मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ हरवत चाललंय बालपण… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ हरवत चाललंय बालपण… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

सिग्नलचे हिरवे लाल पिवळे दिवे नियमाने बंद चालू होत या धावणाऱ्या जगाला शिस्त लावत उभे आहेत.आपल्याच तालात शहरं धावताहेत .सुसाट धावणाऱ्या शहरात पोटासाठी धावणारी माणसंही रस्त्यारस्त्यावर धावताहेत .जगणाऱ्या पोटाला भूक नावाची तडफ रस्त्यावर कधी भीक मागायला लावते तर कधी शरीर विकायला लावते.कितीतरी दुःख दर्द घेऊन शहरं धावताहेत.त्यात सिग्नलवरचं हे हरवत चाललेलं बालपण वाढत्या शहरात जिथं तिथं असं केविलवाण्या चेहऱ्यानं आणि अनवाणी पायांनी दिसू लागलंय .

जगण्याच्या शर्यतीतलं हे केविलवाणं दुश्य मनात अनेक प्रश्नांच मोहोळ होऊन भोवती घोंघावू लागलंय.तान्हुल्या लेकरांना पोटाशी धरून सिग्नल्सवर पाच दहा रुपयांची भिक मागत उन्हातान्हात होरपळत राहणाऱ्या माणसातल्याच या जमातीला येणारे जाणारे रोजच पाहताहेत .गाडीच्या बंद काचेवर टक टक करणाऱ्या बाई आणि लेकरांना कुणी भिक घालत असेलही कदाचित पण अशा वाढणाऱ्या संख्येवर कुणी काहीच का करू शकत नाही असा अनेकांना प्रश्नही पडत असेल.बदलेल्या जगात हा झपाट्याने बदलत जाणारा पुण्यामुंबई सारखा हा बदल आता सवयीचा बनू लागलाय असं प्रत्येकाला वाटत राहते .

शाळकरी वय असणारी कितीतरी बालकं आता सांगलीतही अशी सिग्नल्सवर काहीतरी विकत आशाळभूत नजरेने येणाऱ्या जाणाऱ्याकडे हात पसरून विनवण्या करताना दिसत आहेत .

आजही अशीच एक चिमुकली कॉलेज कोपऱ्याच्या सिग्नलवर हातात गुलाबी रंगाचे त्यावर Love लिहलेले फुगे  विकत असताना नजरेस पडते .मागच्या महिन्यात प्रजासत्ताक दिन साजरा झाला.आठवडाभर हिच मुलं बिल्ले,स्टिकर्स आणि झेंडे विकत होती. त्यानंतर पेन्स विकू लागली.आता व्हेलेंटाईन डे येतोय.प्रेमानं जग जिंकायला निघालेल्या तरुणाईच्या हातात हे गुलाबी फुगे आशाळभूत नजरेने विकताना या चिमुकल्यांच्या भवितव्याकडे खरंच कोण पाहील काय ?

धावणाऱ्या जगाला याचं काय सोयरसुतक ते आपल्याच तालात धावतंय.सांगली मिरज कुपवाड शहराच्या बाहेर अशी कितीतरी माणसं माळावर पालं ठोकून आनंदात नांदताहेत . मिरजेला जाताना सिनर्जी हॉस्पिटलच्या पुढं त्यांचं अख्खं गाव वसलंय .पोटासाठी शहरं बदलत जगणारी ही अख्खी पिढी भारतातल्या दारिद्रयाची अशी रंगीबेरंगी ठिगळं लावून भटकंती करतेय. त्यांचं जग निराळं ,राहणीमान निराळं आणि एकंदर जगणंही निराळंच .

