायू संगीच्या नजरेत भरले…

पुन्यांदा.

महिपतरावाचा पोरगा समोर ऐटीत उभा व्हता.जोडीदारीन म्हनली,

“अगं हा तर ऐतवारी आलेला पावनाच दिसतोय..”

संगीनं वळखलं नवतं थोडंच? तिनं तिच्याबी नकळत त्याच्याकडं रोखून बघितलं आन तिची नजर खाली झुकली.तळव्यात घट्ट धरलेली कपची घामेजून चिंब झाली.तिच्या मनात राग व्हताच आन त्याच्या नजरेचा मागबी..

डोळे नको भरायला म्हनून ती मासूळीसारखी तडफडत व्हती.जोडीदारीन त्यांची जुगलबंदी बघत हलकंच चार पावलं मागं सरकली ..सुर्यातळी पाठ करून असलेल्या जोडीदारनीची सावली लांबत गेली.

दोघांमधील जडावल्या बाईसारखी शांतता येकदाची बाळंतीन झाली.संगी रागं भरलेल्या आवाजात बोलली ,

” तुमचं लगीन जमल्याचं साखरपान वाटायला आलात व्हय इथं? शिंदेसायबाचं दुकानातले आयतं बुंदीलाडू आमच्या आदबूनिदबू केलेल्या पुरनपोळीवर भारी पडलं म्हनायचं..”

संगीच्या रागाची आगवळ सुटली होती.तिनं मनातलं गरळ वकून टाकलं आन तोंड पुन्यांदा शिवून टाकलं.. पन दोन्ही डोळ्यांची तळी तिच्या आवरन्याला न जुमानता खळ्ळकन भरून आली. गुलाबपाकळ्यांवानी असलेल्या पातळ नाकपुड्या थरथरू लागल्या.जिवनी बारीक पोरावानी बाबर ओठ काढती झाली.

समोरच्या राकट चेहऱ्यावर आता खट्याळ हसू फुललं व्हतं.त्यादिवशीचं बुजऱ्या हसन्याचं ठिगळ कुडल्याकुडं पांगलं व्हतं.

“अस्सं झालंय व्हय?’

‘ हुं!  तुमाला कोनी सांगितलं ह्ये?”

संगीनं मागं वळून पाह्यलं.तिचे डोळे जोडीदारनीला शोधत व्हते.

“तिकडं काय बघताय? मी सांगितलं तर जमंल ना?”

पोरगा पुन्हा एकदा खोडकर हसला.संगीची सैरभैर नजर पुन्हा त्याच्या चेहऱ्यावर गुतली.. त्याच्या गालावरच्या खळीत घट्टमुट्ट अडकून बसली.

“अवो बाईसाहेब!! शिंदेसायबाच्या पोरीची ष्टाईल या गावरान गड्याला कवा रूचायची? शेताच्या बांधावरनं फिरता फिरता तिचं तंगडं मोडाया बसलंय…शेहरातली मड्डम ती. माज्या गळ्यात पट्टा बांधून दाराशी बांधायजोगी..

………..

गावच्या यड्याला गावचंच कोन तरी खूळं मानूस पायजेल…नाय का? जे मानूस गड्याच्या मातकट हातानं खुडलेली चिच्चाबोरं न लाजता खाईल.. शेनामुताचा वास येतो म्हनून पावडरीनं धूत बसनार नाय…” येक गडगडाटी पन मायाळू हसू नजर खाली झुकलेल्या संगीला ऐकायला आलं..तिच्या नजरंसमोर त्याचा मर्दानी हात आला. त्या मोठाल्या तळव्यातली चिच्चाबोरं पाहून संगी हरखली.यदौळ रडू येऊ नाई म्हनून तिनं शिकस्त केली व्हती पन आता मातूर डोळ्यातलं पानी थांबायचं नाव घेत नवतं.दुसऱ्या तळव्यात खाऱ्या पान्याचं तळं भरत चाललं व्हतं.मनातल्या रानपाखरांच्या पंखात आता बेगुमान वारं भरलं व्हतं… 

– समाप्त – 

लेखिका – डॉ. क्षमा शेलार

प्रस्तुती – श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

संपर्क – ‘अनुबंध’, कृष्णा हॉस्पिटल जवळ, सांगली, 416416.        

मो. – 9561582372, 8806955070.

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी आजी… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

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☆ माझी आजी… ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

माझी आजी डोळ्यासमोर येते तेव्हा तिच्या आयुष्याच्या दोन चित्रमालाच डोळ्यासमोर येतात. एक तिचे स्वातंत्र्यपूर्व आयुष्य आणि दुसरं स्वातंत्र्यानंतरचे!

