हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ संगमरमर  ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक लघुकथा   “संगमरमर ”.)

☆ लघुकथा – संगमरमर 

प्रशांत ने अपनी जमापूंजी एवं लोन लेकर अपने सपनों का घर बनवाया था । उसमें अपनी पसंद के संगमरमर के पत्थर  हॉल , बेडरूम एवं बाथरूम के फर्श पर लगवाये थे। आज प्रशांत तथा रश्मि बहुत खुश थे , ग्रह प्रवेश पर उन्होंने अपने सभी रिश्तेदारों एवं मित्रों को आमंत्रित किया था । सभी उसके घर की बहुत तारीफ कर रहे थे । देर रात तक पार्टी समाप्त हुई , दोनों मेहमानों की आवभगत करते करते बहुत थक चुके थे ।

रश्मि बाथरूम गई , संगमरमरी फर्श पर पानी पड़ा होने से उसका पैर अचानक फिसला और वह सिर के बल गिरी , उसका सिर फट गया । रश्मि की चीख सुनकर वह भी हड़बड़ाहट में बाथरूम की ओर भागा , तभी उसका भी पैर फिसला तथा उसका माथा नल की टोंटी से टकराकर फट गया ।

संगमरमरी मकान में रहने का सुख भोगने के पूर्व ही दोनों संग मर गये ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 9 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 9 – संघर्ष ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली के जीवन की संघर्ष की कहानी , किस प्रकार पगली का विवाह हुआ, ससुराल में नशे की पीड़ा झेलनी पड़ी। अब आगे पढ़े——)

उस जहरीली शराब ने पगली से उसके पति का जीवन छीन लिया था। वह विधवा हो गई थी। अब घर गृहस्थी की गाड़ी खीचने का सारा भार पगली के सिर आन पड़ा था।
समय के साथ उसके ह्रदय का घाव भर गया था। पति के बिछोह का दर्द एवम् पीड़ा, गौतम के प्यार में कम होती चली गई थी। उसने परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए गौतम को उच्च शिक्षा दिलाने का निर्णय ले लिया था।  गौतम के भविष्य को लेकर अपनी आंखों में भविष्य के सुन्दर ख्वाब सजाये थे। अपने सपने पूरे करने के लिए उसने लोगो के घर चूल्हा चौका करना भी स्वीकार कर लिया था। वह रात दिन खेतों में मेहनत करती।  उसका एक मात्र उद्देश्य गौतम को पढा़ लिखा अच्छा हुनर मंद इंसान बनाना था, ताकि वह एक दिन देश व समाज के काम आये।

गौतम बड़ा ही प्रतिभाशाली कुशाग्र बुद्धि का था। व्यवहार कुशलता, आज्ञा पालन, दया, करूणा, प्रेम, जैसे श्रेष्ठ मानवीय गुणों उसे अपनी माँ से विरासत में मिले थे, जिन्हें उसने पौराणिक कथाओं को मां से सुन कर प्राप्त किया था। वह अपनी माँ के नक्शे कदम पर चलता।  लोगों की मदद करना उसका स्वभाव बन गया था।  बच्चों के साथ वह नायक की भूमिका में होता। सबके साथ खेलना, मिल बांट कर खाना उसका शौक था। उस वर्ष उसने अपने गांव के माध्यमिक विद्यालय की आखिरी कक्षा की अंतिम परीक्षा पूरे जिले में सर्वोच्च अंको से विशिष्ट श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। उसकी इस सफलता पर सारा गांव गौरवान्वित हुआ था। सबको ही अपने गांव के होनहार पर गर्व था, जो विपरीत परिस्तिथियों में संघर्ष करते हुए इस स्तर तक पहुँच सका था।

अब पगली के सामने गौतम को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए शहर मे रहने खाने की व्यवस्था करने की समस्या उत्पन्न हो गई थी, उसे कोई रास्ता सूझ नही रहा था।  वह ऊहापोह में पड़ी सोच ही रही थी, अब आगे की पढ़ाई की उसकी औकात नही थी। वह इसी उधेड़ बुन में परेशान थी, कि सहसा उसकी इस समस्या का समाधान निकल आया।

