हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆ प्रतिबिंब ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  समाज को आईना दिखाती हृदयस्पर्शी लघुकथा “प्रतिबिंब ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीय श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ जी को हिंदीभाषा डॉट कॉम द्वारा लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है। साथ ही आलेख वर्ग में दिल्ली के डॉ शशि सिंघल  जी एवं कविता वर्ग में मुंबई की नताशा गिरी जी को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है।  ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारे सम्माननीय लेखक श्री ओमप्रकाश जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆

 

☆ प्रतिबिंब ☆

चाय का कप हाथ में देते हुए सास ने कहा, “ ब्याणजी ! बुरा मत मानना. आप से एक बात कहनी थी.”

“कहिए!”

“आप की लड़की को एक बात समझा दीजिएगा. यह सुबह जल्दी उठा करे. ताकि सुबह आठ बजे जब इस का पति ऑफिस जाए तब अपने साथ घर के बने खाने का टिफिन भी लेता जाए.” सास ने अपनी व्यथा ब्याणजी से कहीं.

“यह तो इसे समझना चाहिए.” ब्याणजी ने अपनी बेटी की ओर देख कर कहा, “पति की सेवा करना, उस का ध्यान रखना, इस का फर्ज है.”

बेटी को मां से ऐसी आशा नहीं थी. उस की भौंहे तन गई. माँ हो कर उस की बुराई करें. यह वह कैसे बरदाश्त कर सकती थी. इसलिए वह तुनक गई.

“माँ ! आप को शर्म नहीं आती. मेरी बुराई करती हो”  वह बिफरते हुए्र बोली, “यदि आप ने मुझे यह लक्षण सिखाये होते तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ते. आखिर मैं आप का ही तो प्रतिबिंब हूं.”

बेटी के मुंह से यह बात सुन कर माँ सन्न रह गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य #2 – प्रेम रेष …. ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  आप पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता   प्रेम रेष …. )

 

☆ सुजित साहित्य #2 ☆ 

 

☆ प्रेम रेष …. ☆ 

 

उधाणलेला सागर

मन येतं शहारून

तुझ्या प्रेमात ग सखे

कसं जातं मोहरून

 

खळाळत येती लाटा

फुटतात विरतात

शंख शिंपले किनारी

आठवण ठेवतात

 

वाट पाहून थकतो

निघतो मी परतीला

लाटा रेगांळत राही

आठवांच्या सोबतीला

 

पुसती पाऊल खूणा

दिसे फक्त ओली रेघ

कितीही पुसली तरी

उमटते प्रेम रेष..!!

 

© सुजित कदम, पुणे

मोबाइल 7276282626
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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Stooping for a noble cause – a blog from prison! ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Stooping for a noble cause – a blog from prison!

New Delhi, 17 April 2015, 11:00 AM: We reported at the Delhi Prison Headquarters and were straightaway driven to the adjoining Tihar Jail – the biggest prison complex in Asia.

We were first taken to Jail no. 6 which is a prison meant exclusively for women inmates and under-trials. At the entrance, we were frisked and our wallets and mobiles were deposited.

Being a law-abiding citizen all through my life, I never ever imagined that I would land in a prison some day. It felt a bit awkward stooping and getting in through the small gate that I had only seen in movies.

Within a few minutes, we were before the superintendent and warden of the jail. We were taken to a hall where around 200 lady prisoners were present. They belonged to all ages – young, middle-aged and old.

Looking at their plight, I felt deep empathy for them and found it difficult to control my tears. But they were full of life and hope. There were no signs of despair in their eyes; at least they pretended to be normal.

At this point, I must disclose the purpose of our visit and also tell you who all were with me or, rather, with whom I was there.

We were here for a noble purpose – to add a dash of cheer and happiness in the routine life of the prisoners and bring some smile on their faces.

I was in the august company of Dr Madan Kataria and Madhuri Kataria, the founders of Laughter Yoga, along with Dr Santosh Sahi who has done commendable service at the prison, and some members of the Delhi Laughter Club and my colleagues from theLaughterYogaUniversity,Bangalore.

Within minutes, there were echoes of “hoho hahaha” and “very good. very good, yay!” reverberating within the walls of the prison. We could sense a silent gratitude in the eyes of the inmates for bringing a shower of relief and some respite from the frightening monotony of the closed walls.

