ई-अभिव्यक्ति: संवाद-11 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–11 

भारतवर्ष के प्रत्येक प्रदेश एवं उस प्रदेश की प्रत्येक भाषा के साहित्य का एक अपना गौरवान्वित इतिहास रहा है। यह भी सत्य है कि प्रत्येक साहित्यकार जो अपना इतिहास रच कर चले गए हैं उनकी बराबरी की परिकल्पना करना भी उनके साहित्य के साथ अन्याय है। किन्तु, यह भी शाश्वत सत्य है कि समकालीन साहित्य एवं विचारधारा को भी किसी दृष्टि से कम नहीं आँका जा सकता।

इतिहास गवाह है कई साहित्यकार एवं कलाकार अपनी प्रतिभा के दम पर मील के पत्थर साबित हुए हैं । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं स्वतंत्र विचारधारा के कारण उनके  साहित्य एवं कला ने उन्हें उनके देश से निष्काषित भी किया है। इनमें से कुछ नाम है जोसेफ ब्रोद्स्की, नज़िम हिक्मेत, तसलीमा नसरीन, मकबूल फिदा हुसैन और एक लंबा सिलसिला।

इस संदर्भ में मुझे अपनी एक कविता “साहित्यकार-पुरुसकार-टिप्पणी” याद आ रही है। प्रस्तुत है उस कविता के कुछ अंश :

 

यदि ‘‘अकवि’’

कोई संज्ञा है, तो वह

निरर्थक कविता करने पर

तुला हुआ है।

 

स्वान्तःसुखाय

एवं

साहित्य को समर्पित

वृद्ध साहित्यकार

किंकर्तव्यमूढ़ खड़ा है।

 

इतिहास साक्षी है

‘‘साहित्यकार’’

जिसका जीवन

जीवन स्तर से निम्न रहा है

प्रकाशक

उसके साहित्य पर पल रहा है।

ट्रस्ट उसके नाम से

धनवान प्रतिभावान साहित्यकार को

पुरुस्कृत कर रहा है।

नवोदित साहित्यकारों को

चमत्कृत कर रहा है।

 

वह वृद्ध हताश

देख रहा है तमाशा

चकनाचूर है

साहित्य सेवा की अभिलाषा

कल तक वह

शब्द महल गढ़ता था

आज वे ही शब्द उसे

छलते हैं।

 

वह समाचार पढ़ता है

अमुक साहित्यकार को

अमुक मंत्री ने

चिकित्सा हेतु

सहायता कोष से दान दिया।

उसे तसल्ली होती है

कि – चलो

एक और मुक्त्बिोध

कुछ दिन और जी लेगा।

 

वह आगे पढ़ता है

निर्वासित जोसेफ ब्रोद्स्की को

नोबल पुरुस्कार मिला।

वह काफी चेष्टा करता है

किन्तु,

हृदय कोई भी

टिप्पणी करने से

इन्कार कर देता है।

 

वह बाध्य करता है

अपने पाठकों को,

रुस में जन्में

अमरीका में शरण पाये

साम्यवाद और पूंजीवाद

के साये में पले

निर्वासित बोद्स्की पर

टिप्पणी करने

निर्वासित या स्वनिर्वासित

नज़िम हिक्मेत,

मकबूल फिदा हुसैन,

तसलीमा नसरीन …. पर

टिप्पणी करने ।

 

वह अनुभव करता है कि –

यदि,

टिप्पणी वह स्वयं करता है

तो निरर्थक होगी

यदि,

टिप्पणी पाठक करता है

तो

निःसन्देह सार्थक ही होगी।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

27 मार्च 2019

 

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रंगमंच स्मृतियाँ – “कोर्ट मार्शल” – श्री समर सेनगुप्ता एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव

रंगमंच स्मृतियाँ – “कोर्ट मार्शल” – श्री समर सेनगुप्ता एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव 

