(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “पढ़े चलो बढ़े चलो”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 124 ☆
☆ पढ़े चलो बढ़े चलो ☆
त्याग,तपस्या, उपवास से दृढ़ निश्चय की भावना बलवती होती है। इसे कार्यसिद्धि का पहला कदम माना जा सकता है। लगातार एक दिशा में कार्य करने वाला कमजोर बुद्धि का होने पर भी सफलता हासिल कर लेता है। अक्सर देखने में आता है कि लोग अपनी विरासत को सम्हालने के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं और जैसे परिस्थितियाँ बदलीं बस झट से खुद को मुखिया साबित कर पूरी बागडोर अपने हाथ में ले लेते हैं। राजनीतिक क्षेत्रों में ऐसा प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है। कोई इसे परिवार वाद का नाम देता है तो कोई इसे अपना अधिकार मानकर खुद झपट लेता है। सियासी दाँव- पेंच के बीच छुट भैया नेताओं को भी गाहे- बगाहे मौका मिल जाता है। पिता की चुनावी सीट को अपनी बपौती मानकर टिकट लेना और न मिलने पर अलग से पार्टी बना लेने का चलन खूब तेजी से बढ़ रहा है।
जैसे-जैसे लोग शिक्षित हो रहे हैं वैसे- वैसे उनके चयन का आधार भी बदल रहा है। वे भावनाओं के वशीभूत होकर उम्मीदवार का चयन नहीं करते हैं। चुनावी घोषणा पत्र से प्रभावित होकर पाँच वर्षों के लिए नए प्रत्याशी को मौका देने लगें हैं।
कथनी और करनी में भेद सदैव से जनतंत्र का अघोषित मंत्र रहा है। कोई इसी चुनावी जुमला कह के पल्ला झाड़ लेता है तो कोई केंद्र सरकार पर दोषारोपण करते हुए सहायता न मिलने की बात कह देता है। कुल मिलाकर लोग जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। अब तो लोगों को भी मालूम है कि ये सब प्रलोभन बस कुछ दिनों के हैं किंतु चयन तो करना है सो मतदान को अपना अधिकार मानते हुए मत दे देते हैं।
इन सबके बीच एक बात अच्छी है कि सभी दल सारे मतभेदों से ऊपर अपने राष्ट्र को रखते हुए तिरंगे का सम्मान करते हैं और आपदा पड़ने पर एकजुटता का परिचय देते हैं। शिक्षा के महत्व को जीवन के हर क्षेत्रों में देखा जा सकता है। आइए मिलकर एक दूसरे का सहयोग करते हुए शत प्रतिशत साक्षरता की ओर अग्रसर हों।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख लघुकथा – “संस्कार”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 125 ☆
☆ लघुकथा – संस्कार☆
जैसे ही अनाथ आश्रम से वृद्ध को लाकर पति ने बैठक में बिठाया वैसे ही किचन में काम कर रही पत्नी ने चिल्लाकर कहा, “आखिर आप अपनी मनमानी से बाज नहीं आए,” वह ज़ोर से बोली तो पति ने कहा, “अरे भाग्यवान! धीरे बोलो। वह सुन लेंगे।”
“सुन ले तुम मेरी बला से। वे कौन से हमारे रिश्तेदार हैं?” पत्नी ने तुनक कर कहा, “मैंने पहले भी कहा था हम दोनों नौकर पेशा हैं। बेटे को उसके मामा के यहां रहने दो। वहां पढ़ लिखकर होशियार और गुणवान हो जाएगा। पर आप माने नहीं। उसे यहां ले आए।”
“हां तो सही है ना,” पति ने कहा, “बुजुर्गवार के साथ रहेगा तो अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा। हमें घर की भी चिंता नहीं रहेगी।”
“अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा,” पत्नी ने भौंहे व मुँह मोड़ कर कहा, “ना जाने कौन है? कैसे संस्कार है इस बूढ़े के। ना जाने क्या सिखाएगा?” कहते हुए पत्नी ना चाहते हुए भी बूढ़े को चाय देने चली गई।
“लीजिए! चाय !” तल्ख स्वर में कहते हुए जब उस ने बूढ़े को चाय दी तो उसने कहा, “जीती रहो बेटी!” यह सुनते ही बूढ़े का चेहरा देखते ही उसका चेहरा फक से सफेद पड़ गया।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – ब्राण्डेड-वर-वधू ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 179 ☆
व्यंग्य – ब्राण्डेड-वर-वधू
