हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #177 – 63 – “हमने तो शिद्दत से निभाए तुमसे रिश्ते…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हमने तो शिद्दत से निभाए तुमसे रिश्ते…”)

? ग़ज़ल # 63 – “हमने तो शिद्दत से निभाए तुमसे रिश्ते…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जब मुलाकात हुई तो की बेकार की बात,

कर लेते तुम हमसे थोड़ी प्यार की बात।  

क्यों बदलती इश्क़ की तासीर मौसम जैसी,

कभी इनकार की तो कभी इकरार की बात।

पास आकर बैठो कभी तो फ़ुरसत से तुम,

ताज़ा कर लें हम पहले इज़हार की बात।

हमने तो शिद्दत से निभाए तुमसे रिश्ते,

हमेशा परवान चढ़ी है दिलदार की बात।

मेरी बातें तुम अक्सर क्यों भूल जाते हो,

मगर याद रहती तुम्हें रिश्तेदार की बात। 

कीमतें चीजों की यूँ ही नहीं गिरती-चढ़तीं,

सियासत तय करती शेयर बाजार की बात।

फ़कत वादों के दम पर ज़िन्दगी नहीं चलती,

आतिश अक्सर सच लगी मयख्वार की बात।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ अतीत की खिड़की से रुपहली धूप – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ कथा-कहानी ☆ अतीत की खिड़की से रुपहली धूप – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

दो चार चिठ्ठिओं के बाद एक और चिठ्ठी पूर्णिमा पढ़ रही थी …‘‘यह भी कैसी विडंबना है! सारा किया कराया मेरा है, मगर सारी मुसीबतें तुम्हें झेलनी पड़ रही है। अकेले। तुम्हें उल्टी करते देख मैं तो घबड़ा ही गया था। कहीं पीलिआ सिलिया न हो जाए! मगर भाभी ने मुझे चिकोटी काटते हुए कहा था,‘‘यह रोग तो तुम्हीं ने लगाया है।’’ अब कैसी हो? वहाँ जाकर क्या ऐसे ही सब ठीक हो गया? अच्छा, तो हमारे ही यहाँ तुमको जितनी तकलीफें हैं? मायका तो स्वर्ग का और एक नाम है – क्यों? अच्छा, मुन्ना होगा तो उसका नाम क्या रखोगी ?और अगर बेटी हुई तो? दोनों नाम सोच कर रखना …।’’

धूप के साथ छाँव, तो सुख के साथ दुख भी। अम्माजी की एक चिठ्ठी में कुछ वैसी ही बातें-। ‘‘अब इसमें मेरा क्या दोष है? मिथलेश चाची मुझे ही कोस रही थी ‘‘बहू आयी, साल बीता नहीं कि लगी लगायी नौकरी छूट गयी।’’ ‘‘मेरी ही किस्मत फूटी है, तो मैं क्या करूँ?’’

इसके जवाब में हृदयनारायण -‘‘लो, उस दिन तो तुम अपनी किस्मत पर रो रही थी। अब? वो नौकरी गयी, तभी न मैं एड़ी चोटी एक करके यहाँ से वहाँ दौड़ता रहा। देखो, पाँच महीने के अंदर मुझे लेक्चरर का पोस्ट मिल गया। अब मैं शान्ति से डाक्टरेट भी पूरा कर लूँगा। तो?

अब पूर्णिमा चिठ्ठिओं को सहेजने लगी।

‘‘क्या कर रही हो दीदी?’’

‘‘कहीं बाबूजी अम्माजी वापस आ जायें तो -?’’

‘‘चोरी तो नहीं की है, डाका तो नहीं डाला। हंगामा है क्यूॅ ?’’अनामिका खिलखिलाने लगी,‘‘बस, प्रेमपत्र ही तो पढ़ रही हूँ -’’

‘‘यह चोरी नहीं तो और क्या है?’ ’चॉदनी ने उसे कसके चिकोटी काट दी।

‘‘ऊफ् माँ! दीदी, दीदी जरा देखो न अम्माजी के मधुशाला में और कितना नशा है? इसे – इसे पढ़ो !’’

कई साल के अन्तराल के बाद की चिठ्ठी थी। तीनों संतानें हो गई थीं …….

‘‘देखिए, जल्दी जल्दी में मैं मुन्नी का फ्राक उतार ले आना भूल ही गई। छत पर पड़ा है। बंदर फाड़ न दे। मिठाई से कह कर बच्चों का ड्रेस इस्तिरी करवा दीजिएगा …’’

‘‘लो, चिठ्ठी में बंदर से लेकर धोबी सबका जिक्र है। मगर -’’अनामिका के अरमान का गुब्बारा फुस्स् हो गया, ‘‘आगे क्या है?’’

‘‘भूलिएगा नहीं। बाबूजी की दवा रात में दे दीजिएगा। और अम्माजी रोज रोज पूड़ी कचौड़ी न बनायें। अब इस उमर में बाबूजी के लिए ये सब ठीक नहीं हैं। वैसे आपका मना करना भी तो शोभा नहीं देगा। लगेगा मैं सीखा पढ़ा कर आयी हूँ। मगर ख्याल रहे उनको दिल की बीमारी है। ….’’

‘‘दिल का हाल सुने दिलवाला -उसका क्या होगा, नायिके ?’’