राधाबाई कृष्णाजी पेंडसे, आजोबांची दुसरी बायको ! पहिली फारच लवकर गेली आणि त्यानंतर आजोबांनी दुसरे लग्न केले. कोकणातली आई – बापा विना आजोळी वाढलेली दहा-बारा वर्षाची ती मुलगी आजोबांबरोबर लग्न करून थेट लांब कराची ला गेली ! नव्हता शिक्षणाचा गंध, नव्हता श्रीमंतीचा साज ! केवळ घराला जड होऊ नये म्हणून कोणीतरी लग्नाचा विचार केला आणि ती बोहल्यावर चढली. अशी ही साधीसुधी मुलगी कोकण सोडून दूरवर गेली एका मोठ्या बंगल्याची मालकीण म्हणून ! आजोबांची सरकारी नोकरी होती. ते ऑब्झर्वेटरीत नोकरीला असल्याने कराची जवळील मनोरा बेटावर त्यांचे वास्तव्य होते. दूरवरून येणाऱ्या बोटी, मचवे ह्यांना हवामानासंबंधीचे मार्गदर्शन करण्याचे काम असे. मॅट्रिक झाल्यानंतर नोकरी करणे गरजेचे होते त्यामुळे इतक्या लांब ठिकाणी ते नोकरीसाठी गेले. आजी वयाच्या पंधराव्या सोळाव्या वर्षी कराचीला गेली. घरी नोकर चाकर होते. दहा-बारा खोल्यांचे घर होते, पण संसार मांडायला लागणारा आधार कुणाचा नव्हता ! आपल्या आपण सर्व शिकायचे. नवऱ्याच्या कडक शिस्तीत राहायचे आणि आज्ञा पालन करायचे एवढेच तिला माहिती ! कधीतरी कोकणात जायला मिळे, पण प्रेमाची माणसे कमीच होती. माहेरची चितळे.. परशुरामाच्या घाटीत राहणारी.. भाऊ वहिनी होते, पण परिस्थिती 

बेताचीच ! दारिद्र्य सगळीकडेच होते, पण भात आणि कुळीथाच्या पिठल्याला कमी नव्हतं ! घाटी उतरायची, चिपळूणला जायचं, काय असेल ते आंबे, फणस, रातांबे विकायचे. चार पैसे मिळत त्यातच बाजार करायचा ! अशा पद्धतीने कोकणातल्या कुटुंबांचा व्यवहार चालत असे.

लग्नानंतर आजी कराचीला गेली. पूर्वीच्या पद्धतीप्रमाणे दर दोन वर्षांनी एक बाळंतपण होत होतं. सहा मुलं झाली. तीन मुली, तीन मुलगे. सर्वांना एका ठिकाणी राहणं परवडणारे नव्हते ! मग दोन मुलं सातारला काकांकडे वाढली तर  चार मुले कराचीला वाढली. माझे वडील सर्वात मोठे! त्यांचे बालपण  ऐषारामात गेले. कारण आजोबांची नोकरी मानाची होती. मोठ्या मोठ्या इंग्रज साहेबांचा वावर भोवती असे.

राहणीमान चांगले ठेवता येई. कपातून चहा प्यायला मिळे. साहेब लोकांशी संपर्क असल्याने इंग्रजी भाषेवर प्रभुत्व होते. आजोबांना पुस्तकांची प्रचंड आवड होती. विशेष करून इंग्रजीची आवड होती. घरामध्ये पुस्तकांचे शेल्फ भरलेले असे. कराचीजवळचे मनोऱ्याचे घर म्हणजे लौकिक अर्थाने चांगले, सुसंपन्न स्थितीतील घर होते. शिक्षणाची मनापासून आवड असल्यामुळे आजोबांनी आजीलाही लिहा वाचायला शिकवले होते. घट्ट नऊवारी नेसणारी आमची आजी नाकी डोळी नीटस,  उंच, शिडशिडीत बांध्याची होती. मनोऱ्याला काही मराठी कुटुंबही होती. मोजकीच ब्राह्मण कुटुंब असल्यामुळे ही मंडळी एकमेकांना धरून असत. वडिलांचे बीएससी पर्यंतचे शिक्षण पुण्यात झाले. युद्धाचा काळ असल्याने सेन्साॅर ऑफिसला नोकरी मिळाली होती. लवकरच लग्न होऊन त्यांचे बिऱ्हाड कराचीमध्ये झाले. त्यांच्याबरोबर माझे काका, आत्या ही मंडळी कराचीत घर करून राहिली. आजी मनोरा ते कराची अशा फेऱ्या मारत संसार करत होती.