हर कोई अपने उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ घर-वर देखकर शादी करता है, पर जल्दी ही, वह कहने लगता हैं- तुमसे शादी करके तो मेरी किस्मत ही फूट गई है। या फिर तुमने आज तक मुझे दिया ही क्या है। प्रत्येक पति को अपनी पत्नी `सुमुखी` से जल्दी ही सूरजमुखी लगने लगती है। लड़के के घर वालों को तो बारात के वापस लौटते-लौटते ही अपने ठगे जाने का अहसास होने लगता है। जबकि आज के इण्टरनेटी युग मे पत्र-पत्रिकाओं,रिश्तेदारों, इण्टरनेट तक में अपने कमाऊ बेटे का पर्याप्त विज्ञापन करने के बाद जो श्रेष्ठतम लड़की, अधिकतम दहेज के साथ मिल रही होती हैं, वहीं रिश्ता किया गया होता हैं यह असंतोष तरह तरह प्रगट होता है । कहीं बहू जला दी जाती हैं, कहीं आत्महत्या करने को विवश कर दी जाती हैं पराकाष्ठा की ये स्थितियां तो उनसे कहीं बेहतर ही हैं, जिनमें लड़की पर तरह तरह के लांछन लगाकर, उसे तिल तिल होम होने पर मजबूर किया जाता हैं।
नवयुगल फिल्मों के हीरो-हीरोइन से उत्श्रंखल हो पायें इससे बहुत पहले ननद, सास की एंट्री हो जाती है। स्टोरी ट्रेजिक बन जाती है और विवाह जो बड़े उत्साह से दो अनजान लोगों के प्रेम का बंधन और दो परिवारों के मिलन का संस्कार हैं,एक ट्रेजडी बन कर रह जाता है। घुटन के साथ, एक समझौते के रूप में समाज के दबाव में मृत्युपर्यन्त यह ढ़ोया जाता है। ऊपरी तौर पर सुसंपन्न, खुशहाल दिखने वाले ढेरो दम्पत्ति अलग अलग अपने दिल पर हाथ रख कर स्वमूल्यांकन करें, तो पायेंगे कि विवाह को लेकर अगर-मगर, एक टीस कहीं न कहीं हर किसी के दिल में हैं।
यदि दामाद को दसवां ग्रह मानने वाले इस समाज में, यदि वर-वधू की मार्केटिंग सुधारी जावें, तो स्थिति सुधर सकती है। विवाह से पहले दोनों पक्ष ये सुनिश्चित कर लेवें कि उन्हें इससे बेहतर और कोई रिश्ता उपलब्ध नहीं है। वधू की कुण्डली लड़के के साथसाथ भावी सासू मां से भी मिलवा ली जावे। वर यह तय कर ले कि जिदंगी भर ससुर को चूसने वाले पिस्सू बनने की अपेक्षा पुत्रवत्, परिवार का सदस्य बनने में ही दामाद का बड़प्पन हैं, तो वैवाहिक संबंध मधुर स्वरूप ले सकते है।
वर वधू की एक्सलेरेटेड मार्केटिंग हो। मेरा प्रस्ताव है ब्राण्डेड वर, वधू सुलभ कराये । यूं तो शादी डॉट कॉम जैसी कई अंर्तराष्ट्रीय वेबसाइट सामने आई हैं। एक चैनल पर बाकायदा एक सीरियल ही शादी करवाने को लेकर चला था। अनेक सामाजिक एवं जातिगत संस्थाये सामूहिक विवाह जैसे आयोजन कर ही रही हैं। किसी राज्य मे मामा तो किसी सरकार में मुख्यमंत्री गरीबो के विवाह रचकर वोट बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। लगभग प्रत्येक अखबार, पत्रिकायें वैवाहिक विज्ञापन दे रहें है,पर मेरा सुझाव कुछ हटकर है।
यूं तो गहने, हीरे, मोती सदियों से हमारे आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, पर जब से ब्राण्डेड` हीरा है सदा के लिये´ आया हैं, एक गारण्टी हैं, शुद्धता की। रिटर्न वैल्यू है। रिलायबिलिटी है। आई एस ओ प्रमाण पत्र का जमाना है साहब। ये और बात है कि ब्रांडेड हीरा बेचने वाले खुद ही बैंको के रूपये दबाकर विदेशी जेलों में रफूचक्कर हो गए हैं।
बहरहाल आज खाने की वस्तु खरीदनी हो तो हम चीज नहीं एगमार्क देखने के आदि हैं, पैकेजिंग की डेट, और एक्सपायरी अवधि, कीमत सब कुछ प्रिंटेड पढ़कर हम , कुछ भी सुंदर पैकेट में खरीदकर खुश होने की क्षमता रखते है। अब आई एस आई के भारतीय मार्के से हमारा मन नहीं भरता हम ग्लौबलाईजेशन के इस युग में आई एस ओ प्रमाण पत्र की उपलब्धि देखते है।अब तो स्कूलों को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिलता है, यानि सरकारी स्कूल में दो दूनी चार हो, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, पर यदि आई एस ओ प्रमाणित स्कूल में यदि दो दूनी छ: पढ़ा दिया गया, तो कम से कम हम कोर्ट केस करके मुआवजा तो पा ही सकते हैं। मुझे एक आई एस ओ प्राप्त ट्रेन में सफर करने का अवसर मिला, पर मेरी कल्पना के विपरीत ट्रेन का शौचालय यथावत था जहां विशेष तरह की चित्रकारी के द्वारा यौन शिक्षा के सारे पाठ पढ़ाये गये थे , मैं सब कुछ समझ गया। खैर विषयातिरेक न हो, इसलिये पुन: ब्राण्डेड वर वधू पर आते हैं-! आशय यह है कि ब्राण्डेड खरीदी से हममें एक कान्फीडेंस रहता है। शादी एक अहम मसला है। लोग विवाह में करोड़ो खर्च कर देते है। कोई हवा में विवाह रचाता है,तो कोई समुद्र में। एक जोड़े ने ट्रेकिंग करते हुए पहाड़ पर विवाह के फेरे लिये, एक चैनल ने बकायदा इसे लाइव दिखाया। विवाह आयोजन में लोग जीवन भर की कमाई खर्च कर देते हैं , उधार लेकर भी बडे शान शौकत से बहू लाते हैं , विवाह के प्रति यह क्रेज देखते हुये मेरा अनुमान है कि ब्राण्डेड वर वधू अवश्य ही सफलतापूर्वक मार्केट किये जा सकेगें। वर वधु को ब्राण्डेड बनाने वाली मल्टीनेशनल कंपनी सफल विवाह की कोचिंग देगी। मेडिकल परीक्षण करेगी। खून की जांच होगी। वधुओं को सासों से निपटने के गुर सिखायेगी।