एक दिन उस गाँव के संपन्न परिवारों गिने जाने वाले एक नि:संतान दंपत्ति पं दीनदयाल पगली के घर किसी कार्यवश आये थे। बातों बातों में जब गौतम के पढ़ाई की चर्चा चली तो उन्होंने गौतम के आगे की पढ़ाई का खर्चा देने की हामी भर दी थी, तथा खर्च का साराभार अपने उपर ले कर पगली को चिंता मुक्त कर दिया था।  उसके बदले में पगली ने पं दीनदयाल के घर चौका बर्तन करने का जिम्मा सम्हाल लिया था। पगली की मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई थी। उसने मन ही मन में भगवान को कोटिश :धन्यवाद दिया था।

अब पं दीनदयाल ने खुद ही शहर जा कर मेडिकल की पढ़ाई हेतु अच्छे संस्थान में दाखिला करा दिया था।  गौतम के रहने खाने का उत्तम प्रबंध भी कर दिया था। गौतम जब भी छुट्टियों में घर आता, तो दोस्तों के साथ खेलता ठहाके लगा हंसता, तो पगली की ममता निहाल हो जाती।

कभी कभी जब गौतम पढ़ते पढ़ते थक कर निढाल हो पगली की गोद में लेट कर माँ के सीने से लग सो जाता। अलसुबह माँ जब चाय की प्याली बना बालों में उंगलियाँ फिराती गौतम को जगाती तो गौतम कुनमुना कर आंखें खोल मां के कठोर छालों से युक्त हाथों को हौले से चूम लेता और झुककर माँ के पैरों को छू लेता तो, उसे उन कदमो में ही जन्नत नजर आती और पगली का मन  पुलकित हो जाता साथ ही उसकी आंखें छलछला जाती।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 10 – आतंकवाद का कहर

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga with Special Children: Rotary Paul Harris School – Video #8 ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

 ☆ Laughter Yoga with Special Children: Rotary Paul Harris School ☆ 

Video Link >>>>

LAUGHTER YOGA: VIDEO #8

Our most fulfilling experience has been to bring cheer in the lives of special children.

This is a laughter session with special children conducted by Jagat Singh Bisht along with Radhika Bisht and Gulyora Shermatova. The videos and pictures, courtesy: Dr Sneha Lakhotia.

The experience of Laughter Yoga with mentally challenged children at Rotary Paul Harris School, Indore, India has touched the core of our hearts and has given us the fulfillment of bringing cheer in the lives of sweet little kids.

While returning from my office one evening, I took a slightly different route to avoid heavy traffic. On the way, I discovered Rotary Paul Harris School for the mentally challenged children. Next day, I visited the school. There I met Rotarian Radheyshyam Maheshwari.

He told me that it is very challenging to provide education to children with mental challenge. In addition, they impart vocational training and training for the daily needs of the children. This requires a lot of patience and devotion because each child needs individual attention. They have 60 students but the average daily attendance is only 50-60 percent. These students are taken care by specially trained staff. They also engage them in sports, music and extra-curricular activities.

I shared the concept of Laughter Yoga with him briefly. His response was very positive and we fixed a day and time for our first laughter session with the special kids. The kids responded to our first session with great enthusiasm and energy. We were taken by surprise by the positivity generated by the affirmation VeryGoodVeryGoodYay. They loved milkshake laughter, mobile laughter, argument laughter and hearty laughter. But we realized that they could not clap in rhythm, chant hohohahaha or follow the deep breathing exercises.

I had along discussion with my wife Radhika, who is also a Certified Laughter Yoga Teacher, in the matter. We decided to focus initially on simple clapping, VGVGY and the laughter exercises which the kids liked. Radhika worked hard with the kids on Tuesday mornings week after week and gradually the kids started picking up. A weekly session on Laughter Yoga was included in their time table. Mrs Neeti Billore, the Principal, and her team of Teachers were always with us during the sessions. On the occasion of New Year, we visited the school with members of Suniket Laughter Club, Indore and shared sweets with them.

The school authorities told us that they propose to showcase the progress in laughter sessions in front of the parents of the kids and members of Rotary Club during their Annual Day celebrations. The kids were all prepared for the event and laughed coherently to the surprise of all present. We felt satisfied as our efforts had borne fruits. Everyone could sense how close the kids felt to us. The effect of joy cocktail was more than evident on the faces of the kids.

On the annual day, we also conducted a laughter session for the families of Rotary Club members which was appreciated by one and all. Prior to that, we had given a presentation of Laughter Yoga in one of their club meetings. Looking to the good effect that laughter is having on the emotional well-being of the kids, we propose to continue with our sessions in the school. The warm welcome that is accorded to us by the kids every time we visit is too valuable for us to loose. We would like to continue to work with them to completely erase the mental and emotional scars and deprivation of their early childhood. It would be really fulfilling if their lives get the missing rhythm through hohohahaha and very good very good yay.