शहराच्या पॉश फ्लॅटच्या दारोदारी भाकरी तुकडा मागत वणवण फिरणारी ,सिग्नल्सवर हात पसरणारी,जिथे तिथे लहान सहान वस्तू विकत भटकणारी आणि रस्त्यावर भिक मागत ही लहान लहान पोरं आपलं बालपण हरवत चाललीएत. ना शिक्षणाचा गंध,ना जगण्याची शाश्वती,ना कोणतं सोबत भविष्य. सोबत फक्त एका ठिकाणावरून दुसऱ्या ठिकाणावर जगण्यासाठी धावण्याची कुतरओढ. त्यांचे पालकही असेच. विंचवाचं बिऱ्हाड पाठीवर घेऊन जगणाऱ्या या वस्त्या अनेक प्रश्न घेऊन जगताहेत.आणि तिथे वाढणारी,भारताचं भविष्य असणारी बालकं अशी रस्त्यावर भटकत आपलं बालपण हरवत चाललीएत.सामाजिक आणि शैक्षणिक क्रांती नेमकी होतेय तरी कुठे ? खरंच कुणी सांगेल का ?

© प्रा.अरुण कांबळे बनपुरीकर

मु.पो.बनपुरी ता.आटपाडी जि.सांगली

९४२११२५३५७…

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 111 ☆ लघुकथा – लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक लघुकथा लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ?। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 111 ☆

☆ लघुकथा – लड़कियां खेलती क्यों नहीं दिखतीं ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

रविवार के दिन उसने साइकिल निकाली और चल पड़ा स्टेडियम की ओर। फुरसत की सुबह उसे अच्छी लगती है, हर दिन से कुछ अलहदा। ‘आज मनीष को भी साथ ले चलता हूँ’- उसने सोचा। वह तो अब तक बिस्तर में ही अलसाया पड़ा होगा। उसने आवाज लगाई – मनीष! जल्दी आ नीचे, स्टेडियम चलते हैं।

‘अरे नहीं यार! संडे की सुबह कोई ऐसे खराब करता है क्या?‘ मनीष ने बालकनी में आकर अलसाए स्वर में कहा।

तू नीचे आ जल्दी, आज तुझे लेकर ही मैं जाऊँगा। रुका हूँ तेरे लिए।

आता हूँ यार! तू कहाँ पीछा छोड़ने वाला है।

‘अरे! यहाँ तो  बहुत लोग आते हैं’ – स्टेडियम  में जॉगिंग करने और टहलने वालों की भीड़ देखकर मनीष बोला।

सब तेरी तरह आलसी थोड़े ही ना हैं। हर उम्र के लोग दिखाई देंगे तुझे यहाँ। बहुत अच्छा लगता है मुझे यहाँ आकर। ऐसा लगता है कि सब कुछ जीवंत हो गया है। लडकों को क्रिकेट खेलते देखकर अपना समय याद आ  जाता है। मजे थे यार! उस उम्र के,  साइकिल उठाई और चल दिए स्टेडियम में या कभी घर के पास वाले मैदान में क्रिकेट खेलने के लिए – वह तेज गति से चलता हुआ बोलता जा रहा था।

मनीष मानों कहीं और खोया था, उसकी नजर स्टेडियम की भीड़ को नाप – जोख रही थी। कहीं लड़के क्रिकेट खेल रहे थे तो कहीं फुटबॉल। उन्हें देखकर वह कुछ गंभीर स्वर में बोला – ‘कितने लड़के  खेल रहे हैं ना यहाँ?‘

‘हाँ, हमेशा ही खेलते हैं, इसमें कौन सी नई बात है?’ 

‘हाँ, पर लड़कियां खेलती हुई क्यों नहीं दिखाई दे रहीं? रविवार की सुबह है फिर भी?’

उसकी नजर पूरे स्टेडियम का चक्कर लगाकर खाली हाथ लौट आई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – richasharma1168@gmail.com  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 136 ☆ बस थोड़ी देर में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना बस थोड़ी देर में…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 136 ☆

बस थोड़ी देर में… 

हर कार्य को टालते जाना, अंतिम समय में तेजी से करते हुए झंझट निपटाने की आदत आपको लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही तोड़ कर रख देती है। जब अनुशासन और समय प्रबंधन का अभाव हो तो ऐसा होना तय समझिए। इसका एक और कारण समझ में आता है कि मानव का मूल स्वभाव नवीनता की खोज है। जब तक उसे कुछ नया सीखने नहीं मिलेगा वो ऐसे ही व्यवहार करेगा। आजकल तो गूगल में नवीन विचारों की भरमार है। बस प्रश्न पूछिए उत्तर हाजिर है। दिनभर व्यतीत करने के बाद जब डायरी में दिनचर्या का लेखा- जोखा लिखो तो समझ में आता है कि सार्थक कोई कार्य तो हुआ नहीं। बस यही क्रम वर्षों से चला आ रहा है, इसी अपराध बोध के साथ अगले दिन कुछ करेंगे यह सोचकर व्यक्ति चैन की नींद सो जाता है। यही किस्सा रोज एक नए बहाने के साथ चलता रहता है।