Bidding good-bye to them with a heavy heart, we moved to the adjacent prison meant for the adolescents. The boys there were all between 18 and 21 years of age.

A first glance at them and I observed an eerie look in their eyes. I felt sad for them. They should be studying somewhere but suddenly find that their future is quite hazy and uncertain.

This age group, especially with a closed mindset, is sometimes a hard nut to crack.

Dr Madan Kataria started with clapping and breathing exercises. Soon, they were laughing like all other kids – the child-like playfulness had re-appeared and they were laughing whole heartedly.

I guided them to hearty laughter, age laughter and lion laughter. The response was immense. Vinayaka thrilled them with his banana trick.

Ohh, the prison was brimming with energy and joy. The eerie look in the eyes of the boys had vanished and they appeared like little kids.

I could hardly hold my tears!

******

P.S. – I must express my deep gratitude, on behalf of the entire laughter yoga team that visited the prison, to the wonderful staff at the prison who served us tea, pakoras and good lunch with so much care and concern, and to the senior officers of the jail who made our visit free of any hassles and duly released us in the evening without bail.

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (25) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।25।।

 

हे भारत! आसक्त भाव से ज्यों अज्ञानी करते है

वैसे ही आसक्ति छोडकर ज्ञानी कर्म बरतते है।।25।।

      

भावार्थ :  हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे।।25।।

 

As the ignorant men act from attachment to action, O Bharata (Arjuna), so should the wise act without attachment, wishing the welfare of the world! ।।25।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ पर्यावरण दिवस विशेष- पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆ – श्री संजय भारद्वाज

??  पर्यावरण दिवस पर विशेष ??

श्री संजय भारद्वाज

 

(श्री संजय भारद्वाज जी एक विख्यात साहित्यकार के अतिरिक्त पुणे की सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था “हिन्दी आन्दोलन परिवार, पुणे” के अध्यक्ष भी हैं।  पर्यावरण दिवस पर  यह विशेष आलेख बेशक 2017 में लिखा गया हो किन्तु, आज के परिपेक्ष्य में पर्यावरण पर रचित कोई भी साहित्य सामयिक ही होगा। अब आप स्वयं ही पढ़ कर निर्णय ले सकते हैं। आभार श्री संजय भारद्वाज जी इस सार्थक रचना के लिए।)

☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆ 

(मित्रो! 5 जून को पर्यावरण दिवस है। आज अपना एक  लघु आलेख साझा कर रहा हूँ। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इस आलेख को आप सबका भरपूर नेह मिला है।)

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।
चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?
-संजय भारद्वाज
9890122603
( 30 मई 2017 को  मुंबई से पुणे लौटते हुए लिखी पोस्ट। )
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #1 रात का चौकीदार ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(मैं अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी का हृदय से आभारी हूँ,  जिन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ” के लिए मेरे आग्रह को स्वीकार किया।  अब आप प्रत्येक बुधवार को डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “रात का चौकीदार”।)

 

डॉ.  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय –

विधा : गीत, नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि

प्रकाशन :                    

  • प्यासो पघनट (निमाड़ी काव्य संग्रह- 1980), आरोह-अवरोह (हिंदी गीत काव्य संग्रह – 2011), अक्षर दीप जलाएं (बाल कविता संग्रह- 2012), साझा गीत अष्टक-10, गीत-भोपाल (2013),
  • संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर साहित्य परामर्शक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी तथा लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, भोपाल एवं जबलपुर की अनेक साहित्यिक सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध।

विशेष : महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा “रात का चौकीदार” सम्मिलित।

सम्मान :

  • विभागीय राजभाषा गौरव सम्मान 2003, प्रज्ञा रत्न सम्मान 2010, सरस्वती प्रभा सम्मान 2011, पद्यकृति पवैया सम्मान 2012, शब्द प्रवाह सम्मान, कादम्बिनी साहित्य सम्मान भोपाल, लघुकथा यश अर्चन सम्मान, साहित्य प्रभाकर सम्मान, निमाड़ी लोकसाहित्य सम्मान- महेश्वर, साहित्य भूषण, विद्यावाचस्पति, वर्तिका राष्ट्रीय साहित्य शिरोमणि सम्मान, साहित्य संगम मार्गदर्शक सम्मान 2018- इंदौर, दोहा रत्न अलंकरण 2018- जबलपुर सहित अन्य विविध सम्मान

संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवानिवृत

 

☆  तन्मय साहित्य – #1 ☆

☆ रात का चौकीदार ☆

(यह लघुकथा महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित है।)

दिसंबर जनवरी की हाड़ कंपाती ठंड हो, झमाझम बरसती वर्षा या उमस भरी रातें, हर मौसम में रात बारह बजे के बाद चौकीदार नाम का यह गिरीह प्राणी सड़क पर लाठी ठोंकते, सीटी बजाते हमें सचेत करते हुए कॉलोनी में रातभर चक्कर लगाते रोज सुनाई पड़ता है. हर महीने की तरह पहली तारीख को हल्के से गेट बजाकर खड़ा हो जाता है. साबजी, पैसे?

कितने पैसे, वह पूछता है उससे?

साबजी- एक रुपए रोज के हिसाब से महीने के तीस रुपए. आपको तो मालूम ही है.

अच्छा एक बात बताओ बहादुर- कितने घरों से पैसे मिल जाते हैं तुम्हें महीने में?

साबजी- यह पक्का नहीं है, कभी साठ घर से कभी पचास से. तीज त्योहार पर बाकी घरों से भी कभी कुछ मिल जाता है. इतने में ठीक-ठाक गुजारा हो जाता है हमारा.

पर कॉलोनी में तो सौ सवा सौ से अधिक घर हैं फिर इतने कम क्यों?

साबजी, कुछ लोग पैसे नहीं देते हैं, कहते है। हमें जरूरत नहीं है तुम्हारी.

तो फिर तुम उनके घर के सामने सीटी बजाकर चौकसी रखते हो कि नहीं? उसने पूछा

हां साबजी, उनकी चौकसी रखना तो और जरूरी हो जाता है. भगवान नहीं करे, यदि उनके घर चोरी-वोरी की घटना हो जाय तो पुलिस तो फिर भी हमसे ही पूछेगी ना. और वे भी हम पर झूठा आरोप लगा सकते हैं कि पैसे नहीं देते, इसलिए चौकीदार ने ही चोरी करवा दी. ऐसा पहले मेरे साथ हो चुका है साबजी.

अच्छा ये बताओ रात में अकेले घूमते तुम्हें डर नहीं लगता?

डर क्यों नहीं लगता साबजी, दुनिया में जितने जिन्दे जीव हैं सबको किसी न किसी से डर लगता है. बड़े से बड़े आदमी को डर लगता है तो फिर हम तो बहुत छोटे आदमी हैं. कई बार नशे-पत्ते वाले और गुंडे बदमाशों से मारपीट भी हो जाती है. शरीफ दिखने वाले लोगों से झिड़कियां, दुत्कार और धौंस मिलना तो रोज की बात है.

अच्छा बहादुर सोते कब हो तुम? फिर प्रश्न करता वह.

साबजी, रोज सुबह आठ-नौ बजे एक बार और कॉलोनी में चक्कर लगाकर तसल्ली कर लेता हूं कि, सबकुछ ठीक है ना, फिर कल की नींद पूरी करने और आज रात में फिर जागने के लिए आराम से अपनी नींद पूरी करता हूं. अच्छा साबजी, अब आप पैसे दे दें तो मैं अगले घर जाऊं.

अरे भाई, अभी तुमने ही कहा कि, जो पैसे नहीं देते उनका ध्यान तुम्हें ज्यादा रखना पड़ता है. तो अब से मेरे घर की चौकसी भी तुम्हें बिना पैसे के करना होगी, समझे?

जैसी आपकी इच्छा साबजी, और चौकीदार अगले घर की ओर बढ़ गया.