 

Our Fundamentals:

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga
We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.
Email: [email protected]

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (8) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

( फल और प्रभाव सहित भक्तियोग का कथन )

 

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ।।8।।

 

मैं ही कारण जगत का मुझसे सब गतिमान

ज्ञानी ऐसा समझ नित ,भावित श्रद्धावान।।8।।

      

भावार्थ :  मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत्‌की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत्‌चेष्टा करता है, इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान्‌भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं।।8।।

 

I am  the  source  of  all;  from  Me  everything  evolves;  understanding  thus,  the  wise, endowed with meditation, worship Me.।।8।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ नर्मदा जयंती विशेष – माँ नर्मदे ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रोफेसर सी बी श्रीवास्तव विदग्ध

(प्रस्तुत है  हमारे आदर्श  गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा नर्मदा जयंती पर्व  पर्व पर विशेष कविता  ‘माँ  नर्मदे ‘। ) 

 

 ☆ नर्मदा जयंती विशेष – माँ नर्मदे ☆ 

मां नर्मदे तुमसे है सुंदर मध्यप्रदेश हरा-भरा

पाकर अमृत सा जल तुम्हारा हुई पावन यह धरा

पल रहे वन ,ग्राम ,खेत कछार सब तव तीर के

है भक्त पूजक उपासक श्रद्धालु निर्मल नीर के

तट वासी सब जन प्राणियों को तुम्हारा ही आसरा

तुम भाग्य रेखा यहां की कृषि वनज औ व्यापार की

तुम से जुड़ी हैं भावनाएं धार्मिक व्यवहार की

दर्शन परिक्रमा आरती हरती हर एक की हर व्यथा

दोनों तटों पर तीर्थ हैं कई पावनी अनुपम कथा

वरदान से माँ तुम्हारे ही वनांचल है हरा-भरा

अविरल तुम्हारी धार निर्मल बहे  यह ही चाह है

छू पाये न  कोई प्रदूषण बस यही परवाह है

मन हुआ जग का है मलिन इससे बढी है मलिनता

हर ठौर सात्विक शुद्धता हो, रखें सब जन सजगता

स्वच्छता सदभाव अपनी पुरानी है परंपरा

स्वच्छता से खुशी बढ़ती स्नेह से विश्वास है

आपसी सद्भावना देती नवल नित आश है

हर नवीन विकास को सहयोग देती सफलता

जहां होती सहजता दिखती वहीं पर सरलता

रहे निर्मल जल तुम्हारा फुहारे की धार सा

 

रचियता

प्रोफेसर सी बी श्रीवास्तव विदग्ध

ओ बी 11 MPEB कॉलोनी रामपुर जबलपुर 482008 फोन 942580 6252

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ज्ञान ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – ज्ञान

चर और अचर के, जीव और जीवन के हर आयाम का समग्रता से प्राप्त अनुभव ही ज्ञान कहलाता है,” एक वक्ता ज्ञान को परिभाषित कर रहे थे।

मेरी आँखों के आगे तैरने लगे वे असंख्य चेहरे, जो नारी से परे रहकर जगत की दृष्टि में ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुँचे थे। विचार उठा, आधी दुनिया को तजकर अधूरी दुनिया से प्राप्त अनुभव समग्र कैसे हो सकता है?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – पुस्तक समीक्षा/आत्मकथ्य ☆ स्त्री पुरुष (रिश्तों की दैहिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रहस्य) ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  विगत  29 जनवरी  2020 को  नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक  “स्त्री -पुरुष “ प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी दो पुस्तकों गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में  पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  नवीन पुस्तक “स्त्री-पुरुष “रिश्तों की दैहिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं की विश्लेषणात्मक व्याख्या आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करती है।  प्रस्तुत है पुस्तक पर आत्मकथ्य श्री सुरेश पटवा जी के शब्दों में । )

☆ पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य  – स्त्री पुरुष  (रिश्तों की दैहिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रहस्य) ☆ 