आजकल एक शब्द बहुत प्रचलित है, जिसे माइंड सेट कहा जाता है। मन से मनुष्य कहाँ से कहाँ चला जाता है, ये वो स्वयं भी नहीं जान पाता। जो चाहोगे वो मिलेगा ये केवल यू ट्यूब के थम्बनेल में नहीं लिखा होता है, ये तो से सदियों पहले लिखा जा चुका है –

जो इच्छा करिहों मन माहीं, राम कृपा ते दुर्लभ नहीं।

कोई इसे यूनिवर्स की शक्ति से जोड़ता है तो कोई माइंड पावर से। ॐ मंत्र में ब्रह्मांड को देखते ध्यान करने से सब कैसे मिलता है, ये भी विज्ञान की कसौटी पर परखा जा रहा है। मन दिन भर इसी उथल- पुथल भरे विचारों से ग्रसित होकर सोने जैसे समय को अनजाने ही व्यर्थ करता जा रहा है।

ज्यादा चिंतनशील लोग अपने कर्मों का स्वतः मूल्यांकन करते हुए अपनी गलतियाँ  ढूंढ़ते हैं फिर उदास होकर डिप्रेशन में जाने की तैयारी करते हैं, जो कर्म करेगा उससे ही गलतियाँ होगीं, कुछ जानी कुछ अनजानी। गलती करना  उतना गलत नहीं  जितना जान कर अनजान बनना और अपनी भूल को स्वीकार न करना होता है।  भूल को  सहजता से स्वीकार कर लेना, व भविष्य में इसका दुहराव न हो इस बात का ध्यान रखना है।

अक्सर देखने में आता है कि आदर्शवादी लोग जल्दी ही इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं वे छोटी से छोटी बातों के लिए खुद को जिम्मेदार मानकर अपना साहस खो भावनाओं में बहकर अपराधबोध का शिकार   हो जाते हैं।  यदि  उनके आस- पास का वातावरण सकारात्मक नहीं हुआ तो वे आसानी से टूटने लगते हैं।

अपने अपराध को स्वीकार करना  कोई सहज नहीं होता है पर  इतना  भी  मनोबल का टूटना उचित नहीं कि आप नव जीवन को स्वीकार ही न कर पाएँ।

जीवन में आप अकेले नहीं जिससे गलतियाँ हुई हैं या हो रही हैं या हो सकती हैं। ऐसी  परिस्थितियों में दृढ़ता पूर्वक अपने विचारों में  अड़िग  रहते हुए  ग़लती स्वीकार कर सहज हो जाइए जैसे कुछ हुआ ही नहीं। पुरानी यादों और बातों को छोड़ नये कार्यों में अपना शत- प्रतिशत   समर्पण दें और फिर कोई गलती हो तो सहजता से स्वीकार कर आगे बढ़े। मजे की बात कहीं हम गलती न कर दें इसलिए कोई कार्य करते ही नहीं और अनजाने में जीवन के मूल्यवान अवसरों को खो देते हैं।

इस संबंध में हमें प्रकृति से बहुत  कुछ सीखना  चाहिए जैसे-   पतझड़ की ऋतु के बाद वृक्ष उदास नहीं होता बल्कि नयी कोपलें पुनः प्रस्फुटित होने लगती हैं। परिस्थितियों पर काबू पाना ही बुद्धिमत्ता है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि आस्तिक विचार धारा, अहंकार का त्याग, सत साहित्य, सत्संगति,सात्विक भोजन, गुरुजनों का आशीर्वाद,  सत्कर्म, नेक राह व माता- पिता की सेवा सकारात्मक  वातावरण निर्मित करते हैं। अच्छा लिखें अच्छा पढ़ें, परिणाम आशानुरूप होंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – स्रष्टा- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – स्रष्टा-  ??