‘‘कल सारी रात छुटकी रोती रही -’’दोनों भाभिओं ने ननद की ओर देखा -‘‘शायद पेट में दर्द हो रहा था। पेट में गैस वैस हो गया था -’’

‘‘छिः!’ ’सशक्त विरोध पक्ष में चाँदनी -‘‘अब यह सब नहीं पढ़ना है। वह मेरे पेट में दर्द था या कान में – कैसे मालूम ?’’

‘‘हाँ, हाँ, तुझे तो आज तक सब याद है!’’ बड़ी भाभी ने ननद की खिंचाई की।

‘‘बन्दर और दवा से लेकर गैस तक सब हैं। मगर -‘दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा….’। कहाँ सोचा था ‘फूलों के रंग से दिल की कलम से कुछ बातें लिखीं होगी…’’

इतने में बेल बजी। तीनों चोर जोर से चौंक गयीं -‘‘अरे बापरे! कितना बजा? अल्मारी बन्द कर।’’ दोनों देवरानियॉ जल्दी जल्दी चिठ्ठियॉ सहेजने लगीं।

चाँदनी ने बरामदे से देखा, ‘‘अम्मा और बाबूजी आये हैं।’’

पूर्णिमा ऑचल के नीचे एक पुलिंदा दबा कर भागी नीचे – दरवाजा खोलने। इसके पास मानिनी की चिठ्ठियां थीं।

उधर अनामिका के हिस्से में हृदयनारायण की पत्रावली आ गयीं। उन्हें सिल्क के कपड़े में लपेट कर झट से अपने बिस्तर के नीचे दबा दिया।

दो तीन दिन ऐसे ही बीत गये…। फिर एक दिन शाम की चाय के बाद तीनों की महफिल जम उठी। चोरी करना आसान है। मगर चोरी का सामान लौटाना सचमुच मुश्किल काम होता है। अब चिठ्ठिओं को यथास्थान यथावत् रखना भी तो था। सबने सोचा अम्माजी जब बाथरुम जायेंगी तो सबकी पुनः स्थापना कर दी जायेगी। तभी अनामिका ने पूछा, ‘‘दीदी, तुमने भी अम्माँजी की बाकी चिठ्ठियॉ पढ़ ली कि नहीं ?’’

‘‘हाँ, कुछ कुछ……’’

‘‘देखो न, बुआजी की शादी के समय अम्मां को शायद एक नीले रंग की पटोला साड़ी बहुत ही पसन्द आ गयी थी। मगर इतने ढेर सारे खर्च को देखते हुए बेचारी ने मन की साध मन में ही दबा ली। बाबूजी को किसी से पता चल गया था। एक चिठ्ठी में उसी बात का अफसोस कर रहे थे कि मैं तुमको वह साड़ी पहना न सका। उसके बाद भी इतनी सारी चीजें खरीदी गयीं – उससे महॅँगी भी – मगर गृहस्थी के बजट में उसका फिर नाम न आया। बाबूजी माताजी को वही साड़ी पहनाना चाहते थे।’’

‘‘हाँ रे! उसी तरह माताजी की एक चिठ्ठी में भी है’’

जब चाँदनी के भैया लोग छोटे थे, तो इन्हें और दादा दादी को लेकर बाबूजी और अम्मां केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा पर गये थे। पर गौरीकुंड पहुंचकर दादी की तबिअत काफी खराब हो गई। सो बाबूजी वहीं बैठे माँ की सेवा करते रहे। मजबूरन अम्माजी को बच्चों को लेकर दादाजी के साथ आगे चले जाना पड़ा। बस, वही बात अम्मांजी को सालती रही कि जिसकी इच्छा इतनी थी वही जा न सका। फिर दोबारा उधर का कार्यक्रम बन भी न सका।’’

तीनों चुप बैठी कुछ सोच रही थीं ……

आखिर पूर्णिमा बोली,‘‘क्यों रे छोटी, हम भी तो अपने सास ससुर के लिए कुछ कर सकती हैं। क्यों न बाबूजी और अम्माजी को एकसाथ फिर वहीं ले चलें। आज ही मैं तेरे बड़े भैया से बात करती हूँ।’’

‘‘हाँ, दीदी, और मैं अम्मा के लिए वही पटोला सिल्क की साड़ी खरीदूँगी। नीले रंग की।’’

अचानक चाँदनी उठ खड़ी हुई और दोनों भाभिओं के गाल चूम लिये …

कुछ दिनों बाद…

रेल टिकट को देख कर हृदयनारायण हॅँसने लगे, ‘‘यह तो मेरी कब की इच्छा थी। चलो, बेटे बहुओं ने पूरी कर दी। मैं तो भाई भाग्यवान हूँ -’’

‘‘और अम्मां, आप यही साड़ी पहन कर दर्शन करने जाइयेगा!’’ अनामिका ने सास के हाथों में वह साड़ी रख दी।

‘‘अरे! यह तू कैसे ले आई? सालों पहले ऐसी ही एक साड़ी पर मेरा मन आ गया था। मगर तेरे बाबूजी क्या करते? वो हो नहीं पायी। फिर भी, अब इस उमर में इसे पहनूँ ? छिः! लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘नहीं अम्माँजी, आपको पहननी पड़ेगी! मन की साध अधूरी क्यों रहे? पूरी कर लीजिए …!’’

अचानक हृदयनारायण कुछ सोचने लगे, ‘‘मुन्ने की अम्मां, यह बताओ हम दोनों की असाध एक साथ इन्हें कैसे मालूम पड़ गयीं ? तुमने तो कभी कुछ नहीं बताया?’’