भारतीय दर्शन शास्त्र में संसारी के लिए वर्णित चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से काम और अर्थ प्रबल प्रेरणा हैं, परंतु गम्भीरता पूर्वक ध्यान से आकलन करो तो असल प्रेरणा काम है। काम को यहाँ केवल यौन (सेक्स) के रूप में न लेकर उसे मनुष्य के इन्द्रिय, भावुक और मानसिक सुख के सभी सोपान में ग्रहण किया जाना चाहिए। ज्ञान-इंद्रियों यथा आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा  से मिलने वाले आभासी सुख, कर्मेंद्रियों यथा हाथ, पैर, मुँह, मलत्याग और जनन इन्द्रिय के कायिक सुख, मनोरंजन, आराम और विलासितापूर्ण सुखद अनुभूति के सभी अंग काम के वृहद अर्थ में समाहित हैं। इन अवयवों के कारण ही मनुष्य का समाज से जुड़ाव होता है, रिश्ते बनते हैं, अन्तर-वैयक्तिक सम्बंधों के आयाम खुलते हैं, वह एक सामाजिक प्राणी बनकर जीवन व्यतीत करता है। दाम्पत्य सबसे संवेदनशील रिश्ता है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि दाम्पत्य के रिश्ते का आधार काम होता है परंतु सिर्फ़ काम ही नहीं होता और भी बहुत कुछ होता है, यहाँ तक कि जीवन में सबकुछ स्त्री-पुरूष के दाम्पत्य सम्बन्धों की गुणवत्ता याने रिश्ते की मधुरता या मलिनता के आसपास घूमता है।

श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तकों के ऑनलाइन लिंक्स 

Notion Press Link  >>  1. स्त्री – पुरुष  2. गुलामी की कहानी 

Amazon  Link  >>    1. स्त्री – पुरुष   2. गुलामी की कहानी   3. पंचमढ़ी की कहानी 

अर्थ कामना को पूरा करने का साधन है लेकिन अब साधन के संचय में मनुष्य इतना व्यस्त हो रहा है कि उसे साधन ही साध्य लगने लगा है। काम प्रबल दैहिक धर्म होते हुए भी पीछे खिसक कर अर्थ की तुला में तौलने वाली वस्तु बनता जा रहा है या अपनी स्वाभाविकता खो कर मशीनी होता जा रहा है। वह हमारी साँस से जुड़ा होकर भी निरंतर दमन या अत्यधिक दोहन के कारण कई बार अजीब सी विकृति के साथ उद्घाटित हो रहा या उच्छंखलित हो विरूपता को प्राप्त हो रहा है। काम शारीरिक विज्ञान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होता है लेकिन उसके वास्तविक स्वरूप पर एक धुँध सी छाई रहती है, उसे छुपा कर या दबा कर रखने के कारण प्रकट नहीं होने दिया जा रहा है।

यह एक बड़ी अजीबोग़रीब बात है कि कतिपय निहित स्वार्थ ने विज्ञान का सामना न कर पाने के कारण विज्ञान के सामने भगवान को खड़ा कर दिया है जबकि विज्ञान भगवान की बनाई दुनिया के रहस्य खोलने की तपस्या के समान है। विज्ञान ने मनुष्य जाति द्वारा ओढ़ी गई नक़ली श्रेष्ठता के कई भ्रमों को तोड़ा है। पहला भ्रम उस समय टूटा जब कोपरनिकस ने कहा था कि पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है, बल्कि कल्पनातीत अन्तरिक्ष में एक छोटा बिंदु मात्र है और गेलीलिओ ने कहा कि सूर्य आकाश गंगा का केंद्र है पृथ्वी नहीं। दूसरा भ्रम तब टूटा जब डारविन ने जैविकीय गवेषणा से मनुष्य की वह विशेषता छीन ली कि उसका निर्माण ईश्वर ने किसी विशेष तरह से किया है, उसे पशु-जगत से विकसित हुआ बताया और कहा कि उसमें मौजूद पशु प्रकृति को पूरी तरह उन्मूलित नहीं किया जा सकता है याने मनुष्य किसी न किसी स्तर पर एकांश में सदैव पशु होता है। मनुष्य का तीसरा भ्रम उस समय टूटना शुरू हुआ जब फ्रायड ने मनोविश्लेशण से यह सिद्ध करना शुरू किया कि तुम अपने स्वयं के स्वामी नहीं हो, बल्कि तुम्हें अपने चेतन की थोड़ी सी जानकारी से संतुष्ट होना पड़ता है जबकि जो कुछ तुम्हारे अंदर अचेतन रूप से चल रहा है उसके बारे में तुम्हें बहुत ही कम जानकारी है। तुम्हें बालिग़ होने तक विकसित तुम्हारी मानसिक शक्तियाँ चला रहीं हैं न कि तुम अपनी मानसिक शक्तियों के परिचालक हो।