“विचित्र अवस्था हो गई है मेरी। हर कोई दिगम्बर दिखाई देने लगा है। हरेक अपनी प्राकृतिक अवस्था में। किसी तरह का कोई आवरण नहीं”, साधक ने अपनी समस्या और जिज्ञासा एकसाथ रखीं।

…” जो आवरण तक रहा, उसे हरि कब दिखा? अब इस निरावरण प्रकृति को यों देख, जैसे माँ, संतान को देखती है। अपलक निहार ममता से। स्थूल में सूक्ष्म देखने लगा है तू।..सृष्टि से स्रष्टा होने की यात्रा पर है तू…” कहकर गुरुजी ने शिष्य को गले से लगा लिया।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दो कविताएं ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ कविता ☆ दो कविताएं ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

[1]

☆ स्त्री कभी हारती नहीं ☆

स्त्री 

कभी हारती नहीं। 

 

किसी हताश क्षण में

वह चाहती है  

थोडा सा समय

अपना सा कंधा कोई। 

 

चाहती है वह

अपना एक अदद

खाली कोना कोई 

या फिर 

अपना बिस्तर

और ज़रा सी रुलाई। 

 

कभी चाहती है 

गरम चाय की प्याली

या एक पुरा दिन खाली। 

 

फिर है वह उठती

ताकत से दुगुनी 

और है निकलती

लड़ने जंग एक नयी। 

 

चाय, कोना, कंधा

बिस्तर या रुलाई

कमज़ोरी नही उसकी 

यहां से पाती है वह

ऊर्जा एक नयी। 

[2]

☆ विशेषण ☆ 

उन्होंने दिया है

हमें एक विशेषण

मजबूत और सशक्त

उनको लगता है

हमें नहीं होती है ज़रूरत किसी की

हम सबकुछ सहन कर सकती हैं

सब पर जीत हासिलकर कर लेंगी

वे तलाशते हैं हमें उनको सुनने

या उनका सलीब उठाने

उन्हें नहीं लगता कि कभी

हमें भी सुना जाय शिद्दत से

पूछा जाया कभी कि

हम थकी हैं, दुखी हैं चिंतित या घबरायी..

गृहित लिया जाता है हमें

समुद्र के पानी में घिरी चट्टान सा

या कोहरे में प्रकाशस्तम्भ सा।

हमारी एक अदद गलती की माफी नहीं होती

गुस्से में यदि हम अपना आप खो देती हैं

तो हिस्टेरिक हैं,

या अपना काबू खो देती हैं

तो कमज़ोर,

हमारी पल भर की गैरहाजिरी नोट की जाती है

और उपस्थिति सामान्य होती है,

बहुत दोगला है तुम्हारा नज़रिया

थोडा बदलिए ..हम मज़बूत हैं

हर दिन जुटाती हैं हिम्मत हम

तुम्हारी सोच का, तुम्हारी नज़रों

का सामना करने।

पर हैं तो इन्सान

आँसू निकलते हैं हमारे भी

और आह भी उठती है

चाहती हैं हम कि महसूस किया जाय

हमारा होना और ना होना भी।

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    mudliar_pratibha@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 197 ☆ व्यंग्य – बजट तो बजट ही है, पिछले साल का है तो क्या हुआ ? — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य  – बजट तो बजट ही है पिछले साल का है तो क्या हुआ ?–) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 197 ☆  

? व्यंग्य  – बजट तो बजट ही है, पिछले साल का है तो क्या हुआ ? —?