‘‘पागल हैं क्या? मैं क्यों बताने गयी?’’

‘‘तो?’’ हृदयनारायण दोनों बहुओं की ओर एकटक देखने लगे, ‘‘तुम लोगों को कैसे मालूम हुआ -?’’

दोनों अपराधी ऑँचल से मुँह दाब कर हॅँस रही थीं। चाँदनी ने ऑँखें नीची कर ली।

मानिनी के मन में क्या हुआ कि अचानक उठ कर गयीं और अपनी ड्रेसिंग टेबुल की अल्मारी को खोल कर उन्होंने देखा। बस, उल्टे पाँव सिर पीटते हुए वापस आ गयीं, ‘‘छिः! सत्यानाशी! तुम दोनों ने हमारी चिठ्ठी पढ़ी थी?’’

‘‘जाकर थाने में खबर करो!’’ हृदयनारायण चिल्लाकर बेटे को बुलाने लगे, ‘‘मुन्ना !जरा छत से बन्दर भगानेवाली लाठी तो लेते आ -’’

दोनों चोर घूँघट में मुँह छुपा कर हँसते हुए भाग खड़ी हुईं…।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: asrc.vns@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदाशिव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज महादेव साधना महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी को सम्पन्न होगी।

💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सदाशिव ??

🕉️ ई-अभिव्यक्ति के सभी पाठकों को महाशिवरात्रि की हृदय से मंगलकामनाएँ। इस निमित्त आज प्रस्तुत है, ‘संजय उवाच’ के एक आलेख का पुनर्पाठ। 🙏

एक बुजुर्ग परिचित का फोन आया। बड़े दुखी थे। उनके दोनों शादीशुदा बेटे अलग रहना चाहते थे। बुजुर्ग ने जीवनभर की पूँजी लगाकर रिटायरमेंट से कुछ पहले तीन बेडरूम का फ्लैट लिया था ताकि परिवार एक जगह रह सके और वे एवं उनकी पत्नी भी बुढ़ापे में सानंद जी सकें। अब हताश थे, कहने लगे, क्या करें, परिवार में सबकी प्रवृत्ति अलग-अलग है। एक दूसरे के शत्रु हो रहे हैं। शत्रु साथ कैसे रह सकते हैं?

बुजुर्ग की बातें सुनते हुए मेरी आँखों में शिव परिवार का चित्र घूम गया। महादेव परम योगी हैं, औघड़ हैं पर उमापति होते ही त्रिशूलधारी जगत नियंता हो जाते हैं। उनके त्रिशूल में जन्म, जीवन और मरण वास करने लगते हैं। उमा, काली के रूप में संहारिणी हैं पर शिवप्रिया होते ही जगतजननी हो जातीहैं। नीलकंठ अक्षय चेतनतत्व हैं, गौरा अखंड ऊर्जातत्व हैं। परिवार का भाव, विलोम को पूरक में बदलने का रसायन है।

शिव परिवार के अन्य सदस्य भी इसी रसायन की घुट्टी पिये हुए हैं। कार्तिकेय बल और वीरता के प्रतिनिधि हैं। वे देवताओं के सेनापति हैं। श्रीगणेश बुद्धि के देवता हैं। बौद्धिकता के आधार पर प्रथमपूज्य हैं। सामान्यत: विरुद्ध गुण माने जानेवाले बल और बुद्धि, शिव परिवार में सहोदर हैं। अन्य भाई बहनों में देवी अशोक सुन्दरी, मनसा देवी, देवी ज्योति, भगवान अयप्पा सम्मिलित हैं पर विशेषकर उत्तर भारत में अधिकांशत: शिव, पार्वती, श्रीगणेश और कार्तिकेय ही चित्रित होते हैं।

अब परिवार में सम्मिलित प्राणियों पर भी विचार कर लेते हैं। महाकाल के गले में लिपटा है सर्प। गणेश जी का वाहन है, मूषक। सर्प का आहार है मूषक। सर्प को आहार बनाता है मयूर जो कार्तिकेय जी का वाहन है। महादेव की सवारी है नंदी। नंदी का शत्रु है गौरा जी का वाहन, शेर। संदेश स्पष्ट है कि दृष्टि में एकात्मता और हृदय में समरसता का भाव हो तो एक-दूसरे का भक्ष्ण करने वाले पशु भी एकसाथ रह सकते हैं।

एकात्मता, भारतीय दर्शन विशेषकर संयुक्त परिवार प्रथा के प्रत्येक रजकण में दृष्टिगोचर होती रही है। पिछली पीढ़ी में एक कमरे में 8-10 लोगों का परिवार साझा आनंद से रहता था। दाम्पत्य, जच्चा-बच्चा सबका निर्वहन इसी कमरे में। स्पेस नहीं था पर सबके लिए स्पेस था। जहाँ करवट लेने की सुविधा नहीं थी, वहाँ किसी अतिथि के आने पर आनंद मनाने की परंपरा थी, पर ज्यों ही समय ने करवट बदली, परिजन, स्पेस के नाम पर फिजिकल स्पेस मांगने लगे। मतभेद की लचीली बेल की जगह मनभेद के कठोर कैक्टस ने ले ली। रिश्ते सूखने लगे, परिवारों में दरार पड़ने लगी।