अन्तर-वैयक्तिक सम्बन्धों में स्त्री-पुरुष का सम्बंध सबसे मधुर लेकिन सबसे दुरूह  होता है। स्त्री-पुरुष की मित्रता का रिश्ता मर्यादाओं के वशीभूत लम्बे समय तक मधुर बना रह सकता है जैसे भारत में कृष्ण-राधा या कृष्ण-द्रौपदी और यूरोप में सार्त्र-सोमेन लेकिन यह सम्बंध जैसे ही पति-पत्नी के रूप में बदलता है तो अधिकारों-कर्तव्यों का एक अजीब सा घेरा उनके आसपास बनने लगता है, जो प्रायः अस्पष्ट एवं अपरिभाषित होते हैं। दोनों पक्षों की अपनी-अपनी आदतें, कल्पनाएँ, मनोवेग, भावावेश, दलीलें और मान्यताएँ स्थिर होतीं हैं जिन्हें वे बदलने या छोड़ने को तैयार नहीं हैं और दूसरा उन्हें बदलने पर आमादा है। यहीं पुरुष-महिला में टकराव के बिंदु छुपे होते हैं।

भारतीय समाज कमोबेश पूरी तरह पश्चिमी जीवन जीने के तरीक़े अपना चुका है। भारत का सामाजिक विकास पश्चिमी देशों की तुलना में कम से कम पचास से सौ साल पीछे चलता रहा था यह अंतर  संचार क्रांति और बाज़ारवादी प्रवृत्ति फलने-फूलने के फलस्वरूप घट रहा है। पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के बाद सामाजिक बदलाव की आधुनिक विचारधारा विकसित हुई थी, उसके बाद रेल व परिवहन क्रांति, कम्प्यूटर क्रांति और मोबाईल क्रांति ने आधुनिक जीवन शैली को एक नए साँचे मे ढाल दिया है।  जिसने खान-पान, रहन-सहन और वैवाहिक सम्बंधों को क्रांतिकारी रूप से बदलकर रख दिया। भारतीय समाज ने भी वे तरीक़े तेज़ी से अपनाए हैं। पश्चिम के फ़ूड-पिरामिड, रहन-सहन, स्वास्थ्य मानक, अर्थ-तंत्र, सम्पत्ति-निर्माण हमने अपना लिया है तो समाजिक टूटन के मानक भी हमारे अंदर सहज ही आ गए हैं। युवाओं में मधुमेह के रोग और हृदयाघात से मौत के मामलों और तलाक़ व परस्पर वैमनस्य के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। पश्चिम में जीवन शैली के बदलाव के साथ मनोवैज्ञानिक खोजों और अन्तर-वैयक्तिक सम्बन्धित खोजों ने रिश्तों को एक नई दिशा दी है जिसे हमारे महानगरीय समाज ने कुछ हद तक सीखा और अपनाया है परंतु अधिकांश भारतीय समाज उनसे अछूता है। इसलिए इस विषय को मौलिक रूप से हिंदी मे भारतीय जनमानस को उपलब्ध कराना इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य है।