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ तुम्हारे चिर चले जाने का मातम मैं मनाऊं ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ तुम्हारे चिर चले जाने का मातम मैं मनाऊं 

 

तुम्हें अपना न बना पाने का दुख मैं मनाऊं,

या किसी अन्य संग रहने का सुख मनाऊं।

तुम्हारे चिर चले जाने का मातम मैं मनाऊं,

या तुम्हारे उर में बसे रहने का सुख मनाऊं।।

तुम्हारे – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – मनाऊं।

 

तुम्हारे संग बिताई मैं स्मृतियों जीवंत कर लूँ,

या तुम्हारे बिन बिताए पलों को भूल जाऊं।

तुम्हारे रूप का पान मैं जीवन पर्यंत कर लूँ,

या तुम्हारे नेह सुरा की विस्मृति में डूब जाऊँ।।

तुम्हारे – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – मनाऊं।

 

तुम्हारे मृगनयनों की वारूणी में मैं डूब जाऊं,

या तुम्हारी मोह माया से बाहर निकल आऊं।

मैं तुम्हारे प्रणय जाल में फंस तिलमिला जाऊं,

या कनखियों से देखती तेरी आंखें भूल जाऊं।।

तुम्हारे – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – मनाऊं।

 

तेरे सुरमई आगोश की भंवर यादों में डूब जांऊ,

या सदा के लिए भूलने का मैं एहतराम कर लूं।

तू ही बता भूल खुद को तेरे वजूद में डूब जाऊं,

या फिर तुझे भूल मैं कोई और इंतजाम कर लूं।।

तुम्हारे – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – मनाऊं।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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कविता
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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #2 – मी मराठी कवितेला काय दिले ? ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(प्रत्येक  भाषा का अपना एक समृद्ध साहित्य होता है।  मेरी दृष्टि में एक कवि के लिए सभी भाषाएँ समान होती हैं। कवि  का किसी  भी भाषा में  समर्पित भाव से  कविता को उसका क्या योगदान है, यह महत्वपूर्ण है।  संभव है मेरे विचारों  से  सब सहमत न हों। किन्तु, यह प्रश्न अपनी जगह स्वाभाविक है कि कवि का उसकी  अपनी मातृभाषा में  कविता को क्या  योगदान  है ? संवेदनशील कवियित्रि सुश्री प्रभा सोनवणे जी  की  प्रतिष्ठित साहित्य  सृजन यात्रा में ऐसे कई पड़ाव आए होंगे। आज प्रस्तुत है उनके साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  “मी मराठी कवितेला काय दिले ? (मैंने मराठी कविता को क्या दिया?)” पर  उनकी  बेबाक राय।  आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 2 ☆

 

 ☆ मी मराठी कवितेला काय दिले ? ☆

 

खुप चांगला प्रश्न  आहे  स्वतःच स्वतःला  विचारलेला !

आणि  उत्तर ही प्रांजळ पणे देण्याचा प्रयत्न–

कविता  मी वयाच्या तेरा-चौदाव्या वर्षा पासून लिहितेय !

आठवीत असताना वर्गाच्या हस्तलिखितासाठी एक कथा  आणि कविता लिहिली त्या वेळी असं मुळीच  वाटलं नाही भविष्यात  आपला हात इतका काळ लिहिता राहील !

सासरी माहेरी अजिबात च पोषक वातावरण नसताना कविता टिकून राहिली!

कुठल्याही काव्य  मंडळात जायच्या  आधी मला छापील प्रसिद्धी भरपूर मिळाली होती,सुरूवातीला  मी हिंदी कविता लिहिल्या त्या रेडिओ पत्रिकांमधून प्रकाशित झाल्या!

मी एका बाबतीत  खुप  भाग्यवान  आहे की,माझ्या  हिंदी मराठी कवितांना खुप प्रशंसा पत्रे आली  आहेत! लोकप्रभा मधे प्रसिद्ध झालेल्या कवितेला महाराष्ट्रातल्या कुठून कुठून सुमारे 40 पत्रे आली होती. त्याआधी रेडिओ पत्रिकेत ल्याही हिंदी कविताना  नेपाळ, झुमरीतलैय्या वगैरे ठिकाणाहून पत्रे आली होती!

प्रामाणिक पणे सांगायचं तर मी आत्मलुब्ध व्यक्ती नाही! पण मला खुप प्रशंसा मिळालेली आहे, गजल चा तर मी फार खोलात जाऊन अभ्यास ही केलेला नाही पण गजल नवाज भिमराव पांचाळें च्या संमेलनात ही प्रशंसा मिळाली ! भिमरावांनी सकाळ  आणि पुण्य नगरी मधल्या सदरात ही माझ्या गजला निवडल्या आणि  त्या वाहवा मिळवून गेल्या!