सूखी धरती की दरारों में भीतर प्रवेश कर उन्हें भर देती हैं श्रावण की फुहारें। न केवल दरारें भर जाती हैं अपितु अनेक बार वहीं से प्राणवायु का कोश लेकर एक नन्हा पौधा भी अंकुरित होता है।…श्रावण मास चल रहा है, दरारों को भरने और शिव परिवार को सुमिरन करने का समय चल रहा है। यह शिव भाव को जगाने का अनुष्ठान-काल है।

भगवान शंकर द्वारा हलाहल प्राशन के उपरांत उन्हें जगाये रखने के लिए रात भर देवताओं द्वारा गीत-संगीत का आयोजन किया गया था। आधुनिक चिकित्साविज्ञान भी विष को फैलने से रोकने के लिए ‘जागते रहो’ का सूत्र देता है। ‘शिव’ भाव हो तो अमृत नहीं विष पचाकर भी कालजयी हुआ जा सकता है। इस संदर्भ में इन पंक्तियों के लेखक की यह कविता देखिए,

कालजयी होने की लिप्सा में,

बूँद भर अमृत के लिए

वे लड़ते-मरते रहे,

उधर हलाहल पीकर

महादेव, त्रिकाल भए..!

शिव भाव जगाइए, सदाशिव बनिए। नयी दृष्टि और नयी सृष्टि जागरूकों की प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 55 ☆।।सच्चा रिश्ता एक अनमोल अमानत  होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। सच्चा रिश्ता एक अनमोल अमानत  होता है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 55 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। सच्चा रिश्ता एक अनमोल अमानत  होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

सच्चे  रिश्तों  के  लिए एहसास जरूरी  है।

हर   रिश्ते  को  मानना  खास  जरूरी  है।।

दिल   से  दिल  का  तार   मिला कर चलो।

रिश्तों में और कुछ नहीं विश्वास जरूरी है।।

[2]

दोस्ती  का  अपना  एक  अंदाज  होता  है।

हर  सवाल का  देना      जवाब  होता  है।।

दोस्ती खून का नहीं  है यकीन का रिश्ता।।

ये एक रिश्ता हर एक से लाजवाब होता है।।

[3]

कभी अपने के आंख में आंसू न आने देना।

कभी किसी दोस्त को यूं मत गवानें देना।।

प्रेम की  नाजुक डोरी बहुत  होती मजबूत।

कभी  इस पर कोई दाग मत लगाने देना।।

[4]

सच्चा रिश्ता प्रभु की दी हुई नियामत होता है।

आपकी  खुशियों  की  वह  जमानत होता है।।

दोस्ती  कभी   टिकती  नहीं बिना निभाने के।

रखना संभाल कि अनमोल अमानत होता है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 119 ☆ ग़ज़ल – “दिखते जो है बड़े उन्हें वैसा न जानिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “दिखते जो है बड़े उन्हें वैसा न जानिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #119 ☆  ग़ज़ल  – “दिखते जो है बड़े उन्हें वैसा न जानिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अब आ गई है दुनिया ये ऐसे मुकाम पै

जो खोखला है, बस टिका है तामझाम पै।।

दिखते जो है बड़े उन्हें वैसा न जानिये

कई तो बहुत ही बौने हैं पैसे के नाम पै।।

युनिवर्सिटी में इल्म की तासीर नहीं है

अब बिकती वहाँ डिग्रियाँ सरेआम दाम पै।।

आफिस हैं कई काम पै होता नहीं कोई

कुछ लेन देन हो तो है सब लोग काम पै।।

बाजारों में दुकानें है पर माल है घटिया

कीमत के हैं लेबल लगे ऊँचे तमाम पै।।

नेता है वजनदार वे रंगदार जो भी है

रंग जिनका सुबह और है, कुछ और शाम पै।।

तब्दीलियों का सिलसिला यों तेज हो गया

विश्वास बदलने लगे केवल इनाम पै।

सारी पुरानी बातें तो बस बात रह गई

अब तो सहज ईमान भी बिकता है दाम पै।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “महाशिवरात्रि” पर विशेष – हे! औघड़दानी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

☆ कविता ☆ “महाशिवरात्रि” पर विशेष – हे! औघड़दानी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

औघड़दानी, हे त्रिपुरारी, तुम भगवन् स्वमेव ।

पशुपति हो तुम, करुणा मूरत, हे देवों के देव ।।

तुम फलदायी, सबके स्वामी,

तुम हो दयानिधान।

जीवन महके हर पल मेरा,

दो ऐसा वरदान।।

आदिपुरुष तुम, पूरणकर्ता, शिव, शंकर महादेव।

नंदीश्वर तुम, एकलिंग तुम, हो देवों के देव ।।

तुम हो स्वामी, अंतर्यामी,

केशों में है गंगा।

ध्यान धरा जिसने भी स्वामी,

उसका मन हो चंगा।।

तुम अविनाशी, काम के हंता, हर संकट हर लेव।

भोलेबाबा, करूं वंदना, हे देवों के देव  ।।

उमासंग तुम हर पल शोभित,

अर्ध्दनारीश कहाते।

हो फक्खड़ तुम, भूत-प्रेत सँग,

नित शुभकर्म रचाते।।

परम संत तुम, ज्ञानी, तपसी, नाव पार कर देव ।

महाप्रलय ना लाना स्वामी, हे देवों के देव ।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – khare.sharadnarayan@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 7 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 7 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