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।

इस प्रयास में  सहयोग के लिए  श्री समर सेनगुप्ता जी  एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव जी का आभार।  साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ   – हेमन्त बावनकर)   

“कोर्ट मार्शल”

संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के व्यक्तिगत अनुदान योजना के अंतर्गत ( CFPGS) इस नाटक की प्रस्तुति विगत 18 मार्च 2019 तो शाम 7.30 बजे  मानस भवन, जबलपुर में श्री स्वदेश दीपक द्वारा लिखित  एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव के निर्देशन में की गई।

कलाकार/बैनर – समन्यास वैलफेयर सोसायटी, भोपाल

*निर्देशकीय*

मेरे लिए नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ की कहानी जाति व्यवस्था और उसके परिणाम दिखाने वाली नहीं है बल्कि उसके भी आगे जाकर मनुष्य के सबसे बड़े विकार ‘अहंकार’ को सामने लाने और उसे समझने की कोशिश है । किसी भी कारण से किसी को भी अपने से कमतर समझना और इस वजह से उसे प्रताड़ित करना किसी नये अपराध और अपराधी का जन्मदाता हो सकता है ।

सत्य की रक्षा के लिए न्याय प्रणालियां हमेशा से ही चिंतित रहीं हैं, शायद स्वदेश दीपक जी ने कोर्ट मार्शल की रचना इसी चिन्ता की बुनियाद पर की है और इसके लिए उन्होंने बड़ी कुशलता से सेना की पृष्ठभूमि को चुना क्योंकि सेना चाहे किसी भी देश की हो अपने कौशल, सजगता, निपुणता और देशप्रेम के लिए पहचानी जाती है । जहां अनुशासन सर्वोच्य ताक़त है वहीं भावुकता सर्वाधिक बड़ी कमज़ोरी ।

मगर फिर क्या होता है जब कमज़ोरी को भड़काया जाता है और इसके लिए भावुकता को हथियार बनाया जाता है ।

हां ये ज़रूर है कि ‘गाली का जवाब गोली से नहीं दिया जा सकता’ लेकिन गाली की तह तक पहुँचें तो सभ्यता-संस्कृति का ऐसा घिनौना रूप दिखता है कि तमाम आदर्श ही गाली लगने लगते हैं ।

अतएव मैं अपने आसपास की तमाम सामाजिक और मानसिक गन्दगी के अच्छे या बुरे (जो भी हों) पक्ष के बारे में सोचना, समझना, जानना और उसे सामने लाना ज़रूरी समझता हूँ जिसकी सिद्धि के लिए प्रस्तुत नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ मेरी बखूबी मदद करता है ।

हर चीज़ के पीछे कोई ना कोई कारण होता है । अपराध के भी कारण होते हैं ।

अपराध वो नहीं जो हुआ है और अपराधी भी वो नहीं जिसने किया है बल्कि अपराध और अपराधी वो है जिसने समय रहते कुछ बातों पर ध्यान नहीं दिया । उसे छोटा मानकर उसके खिलाफ शिकायत नहीं की, आवाज़ नहीं उठाया । यही अनदेखा, अनसुना कर दिया गया कृत्य ही कालांतर में एक भयंकर अपराध और अपराधी का रूप धारण कर लेता है ।

तथाकथित छोटे आदमी की शिकायत को वहीं दबा देना और स्वयंभू बड़े आदमी की ग़लती देखकर अपनी आंख बंद कर लेना ही अपराध है ।

कौन होता है अपराधी ? इंसान ? या उसकी सोच, उसके विचार, उसकी आत्मा । कौन ? और कौन है हंटर ऑफ दी सोल ? शत्रु कौन है, जो सामने खड़ा है वो, या वो, जो अंतस में छिपकर बैठा है ?

