सुश्री मनोरमा पंत  

📖 पुस्तक चर्चा 📖

☆ “नासमझ मन – भज मन” – डॉ. मालती बसंत ☆ समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – नासमझ मन – भज मन

लेखिका – डॉ. मालती बसंत

प्रकाशक आईसेक्ट पब्लिकेशन

मूल्य – रु 250  

डॉ. मालती बसंत

(एम.ए., एम.एड, पी.एच.डी, डी.सी.एच., एन.डी (योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा) जैसी उपाधियों से विभूषित डॉ. मालती बसंत के दो कहानी-संग्रह, तीन लघुकथा-संग्रह, चौदह बाल कहानी संग्रह, तीन बाल उपन्यास, एक बाल नाटक संग्रह, एक कविता संग्रह, एक हास्य व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है।

आकाशवाणी भोपाल, इन्दौर, तथा छतरपुर से निरन्तर रचनाओं का प्रसारण होता रहा है ।

भारत सरकार के विभिन्न विभागों, म.प्र. साहित्य अकादमी द्वारा अनेको महत्वपूर्ण सम्मानों से विभूषित मालती जी को महामहिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम बाल साहित्यकार के रूप में चर्चा हेतु राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित कर चुके हैं। इनके साहित्य पर शोधकार्य भी हो चुके हैं। मारीशस और लदंन की साहित्यिक यात्राएँ मालती जी के साहित्य के महत्व को पुष्ट करती हैं।)

☆ “नासमझ मन – भज मन” – डॉ. मालती बसंत ☆ समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत ☆

आज मेरे समक्ष प्रसिद्ध लघुकथाकार, कहानीकार, कवयित्री मालती बंसत का काव्य संग्रह “नासमझ मन-भज मन” है।

पुस्तक के पृष्ठ पलटते ही पढ़ा ”पचास वर्षो की साहित्यिक यात्रा में मिले सह यात्रियों को समर्पित।” किताब का साहित्यिक साथियों को सम्पर्ण मुझे अभिभूत कर गया। यह समर्पण उनके व्यक्तिगत औदार्य को उद्घाटित करता है। उनका आत्मकथ्य भी अर्न्तमन को उद्वेलित कर जाता है, जिसमें वे वेबाकी से लिखती हैं-

साहित्यकार की प्रथम रचना कविता ही होती है। स्वयं को इंगित करती हुई वे कहती है ”मन की पर्वत पीड़ा सी सघन क्षणों की भावों की अभिव्यक्ति कविता के रूप में झरनों से फूट पड़ती है। इस आत्म कथ्य को पढ़ते ही मैं समझ गई कि मालती जी की कविताएं पीड़ा, दुख के संवेदों से परिपूर्ण होगी । जिस प्रकार का वाष्प से घनी भूत बादल अन्ततः बरस ही जाते हैं, वैसे ही वर्षों से उनके मन की पीड़ा भोगे हुए दर्द के घनी भूत बादल अन्ततः इस काव्य संग्रह के रूप में बरस ही गये। इस संग्रह में उनके विगत पचास वर्षों के जीवन के अनुभव की अनुभूति है, निष्कर्ष है दुख-सुख दोनों के हैं। आईये उनकी कविताओं को समझे परखे-

कबीर दास जी ने मन के बारे में लिखा है —

“कबीर, यह तन खेत है, मन कर्म वचन किसान।

पाप पुण्य दो बीज है, क्या बोना है यह तू जान।।”

पाप पुण्य दो बीज है, क्या बोना है यह तो बोने वाला ही जाने। तो मालती जी ने अपने कविता संग्रह में बीज बोए कि उसकी पुण्य फसल से हम सब का जीवन सफल हो गया।