लड़कियो को विवाह से पहले खाना बनाने से लेकर सिलाई कढ़ाई बुनाई आदि ललित कलाओ का प्रशिक्षण दिया जावेगा . भावी पति को बच्चे खिलाने से लेकर खाना बनाने तक के तरीके बतायेगी, जिससे पत्नी इन गुणों के आधार पर पति को ब्लेकमेल न कर सके। विवाह का बीमा होगा। इसी तरह के छोटे-बड़े कई प्रयोग हमारे एम बी ए पढ़े लड़के ब्राण्डेड दूल्हे-दुल्हन सर्टिफाइड करने से पहले कर सकते है। कहीं ऐसा न हो कि दुल्हन के साथ साली फ्री का लुभावना आफर ही व्यवसायिक प्रतियोगी कम्पनी प्रस्तुत कर दें। अस्तु! मैं इंतजार में हूं कि सुदंर गिफ्ट पैक में लेबल लगे, आई एस ओ प्रमाणित दूल्हे-दुल्हन मिलने लगेंगे, और हम प्रसन्नता पूर्वक उनकी खरीदी करेगें, विवाह एक सुखमय, चिर स्थाई प्यार का बंधन बना रहेगा। सात जन्म का साथ निभाने की कामना के साथ,स्त्री समानता के इस युग मे पत्नी हीं नहीं, पति भी हरतालिका और करवा चौथ के व्रत रखेगें। अपनी तो पिताजी की कराई शादी में गुजर बसर हो गई है नाती पोतो का विवाह शायद ब्रांडेड वर वधुओ के चयन से हो।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 134 ☆
☆ बाल गीत – हम बच्चों की शान तिरंगा…☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆
☆ इंजिन ऑइल बदला… श्री मयुरेश उमाकांत डंके ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:श्याम सोनावणे ☆
“ओ ताई, तुम्ही त्याला काही देऊ नका. ह्यांची सवयच आहे दिवसभर भीक मागत फिरण्याची.. वर्षानुवर्षे भीक मागत फिरतात, पण काम करत नाहीत, कष्ट करत नाहीत. काम करायचा आळस असतो. आयते पैसे मिळत असतील तर कोण कशाला कष्ट करेल?” तो दुकानदार माझ्या बायकोला सांगत होता. आणि तिच्या सोबत असलेला माझा साडेतीन वर्षांचा मुलगा मात्र “आपण त्या बाळाला बिस्कीट देऊया” असा आग्रह करत होता.
असे प्रसंग खरंच खूप कठीण असतात. कोणत्याही स्वार्थाशिवाय किंवा मतलबीपणाशिवाय आपली मुलं आपल्याकडं दुसऱ्याच कुणासाठी तरी काही मागतात तेव्हा फार कौतुक वाटतं आणि भरूनही येतं.
पूर्वानं त्यांचं बोलणं शांतपणे ऐकून घेतलं आणि ती त्यांना म्हणाली, “दादा, तुम्हीच त्यांना काही काम का देत नाही?”
त्यावर तो लगेच म्हणाला, “असल्या भिकरड्याला कोण काम देणार हो?”
“हाच तर खरा प्रॉब्लेम आहे. त्यांनी काहीतरी काम केलं पाहिजे असं तुम्ही जोरात म्हणणार आणि त्यांना काम द्या म्हटलं की मागे फिरणार. या माणसांना कुणीच काम दिलं नाही तर ही माणसं भीक मागण्याशिवाय दुसरं करणार तरी काय?” ती म्हणाली.
“पण हे सरकारचं काम आहे. माझं नाही.”
“जर ते सरकारचं काम असेल तर मग तुम्ही या माणसांना वाटेल तसं बोलणं बंद केलं पाहिजे, कारण ते तरी तुमचं काम कुठं आहे? तुमच्या व्यवसायाव्यतिरिक्त तुम्ही इतर कुणालाही काहीही उलट सुलट बोलू शकत नाही. कुणाला काही बोलायचं असेल तर ते सरकार बोलेल.” ती शांतपणे आणि तितक्याच ठामपणे म्हणाली. समोरच्या दुकानदाराचे डोळे टोमॅटोसारखे लाल झाले.
“तुम्ही मला शिकवू नका. हे माझं दुकान आहे, मी कुणालाही काहीही बोलेन. तुम्ही ते सांगू नका.” तो रागाने म्हणाला.
“हा आपला देश आहे. या देशातल्या कुणाही माणसाला तुम्ही विनाकारण काहिही बोलू शकत नाही.” ती म्हणाली.
हा माझा पण देश आहे. मग काय मी भिकाऱ्याला काम देत बसू काय?” दुकानदार.
“हा तुमचा पण देश आहे ना? मग जसा मला सल्ला दिलात, तसा लोकांना सल्ला का देत नाही तुम्ही? ‘ मॅगी खाऊ नका, मैद्याचे पदार्थ खाऊ नका, चायनीज गोष्टी वापरू नका’ वगैरे वगैरे..?” ती.
“असं सांगत बसलो तर धंदा बुडेल माझा. लोक या गोष्टी घेतात म्हणून तर धंदा चालतो आमचा. हे खाऊ नका असं मी लोकांना कसं म्हणू?” दुकानदार.
“म्हणजे तुमच्या फायद्यासाठी लोकांच्या प्रकृतीला हानिकारक असलेल्या गोष्टी तुम्ही विकणार आणि नफा मिळवणार. बरोबर ना?” ती.