लाय सजीवन लखन जियाये।

श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।

तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।

अर्थ:-

श्री लक्ष्मण जी मेघनाथ द्वारा किए गए शक्ति प्रहार के कारण मूर्छित हो गए थे और मृत्यु शैया पर थे। उस समय हनुमान जी ने संजीवनी बूटी लाकर श्री लक्ष्मण जी को जीवित कर दिया। जिससे श्री रामचंद्र जी ने खुश होकर के उनको अपने गले लगाया और उनकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि तुम मेरे भाई हो।

भावार्थ:-

इस चौपाई में तुलसी दास जी ने श्री हनुमान जी की स्तुति श्री लक्ष्मण जी के प्राणदाता के रूप में की है। श्री सुषेण वैद्य के परामर्श के अनुसार वे द्रोणा गिरी पर्वत पर गए। अनेक कठिनाइयों के बाद भी वे समय पर द्रोणागिरी पर्वत को ही लेकर श्री लक्ष्मण जी के पास पहुंच गए। बूटी का सेवन करने के उपरांत  लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए।। यह देख कर के श्री रामचंद्र जी ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया।

उसके बाद श्री रामचंद्र जी ने श्री हनुमान जी की बहुत प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि तुम मेरे लिए भरत के समान प्रिय हो। यह सभी जानते हैं की श्री रामचंद्र जी भरत जी से अत्यंत प्रेम करते थे।

संदेश:-

केवल सगे संबंध ही नहीं कभी-कभी कोई रिश्ता ऐसा भी बन जाता है, जो इन से भी ऊपर होता है और ईश्वर-भक्त का रिश्ता ऐसा ही होता है।

इन चौपाइयों को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ :-

लाय सजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।

हनुमान चालीसा की इन चौपाई से शारीरिक व्याधियों का निवारण होता है तथा अपने से बड़ों की कृपा प्राप्त होती है। अगर आपके वरिष्ठ आप से नाराज है या आप रोगों से ग्रस्त हो गए हैं तो आपको इन चौपाइयों का पाठ करना चाहिए।   

विवेचना:- 

इन चौपाइयों में हनुमान जी द्वारा बहुत से किए गए कार्यों में से एक कार्य का वर्णन है। इसमें उन्होंने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा की है। संकट मोचन हनुमानाष्टक में इस बात को निम्नलिखित रुप में कहा गया है

बाण लग्यो उर लछिमन के तब, प्रान तज्यो सुत रावन मारो।

लै गृह वैध्य सुषेण समेत, तबै गिरि द्रोण सुबीर उपारो ॥

आनि सजीवन हाथ दई तब, लछिमन के तुम प्राण उबारो।

को नहिं जानत है जग में कपि, संकट मोचन नाम तिहारो ॥५॥

अर्थात- लक्ष्मण की छाती मे बाण मारकर जब मेघनाथ ने उन्हे मूर्छित कर दिया। उनके प्राण संकट में चले गये। तब आप वैद्य सुषेण को घर सहित उठा लाये और द्रोण पर्वत सहित संजीवनी बूटी लेकर आए जिससे लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा हुई। हे महावीर हनुमान जी, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है कि आपको ही सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है।

इस प्रकार हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण जी को मृत्यु के मुंह में जाने से बचाया। इसमें पूरा योगदान हनुमान जी का ही है सुषेण वैद्य को वही श्रीलंका से लेकर लाए थे उसके कहने पर वही द्रोणागिरी पर्वत पर संजीवनी बूटी लेने गए थे और जब संजीवनी बूटी समझ में नहीं आई तो पूरा पर्वत उठाकर वही लक्ष्मण जी के पास लाए।  सुषेण वैद्य ने  संजीवनी बूटी को निकालकर इसकी औषधि बनाकर लक्ष्मण जी को दिया और लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए।

ऐसा ही गोस्वामी तुलसी दास जी द्वारा रचित हनुमान बाहुक में भी छठे नंबर के  घनाक्षरी छंद में दिया गया है :-

द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो।।

संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो।

साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो।।६

अर्थ:- द्रोण-जैसा भारी पर्वत खेल में ही उखाड़ गेंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल-फल के समान क्रीडा की सामग्री बन गया। राम-राज्य में अपार संकट (लक्ष्मण-शक्ति) -से असमंजस उत्पन्न हुआ (उस समय जिसके पराक्रम से) युग समूह में होने वाला काम पल भर में मुट्ठी में आ गया। तुलसी के स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान् हैं, जिनकी भुजाएँ लोकपालों को पालन करने तथा उन्हें फिर से स्थिरता-पूर्वक बसाने का स्थान हुईं।।६।।

श्री लक्ष्मण जी ने मेघनाथ से युद्ध किया। मेघनाथ ने उनके ऊपर शक्ति का प्रहार किया जिससे कि लक्ष्मण जी की मूर्छित हो गये। अब आप कल्पना करें एक भाई के मृत्यु शैया पर होने पर दूसरे भाई की क्या स्थिति होगी?  भाई भी लक्ष्मण जी जैसा, जो कि अपने भाई के वनवास जाने पर उसके साथ राजमहल की खुशियों को छोड़ कर के जंगल की तरफ चल देता है ?  रामचंद जी को यह बात पता चलती है उनकी स्थिति के बारे में रामचरित मानस में वर्णन किया है।