हम सब की जीवन यात्रा मन से ही बातें करती निकल जाती है। मालती जी अधिकांश कविताएं मन को केन्द्र बिन्दु बनाकर लिखी गई है जिसमें दर्द है, उदासी है, वैराग्य है, आध्यात्मिकता है पर दूसरी ओर उनकी कविताओं में बंसत भी छाया है। बंसत पर तो उनकी लगभग दस कविताएं है। बादाम का पेड़, कमलवत रहना, पावस ऋतु  और सखियाँ, धूप के रूप जैसी कविताएं उनके प्रकृति प्रेम को दर्शाती है।

प्रसिद्ध साहित्यकार राय. बेनेट ने कहा है – अपने मन का अनुकरण करो, अपने अंदर की आवाज सुनो और इस बात की परवाह छोड़ दो कि लोग क्या कहेंगे। मालती जी ने यही बात खुले मन और दिमाग से की और निष्कर्ष निकाला इन शब्दों में

      निराशा में रहता था मन

      काँटों में उलझा था मन

      माना अपनों को पराया

      ऐसा था ना समझ मन

      दुख ही तो जीवन का सुख था

      दर्द ही सावन का गीत था

      विरह तो पावन पर्व था।

      कहाँ समझ पाया बौराया मन

सब कुछ अच्छा करने के बाद भी अंत में कुछ नहीं मिलता तो पीड़ा घनी भूत होकर दर्द दर्दीले शब्दों में कह उठती है-

      बहुत अकेला सा है मन

      लिखना चाहता है कहानी अपनी पर लिखे कहां, अब कोई कागज कोरा भी नहीं है।

‘मेरा मन बहुत हारा’ में कवियत्री अपनी घुटन अभिव्यक्त करते हुये कहती है।

      जाने कितने सपने महलों के देखें

      सच में केवल खण्डहर मिले

यही दुख और वेदना उनकी विरह कविताओं में परिलक्षित होती है ।

मालती जी की लगभग नौ कविताएं बिरह का दुःख इतने स्वाभाविक तरीके से बतलाती है कि पाठक स्वयं उस दर्दीले दुख से जुड़ जाता है। बोझ है मन में, वो नहीं आए, बहुत अकेला अकेला सा है मन है, प्रिय तुम्हारे न आने से जैसे कविताओं के शब्द दुख के कांटों के समान मन को विदीर्ण कर देते है।

मन में चुभती यह बात,भावुक मन रोता है, मन योगी हो जाए, जिन्दगी के हिसाब से खुद को ढूंढ रहा हूँ, फूल भी शूल से चुभते है, जैसी कविता के अंश इसके उदाहरण है।

जब उदासी, अवहेलना के बादल छँट जाते है तो कवयित्री बंसत का स्वागत करने जुट जाती है।

”बंसत तुम आना, प्रेम संदेशा लेकर आना तुम्हारा पथ बुहारूंगी।

बसंत खुलकर आओ धरा पर।

मेरे सतरंगी दिन में वे कहती है-

मैं जीना चाहती हूँ आएंगे मेरे दिन, जब मेरे लिये उगेगा सूर्य और चाँद

अपनी कविताओं में उन्होंने स्त्री की जिन्दगी की उठा पटक को दक्षता से दर्शाया है।

औरत के अंदर की छटपटाहट तथा विवशता को बताते हुए उनकी कलम लिखती है।

मैं कहना चाहती हूँ सब बातें।

पर कह नहीं पाती।

बोझ है मन पर कविता में उनका स्त्री मन विकल होकर कह उठता है

      दर्द में डूबा तन हूँ आँसू से भीगा मन है।

      राह चलते चलते थका थका सा है मन

      ठहरे कहाँ, रास्ते में कोई घर भी नहीं।

तस्लीमा नसरीन ने किताब लिखी है औरत का कोई देख नहीं पर मालती जी तो एक कदम आगे बढ़कर कहती है कि राह चलते-चलते थका-थका सा है मन, ठहरे कहां रास्ते में कोई घर भी नहीं?