इन्हीं सवालों को समझने और उसके जवाब ढूंढने का नाम है नाटक ‘कोर्ट-मार्शल’

कथा सार-

नाटक की मुख्य कहानी फ्लैशबैक में है । नाटक का एक पात्र ब्रिगेडियर सूरत सिंह अतीत में हुई एक ऐसी घटना का ज़िक्र करता है जिसने उसके अब तक के जीवन के सोच की धारा ही बदल दी थी । युद्ध और कोर्ट मार्शल में मरने और मारने की बात करने वाले सूरत सिंह को अंततः कहना पड़ता है कि “पहली बार मुझे इस दिल दहला देने वाले सत्य का पता चला कि जब हम किसी जान लेते हैं तो हमारे प्राणों का एक हिस्सा भी मर जाता है, मरने वाले के साथ । सच क्या केवल उतना ही होता है जितना समझ आये ? दिखाई दे ?”

कोर्ट-मार्शल है रामचंदर का । किसी भी सैनिक की भांति रामचंदर भी अपने देश की आन-बान-शान के लिए मर मिटने को तैयार है । चुस्त, ईमानदार और अपनी ड्यूटी का पक्का रामचंदर एक आइडियल सोल्जर है । लेकिन एक दिन यह आदर्श सैनिक अपने ही रेजिमेंट के दो अफसरों को गोली मार देता है जिसमें एक की मौत हो जाती है और दूसरा गंभीर रूप से घायल हो जाता है । रामचंदर अपना गुनाह कबूल करता है लेकिन ये बताना नहीं चाहता कि उसने गोली क्यों चलाई । क्यों की हत्या ?

रामचंदर का जनरल कोर्ट मार्शल किया जाता है जिसमें उसे फांसी की सज़ा सुनाई जाती है लेकिन सज़ा सुनाने वाले प्रिसाइडिंग ऑफिसर कर्नल सूरत सिंह के लिए उन्ही का निर्णय उनके गले की फांस बन जाता है ।

स्वदेश दीपक (1942)

एक भारतीय नाटककार, उपन्यासकार और लघु कहानी लेखक हैं । उन्होंने 15 से अधिक प्रकाशित पुस्तकें लिखी हैं । स्वदेश दीपक हिन्दी साहित्यिक परिदृश्य पर 1960 के दशक के मध्य से सक्रिय हैं । उन्होंने हिन्दी और अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की थी । छब्बीस साल उन्होंने अम्बाला के गांधी मेमोरियल कॉलेज में अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाया । 2004 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया । 2 जून, 2006 को वो सुबह की सैर के लिए गये   लेकिन आज तक वापस नहीं आये ।

कृतियाँ –

  • कहानी संग्रह- अश्वारोही (1973), मातम (1978), तमाशा (1979), प्रतिनिधि कहानियां (1985), बाल भगवान (1986), किसी अप्रिय घटना का समाचार नहीं (1990), मसखरे कभी नहीं रोते (1997), निर्वासित  कहानियां (2003)
  • उपन्यास-  नम्बर 57 स्क्वाड्रन (1973), मायापोत (1985)
  • नाटक- बाल भगवान (1989), कोर्ट मार्शल (1991), जलता हुआ रथ (1998), सबसे उदास कविता (1998), काल कोठरी (1999)
  • संस्मरण- मैंने मांडू नहीं देखा (2003)

प्रस्तुति : श्री समर सेनगुप्ता, जबलपुर एवं श्री अनिमेष श्रीवास्तव, भोपाल   

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – “सवाल एक –  जबाब अनेक – 1” – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

“सवाल एक –  जबाब अनेक1 – 1”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का  एक प्रश्न के विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है।ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में ______

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है पहला उत्तर भोपाल से वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन  की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