“मग तसे सगळेच वागतात. मी एकटाच नाहीये.” तो म्हणाला. एव्हाना काऊंटर वर आठ- दहा आणि रस्त्यावर आठ – दहा माणसं गोळा झाली होती.
“हे बघा दादा, त्या माणसाचा प्रश्न सुटावा यासाठी तुम्ही काय केलंत? तुम्ही काहीच केलं नाहीत आणि वर तो माणूस गुन्हेगार असल्यासारखं बोलताय.” ती.
“हो मग.. ही माणसं अशीच असतात. त्यांच्या बद्दल चांगलं बोलावं अशी त्यांची लायकी तरी आहे का?” दुकानदार.
“अहो, भिकारी म्हणजे चोर – दरोडेखोर नव्हे. त्याचं पोट भरण्यासाठी तो तुमच्याकडे पैसे मागतो. तुमची इस्टेट मागत नाही. तुम्ही दिलेल्या पैशातून तो सोनं-चांदी घेत नाही, मॉलमध्ये जात नाही, फॉरेन टूरला जात नाही. पण तुम्ही त्याची पार लायकीच काढलीत. हे चुकीचं आहे. माझी तुमच्या दुकानातली ही शेवटची खरेदी.” असं म्हणून ती बाहेर निघून आली. तिनं त्या बाहेरच्या माणसाला दोन फरसाणचे पुडे दिले आणि घरी आली.
घरी आल्यावर मुलानं मला “आईचं दुकानात भांडण झालं बघा” अशी बातमी लगेच सांगितली. त्याला आम्ही अजून भीक आणि भिकारी या दोन्ही संकल्पना शिकवलेल्या नाहीत. ज्या लोकांकडे काम नसतं, पैसे नसतात, राहायला घर नसतं, अशी माणसं रस्त्यावर वगैरे राहतात आणि भूक लागली की लोकांकडे पैसे मागतात किंवा खायला अन्न मागतात, एवढंच त्याला शिकवलं आहे. त्यामुळं, भिकारी हे प्रकरण “खूप भूक लागलेला आणि खिशात पैसे नसलेला माणूस” एवढंच त्याच्या लेखी आहे. म्हणूनच, तो बावरून गेला होता. एखाद्या माणसाला आईनं खायला दिलं तर त्यात भांडण करण्यासारखं काय आहे, हेच त्याला समजत नव्हतं. पुष्कळ समजावून सांगितल्यानंतर तो शांत झाला.
पण या निमित्तानं एक जाणीव मात्र आणखी घट्ट झाली की, काळ वाऱ्याच्या वेगानं बदलत असला आणि दिवसेंदिवस जग अधिकाधिक व्यावहारिक होत असलं तरीही लहान मुलांच्या मनांमध्ये माणसांविषयीचं प्रेम, आस्था, आपुलकी उपजत असते आणि ती जाणवते. आपण जितके रुक्ष, आणि व्यावहारिक कोरडेपणाने वागू त्याचंच अनुकरण मुलं करतात आणि आपसूकच तिही तशीच होतात.
यंदा दिवाळीच्या खरेदी दरम्यान असं जाणवलं की, लहान मुलांना सामाजिक भान फार उत्तम असतं आणि ते बऱ्यापैकी नैसर्गिक असतं. मुलं काही समोरच्या मुलाला पैसे द्या असं म्हणत नाहीत. आपण त्याला खाऊ देऊ, खेळणी देऊ असं म्हणतात. पैसा हा मुद्दा त्यांच्या लेखी नसतोच.
“स्वतःच फुगे विकणारे काका- काकू त्यांच्या मुलाला फुगा का देत नाहीत?” या प्रश्नाचं उत्तर देणं फार कठीण असतं. डी मार्ट मध्ये पॉपकॉर्न काऊंटर वरच्या काकांना त्यानं प्रश्न विचारला होता की, “तुमच्या बाळाला तुम्ही पॉपकॉर्न नेता का?” त्यावेळी त्या समोरच्या माणसाचा निरुत्तर झालेला चेहरा मी वाचला आहे. अशावेळी अंगावर काटा येतो. पण माझ्या मुलानं आईला दोन पुडे घ्यायला लावले आणि एक त्या माणसाच्या हातात दिला, त्यांच्या बाळासाठी…! अनेकदा लहान मुलं अशी काही व्यक्त होतात की, ती लहान आहेत यावर विश्वासच बसत नाही.
रस्त्यावरून जाताना कुठं एखादा अपघात झालेला दिसला की, मोठी माणसं नुसतंच पाहून निघून जातात किंवा कित्येकजण तर बघतही नाहीत. पण लहान मुलं “आपण त्या काकांना डॉक्टरांकडे घेऊन जाऊया” म्हणून मागं लागतात. आणि आपण मात्र ‘कुठं ही नसती उठाठेव करा आणि ब्याद मागं लावून घ्या’ असं स्वतःशीच म्हणत पुढं निघून जातो.
मुलांना नुसतं “सॉरी, थँक यू किंवा एक्सक्यूज मी” एवढं म्हणायला शिकवणं म्हणजे सामाजिक शिष्टाचार शिकवणं नसतं. माणूस म्हणून जगावं कसं, हे त्यांना प्रत्यक्ष आचरणातून शिकवावं लागतं. मुलांची भावनिक बुद्धिमत्ता लहान वयात फार उत्तम असते. त्यामुळं, आपल्या आचरणातला फोलपणा, दुटप्पीपणा, ढोंगीपणा मुलं लगेच व्यवस्थित ओळखतात. आपले आईवडील आपल्याला शिकवताना वेगळं शिकवतात आणि स्वतः वागताना मात्र वेगळंच वागतात, हे मुलांना पटकन समजतं.