याच दरम्यान भारताच्या फाळणीच्या गोष्टी सुरू होत्या. आजोबांची रिटायरमेंट झाली,  त्यांना कराचीमध्ये राहण्याची इच्छा होती. त्याप्रमाणे त्यांनी कराचीला मोठे घर घेतले. आणि सर्व मंडळी त्या घरात राहू लागली पण १९४७ च्या सप्टेंबर मध्ये फाळणीनंतर अवघ्या एका महिन्यातच सर्व पेंडसे कुटुंबाला पाकिस्तान सोडावे लागले आणि भारतात आपल्या मूळ गावी आयनी मेटे (तालुका खेड, जिल्हा रत्नागिरी) येथे निर्वासित म्हणून यावे लागले. इथून आजीच्या आयुष्याचा दुसरा कालखंड सुरू झाला ! कराचीचे, मनोऱा बेटावरचे साहेबी जीवन संपले आणि कोकणात आयनी- मेट्याजवळील पाटील वाडी या ठिकाणी आजोबांनी जागा घेतली.  त्या जंगलात झोपडीवजा घर बांधून आजी- आजोबा राहू लागले .मोठ्या बंगल्यात राहणारी आजी आता आजोबांबरोबर झोपडीत राहू लागली. मुलांच्या शिक्षणासाठी चिपळूणला बिऱ्हाड केले होते. पाटील वाडी आणि चिपळूण अशा फेऱ्या करत पुन्हा एकदा आजीच्या जीवनाला कलाटणी मिळाली. आजोबांना डायबिटीस होता. कोकणातील कष्टकरी जीवनात आणि निर्मळ वातावरणात त्यांचा डायबिटीस कंट्रोलमध्ये राहिला होता. माझी आजी या सगळ्याला तोंड देत मुलांसाठी आणि नवऱ्यासाठी झटत होती. कष्टाची तर तिला कायमच सवय होती. डोक्यावर आंब्याच्या, फणसाच्या पाट्या घेऊन आजी खेडला विक्रीसाठी येत असे. ती दिवसाकाठी आठ दहा मैल सहज चालत असे. आसपासच्या लोकांना ‘निर्वासित म्हणून आलेले पेंडसे’ परिचयाचे होते. काही जण आपुलकीने त्यांना मदत करत असत.

अशीच जीवनाच्या खाचखळग्यातून आजीची वाटचाल ७० सालापर्यंत चालू होती. १९७० साली आजोबा गेले आणि पुन्हा एकदा आजी एकटी पडली.. ती अधूनमधून आमच्याकडे, काकांकडे, आत्याकडे येत जात असे, पण तिला तिथे जास्त काळ करमत नसे. स्वतंत्र विचाराची, कणखर स्वभावाची अशी आजी कोकणात एकटी घरी राही. एकदा ती घरात एकटी आहे असे पाहून चोरांनी कडी काढायचा प्रयत्न केला पण आजी इतकी धीट की तिला जाग आल्याने हातात काठी घेऊन ती दाराजवळ आली आणि चोराच्या हातावर  काठीने मारले. चोर पळून गेले. पण त्यानंतर मात्र तिच्या भाच्याने  तिला आपल्या घरी रोज रात्री झोपण्यासाठी नेण्याचे ठरवले. काही काळ असा गेला. पुढे माझ्या भावाला मुलगा झाला आणि आजीला पंतवंड झाले. त्यानिमित्ताने तिला पुण्यामध्ये आणले आणि परत कोकणात तिला जाऊ दिले  नाही.

आयुष्याचे असे दोन  कालखंड… एक कराचीचा आणि एक कोकणातला – दोन परस्पर विरुद्ध

तिने अनुभवले. नकळत या सर्व गोष्टींचा तिच्या मनावर परिणाम झाला होता. कधीतरी ती मनाने मनोऱ्याच्या घरी असे तर कधी कोकणात असे ! आयुष्यात घडलेल्या घडामोडींमुळे तिचे मन अस्वस्थ झाले होते. संकटांना तोंड देऊन ती थकली होती. तिच्याआधी माझे वडील गेले, त्यामुळे मुलगा गेल्याचे दुःख ती विसरू शकत नव्हती. आठवड्यातील सात दिवसातले चार-पाच दिवस तरी तिचा उपासच असे. पण  कष्ट केलेले तिचे शरीर या सगळ्याला तोंड देत होते. शरीर झिजले होते पण तिला कोणताही आजार नव्हता त्यामुळे थकत गेलेली आजी हळूहळू या सगळ्या मोहमायेतून  बाहेर पडली. झाडाचे जीर्ण पान जसे अलगदपणे गळून पडते, तशी माझी आजी म्हातारपणामुळे अनंतात विलीन झाली. माझ्या आत्त्याने पेंडसे कुटुंबाच्या आठवणींचे एक पुस्तक लिहिले होते. त्या पुस्तकाच्या आधारे मला माझ्या आजीचे हे चित्र डोळ्यासमोर उभे राहते !

