डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ कविता ☆ दो कविताएं ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

[1]

☆ स्त्री कभी हारती नहीं ☆

स्त्री 

कभी हारती नहीं। 

 

किसी हताश क्षण में

वह चाहती है  

थोडा सा समय

अपना सा कंधा कोई। 

 

चाहती है वह

अपना एक अदद

खाली कोना कोई 

या फिर 

अपना बिस्तर

और ज़रा सी रुलाई। 

 

कभी चाहती है 

गरम चाय की प्याली

या एक पुरा दिन खाली। 

 

फिर है वह उठती

ताकत से दुगुनी 

और है निकलती

लड़ने जंग एक नयी। 

 

चाय, कोना, कंधा

बिस्तर या रुलाई

कमज़ोरी नही उसकी 

यहां से पाती है वह

ऊर्जा एक नयी। 

[2]

☆ विशेषण ☆ 

उन्होंने दिया है

हमें एक विशेषण

मजबूत और सशक्त

उनको लगता है

हमें नहीं होती है ज़रूरत किसी की

हम सबकुछ सहन कर सकती हैं

सब पर जीत हासिलकर कर लेंगी

वे तलाशते हैं हमें उनको सुनने

या उनका सलीब उठाने

उन्हें नहीं लगता कि कभी

हमें भी सुना जाय शिद्दत से

पूछा जाया कभी कि

हम थकी हैं, दुखी हैं चिंतित या घबरायी..

गृहित लिया जाता है हमें

समुद्र के पानी में घिरी चट्टान सा

या कोहरे में प्रकाशस्तम्भ सा।

हमारी एक अदद गलती की माफी नहीं होती

गुस्से में यदि हम अपना आप खो देती हैं

तो हिस्टेरिक हैं,

या अपना काबू खो देती हैं

तो कमज़ोर,

हमारी पल भर की गैरहाजिरी नोट की जाती है

और उपस्थिति सामान्य होती है,

बहुत दोगला है तुम्हारा नज़रिया

थोडा बदलिए ..हम मज़बूत हैं

हर दिन जुटाती हैं हिम्मत हम

तुम्हारी सोच का, तुम्हारी नज़रों

का सामना करने।

पर हैं तो इन्सान

आँसू निकलते हैं हमारे भी

और आह भी उठती है

चाहती हैं हम कि महसूस किया जाय

हमारा होना और ना होना भी।

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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