ज्या काळात क्वालिटी जपणारे संपादक होते  त्याकाळात माझ्या कविता मनोरा, स्री, मिळून सा-याजणी, विपुलश्री इ इ मधे प्रकाशित झाल्या आहेत! “फेवरिझम” चा फायदा मी कधीच घेतला नाही! माझ्या कवितेत काही बदल कवी रवींद्र भट यांनी सुचवले होते, तेव्हा मी त्यांना म्हटलं होतं, “मग ती माझी कविता रहाणार नाही तुमची होईल !” मोडकी तोडकी कशी ही असो माझी ती माझी ! त्या वेळी  मी परिषदेचा “उमलते अंकुर” कार्यक्रम नाकारला होता !

मी मराठी कवितेला काय देणार? ती मुळातच खुप संपन्न  आहे! पण मराठी कवितेने  “स्रीवादी कवयित्री” म्हणून खसखशी एवढी का होईना माझी नोंद घेतली आहे  !

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga with Commandos ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter Yoga with Commandos

I took a morning flight from Indore, halting briefly at Mumbai, which touched Bengaluru by noon.

As I came out of the arrival gate, a pleasant surprise, which I had not dreamt of, overwhelmed me. I shall write about it in a separate blog sometime later, not now, as it is a different subject matter altogether.

We proceeded to the Laughter Yoga University; just about 20 minutes drive from the airport. Dr Madan Kataria, the Laughter Guru, whom I adored, was here. I touched his feet and he introduced me to his young team.

Before I could settle down, he said, “We will have lunch now and then, within an hour, we are leaving for an interesting assignment – Laughter Yoga with the Commandos!”

The Centre for Counter Terrorism was a couple of hours drive from the university.

Over a cup of tea, the trainers there told us, “The commandos are here for training. They have a strict routine. They get up at 5 am and go to bed only after 11 pm. The whole day they have strenuous physical activity as well as theory classes. They feel a lot of stress, fatigue and are sleep deprived.”

We were taken to an indoor shooting range where 30 commandos were waiting for us.

Dr K greeted them with laughter and said, “We know that you are going through a very tough routine. You don’t get enough sleep. The physical activities you do the whole day are exhausting. You are away from your loved ones and being combat ready at all times drains away all the energy.”

The commandos felt that here is someone who understands their plight and empathizes with them. They were now willing to listen.
Dr K said, ”We are here to show you ways to relax, build stamina and be happy!”

We then had an out of the world experience of laughter yoga and meditation for more than an hour. The commandos were all smiles. Fully relaxed!

Each one wanted to shake hands with Dr K. We could feel the gratitude in their eyes. The tough exterior of the commandos had melted and the child within was visible all around.

We too felt blessed and realized that we owe a lot more to them.

On our way back, Dr K shared, “How fulfilling this experience has been! I am feeling really good.”

He continued, “We had conducted a session with the commandos earlier too but this time it was something different. We shall not leave it mid-way. We shall depute one of our teachers here for as long as they want who will also train their trainers to conduct laughter and breathing exercises.”

Dr K spoke to their superintendent and sent one of our star laughter yoga teachers, Vinayak, to be with them all along the day for a couple of days.

Vinayak was with them from early morning till late night. Whenever the group energy drooped, he shared some laughter and breathing exercises. The effect was magical.

The trainers told us that the commandos were now more willing to learn, responded cheerfully to their commands and shared a lot of positive energy as a team.

They laughed during breaks, doing their own versions of the laughter exercises and would allow Vinayak to leave the place.

(Thank you, Vinayak, for the splendid efforts! We are looking forward to a blog with a detailed account of the experiences you had there which you alone can share.)

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (24) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥

मेरे कर्म न करने से यह जग विनष्ट हो जायेगा

मुझे दोष देगी यह दुनियाँ,सिर्फ बुरा कहलाउॅगा।।24।।

भावार्थ :  इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ।।24।।

These worlds  would  perish  if  I  did  not  perform  action;  I  should  be  the  author  of confusion of castes and destruction of these beings. ।।24।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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