      काठ की गुड़िया में उनकी मुखर वाणी प्रस्फुटित हो जाती है इस रूप में।

      मैं जननी हूँ कई रूप है मेरे

      फिर भी क्या रह गई।

      मैं क्यों अस्तित्वहीन

      बनकर एक काठ की गुड़िया

पर दूसरे ही क्षण ने आत्म विश्वास से भर कह उठती है-

      एक बौनी लड़की

      छूना चाहती है आकाश

      सारी धरा के शूल समेट

      बिखेर देना चाहती है फूल

वे जानती हैं समस्त पाबंदियों, दबाव, यंत्रणाओं के बावजूद एक औरत के अंदर एक और औरत रहती है। कौन है वह? जाने इन कविता -पंक्तियों में –

      “कविता लिखना बयान है बची है उसके अंदर की औरत

      जो अपनी संपूर्ण भावनाओं के साथ एक इन्द्रधनुष

      मन के क्षितिज पर खींचती है “

जिन्दगी के बारे में सब के अपने-अपने अनुभव होते है पर सभी इस बात में एकमत है कि जिन्दगी एक पहेली है।

मालती जी जिन्दगी के बारे में तराशे गये अलफ़ाजों में कहती है-

“जिन्दगी बड़ी अजब पहेली

सुलझाओ तो उलझ जाती

छोड़ दो तो सुलझ जाती,

आगे की इन पंक्तियों के बेबाकीपन से हर कोई हैरान रह जाता है।

जुड़ जाए तो हीरे मोती, बिखर जाए तो कंकड़ मिट्टी।

आध्यात्मिकता से सरोबार इन शब्दों से जिन्दगी की हकीकत का पता चला जाता है।

जिन्दगी एक सपना,

सपना तो सपना है

बार-बार टूटेगा

फिर इस झूठे सपने से क्या प्यार?

क्षण भंगुर स्वप्नवत जिन्दगी की असलियत समझ वे बोल उठती है।

आओ जिन्दगी सँवारे

भूले दुःख दर्द सारे

कड़वाहट को बुहारे

सुखी रहने का मंत्र बताते हुए वे कहती है –‘रहो निसर्ग के साथ ‘

जिन्दगी का निचोड़ उनसे लिख जाता है – जीवन में एक अभाव दे गया कई भाव ।

अब बात करते है पुस्तक के दूसरे भाग की

मेरा ऐसा मानना है कि काव्य संग्रह का दूसरा भाग ‘भजमन’ प्रथम भाग नासमझ मन का ही निष्कर्ष है। जीवन भर के खट्टे मीठे अनुभवों के पश्चात ही मनुष्य को समझ आता है कि सच में मन नासमझ ही रहा। मालती जी के शब्दों में-

      दुःख ही तो जीवन का सुख था।

      दर्द ही सावन का गीत था।

      कहाँ समझ पाया बौराया मन

      बस अब एकमात्र रास्ता बचा है ईश भक्ति।

वे कहती हैं –

      प्रभु तू सच्चा पथ प्रदर्शक है।

      प्रभु तू ही सही माने में परमात्मा है, परम गुरू है।

आध्यात्मिकता का पुट लिये कविताएं “तुम और मैं ” “प्रभु का उपकार” “श्रीराम कृपा”, “जग को बनाने वाले “मन को ईश भक्ति से सरोबार कर देती है। ईश्वर ही बस एक है तमाम कविताएं बताती है कि ईश्वर सत्य है बाकी सब झूठ है आध्यात्मिक चिंतन, वैराग्य को समेटे जीवन दर्शन का प्राकट्य करती सभी कविताएं मनुष्य की पथ प्रदर्शिका का महती कार्य करती है।

मालती जी सभी कविताएं भाषा शैली के अलंकरण से हीन सीधी सादी भाषा वाली तथा भावमयी एवं संवेदनाओं से ओतप्रोत है, आशा करती हूँ कि वे अवश्य पाठकों को आकर्षित करेगी। चित्ताकर्षक आवरण वाले इस काव्य संग्रह हेतु उन्हें मैं दिल से बधाई देती हॅू।

समीक्षक – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश) 

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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