बजट तो बजट ही है पिछले साल का हुआ तो क्या फर्क पड़ता है ?  न तो टैक्स पेयर आम जनता, न ही विपक्ष पर और न ही पत्रकार,  किसी को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ा कि राजस्थान के मुख्यमंत्री विधान सभा में आठ मिनट तक पिछले साल का बजट ही पढ़ते रहे. उन्हें अपनी गलती का स्वयं आभास तक नहीं हुआ. एक दूसरे मंत्री  जो बजट भाषण मिला रहे थे उन्होंने मुख्यमंत्री जी को उनकी गलती का ध्यान दिलाया, तब कहीं पिछले बरस के बजट भाषण का पन्ना बदला गया. इस तरह प्रमाणित हुआ कि प्राम्पटर बड़ा जरूरी होता है फिर वह स्टेज पर नाटक हो या विधानसभा. यूं विधान सभायें भी नाटक के स्टेज ही तो हैं जहां कलफ किये श्वेत कुर्ते पायजामों जैकेट में माननीय या प्योर सिल्क की हथकरघा पर बनी साड़ियां पहने महिला विधायक आम जनता का भला करने का अभिनय हैं.  दरअसल मुख्यमंत्री जी की इस गलती को बिलकुल तवज्जो नहीं दी जानी चाहिये उनको विपक्ष ही नहीं अपनी ही पार्टी के भितरघात से भी सरकार बचाने जैसे और भी ढ़ेर से काम होते हैं. वे केवल वित्त मंत्री थोड़े हैं जो बस बजट पर ध्यान देते.   वे पेड़ के पके आम की तरह परिपक्व नेता हैं उन्होने कई वित्त वर्ष देखते हुये अपने बाल सफेद किये हैं, उनके चेहरे की झुर्रियां उनकी परिपक्वता का बखान करती  हैं. वे कोई नये नवेले मंत्री थोड़े ही हैं जो शीशे के सामने खड़े होकर अकेले में बजट भाषण का रिहर्सल कर विधान सभा आते. उन्हें अच्छी तरह समझ है कि बजट पिछले साल का हो या नये साल का, अच्छा हो या बुरा, फर्क नहीं पड़ता.

नया बजट पढ़ो या पुराना विपक्ष की प्रतिक्रिया नयी  कहां आती है ? नेता प्रतिपक्ष को तो यही कहना है कि बजट जन विरोधी है. पत्रकारों को हेड लाईन के लिये कोई बढ़िया सा शेर सुना दिया जाये तो उन्हें मसाला मिल ही  जाता है, तो वह तो हर बजट भाषण में होता ही है. रही बात जनता की तो उसे तो हर बजट में खरबूजे की तरह कटना ही है, चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर यह ज्यादा मायने नहीं रखता. बजट किसी साल का हो, नया हो, पुराना हो उसका कंटेंट स्वास्थ्य या महिला पत्रिकाओ जैसा ही होता है जो हमेशा प्रासंगिक बना रहता है. कभी शराब पर टैक्स बढ़ा दिया जाता है, कभी सिगरेट पर. कभी लिपस्टिक सस्ती हो जाती है कभी सिंदूर. गैस सिलेंडर, बिजली, डायरेक्ट टैक्स, इनडायरेक्ट टैक्स में अर्थशास्त्रियों को उलझा दिया जाता है, शाम को टी वी पर बहस करने के मुद्दे बन जाते हैं. जमीन पर ज्यादा कुछ बदलता नहीं.

कर्मचारियों से वादे करना होता है, बेरोजगारों को सपने दिखाने होते हैं. योजनायें जनहितैषी दिखनी चाहिये बस, होता तो वही है जो होना होता है. फिर एक अच्छे बजट में बंगलों पर होने वाले वास्तविक खर्चों का जिक्र थोड़े ही किया जाता है, वे सब तो अनुपूरक मांगों में बिना बहस मेजें ठोंककर स्वीकृत करवा लेना कुशल राजनीतिज्ञ को आना चाहिये.