व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥

तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥3॥

हनुमान जी सुषेण वैद्य को लेकर के आए। इसके उपरांत सुषेण वैद्य के सुझाव के अनुसार संजीवनी बूटी लेने द्रोणागिरी पर्वत पर चल दिए। वहां से लौटने में हनुमान जी को विभिन्न बाधाओं की वजह से थोड़ी देर हो गई। इस समय आप तुलसी दास जी के शब्दों में श्री रामचंद्र जी का विलाप सुनिए:-

सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।।

मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।

सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।

जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।

सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।।

अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।

इसमें 2 पंक्तियाँ अद्भुत हैं । पहली यदि मैं जानता कि वन जाने में मैं अपने भाई को खो दूंगा तो मैं अपने पिताजी के वचन को नहीं मानता। दूसरा इस दुनिया में सब कुछ मिल सकता है लेकिन सहोदर भ्राता नहीं मिलता है। यह भ्रात प्रेम की पराकाष्ठा है।

वाल्मीकि रामायण में श्री राम जी लक्ष्मण जी के शक्ति लगने पर स्वयं को शक्तिहीन अनुभव करते हैं :-

शोणितार्द्रमिमन् वीरं प्राणैरिष्टतरं मम |

पश्यतो मम का शक्तिर्योद्धुं पर्याकुलात्मनः ||

(वा रा/6/101/4)

अर्थात:- श्री राम कहते हैं – लक्ष्मण को रक्त से यूं सने देख कर मेरी युद्ध करने की उर्जा समाप्त हो रही है। लक्ष्मण मुझे अपने प्राणों से भी ज्यादा प्रिय हैं।

यथैव मां वनं यान्तमनुयाति महाद्युतिः |

अहमप्युपयास्यामि तथैवैनं यमक्षयम् ||

 (वा रा/6/101/13)

अर्थात:- अगर लक्ष्मण को कुछ हो जाता है तो मैं भी उसी प्रकार मृत्यु के पथ पर अपने भाई लक्ष्मण के साथ चला जाऊंगा जैसे वह वन में मेरे पीछे – पीछे चले आए थे

जब लक्ष्मण जी संजीवनी बूटी से वापस मूर्छा से वापस लौट आते हैं तब श्री राम उनसे कहते हैं :-

न हि मे जीवितेनार्थः सीतया च जयेन वा ||

को हि मे जीवितेनार्थस्त्वयि पञ्चत्वमागते |

(वाल्मीकि रामायण/ युद्ध कांड/101/50)

अर्थात:- तुम्हें अगर कुछ हो जाता तो मेरे लिए फिर इस संसार में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, न तो मेरे जीवन का कोई उद्देश्य रह जाता, न सीता और न ही विजय मेरे लिए महत्वपूर्ण रह जाती

 मेघनाथ की मृत्यु श्री लक्ष्मण जी के हाथों हुई परंतु अपनी मृत्यु के पहले मेघनाद ने लक्ष्मण जी  को दो बार हराया था। पहली बार उसने श्री लक्ष्मण जी और श्री रामचंद्र जी को नागपाश में बांध दिया था।  दूसरी बार जब उसने लक्ष्मण जी को शक्ति के प्रहार से मूर्छित कर दिया था। दोनों ही अवसरों पर हनुमान ने अपने बल बुद्धि और श्री राम भक्ति के बल पर उन्हें निश्चित मृत्यु से बचाया था। इसके अलावा अहिरावण से भी श्री राम और श्री लक्ष्मण को हनुमान जी ने ही बचाया था।

अब यहां पर एक नया प्रश्न उठता है। श्री रामचंद्र जी चार भाई थे श्री राम जी, श्री भरत जी, श्री लक्ष्मण जी और श्री शत्रुघ्न जी। श्री रामचंद्र जी का  तीनों भाइयों से बहुत अधिक प्रेम था। तीनों भाइयों से बराबर प्रेम था। श्री राम जी किसी भी भाई से दूसरे भाई की तुलना में कम प्रेम नहीं करते थे। फिर यहां श्री रामचंद्र ने यह क्यों कहा है कि तुम मेरे भरत के समान प्रिय भाई हो। ऐसा कहना तभी उचित है जब श्री राम जी श्री भरत जी से दूसरों भाई की भाइयों की तुलना में कम या ज्यादा प्रेम करते हों।

 मन्येऽहमागतोऽयेध्यां भरतो भ्रातृवत्सलः |

मम प्राणात्र्पियतरः कुलधर्ममनुस्मरन् ||

(वा रा/2/97/9)

अर्थात:– हे लक्ष्मण, लगता है कि भरत अपने नानी घर से अपने भाइयों के प्रति प्रेम के वश में आकर अयोध्या लौट गए हैं। भरत तो मुझे अपने प्राणों से भी प्रिय हैं।

श्री राम यहां अपने भाइयों के प्रति प्रेम कि भावना को व्याकता करते हुए वाल्मीकि रामायण में यहां तक कहते हैं कि बिना भाइयों के उन्हें संसार की कोई भी खुशी नहीं चाहिए।

यद्विना भरतं त्वां च शत्रुघ्नं चापि मानद |

भवेन्मम सुखं किंचिद्भस्म तत्कुरुतां शिखी ||

(वा रा/२/९७/८)

अर्थात:- हे लक्ष्मण यदि मुझे भरत, शत्रुघ्न और तुम्हारे बिना संसार की सारी खुशियां भी मिल जाएं तो वो अग्नि में राख हो जाएं, मुझे वो खुशियां नहीं चाहिएं।