तिच्या स्मृतीला माझा शतशः प्रणाम !

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ संत एकनाथ  महाराज… ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ संत एकनाथ महाराज… ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆

सर्वसाधारणपणे नाथ म्हणून ओळखले जाणारे संत एकनाथ (१५३३-१५९९) हे महाराष्ट्रातील वारकरी संप्रदायातील एक संत होते… त्यांचा जन्म इ.स. १५३३ मध्ये पैठण येथे झाला. संत भानुदास हे एकनाथांचे पणजोबा. ते सूर्याची उपासना करीत. श्री संत एकनाथांच्या वडिलांचे नाव सूर्यनारायण होते. आईचे नाव रुक्मिणी होते. आई-वडिलांचा सहवास त्यांना फार काळ लाभला नाही. त्यांचे पालनपोषण आजोबांनी केले. चक्रपाणी आणि सरस्वती हे त्यांचे आजोबा व आजी होत…..

एकनाथांचे गुरू सद्गुरू जनार्दनस्वामी हे देवगड (देवगिरी) येथे यवन दरबारी अधिपती होते… हे मुळचे चाळीसगावचे रहिवासी; त्यांचे आडनाव देशपांडे होते. ते दत्तोपासक होते. गुरू म्हणून संत एकनाथांनी त्यांना मनोमन वरले होते. नाथांनी परिश्रम करून गुरुसेवा केली आणि साक्षात दत्तात्रेयांनी त्यांना दर्शन दिले; द्वारपाल म्हणून दत्तात्रेय नाथांच्या द्वारी उभे असत असे म्हणतात. नाथांनी अनेक तीर्थयात्राही केल्या…..

नाथांनी पैठणजवळच्या वैजापूर येथील एका मुलीशी विवाह केला… एकनाथ आणि गिरिजाबाई यांना गोदावरी व गंगा या दोन मुली व हरी नावाचा मुलगा झाला. त्यांचा हा मुलगा हरिपंडित झाला. त्याने नाथांचे शिष्यत्व पत्करले. एकनाथांनी समाधी घेतल्यानंतर हरिपंडितांनी नाथाच्या पादुका दरवर्षी आषाढीवारीसाठी पंढरपुरास नेण्यास सुरुवात केली. कवी मुक्तेश्वर हे नाथांचे मुलीकडून नातू होत…..

संत ज्ञानेश्वरांच्या नंतर सुमारे २५० वर्षांनी एकनाथांचा जन्म झाला… ‘बये दार उघड’ असे म्हणत नाथांनी अभंगरचना, भारूड, जोगवा, गवळणी, गोंधळ यांच्या साहाय्याने जनजागृती केली. एकनाथ हे संतकवी, पंतकवी व तंतकवी होते. त्यांनी आपल्या साहित्याद्वारे जनतेचे रंजन व प्रबोधन केले. ते ’एका जनार्दन’ म्हणून स्वतःचा उल्लेख करतात, एका जनार्दनी ही त्यांची नाममुद्रा आहे…..

’एकनाथी भागवत’ हा त्यांचा लोकप्रिय ग्रंथ आहे… ही एकादश स्कंदावरील टीका आहे. मुळात एकूण १३६७ श्लोक आहेत. परंतु त्यावर भाष्य म्हणून १८,८१० ओव्या संत एकनाथांनी लिहिल्या आहेत. व्यासांनी रचलेले मूळ भागवत १२ स्कंदांचे आहे. नाथांनी लिहिलेल्या भावार्थ रामायणाच्या सुमारे ४० हजार ओव्या आहेत. रुक्मिणीस्वयंवर हेही काव्य त्यांनींच लिहिले आहे. दत्ताची आरतीही (त्रिगुणात्मक त्रयमूर्ति दत्त हा जाण) त्यांची आरती गणपतीसमोर गायच्या आरत्यांपैकी एक आहे. सर्वांत महत्त्वाचे म्हणजे एकनाथांनी ज्ञानेश्वरीची प्रत शुद्ध केली. नाथ हे महावैष्णव होते. दत्तभक्त होते, देवीभक्त पण होते. जातिभेद दूर करण्यासाठी यांनी आयुष्यभर प्रयत्न केले…..

फाल्गुन वद्य षष्ठी, शके १५२१ (२६ फेब्रुवारी इ.स. १५९९) या दिवशी संत एकनाथांनी देह ठेवला… फाल्गुन वद्य षष्ठी हा दिवस एकनाथ षष्ठी म्हणून ओळखला जातो

संग्राहक : श्री अनंत केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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