ज्या मुलाला रस्त्यावरच्या कुत्र्याच्या पिल्लाला भूक लागली आहे हे समजतं, त्याला काहीतरी खाऊ घालावं असं त्याला वाटतं, त्या पिल्लाला आपण घरी घेऊन यावं असं वाटतं, त्या मुलाला ‘काहीच समजत नाही’ असं कसं म्हणावं? उलट त्यांनाच खरं तर जे समजायला हवं ते नेमकं समजत असतं.
कितीतरी गोष्टी मुलांना आवडत नाहीत. त्यांना सिगारेट ओढणारी माणसं आवडत नाहीत, रस्त्यांवर पचापच थुंकणारी माणसं किंवा घाणेरड्या शिव्या देणारी माणसं आवडत नाहीत. शू किंवा शी लागली की रस्त्यातच भिंतीशी जाणं तर त्यांना अजिबातच आवडत नाही. पण तरीही हे सगळं आपण एक समाज म्हणून त्यांना स्विकारायला लावतो. हे आपलं चुकत नाही का?
मुलांचे डोळे आणि कान अत्यंत तीक्ष्ण असतात आणि सदैव तत्पर असतात हे सगळ्या समाजानंच कायमचं लक्षात ठेवणं आवश्यक आहे. समाजातल्या एकाही मुलावर चुकीच्या गोष्टींचा प्रभाव पडता कामा नये, उलटपक्षी त्यांच्या जडणघडणीसाठी सर्वार्थाने उत्तम सामाजिक वातावरण आपण राखलंच पाहिजे, ह्या जाणिवेची आवश्यकता आहे. आणि आपण आपल्या मुलांना योग्य ते सामाजिक वातावरण देण्यात अपयशी ठरत आहोत हीच वस्तुस्थिती आहे.
काही दिवसांपूर्वीच माझ्या शेजारच्या मुलानं त्याच्या शिक्षिका असणाऱ्या बाईंचे बिकिनी मधले फोटो सोशल मीडियावर पोस्ट केलेले मला दाखवले होते. त्यात एका फोटोत तर त्या बाईंच्या हातात भरलेला ग्लास देखील होता. स्वतःचे बिकिनी घातलेले आणि दारू पितानाचे फोटो सोशल मिडियावर पोस्ट करण्याची इतकी हौस असणाऱ्या बाईंनी प्राथमिक शिक्षिका होऊच नये असं मला प्रामाणिकपणे वाटलं. त्यांनी मॉडेलिंगच करायला हवं.
इतकंच काय, मी स्वतःसुद्धा अनेक शिक्षकांना समाजात सार्वजनिक ठिकाणी धूम्रपान करताना, मद्यपान करताना पाहिलेलं आहे. कित्येक शिक्षकांच्या सोशल मीडिया अकाऊंटवर विचित्र पोस्ट पाहिल्या आहेत. विविध ऐतिहासिक ठिकाणी, गडकोटांवर मुलांच्या सहली घेऊन आलेल्या कितीतरी महिला शिक्षिकांना तोकड्या कपड्यात पाहण्याची वेळ आली आहे. हे सगळं मुलांवर कोणते प्रभाव पाडणार आहे, याची जाणीव माणसांना नसते का? असा प्रश्न पडतो.
ऐन वसुबारसेच्या संध्याकाळी आम्ही सवत्स धेनू पूजा करून येत असताना, माझे दोन-तीन वर्गमित्र सहकुटुंब – सहपरिवार (मुलाबाळांसकट) कारमध्ये होते. तिघेही आपापल्या क्षेत्रात उत्तम काम करत आहेत. उच्च पदस्थ आहेत, यशस्वी आहेत. त्यांच्यातला एक जण तर नामांकित विधिज्ञ आहे.
माझ्या गाडीपुढेच त्यांची गाडी होती. एका वाईन शॉप बाहेर त्यांनी गाडी थांबवली, दोघे जण गाडीतून उतरले आणि दारूच्या बाटल्या घेऊन आले, गाडी निघून गेली. बायका मुलांसह एकत्र असताना दारू कशाला हवी? मला खेदाचा धक्का बसला. एक क्षणभर मी मनातून हादरून गेलो. ऐन दिवाळीच्या दिवशी दारू का हवी? कुटुंबं बदलतायत आणि खरोखरच चुकीच्या पद्धतीने बदलतायत, हे फार प्रकर्षानं जाणवलं.
पालकमित्रांनो, आपल्या देशाच्या प्रथम नागरिक असलेल्या महिला राष्ट्रपती कशा राहतात, कशा वागतात, कशा बोलतात, त्यांची जीवनशैली कशी आहे, हे तरी पहा. त्यांनी स्वतः शिक्षिका म्हणून काम केलं आहे, हे लक्षात घ्या. एकूण काय, आपल्याला खूप बदलावं लागेल. निदान पुढच्या पिढ्यांच्या उत्तम जडणघडणीसाठी तरी आपल्याला बदलावंच लागेल..
आपला समाज ज्या इंजिनावर चालतो ना, त्यातलं इंजिन ऑईल म्हणजे आपली मनं आहेत. ती जितकी स्वच्छ असतील तितकं इंजिन व्यवस्थित चालेल. ती जितकी उत्तम असतील, तितकं इंजिनाचं स्वास्थ्य उत्तम राहील आणि ती जितकी सकारात्मक प्रभावी असतील तितकी त्या इंजिनाला सकारात्मक गती येईल..
