मुलगा-सून व नातू सध्या इंग्लंडमध्ये वास्तव्यास असल्याने त्यांच्याकडे जाण्याचा योग आत्तापर्यंत तीन वेळा आलाय. लंडनच्या दक्षिणेस केंट या काऊंटीत असलेल्या ‘ग्रेव्हज्एंड’ या शहरात ते रहातात. आम्ही जेव्हा त्यांच्याकडे जायचो, तेव्हा वेळात वेळ काढून तिथे जवळपास असणाऱ्या भारतीय मंदिरात आम्ही जात असू. त्यांच्या घराजवळच एक मोठे गुरुव्दारा आहे. एकदा तेथेच आम्हाला एका हिंदू मंदिराबद्दल समजले व आम्ही तेथे जाण्याचे ठरविले.
एका संकष्टी चतुर्थीच्या दिवशी आम्ही त्या मंदिरात गेलो होतो. मंदिरात पाऊल ठेवताच खूप प्रसन्न वाटले. राम-सीता, शंकर-पार्वती, गणपती, हनुमान अशा आपल्या देवांच्या अतिशय सुंदर संगमरवरी मूर्ती पाहून मन खूपच प्रसन्न झाले. त्या मंदिराच्या जागेच्या मालकीणबाई पंजाबी आहेत व तेथील पुजारी श्री.दुबे हेही मध्यप्रदेशातून आलेले आहेत. त्या दोघांनी आम्हाला मराठी भजनं म्हणण्याचा खूप आग्रह केला. आम्ही त्यांना म्हटले, आज संकष्टी चतुर्थी आहे तर आम्ही गणपतीची आरती म्हणतो. पुजारी श्री.दुबेंना मराठी आरती ‘सुखकर्ता’ माहित होती. ते तर खूप खूष झाले व त्यांनी म्हणायला सांगितली. त्या दोघांनीही आमच्या हातात टाळ दिले व पंजाबी आजी स्वत: मृदुंग वाजवून ठेका देऊ लागल्या. मग आम्ही सुखकर्ता व शेंदूर लाल चढायो ही गुजराथी आरती म्हटली. दोघेही एकदम खूष झाले. दुबेंनी तर त्यांच्या मोबाईलमध्ये व्हिडिओही घेतला व आता आम्ही येथील सर्व मराठी माणसांनाही तो पाठवू असे सांगितले. या सर्वाने आम्ही खूपच आश्चर्यचकित व प्रभावितही झालो.
आरत्यांनंतर आजींनी माईक आमची सून सौ.निवेदिताकडे दिला व पुन: मराठी भजन म्हणण्याचा आग्रह केला ! तिने गणपती अथर्वशीर्ष म्हणताच दोघेही खूप खूष… व आजी मृदुंग व दुबेगुरुजी व्हिडिओ काढण्यात दंग! मुलगा व सून दोघांनीही मनापासून गणपती अथर्वशीर्ष म्हटले. मंदिरात आलेल्या हिंदु-पंजाबी भक्तांमध्ये एक इंग्लिश महिलाही होती. ती नियमित दर सोमवारी तिथे येते असे नंतर समजले. त्या इंग्लिश महिलेने अगदी व्यवस्थित मांडी घालून, शांत चित्ताने आणि एकाग्रतेने, मनापासून आपल्या बाप्पाची आरती आणि अथर्वशीर्ष ऐकल्याचा आम्हाला सुखद धक्का तर बसलाच, आणि त्याहीपेक्षा, आपल्या प्रार्थनेमुळे तिथे त्यावेळी निर्माण झालेल्या भक्तिमय प्रसन्न वातावरणात, आपली भाषाही समजत नसलेली ती इंग्लिश महिला इतकी गुंगून गेलेली पाहून, आपल्या संस्कृतीचा आम्हाला खूप अभिमान व गर्वही वाटला
परदेशातही आपली संस्कृती जोपासली जाते आहे, आणि त्यात आपला मुलगा व सून यांचाही वाटा आहे, हे पाहून आम्हाला खरंच खूपच छान वाटले. एक अनामिक अभिमान वाटला. इंग्लंडमधल्या हिंदू देवळात मराठी आरत्या म्हटल्या गेलेल्या पाहून पंजाबी आजी व दुबे गुरुजी यांच्या चेहे-यावरही आम्हाला खूपच समाधान व आनंद दिसून आला. आम्ही दोघेही त्या वातावरणाने अतिशय भारावून गेलो होतो. नकळत मनाने पुण्याच्या घरी पोहोचलो होतो आणि आपण इंग्लंडमध्ये आहोत हेही क्षणभर विसरून गेलो होतो. तिथून परतलो ते पुढच्या भेटीतही पुन: इथे यायचेच असा निश्चय करूनच.