अगर हम इस श्लोक पर गौर करें तो हम मानेंगे कि श्री रामचंद्र जी सभी भाइयों से बराबर प्रेम करते थे। और यह सत्य भी है। अगर यह सत्य है तो फिर उन्होंने हनुमान जी को भरत जी के बराबर प्रिय क्यों कहा।

निस्वार्थ प्रेम सबसे उच्च कोटि का प्रेम माना जाता है। प्रेम चाहे किसी से भी करें, हमेशा निस्वार्थ भाव से करें। अगर आप उसमें स्वार्थ छोड़कर संपूर्ण प्रेम लगाएंगे तो आप जिसे प्रेम करते हैं वह आपको अपने पास ही प्रतीत होगा। श्री रामचंद्र जी से उनके तीनों भाई अत्यंत प्रेम करते थे। श्री लक्ष्मण जी ने तो सब कुछ छोड़ कर श्री राम चंद्र जी के मना करने के उपरांत भी वन में उनके साथ 14 साल रहे।  श्री रामचरित मानस में लक्ष्मण जी ने स्वयं कहा है कि आप मेरे सब कुछ है आपके बिना मैं रह नहीं सकता। अर्थात श्री लक्ष्मण जी के पास रामचंद्र जी के साथ रहने का उद्देश्य था। जिसकी वजह से उन्होंने रामचंद्र जी की बात न मान कर वनवास में उनके साथ रहे। श्री लक्ष्मण जी का श्री रामचंद्र जी के प्रति अत्यधिक प्रेम दर्शाता है।

श्री भरत जी भी श्री रामचंद्र जी से अत्यधिक प्रेम करते थे। वे भी श्री रामचंद्र जी के बगैर रह नहीं सकते थे। परंतु रामचंद्र जी के आदेश मात्र से वे उनके साथ नहीं गए। परंतु अयोध्या में भी निवास नहीं किया। अयोध्या के बाहर ही रहे। उसी प्रकार का जीवन जिया जैसा श्री राम चंद्र जी वन में व्यतीत कर रहे थे।  निश्चित रूप से भरत जी अगर श्री राम चन्द्र जी के साथ वन में रहते तो ज्यादा संतुष्ट रहते। उनके मन में तसल्ली रहती कि वे श्री रामचंद्र जी के साथ हैं। यहां पर आकर उनका प्रेम निस्वार्थ हो जाता है। इस प्रकार भरत जी का प्रेम अन्य भाइयों के प्रेम से ऊपर हो गया।

कुछ लोग इसका अलग तर्क देते हैं। इस संबंध में एक आख्यान प्रचलित है। यज्ञ के उपरांत महाराजा दशरथ को रानियों को देने के लिए जो खीर मिली थी उसके तीन भाग किए गए।  एक भाग महारानी कौशल्या को दिया गया और दूसरा महारानी कैकेई को प्राप्त हुआ। तीसरा भाग जो महारानी सुमित्रा को मिलना था उसको एक चील लेकर उड़ गई। और उड़ कर वह महारानी अंजना के पास पहुंची। चील को इस यात्रा में 6 दिन लगे। इस खीर को फिर महारानी अंजना ने खाया। खीर के मूल भागों को कौशल्या, कैकेयी और अंजनी ने खाया था। इसलिए राम, भरत और हनुमान समान भाई थे। महारानी सुमित्रा को अपनी खीर में से थोड़ा भाग महारानी कौशल्या ने दिया और थोड़ा भाग महारानी कैकेई ने। इस प्रकार महारानी सुमित्रा के पास दो हिस्सों में खीर पहुंची और महारानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए। उनमें से श्री लक्ष्मण जी का स्नेह श्री रामचंद्र जी से ज्यादा रहा और श्री शत्रुघ्न जी का स्नेह श्री भरत जी से ज्यादा रहा। महारानी सुमित्रा ने मूल भाग के विभाजित भाग को खाया था -इसलिए लक्ष्मण और शत्रुघ्न उनके अर्थात श्री रामचंद्र जी, श्री भरत जी और श्री हनुमान जी के  बराबर के नहीं थे। इस विचार से यह प्रगट होता है रामचंद्र जी हनुमान जी से कहना चाहते हैं कि मैं आप और श्री भरत खीर के मूल भाग से उत्पन्न हुए हैं।

प्रबुद्ध पाठकों यह स्पष्ट है कि उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि गोस्वामी तुलसी दास जी ने कितना ज्ञान हनुमान चालीसा की हर एक चौपाई में डाला है।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ इंडिया नेटबुक्स एवं बीपीए फ़ाउंडेशन पुरस्कार – अभिनंदन ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 इंडिया नेटबुक्स एवं बीपीए फ़ाउंडेशन पुरस्कार – अभिनंदन🌹

वेदव्यास शिखर सम्मान चित्रा मुद्गल को-

इंडिया नेटबुक्स, बीपीए फ़ाउंडेशन, और अनुस्वार के संयुक्त तत्वावधान में प्रत्येक वर्ष पंडित भगवती प्रसाद अवस्थी की जयंती पर मार्च में चयनित रचनाकारों को सम्मानित किया जाता है। वर्ष २०२२ के लिये चयन समिति (श्रीमती ममता कालिया, सर्वश्री हरिसुमन विष्ट, प्रेम जनमेजय, राजेश कुमार, लालित्य ललित, प्रभात शुक्ला, डा. मनोरमा) ने इन पुरस्कारों की घोषणा कर दी हैं।