यह सार्वभौमिक सत्य है कि सुखी समाज का आधार पारिवारिक सामंजस्य और परिवार में सुख का आधार रिश्ते की मधुरता होती है। कोई भी रिश्ता जब टूटकर बिखरता है तो मनुष्य के अंदर की पूरी कायनात टूट के रोती है। टूटन की सिसकियों में जीवन का संगीत एक भयानक रौरव में बदल जाता है। अवसाद-निराशा-कुंठा के अंधेरे कुएँ में छुपे ज़हरीले नाग फ़न फैलाये लपलपाती जीभों से मन-कामना और स्वाभाविक लालसा को डँसकर हृदय को बियाबांन कँटीला रेगिस्तान बना कर छोड़ते हैं, जहाँ नफ़रत और घृणा की कँटीली झाड़ियों में प्रेम, स्नेह, ममता का दामन उलझते-फटते रहता है, विद्वेष के अलावा कुछ नहीं पनपता। इनसे बचने या निजात पाने का रास्ता है कि ऐसी परिस्थिति के सतही पहलू की बजाय उनके गम्भीर मनोवैज्ञानिक पहलू पर ध्यान दिया जाए। मनुष्य प्रकटत: चेतन बुद्धि से विचार करता है लेकिन उसके द्वारा की जाने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया का निर्णय उसका अचेतन-मन करता है। गुत्थियों के रहस्य उसकी अचेतन गुफा में छुपे होते हैं। वहीं से मानवीय व्यवहार चेतन धरातल पर आकर तूफ़ान की शक्ल लेता है जैसे समुद्री तूफ़ान जल की गहराई में पनपता है और किनारों को तहस-नहस कर देता है। समुद्र की सतह पर मचलती लहरें उसका चेतन स्वरुप है उनमें रवानगी है, उसकी अतल गहराई में अचेतन हलचल है जहाँ समुद्री तूफ़ान पलते हैं। यह दावा किया जाता है कि योगी पुरुष या महिला चेतन-अचेतन का भेद समाप्त करके शांतचित्त हो जाते हैं। महिला-पुरुष के दो विपरीत मन जब एक भूमिका निबाह के दायरे में आते हैं तो दैहिक सुख से अलहदा मानसिक  व मनोवैज्ञानिक द्वन्द की भूमि तैयार होती है। जो दोनों को कभी न ख़त्म होने वाले संघर्ष के गहरे कुएँ में धकेल देती है। यह किताब इन्हीं गुत्थियों को समझने की कोशिश है। इसमें मनोविज्ञान के गूढ़ सिद्धांतों के बजाय हमारे जीवन पर प्रभाव डालने वाले उनके व्यवहारिक पहलुओं की व्याख्या की गई है। यह मनोविज्ञान का ग्रंथ नहीं अपितु व्यवहार विज्ञान के आधार पर रिश्तों को तराशने की कुंजी हो सकती है।

© श्री सुरेश पटवा, भोपाल
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 28 – कर्मो का सिद्धान्त ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “कर्मो का सिद्धान्त।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 28 ☆

☆ कर्मो का सिद्धान्त 

हम यहाँ पर एक साथ कर्मों के रण बंधन या ऋण बंधन के कारण हैं जो मेरे आपके साथ हैं। इस ब्रह्मांड में कुछ भी कर्मों के अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं है। कर्म का अर्थ सबसे सामान्य शब्दों में ‘क्रिया’ है, और क्रिया भीतर से उत्पन्न होती है। अपनी आंतरिक मूल ऊर्जा के उपयोग से हुई क्रिया, यदि इसकी मूल दहलीज या सीमा  (हमारी आंतरिक ऊर्जा की वो कम से कम मात्रा जिससे किसी क्रिया का भान होता है) से अधिक या कम मात्रा में है तो वो कर्म है।ऊर्जा प्रभाव का यह उपयोग हमारे आस-पास की प्रकृति पर तुरंत या कुछ विलम्ब से परिणाम उत्पन्न करता है। जो क्रिया की प्रतिक्रिया या कारण का प्रभाव कहा जाता है। तो इन दोनों का संयोजन, प्रकृति पर कार्यरत हमारी ऊर्जा और उस ऊर्जा के प्रभाव पर प्रकृति की प्रतिक्रिया वास्तव में कर्म कहा जाता है।व्यय की गई एक निश्चित राशि जल्द ही या बाद में समाप्त हो जाएगी। लेकिन प्रतिक्रिया खुद में एक नई क्रिया बन जाती है।यह ज्यादातर व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा पर निर्भर करता है। वह एक ही क्रिया पर गुस्से में प्रतिक्रिया कर सकता है या समान क्रिया पर स्नेह दिखा सकता है।व्याकरण में क्रिया से निष्पाद्यमान फल के आश्रय को कर्म कहते हैं। क्रिया और फल का संबंध कार्य-कारण-भाव के अटूट नियम पर आधारित है। यदि कारण विद्यमान है तो कार्य अवश्य होगा। यह प्राकृतिक नियम आचरण के क्षेत्र में भी सत्य है। अत: कहा जाता है कि क्रिया का कर्ता फल का अवश्य भोक्ता होता है।

हम तीन श्रेणियों में हमारे द्वारा किए गए प्रत्येक कर्म को वर्गीकृत कर सकते हैं, और यहाँ कर्म का अर्थ केवल वह कार्य नहीं है जो हम शरीर के संचालन की क्रिया के साथ करते हैं, अपितु यह हमारे अंदर तीन प्रकार की प्रतिक्रियाओं का परिणाम है।