लेखिका : सौ.संजीवनी निमोणकर
प्रस्तुती : श्री मोहन निमोणकर
संपर्क – सिंहगडरोड, पुणे-५१ मो. ८४४६३९५७१३.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता –“परसों वाली रही न बातें……”।)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – नव संवत्सर विशेष – परिवर्तन का संवत्सर🍁
(इस विषय पर लेखक के विस्तृत लेख का एक अंश)
पुराने पत्तों पर नयी ओस उतरती है,
अतीत का चक्र वर्तमान में ढलता है,
प्रकृति यौवन का स्वागत करती है,
अनुभव की लाठी लिए बुढ़ापा साथ चलता है
नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास, हर तरफ होता है हर्ष।
भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढी पाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है। स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला।
गुढी पाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला ज़रीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।
माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगें घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है,” हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।
प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। ज़री के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढी पाडवा।
कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है। बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’ यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।
तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर में भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।
सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-
न राग बदला, न लोभ, न मत्सर,
बदला तो बदला केवल संवत्सर
परिवर्तन का संवत्सर केवल काग़ज़ों तक सीमित न रहे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आप प्रत्येक मंगलवार उनकी नवीन रचाएं आत्मसात कर सकते हैं। नव संवत्सरआगमन पर आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना “नव संवत्सर आ गया…”।
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण ग़ज़ल – “प्रीत का हिंडोला…”।
☆ “नासमझ मन – भज मन” – डॉ. मालती बसंत ☆ समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – नासमझ मन – भज मन
लेखिका – डॉ. मालती बसंत
प्रकाशक आईसेक्ट पब्लिकेशन
मूल्य – रु 250
डॉ. मालती बसंत
(एम.ए., एम.एड, पी.एच.डी, डी.सी.एच., एन.डी (योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा) जैसी उपाधियों से विभूषित डॉ. मालती बसंत के दो कहानी-संग्रह, तीन लघुकथा-संग्रह, चौदह बाल कहानी संग्रह, तीन बाल उपन्यास, एक बाल नाटक संग्रह, एक कविता संग्रह, एक हास्य व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है।
आकाशवाणी भोपाल, इन्दौर, तथा छतरपुर से निरन्तर रचनाओं का प्रसारण होता रहा है ।
भारत सरकार के विभिन्न विभागों, म.प्र. साहित्य अकादमी द्वारा अनेको महत्वपूर्ण सम्मानों से विभूषित मालती जी को महामहिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम बाल साहित्यकार के रूप में चर्चा हेतु राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित कर चुके हैं। इनके साहित्य पर शोधकार्य भी हो चुके हैं। मारीशस और लदंन की साहित्यिक यात्राएँ मालती जी के साहित्य के महत्व को पुष्ट करती हैं।)
☆ “नासमझ मन – भज मन” – डॉ. मालती बसंत ☆ समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत ☆
आज मेरे समक्ष प्रसिद्ध लघुकथाकार, कहानीकार, कवयित्री मालती बंसत का काव्य संग्रह “नासमझ मन-भज मन” है।
पुस्तक के पृष्ठ पलटते ही पढ़ा ”पचास वर्षो की साहित्यिक यात्रा में मिले सह यात्रियों को समर्पित।” किताब का साहित्यिक साथियों को सम्पर्ण मुझे अभिभूत कर गया। यह समर्पण उनके व्यक्तिगत औदार्य को उद्घाटित करता है। उनका आत्मकथ्य भी अर्न्तमन को उद्वेलित कर जाता है, जिसमें वे वेबाकी से लिखती हैं-