मेरा मानना तो यह है कि बेकार ही हर सरकार अपना बजट खुद बनाकर समय व्यर्थ करती है. मेरा सुझाव है कि अब जमाना कम्प्यूटर का है, सरकारों को मुझ जैसे पेशेवर लेखको से स्टैंडर्ड बजट फार्मेट तैयार करवा लेना चाहिये. हम मौजू शेरो शायरी से लबरेज आकर्षक बजट भाषण तैयार कर देंगे, मंत्री जी को महज अपने राज्य का नाम बदलना होगा, वर्ष बदलना होगा फटाफट लाल लैपटाप में बोल्ड लैटर्स में बजट तैयार मिलेगा.  विपक्ष के लिये भी बजट पर प्रतिक्रियाओ के आप्शन्स लेखक रेडी कर देंगे, इस सब से माननीय जन प्रतिनिधियों का कीमती समय बचेगा और वे आम जनता के हित चिंतन में निरत, बजट के उनके हिस्से में आये रुपयों से  बेहतर मजे कर सकेंगे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 147 ☆ बाल गीत – भारत के सपूत नेताजी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’… ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 147 ☆

☆ बाल गीत – भारत के सपूत नेताजी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

भारत के सपूत नेताजी

मिलकर हम गुणगान करें।

देश की खातिर अमर हो गए

आओ सभी प्रणाम करें।।

 

कतरा – कतरा लहू तुम्हारा

काम देश के आया था।

इसीलिए तो आजादी का

झंडा भी फहराया था।

 

वतन कर रहा याद आपको

हम शुभ – शुभ सारे काम करें।

देश की खातिर अमर हो गए

आओ सभी प्रणाम करें।।

 

गोरों को भी खूब छकाया

जोश नया दिलवाया था।

ऊँचा रखकर शीश धरा का

शान – मान करवाया था।

 

कुर्बानी को याद रखें हम

राष्ट्र की ऊँची शान करें।

देश की खातिर अमर हो गए

आओ सभी प्रणाम करें।।

 

नेताजी उपनाम आपका

सब श्रद्धा से हैं लेते।

नेता आज नई पीढ़ी के

बीज घृणा के हैं देते।

 

भेदभाव का जहर मिटाएँ

सदा ऐक्य का मान करें।।

देश की खातिर अमर हो गए

आओ सभी प्रणाम करें।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ “राजुरकर राज…” – विनम्र श्रद्धांजलि ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🙏🏻 राजुरकर राज – विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🏻

भोपाल। कल 15 फरवरी को मध्यप्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार और दुष्यंत कुमार संग्रहालय (भोपाल ) के निदेशक राजुरकर राज जी का दुखद निधन हो गया। राजुरकर राज जी ने 25 वर्ष पूर्व हिन्दी के अप्रतिम कवि और कथाकार दुष्यंत कुमार की स्मृतियों को सँजोये रखने का कार्य प्रारम्भ किया एवं आजीवन आजीवन मूर्त रूप देने में सतत लगे रहे। उनका दुखद निधन साहित्य जगत की अपूर्व क्षति है।

🙏🏻 ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🏻

☆  राजुरकर राज 

ना पकड़ा हाथ ना ही दामन छू सका कोई,

करीब से उठकर अचानक चला गया कोई।

 

जाना सभी को एक न एक दिन जहाँ से,

वक्‍त-ए-रुख़सत दिल में समा गया कोई।

जाने का ग़म रहेगा हमें  नफ़स दर नफ़स,

वो जो देखते-देखते नज़र फिरा गया कोई।

हँस-हँस के बतियाता था मोहक अन्दाज़ में,

मुसकाते-मुसकाते ही दिल लुभा गया कोई।

आरज़ू है उसकी यादों में ज़िंदगी बसर हो,

वो जो बातों-बातों में अब्र सजा गया कोई।

जब महफ़िल में ज़िक्र होगा उस हबीब का,

‘आतिश’ के सामने अश्क़ बहा गया कोई।

  – सुरेश पटवा “आतिश”

वरिष्ठ साहित्यकार, भोपाल मध्यप्रदेश 

🙏🏻 विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🏻

दुष्यन्तकुमार स्मृति संग्रहालय के संस्थापक संचालक, शब्दशिल्पियों के आसपास पत्रिका के संपादक, आकाशवाणी भोपाल के पूर्व उद्घोषक तथा “शब्द-साधक” कृति (1500साहित्यकारों की विवरणिका) के संपादक राजुरकर राज जी का असमय निधन साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति है।