म्हणून, समाजाच्या इंजिनातलं इंजिन ऑईल बदला मित्रहो.. नाहीतर एके दिवशी ते इंजिन कायमचं बिघडून बसेल…
(आवडल्यास लेखात कुठलाही बदल न करता मूळ लेखकाच्या नावासहच शेअर करा ही विनंती.)
☆ माझ्या नजरेतून बदलती दुबई – भाग – २ ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆
ग्लोबल व्हिलेज आणि डेझर्ट सफारी या दोन दुबईतील स्थळांना भेटी दिल्या त्या अगदी उल्लेख करण्याजोग्या ! ग्लोबल व्हिलेज म्हणजे सर्व जग जणू एका मोठ्या मैदानावर पसरलेले…… चीन, येमेन, मलेशिया, पाकिस्तान, भारत अशा विविध देशांच्या स्टाॅल्सनी भरलेली रंगीबेरंगी दुनिया ! सगळ्या आसपासच्या छोट्या देशातील लोक या ग्लोबल व्हिलेज मध्ये खरेदीसाठी येतात. इथे जाण्यासाठी रेंटवर गाड्या मिळतात. आम्हीही ग्लोबल व्हिलेजला भेट दिली. खरेदी झाली ती येमेनच्या मसाल्याच्या पदार्थांची ! एवढे मोठे दालचिनीचे भारे आणि लवंगा – मिऱ्याचे डोंगर प्रथमच पाहिले ! इराण मधील सुंदर वस्तूंचे तसेच गालिचांचे स्टॉल बघायला मिळाले. बऱ्याच प्रकारच्या करमणुकीच्या गोष्टीही तिथे होत्या. डिसेंबर ते फेब्रुवारी या काळात ग्लोबल विलेजला खूप गर्दी असते.
‘डेझर्ट सफारी’ हे दुबईतील आणखी एक अट्रॅक्शन ! दुबईच्या एका ट्रिपमध्ये आम्ही डेझर्ट सफारीची ट्रीप केली. फक्त चार-पाच तासांची ट्रिप ! पण खूपच वेगळी ! डेझर्ट सफारी बुक केल्यानंतर ठराविक वेळी पिकप् साठी गाडी येते. दुबईपासून काही अंतरावर पोहोचले की या गाडीतून आपण उतरतो. तिथून वाळूत जाणाऱ्या स्पेशल गाड्या असतात, त्यामध्ये आपल्याला बसवून देतात. वाळूचे डोंगर धडाधड चढत उतरत या गाड्या जातात तेव्हा आपल्या पोटात भीतीचा गोळा उठतो ! तरुण लोक मात्र आरडाओरडा करून या गाडीत एन्जॉय करत असतात ! नंतर या गाड्या ग्राउंड लेव्हलवर असलेल्या मोठ्या तंबूसारख्या दिसणाऱ्या ठिकाणाजवळ आपल्याला घेऊन जातात. आम्ही तिथे गेलो तेव्हा संध्याकाळ होत आली होती. डिसेंबर २००८ मध्ये आम्ही गेलो होतो. हवेत खूप गारवा होता. वातावरण छान होते. प्रथम कॅमल राईड करून आम्ही आत गेलो. तेथे तऱ्हेतऱ्हेचे स्टॉल्स होते. सिनेमात पाहतो तसे खास अरबी वातावरण ! बसायला गाद्या, लोड तक्के, हुक्क्याचे स्टॅन्ड शेजारी ! मेहेंदी स्टाॅल, खास अरबी ड्रेस घालून फोटो काढायची सोय, विविध सरबते, जादूचे प्रयोग करणारे लोक, काचेच्या फ्लाॅवरपाॅटमध्ये वाळू घालून त्यात डिझाईन काढणारे, असे भरपूर काही बघायला मिळत होते. जेवणाची सोय तिथेच होती. जेवणानंतर तिथे वैशिष्ट्यपूर्ण असा ‘ बेली डान्स ‘ बघायला मिळाला.बऱ्याच जणांनी तिथे नाचून घेतले. दोन-तीन तास अशी जत्रा अनुभवताना वाटलं, जगाच्या पाठीवर कुठेही जा, माणूस स्वतःच मनोरंजन कोणत्या ना कोणत्या तरी पद्धतीने करत असतोच !
अशी ही अनोखी डेझर्ट सफारीची ट्रिप केल्यानंतर आम्ही ‘धाऊ’ ट्रीप केली. ही खाडीवरची सफर होती. ‘धाऊ’ क्रूजवर नातवाचा वाढदिवस साजरा केला ! संध्याकाळची क्रूज बुक केली होती. ठरल्याप्रमाणे सात वाजता
आम्ही खाडीवर गेलो. सगळीकडे दिव्यांचा लखलखाट आणि लोकांचा कलकलाट होता. खाडीवर सजवलेल्या, छान छान नाव दिलेल्या बोटी निघण्यासाठी सज्ज होत्या. आमच्या बोटीचं नाव होतं “चांदनी”! बोटीतून एक दीड तासाची खाडीवरची सफर होती ती ! आम्ही बोटीत बसल्यावर प्रथम वेलकम ड्रिंक दिले गेले. बोट चालू झाली. बोटीतून बाहेरचा परिसर खूपच छान दिसत होता. आकाशातील चांदण्यांबरोबर स्पर्धा करणारे दुबईच्या खाडी तीरावरचे लायटिंग पहात आम्ही सफरीचा आनंद घेतला. काही करमणुकीचे कार्यक्रम क्रूझवर चालू होते. नातवाच्या वाढदिवसासाठी तिथे केकही सांगितला होता आम्ही ! त्यामुळे केक कटिंग करून बोटीवर सर्वत्र आनंदाचे वातावरण निर्माण झाले. गाण्याच्या तालावर तिथे नाचही सुरू होता. जेवणाचा बेत छान होता. मस्तपैकी जेवण करून आम्ही धाऊ ट्रिप एन्जॉय केली.