साहित्यकार की प्रथम रचना कविता ही होती है। स्वयं को इंगित करती हुई वे कहती है ”मन की पर्वत पीड़ा सी सघन क्षणों की भावों की अभिव्यक्ति कविता के रूप में झरनों से फूट पड़ती है। इस आत्म कथ्य को पढ़ते ही मैं समझ गई कि मालती जी की कविताएं पीड़ा, दुख के संवेदों से परिपूर्ण होगी । जिस प्रकार का वाष्प से घनी भूत बादल अन्ततः बरस ही जाते हैं, वैसे ही वर्षों से उनके मन की पीड़ा भोगे हुए दर्द के घनी भूत बादल अन्ततः इस काव्य संग्रह के रूप में बरस ही गये। इस संग्रह में उनके विगत पचास वर्षों के जीवन के अनुभव की अनुभूति है, निष्कर्ष है दुख-सुख दोनों के हैं। आईये उनकी कविताओं को समझे परखे-
कबीर दास जी ने मन के बारे में लिखा है —
“कबीर, यह तन खेत है, मन कर्म वचन किसान।
पाप पुण्य दो बीज है, क्या बोना है यह तू जान।।”
पाप पुण्य दो बीज है, क्या बोना है यह तो बोने वाला ही जाने। तो मालती जी ने अपने कविता संग्रह में बीज बोए कि उसकी पुण्य फसल से हम सब का जीवन सफल हो गया।
हम सब की जीवन यात्रा मन से ही बातें करती निकल जाती है। मालती जी अधिकांश कविताएं मन को केन्द्र बिन्दु बनाकर लिखी गई है जिसमें दर्द है, उदासी है, वैराग्य है, आध्यात्मिकता है पर दूसरी ओर उनकी कविताओं में बंसत भी छाया है। बंसत पर तो उनकी लगभग दस कविताएं है। बादाम का पेड़, कमलवत रहना, पावस ऋतु और सखियाँ, धूप के रूप जैसी कविताएं उनके प्रकृति प्रेम को दर्शाती है।
प्रसिद्ध साहित्यकार राय. बेनेट ने कहा है – अपने मन का अनुकरण करो, अपने अंदर की आवाज सुनो और इस बात की परवाह छोड़ दो कि लोग क्या कहेंगे। मालती जी ने यही बात खुले मन और दिमाग से की और निष्कर्ष निकाला इन शब्दों में
निराशा में रहता था मन
काँटों में उलझा था मन
माना अपनों को पराया
ऐसा था ना समझ मन
दुख ही तो जीवन का सुख था
दर्द ही सावन का गीत था
विरह तो पावन पर्व था।
कहाँ समझ पाया बौराया मन
सब कुछ अच्छा करने के बाद भी अंत में कुछ नहीं मिलता तो पीड़ा घनी भूत होकर दर्द दर्दीले शब्दों में कह उठती है-
बहुत अकेला सा है मन
लिखना चाहता है कहानी अपनी पर लिखे कहां, अब कोई कागज कोरा भी नहीं है।
‘मेरा मन बहुत हारा’ में कवियत्री अपनी घुटन अभिव्यक्त करते हुये कहती है।
जाने कितने सपने महलों के देखें
सच में केवल खण्डहर मिले
यही दुख और वेदना उनकी विरह कविताओं में परिलक्षित होती है ।
मालती जी की लगभग नौ कविताएं बिरह का दुःख इतने स्वाभाविक तरीके से बतलाती है कि पाठक स्वयं उस दर्दीले दुख से जुड़ जाता है। बोझ है मन में, वो नहीं आए, बहुत अकेला अकेला सा है मन है, प्रिय तुम्हारे न आने से जैसे कविताओं के शब्द दुख के कांटों के समान मन को विदीर्ण कर देते है।
मन में चुभती यह बात,भावुक मन रोता है, मन योगी हो जाए, जिन्दगी के हिसाब से खुद को ढूंढ रहा हूँ, फूल भी शूल से चुभते है, जैसी कविता के अंश इसके उदाहरण है।
जब उदासी, अवहेलना के बादल छँट जाते है तो कवयित्री बंसत का स्वागत करने जुट जाती है।
”बंसत तुम आना, प्रेम संदेशा लेकर आना तुम्हारा पथ बुहारूंगी।
बसंत खुलकर आओ धरा पर।
मेरे सतरंगी दिन में वे कहती है-
मैं जीना चाहती हूँ आएंगे मेरे दिन, जब मेरे लिये उगेगा सूर्य और चाँद
अपनी कविताओं में उन्होंने स्त्री की जिन्दगी की उठा पटक को दक्षता से दर्शाया है।
औरत के अंदर की छटपटाहट तथा विवशता को बताते हुए उनकी कलम लिखती है।
मैं कहना चाहती हूँ सब बातें।
पर कह नहीं पाती।
बोझ है मन पर कविता में उनका स्त्री मन विकल होकर कह उठता है
दर्द में डूबा तन हूँ आँसू से भीगा मन है।
राह चलते चलते थका थका सा है मन
ठहरे कहाँ, रास्ते में कोई घर भी नहीं।
तस्लीमा नसरीन ने किताब लिखी है औरत का कोई देख नहीं पर मालती जी तो एक कदम आगे बढ़कर कहती है कि राह चलते-चलते थका-थका सा है मन, ठहरे कहां रास्ते में कोई घर भी नहीं?