अत्यन्त मिलनसार, हँसमुख,कर्तव्यदक्ष,अहंशून्य तथा समदर्शी व्यक्तित्व के धनी राज जी अपने पीछे हार्दिक स्मृतियां छोड़ गये हैं। सारा साहित्यिक समाज शोक विह्वल है।
कहते हैं बेहद ख्यातनाम शिखरस्थ और प्रचंड बुद्धिमान होने से भी अधिक श्रेयस्कर है मानवीय गुणों से परिपूर्ण होना। सुख दुःख में साथ निभाना। इस दृष्टि से राज जी विलक्षण थे। 

उन्हें नवोदित प्रवाह परिवार अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे। हरिॐ।

  – इंदिरा किसलयनागपुर 

राजुरकर राज निदेशक दुष्यंत संग्रहालय का जाना… मेरी व्यक्तिगत क्षति, गहन शोक ☆ 

वे सारे जीवन साहित्यकारों को परस्पर जोड़ने में निरत रहे।

१९९४ तार सप्तक अर्ध शती समारोह, भवभूति कक्ष साहित्य अकादमी, मेरी किताब आक्रोश का विमोचन था। तब उनसे पहली भेंट हुई थी, वे “हस्ताक्षर” परिचय पुस्तिका हेतु उपस्थित लोगों से पते, बायो एकत्रित कर रहे थे। मैं तब मंडला में था, फिर हम सतत संपर्कों में बने रहे। भोपाल शिफ्ट होने पर लगा कोई है यहां अपना पुराना।

विवेक रंजन श्रीवास्तव

वरिष्ठ समीक्षक तथा व्यंग्यकार

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मज गावला आनंद… ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मज गावला आनंद… ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆ 

सांप्रतच्या काळी नाही

हाती काम फार

पाणी शेंदायासी गेले

दूर दूर बावीवर

कळशीचा हिंदकळ

फेकी पाणीयाचे स्पंद

गार गार त्या थेंबात

मज गावला आनंद ॥

 

घरी येता येता आधी

गेले रांधण्यासी भात

काड्या सारता चुलीत

चटकला की ग हात

तडतडला निखारा

उडे जळणारा स्पंद

दिसे चिमुकला सूर्य

मज गावला आनंद ॥

 

घंगाळात पाणी ऊन

लोटा खांद्यावरी रिता

ओघळत्या धारेतुनी

स्पर्शभास झाला होता

अपरोक्ष माझ्या तेथे

उभा असावा मुकुंद

दिव्य स्पर्शातून त्याच्या

मज गावला आनंद ॥

 

फूल तोडण्या आधीच

हात थबकला बघ

मन धजे ना करण्या

आई बाळाचा वियोग

सुखावून फुलाने त्या

दिला मज रंग गंध

अपूर्व त्या उपहारे

मज गावला आनंद ॥

 

तू आहेस निकटी

फक्त याच कल्पनेने

मन होतसे विभोर

फक्त तुझ्या आठवाने

आणी वार्‍याची झुळूक

तुझा मंद श्वासगंध

आणि तुझ्या हुंकारात

मज गावला आनंद ॥

 

© सुहास सोहोनी

रत्नागिरी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #148 ☆ बाप…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 148 ☆ बाप…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

बाप देवळातला देव पुजा त्याचीही करावी

आई समान काळजात मुर्ती त्याचीही असावी..

 

बापाच्याही काळजाला असे मायेची किनार

त्याच्या शिवीतही असे ऊब ओवीची अपार..

 

पोरांसाठी सारे घाव बाप हसत झेलतो

स्वतः राहून उपाशी घास लेकराला देतो..

 

बापाच्या कष्टाला नाही सोन्या चांदीचे ही मोल

त्याच्या राकट हातात आहे भविष्याची ओल..

 

लेकराला बाप जेव्हा त्याच्या कुशीमध्ये घेतो

सुख आभाळा एवढे एका क्षणांमध्ये देतो..

 

बापाला ही कधी कधी त्याचा बाप आठवतो

नकळत डोळ्यांमध्ये त्यांच्या पाऊस दाटतो..

 

कधी रागाने बोलतो कधी दुरून पाहतो

एकांताच्या वादळात बाप घर सावरतो..!

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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