ग्लोबल व्हिलेज डेझर्ट सफारी, धाऊ, या सर्व वैशिष्ट्यपूर्ण ठिकाणांना भेटी देत दोन-तीन वर्ष कशी गेली कळलंच नाही. ९ सप्टेंबर २००९ साली दुबई मेट्रो सुरु झाली. मेट्रोत बसून आम्ही दुबई मॉल, बुर्ज खलिफा पहायला गेलो होतो. दुबई मॉल बघत बघत आत गेले की बुर्ज खलिफापर्यंत जाता येते. ‘ बुर्ज खलिफा ‘ ही जगातील उंच इमारतींपैकी
एक ! बुर्ज खलिफाच्या १२४ व्या मजल्यापर्यंत जाता येते. पूर्ण दुबईची माहिती एका छोट्या थेटरमध्ये स्क्रीनवर दिली जाते आणि मग लिफ्ट इतकी झुमकन् जाते की १२३ वा मजला कधी आला ते कळतच नाही. तिथे साधारणपणे अर्धा पाऊण तास ३६० अंशाच्या गोलाकार भागातील खिडक्यातून, दुर्बिणीतून संपूर्ण दुबई पाहता येते.
—अशाप्रकारे दुबई फिरता फिरता आम्ही आता 2014 सालापर्यंत आलो होतो.
☆ अरूंद वाट प्रेमाची… भाग १(भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆
शहरातील सुप्रसिद्ध मूर्तीकार मगनभाई यांचा मदतनीस म्हणून मधु काम करत होता. मूर्ती बनावण्यातून फारसं अर्थोत्पादन होत होतं, असं नाही. परंतु या कामाचं एका प्रकारचं समाधान, तृप्ती मधुला लाभत होती. त्यांनी बनवलेल्या गणपती, सरस्वती, दुर्गा इ. मूर्ती खरेदी करण्यासाठी दूरवरून लोक येत. आगाऊ रक्कमही देत. या उत्सवी मूर्ती बनवण्यातून वेळ मिळाला की मधु मातीच्या काही कलाकृती बनवत असे. शो-पीस म्हणून लोक त्याही विकत घेत. आपलं हे स्वत:चं कामही तो मगनभाईंच्याच कारखान्यात करत असे. मधुचं स्वत:चं वडिलोपार्जित घर होतं. ते जुनं होतं, पण चांगलं मोठं होतं. मधुची इच्छा असती, तर तो आपलं स्वत:चं काम आपल्या घरीही करू शकला असता. परंतु कारखान्यात असं एक आकर्षण होतं जे मधुला कारखान्याकडे खेचत होतं. त्या आकर्षणाचं नाव होतं मधुलिका.
मगनभाईंच्या कारखान्यात मूर्तींसाठी माती तयार करण्याचं काम मंसाराम करत असे. मधुलिका त्याची मुलगी. मंसाराम पन्नास-पंचावन्नाचा आसेल. त्याची इच्छाशक्ती तीव्र होती. परंतु गेली कित्येक वर्षे माती तयार करण्यात गुंतलेली त्याच्या हाता-पायाची बोटे आता माती सहन करू शकत नव्हती. एक दिवस पांढरी स्वच्छ माती तयार करता करता त्याच्या रक्ताने लालीलाल झाली. मग मगनभाईंनी कारखान्यात मंसारामच्या जागी त्यांची मुलगी मधुलिका हिला घेतले. मगनभाई मधुला म्हणाले, ‘आपले आई-वडील आणि शिकणारा भाऊ या सर्वांची जबाबदारी मधुलिकावर आहे. त्यामुळे मिळेल ते काम करण्यासाठी ती विवश आहे.
मगनभाई पूर्वी ज्याला त्याला सांगायचे, ‘मधुलिकाची आई मनसा खूप सुंदर होती. ऐन तारुण्यात ती एखाद्या परीसारखी दिसायची. पण गरिबीमुळे मंसारामसारख्या असल्या-तसल्या माणसाशी लग्न करावं लागलं. आता मगनभाई हेही सांगताना थकत नाहीत की मधुलिका आपल्या आईपेक्षा किती तरी जास्त सुंदर आहे. मंसाराम आणि मगनभाई यांच्यातील मालक आणि मजूर म्हणून असलेले संबंध कधीच मागे पडले होते. दोघांच्यामध्ये असे काही भावबंध निर्माण झाले होते की जे रक्ताच्या नात्यावरही मात करतील. दोघांच्यामध्ये खूप चेष्टा-मस्करी चालायची. कधी कधी मगनभाई म्हणायचे, ‘मंसाराम, मी खात्रीपूर्वक सांगतो की मधुलिका तुझी मुलगी नाहीच. तू जन्मभर अकलेच्या मागे लाठी घेऊन फिरत राहिलास आणि इकडे मधुलिका तुझ्या झोपडीत राहून एकामागोमाग एक परीक्षा पास होत गेली.’
‘मग सांगा ना हुजूर की ती आपलीच मुलगी आहे.’