काठ की गुड़िया में उनकी मुखर वाणी प्रस्फुटित हो जाती है इस रूप में।
मैं जननी हूँ कई रूप है मेरे
फिर भी क्या रह गई।
मैं क्यों अस्तित्वहीन
बनकर एक काठ की गुड़िया
पर दूसरे ही क्षण ने आत्म विश्वास से भर कह उठती है-
एक बौनी लड़की
छूना चाहती है आकाश
सारी धरा के शूल समेट
बिखेर देना चाहती है फूल
वे जानती हैं समस्त पाबंदियों, दबाव, यंत्रणाओं के बावजूद एक औरत के अंदर एक और औरत रहती है। कौन है वह? जाने इन कविता -पंक्तियों में –
“कविता लिखना बयान है बची है उसके अंदर की औरत
जो अपनी संपूर्ण भावनाओं के साथ एक इन्द्रधनुष
मन के क्षितिज पर खींचती है “
जिन्दगी के बारे में सब के अपने-अपने अनुभव होते है पर सभी इस बात में एकमत है कि जिन्दगी एक पहेली है।
मालती जी जिन्दगी के बारे में तराशे गये अलफ़ाजों में कहती है-
“जिन्दगी बड़ी अजब पहेली
सुलझाओ तो उलझ जाती
छोड़ दो तो सुलझ जाती,
आगे की इन पंक्तियों के बेबाकीपन से हर कोई हैरान रह जाता है।
जुड़ जाए तो हीरे मोती, बिखर जाए तो कंकड़ मिट्टी।
आध्यात्मिकता से सरोबार इन शब्दों से जिन्दगी की हकीकत का पता चला जाता है।
जिन्दगी एक सपना,
सपना तो सपना है
बार-बार टूटेगा
फिर इस झूठे सपने से क्या प्यार?
क्षण भंगुर स्वप्नवत जिन्दगी की असलियत समझ वे बोल उठती है।
आओ जिन्दगी सँवारे
भूले दुःख दर्द सारे
कड़वाहट को बुहारे
सुखी रहने का मंत्र बताते हुए वे कहती है –‘रहो निसर्ग के साथ ‘
जिन्दगी का निचोड़ उनसे लिख जाता है – जीवन में एक अभाव दे गया कई भाव ।
अब बात करते है पुस्तक के दूसरे भाग की
मेरा ऐसा मानना है कि काव्य संग्रह का दूसरा भाग ‘भजमन’ प्रथम भाग नासमझ मन का ही निष्कर्ष है। जीवन भर के खट्टे मीठे अनुभवों के पश्चात ही मनुष्य को समझ आता है कि सच में मन नासमझ ही रहा। मालती जी के शब्दों में-
दुःख ही तो जीवन का सुख था।
दर्द ही सावन का गीत था।
कहाँ समझ पाया बौराया मन
बस अब एकमात्र रास्ता बचा है ईश भक्ति।
वे कहती हैं –
प्रभु तू सच्चा पथ प्रदर्शक है।
प्रभु तू ही सही माने में परमात्मा है, परम गुरू है।
आध्यात्मिकता का पुट लिये कविताएं “तुम और मैं ” “प्रभु का उपकार” “श्रीराम कृपा”, “जग को बनाने वाले “मन को ईश भक्ति से सरोबार कर देती है। ईश्वर ही बस एक है तमाम कविताएं बताती है कि ईश्वर सत्य है बाकी सब झूठ है आध्यात्मिक चिंतन, वैराग्य को समेटे जीवन दर्शन का प्राकट्य करती सभी कविताएं मनुष्य की पथ प्रदर्शिका का महती कार्य करती है।
मालती जी सभी कविताएं भाषा शैली के अलंकरण से हीन सीधी सादी भाषा वाली तथा भावमयी एवं संवेदनाओं से ओतप्रोत है, आशा करती हूँ कि वे अवश्य पाठकों को आकर्षित करेगी। चित्ताकर्षक आवरण वाले इस काव्य संग्रह हेतु उन्हें मैं दिल से बधाई देती हॅू।
समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश)
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
We present an English Version of Shri Subedar Pandey’s Hindi poem “~ गौरैया ~”. We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)