पहले भौतिक कर्म शरीर के दृश्य आंदोलन या हमारे शरीर के हिलने डुलने के द्वारा किए जाते हैं, दूसरे बोलने द्वारा होते हैं- हमारा भाषण या वचन, या जो शब्द हम अपने मुँह से कहते हैं; और तीसरे मन या विचारों से है, जो हम अपने मस्तिष्क से सोचते हैं। इसलिए हर पल हम सभी कर्मों या कारणों और प्रभावों के नियमों से बंधे होते हैं।

हम इन कर्मों को तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं:

संचित कर्म :

मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। संस्कार अर्थात हमने जो भी अच्छे और बुरे कर्म किए हैं वे सभी और हमारी आदतें।ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियां भी इन पर प्रभाव डालती हैं।ये कर्म ‘संस्कार’ ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे ‘संचित कर्म’ कहते हैं।

प्रारब्ध कर्म:

संचित कर्मों का कुछ भाग एक जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। दरअसल, इन संचित कर्मों में से एक छोटा भाग हमें नए जन्म में भोगने के लिए मिल जाता है। इसे प्रारब्ध कहते हैं। ये प्रारब्ध कर्म ही नए होने वाले जन्म की योनि व उसमें मिलने वाले भोग को निर्धारित करते हैं।हम कह सकते हैंकि प्रारब्ध कर्म वो है जो शुरू हुआ है, और वास्तव में फल पैदा कर रहा है।यह संचित कर्मों के द्रव्यमान में से चुना जाता है। प्रत्येक जीवनकाल में, संचित कर्मों का एक निश्चित भाग जो उस समय आध्यात्मिक विकास के लिए सबसे अनुकूल है,बाहर कार्य करने के लिए चुना जाता है। इसके बाद यह प्रारब्ध कर्म उन परिस्थितियों को बनाते हैं, जिन्हें हम अपने वर्तमान जीवनकाल में अनुभव करने के लिए नियत हैं, वे हमारे भौतिक परिवार, शरीर या जीवन परिस्थितियों के माध्यम से कुछ सीमाएँ भी बनाते हैं, जिन्हें हम जन्मजात रूप से भाग्य के रूप में जानते हैं।

अधिक आसानी से समझाने के लिए, मान लीजिए कि आपके संचित कर्म ऐसे हैं कि आपके उस समय तक अपने आने वाले जीवनों में 1000 कारणों का परिणाम सकारात्मक रूप से भोगना है और 500 कारणों का परिणाम नकारात्मक रूप से भोगना हैं। इसलिए इन कुल 1500 प्रभावों को आपके संचित कर्म कहा जाएगा।अब मान लें कि आपके द्वारा किये गए कर्मों के 300 सकारात्मक प्रभाव और 100 नकारात्मक प्रभावों को आपको अपने वर्तमान जीवन में उचित वातावरण द्वारा पक कर भोगने का मौका मिलेगा।तो वर्तमान जीवन के लिए आपके प्रारब्ध कर्म 300 + 100 = 400 होंगे।

दरअसल हम ऊपर की तरह कर्मों की गणना नहीं कर सकते क्योंकि यह गणित की गणना के लिए बहुत ही जटिल मापदण्ड है और इसके द्वारा हम सूक्ष्म और साझा कर्मों की व्याख्या नहीं कर सकते हैं।मैंने आपको कर्मों की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए केवल संख्याओं द्वारा एकउदाहरण दिया है।

जिस तरह से चोर को सहायता करने के जुर्म में साथी को भी सजा होती है ठीक उसी तरह काम्य कर्म और संचित कर्म में हमें अपनों के किए हुए कार्य का भी फल भोगना पड़ता है और इसीलिए कहा जाता है कि अच्छे लोगों की संगति करो ताकि कर्म की किताब साफ रहे। जिस बालक को बचपन से ही अच्छे संस्कार मिले हैं वो कर्म भी अच्छे ही करेगा और फिर उसके संचित कर्म भी अच्छे ही होंगे। अलगे जन्म में उसे अच्छा प्रारब्ध ही मिलेगा।

क्रियमाण कर्म:

ये वे कर्महैं जो मनुष्य वर्तमान में बना रहा है, जिनके फल भविष्य में अनुभव किए जाएंगे। ये ही केवल वह कर्म हैं जिन पर हमें अपनी इच्छा शक्ति और मन की स्थिति के अनुसार चुनाव करने का अधिकार है।ये वो ताजा कर्म हैं जो हम प्रत्येक गुजरने वाले पल के साथ कर रहे हैं। वर्तमान जीवन और आने वाले जीवन में हमारे भविष्य का निर्णयकरने के लिए ये कर्म ही संचित कर्मों का भाग बन जाते हैं।

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 19 ☆ लग्नाचा घाणा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित एक लग्न गीत “लग्नाचा घाणा”। आज भी पिछली  पीढ़ियों ने विवाह संस्कार तथा अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में गीतों के माध्यम से विरासत में मिले संस्कारों को जीवित रखा है। हम श्रीमती उर्मिला जी द्वारा रचित इस लग्न गीत  के लिए उनके आभारी हैं। निश्चित ही यह गीत  आवश्यक्तानुसार परिवर्तित कर भविष्य में विवाह संस्कारों में गाये जायेंगे।

यह एक संयोग ही है  कि – आज दिनांक 1-2-2020 को उनके पौत्र चिरंजीव अवधूत जी का विवाह है । इसके लिए  ई- अभिव्यक्ति की ऒर से  उनके भावी  दाम्पत्य जीवन की हार्दिक शुभकामनाएं।  इस सुन्दर लग्न गीत की रचना  के  समय उनके मन में  आई भावनाएं उनके ही शब्दों में  – “लग्नाची मुहूर्तमेढ, देवांना बोढण म्हणजे पुरणपोळी पक्वांनाचा नेवैद्य व सवाष्णींना भोजन असा विधी पार पडला त्यावेळी मला सुचलेला लग्नाचा घाणा “. इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को नमन।)  

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 19 ☆

☆ लग्नाचा घाणा ☆

पाच कुलदेवतांचं देवक वाजत आणलं घरात !

पाच पत्रींची मुहूर्तमेढ रोविली दारात !!१!!

 

पाच सवाष्णींच्या हाताने जात ते पुजिलं!

हळद कुंकू लावुनिया उखळ-मुसळ पुजिलं!!२!!

 

घाणा तो भरण्या सुंदर ते जातं !

सवाष्णींचा हात लागता गरगरा ते फिरतं !!३!!

 

गरगरा फिरतं ते हळकुंड दळितं!

हळकुंड दळित त्याचीहळद करतं !!४!!

 

अवधूत-प्राजूच्या लग्नाची  दळताती हळद!

दळताती हळद बाई ओव्यांच्या सुरात !!५!!

 

ओव्यांच्या सुरात बाई नाद घुमतो घरात!

नाद घुमतो घरात बाई आनंद होतो मनात !!६!!

 

पुरण-पोळीच्या पक्वांनाचं भरिल बोढण !

देवांना नेवैद्य अन् सवाष्णींना भोजन !!७!!

 

हळद-कुंकू लावुनि द्या पानसुपारी हातात!

खण नारळ तांदुळ घाला त्यांच्या ओटीत !!८!!

 

जाई जुईचा गजरा माळा त्यांच्या वेणीत !

गजऱ्याचा वास घुमे सगळ्या घरात  !!९!!

 

उर्मिला हात जोडोनी विनंती करीत !

आनंद सुखसमृद्धी सदा नांदो माझ्या घरात!!१०!!

 

©®उर्मिला इंगळे

दिनांक:- १-२-२०२०

 

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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मराठी साहित्य – ☆ स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती – आधारवड ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर
(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं।  आप कविता की विभिन्न विधाओं में  दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत है सुश्री स्वप्ना जी की  हायकू शैली में कविता “आधारवड ”। )

सुश्री स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती – आधारवड  ☆ 

(७रचना)

(Photo by icon0.com from Pexels)

निसर्ग छाया

आश्रितांना आधार

अर्पितो माया       १,

आधार वड

केवढा चमत्कार

प्रेम अपार         २,

विस्तार मोठा

पारंब्या हो अनंत

भासतो संथ        ३,

आधार वड

सावलीच्या छायेत

घेतो कवेत         ४,

छान घरटे

पशुपक्षी बांधती

आधार वाटे        ५,

सोशीक फार

उभा आधारवड

झेलतो भार        ६,

 

दुर्लक्ष होते

आधारवड तरी

सदा हासते        ७..

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

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