‘अरे, काही तरी लाज बाळग. मनसाभाभीनं ऐकलं, तर तुला जोड्याने बडवेल.’
‘सरळ सरळ का नाही सांगत की मुलगी मानलं, तर लग्न करण्याची जबाबदारी पण डोक्यावर येऊन पडेल ना?’ आणि गप्पांचा आनंद घेत दोघेही खळखळून हसत.
मधुलिका अतिशय कुशाग्र बुद्धीची होती. घरात अभ्यास करून तिने पदवी मिळवली होती. आणि आता पदव्युत्तर परीक्षेची ती तयारी करत होती. घरातील इतर कामेही तिला करावी लागायची. त्यामुळे ती सकाळी लवकर कारखान्यात येऊन दुपारी बारा वाजेपर्यंत घरी परतायची. मधुचं घर कारखान्यापासून वीसेक किलोमीटर दूर होतं. खूप प्रयत्न करूनही तो सकाळी दहा- अकरापूर्वी कारखान्यात पोहोचू शकायचा नाही. मगनभाई तर त्याहूनही उशिरा यायचे. त्यामुळे एक-दोन तास असे असायचे की ज्या वेळात निर्जीव मूर्तींमध्ये मधू आणि मधुलिका नावाची दोन तरुण हृदये कारखान्यात एकदमच धडधडत रहायची. अर्थात दोघांच्या स्थितीत जमीन आस्मानाचं अंतर असायचं. कारखान्यात काम करण्यासाठी मधु अतिशय ताजा-तवाना आणि प्रसन्न असायचा, तर मधुलिका चार-पाच तासांच्या परिश्रमानंतर घामेघूम झालेली असायची. कधी कधी मधुलिकाकडे बघून मधुला हसू यायचं. मधुलिकाचे कपडे, केस आणि शरीराचा उघडा भाग मातीने माखलेला असायचा. भुवया, पापण्या आणि हनुवटीवर मातीचा जसा काही एकाधिकार असायचा. अशा प्रकारचं तिचं रूप पाहून एक दिवस मधुने मधुलिकाला म्हंटलं, ‘माझ्या या अर्धवट बनवलेल्या पुरुषभर उंचीच्या मूर्तींमध्ये तू कुठे उभी राहिलीस, तर त्या मूर्तींमधून तुला ओळखणं मोठं अवघड असेल माझ्यासाठी.’
क्षणोक्षणी वाढणार्या दोघांच्या जवळीकीमुळे मूर्तींविषयीचं मधुलिकाचं मत मधुला महत्वाचं वाटू लागलं. विशेषत: मधु बनवत असलेल्या कलात्मक मूर्तींबद्दल तिचे विचार जाणून घेणं मधुला गरजेचं वाटू लागलं. त्याच बरोबर तारुण्याने मुसमुसलेली मधुलिका मधुच्या जीवनात कस्तूरी-गंधाप्रमाणे उतरत चालली. मधुलिका मधुने बनवलेल्या मूर्तींमध्ये काही ना काही उणीव दाखवून त्याला चिडवायची. तिला वाटे की मधुने श्रेष्ठ कलाकार व्हावं. एक गोष्ट मग्नभाईंच्याही लक्षात आली होती की मधुलिकाचं कौतुक मिळवणं, मधुसाठी काही सोपी गोष्ट नव्हती. मधु ने अगदी अप्रतीम सुंदर मूर्ती घडवली, तरी मधुलिका त्यात काही ना काही कमतरता शोधून काढायचीच. अनेक दिवस कष्ट घेऊन, अतिशय मन लावून मधुने एका स्त्रीची सुंदर पूर्णाकृती मूर्ती बनवली. मगनभाईंनासुद्धा वाहवा केल्याशिवाय राहवलं नाही. पण मधुलिका अर्धा इंच हसून निघून गेली. बस्स! दुसर्या दिवशी नेहमीपेक्षा जरा लवकरच मधु कारखान्यात पोचला आणि त्याने मधुलिकाला विचारलंच, ‘काय कमतरता राहिलीय या मूर्तीत?’
मधुलिका म्हणाली, ‘आपण आपल्याकडून मूर्ती बनवण्यात काही कसर सोडली नाहीत, फक्त युवतीला योग्य पोझ देणं जमलं नाही तुम्हाला!’
थोडा वेळ थांबून मधुलिका म्हणाली, ’युवती नखशिखांत अनिंद्य सुंदरी आहे. तिच्या अंग-प्रत्यंगातून ती तत्व झरताहेत, जी चंद्राला पाण्याच्या पृष्ठभागावर उतरण्यासाठी विवश करणार्या सागर लहरींमध्ये आहेत. आपण तिला ‘मेनका’ किंवा ‘उर्वशी’ असंही नाव देऊ शकाल. पण ही युवती काही वेगळ्या पद्धतीने, वेगळ्या ढंगात उभी राहिली तर…. ‘
‘तर काय?’
‘तर चंद्र नेहमीसाठीच सागरलहरींच्या मिठीत सामावला असता आणि या धरतीवर प्रत्येक रात्र पौर्णिमेचीच रात्र असती.’ मधुलिकेच्या वाणीतून जसे काही वीणेचे स्वर झरत होते.
‘कोणत्या पोझमध्ये युवतीने उभं राह्यला हवं होतं?’ मधुचा हा प्रश्न, मधुलिकासाठी प्रश्न नसून एक प्रकारे आव्हानच होतं तिला.
मूळ हिंदी कथा – ‘गली अति सॉँकरी’ मूळ लेखक – भगवान वैद्य `प्रखर’
अनुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर
संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.- 9403310170
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