पुरस्कारों के संयोजक डॉक्टर संजीव कुमार ने बताया कि इस वर्ष का शिखर सम्मान-वेद व्यास सम्मान-श्रीमती चित्रा मुद्गल को दिया जायेगा और वागीश्वरी सम्मान के लिए श्री प्रताप सहगल को नामित किया गया है

लघुकथा रत्न पुरस्कार के लिए श्री कमलेश भारतीय

साहित्य विभूषण सम्मानों के लिए
सर्वश्री फारुक अफ़रीदी, गिरीश पंकज, राहुल देव, मुकेश भारद्वाज और प्रबोध कुमार गोविल का चयन किया गया है।

साहित्य भूषण पुरस्कार के लिये विवेक रंजन श्रीवास्तव,अरूण अर्णव खरे, धर्मपाल महेंद्र जैन (कनाडा), उर्मिला शिरींष, श्याम सखा श्याम, हरिप्रकाश राठी, अनिता कपूर (यूएसए) संध्या सिंह (सिंगापुर), वीना सिन्हा (नेपाल), मंजू लोढ़ा, राजेंद्र मोहन शर्मा (जयपुर) को चुना गया है ।

साहित्य रत्न पुरस्कार अंजू खरबंदा, स्वाति चौधरी, सीमा चडढा, अपर्णा, चार्वी अग्रवाल, प्रदीप कुमार (मनोरमा ईयर बुक} आलोक शुक्ला, सुषमा मुनीन्द्र, यशोधरा भटनागर, अनिता रश्मि, मनोज अबोध, जयराम जय, धरमपाल साहिल,रोहित कुमार हैप्पी (न्यूजीलैंड), गंगााराम राज़ी, बलराम अग्रवाल, कमलेश भारतीय, देवेंद्र जोशी , राम अवतार बैरवा, शैलेंद्र शर्मा, सुभाष नीरव एवं पारूल तोमर को दिये गये है ॥

 

समाज सेवा में संलग्न सेवियों को समाज रत्न पुरस्कार दिए गए- आलोक शुक्ला, संजय मिश्रा, रिंकी त्रिवेदी, सुधीर आचार्य, वरुण महेश्वरी और प्रेम विज

ये दुख का विषय है कि समाज रत्न पुरस्कार के लिए चयनित राजूरकर राज को भी दिया गया है किंतु यह सूचना मिली है कि उनका देहावसान हो गया है। हमारी टीम उन्हें कोटि-कोटि श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

सभी सम्मान व पुरस्कारों का अलंकरण 12 मार्च 2023 को दिन में 11 बजे से होटल क्राउन प्लाज़ा, मयूर विहार फेज़-1 एक्सटेंशन, दिल्ली में प्रदान किया जाएगा।

साभार – Dr Sanjeev Kumar ji के फेसबुक वाल से

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

 

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पाऊस… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पाऊस… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

(नुकत्याच झालेल्या वर्धा येथील अ.भा.साहित्य संमेलनात सादर केलेली कविता)

पाऊस आला,पाऊस आला, घेऊन मृदगंधाला

ग्रीष्मातील त्या उष्ण धरेचा कणकण संतोषला

जलधारांनी बरसत आला,थेंबातुनी प्रगटला

बळीराजाही,पेरायाला,शिवारात गुंतला ||१||

 

इंद्रधनुचा मोहक पट तो,आकाशी उमटला

बालचमुसह ,सर्वांसाठी, आनंददायी बनला

जलाशयाचा,तरुवेलींचा ,जीवनदाता ठरला

चिंबही भिजल्या,सृष्टीचा तो,सखा जणू भासला ||२||

 

धरतीनेही हिरवा शालु,अंगभरी ल्यायला

गवतफुलांचा,फळाफुलांचा,सुगंध साकारला

मातीतुनी या,नव कोंबांचा,हर्ष दिसु लागला

तनामनाने चाहुल घेता,आसमंती विहरला ||३||

 

चातकासही थेंबा घेऊनी, जन्म नवा लाभला

रिमझिम येता जलधारांचा,नादही झंकारला

पाऊस आला,पाऊस आला, मोद असा जाहला

नव आशांचा,नव स्वप्नांचा, झुला जणू झुलला ||४||

© सुश्री दीप्ति कुलकर्णी

कोल्हापूर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 140 – मंद वारा सुटला होता ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 140 – मंद वारा सुटला होता

मंद वारा सुटला होता, गंध फुलांचा दाटला होता।

आज तुझ्या आठवांनी कंठ मात्र दाटला होता।।धृ।।

हिरव्या गार वनराईला चमचमणारा ताज होता।

मखमली या कुरणांवरती मोतीयांचा साज होता।

चिमुकल्यां चोंचीत माझ्या,तुझ्या चोंचिचा आभास होता।।१।।

पहाटेलाच जागवत होतीस , झेप आकाशी घेत होतीस ।

अमृताचे कण चोचीत ,आनंदाने भरवत होतीस।

आमच्या चिमण्या डोळ्यांत ,स्वप्न फुलोरा फुलत होता ।।२।।

आनंद नद अपार होता, खोपा स्वर्ग बनला होता।

विधाताही लपून छपून , कौतुक सारे पाहात होता।

आज कसा काळाने वेध तुझा घेतला होता।।३।।

आता बाबा पहाटेला ऊठून काम सारं करत असतो।

लाडे लाडे बोलत असतो गाली गोड हसत असतो।

आज त्याच्या डोळ्यांचा कडं मात्र ओला होता।।४।   

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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