भोपाल से वरिष्ठ व्यंग्यकार शान्ति लाल जैन ___

आज के संदर्भ में, लेखक, खास तौर पर व्यंग्य लेखक समाज के घोड़े की आँख या लगाम से आगे की स्थिति में है। वो घोड़े की लात हो गया है। वो लत्ती झाड़ रहा है, तबियत से झाड़ रहा है। मगर, कमाल ये कि खानेवालों को मार महसूस ही नहीं हो रही। या तो लात खानेवालों को इस बात का इल्म ही नहीं है या लात की मार उन पर बेअसर हो चुकी। दरअसल, वे ‘लात प्रूफ’ हो गये हैं। यहाँ तक तो फिर भी ठीक भी था मगर जिन नायकों-जननायकों पर समाज के घोड़े को दिशा और गति देने का दायित्व था, और है, वे लतियाये जाने पर खुश हैं। लात खाकर जिनकी आह निकलनी चाहिए थी, वे तो उसे एंजॉय करने में लग गए हैं।

एक पुरानी फिल्म है ‘उम्रकैद’, इसमें जितेंद्र ने एक किरदार निभाया है जो हर रात जब तक अपने दस-बीस हमक़ैदियों से लात घूसों की मार नहीं खा लेता, तब तक उसे चैन की नींद नहीं आती। कमोवेश हमारा समाज इस स्थिति में आ ही गया है। प्रख्यात व्यंग्यकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी कहते हैं जिस भयावहता से हमें डरना चाहिए हम उसे एंजॉय कर रहे हैं। आज जब घोड़े की आँख या लात का जिक्र आया तो मुझे याद आया कि जिस मार के दर्द को मनुष्य समाज के रूप में हमें महसूस करना चाहिए, नीति नियंताओं के दिये जा रहे नुकसान से हमें डरना चाहिए, समझाया ये जा रहा कि हम उस डर को एंजॉय करें। ऐसे दौर में लेखक आँख और लगाम का काम कर तो सकता है, करता भी है मगर वो प्रभावी नहीं हो पाता।

लेकिन वो लिखना बंद नहीं कर सकता क्योंकि यही बच रहेगा। जब स्थितियां गिरावट के अपने चरम बिंदु पर पहुँचती हैं, वे लेखक की ओर हरसरत भरी निगाह से देखतीं हैं। तब लेखक ही समाज के घोड़े को सही दिशा दिखा पाता है। वो आँख, नाक, कान, लात, लगाम जैसा कुछ हो पाये न हो पाये, मशाल तो हो ही जाता है।

हम व्यंग्य से इतर लेखन की बात करें तो लगभग सारे बड़े राजनेता मूलत: लेखक रहे हैं। महाभारत और रामायण जैसे ग्रन्थ भी सत्ता संघर्ष के इर्द गिर्द बुने गये हैं। समकालीन भारत में नेहरु, गाँधी, डॉ राधाकृष्णन, राजगोपालाचारी आदि अनेक राजनेता रहे हैं जिनकी किताबों ने भारत की राजनीति को नई दिशा और दशा प्रदान की। अज्ञेय और महर्षि अरविन्द जैसे स्वतंत्रता आन्दोलन के क्रांतिकारी नेता बाद में पूर्णकालिक लेखन या अध्यात्म की ओर मुड़ गए लेकिन, उनकी राजनैतिक चेतना ने उस दौर में आँख का काम तो किया ही। वर्तमान राजनीतिक दौर में प्रज्ञावान लेखकों का न होना गिरावट के मूल कारणों में से एक है। एक ऐसा बड़ा नेता आज नहीं है जो मानविकी विषयों पर गहन अध्ययन करके समाज को कालजयी कृति दे सके। ये राजनेताओं के झूठे सच्चे संस्मरणों से भरी आत्मकथाओं के लिखे जाने या लिखवाये जाने का दौर है। ये अन्फाउंडेड बेसलेस बायोपिक का दौर है।

ऐसा नहीं है कि वर्तमान दौर में अच्छी किताबें नहीं लिखीं जा रहीं या अच्छा साहित्य नहीं रचा जा रहा। दिक्कत ये कि वो समाज के घोड़े की न तो आँख बन पा रहा है न ही लगाम। और सच तो ये है कि अधिकांश लेखक समाज को दिशा देने या दशा बदल देने के हेतु से लिख भी नहीं रहे। उनका लक्ष्य बेस्ट सेलर बुक्स लिखना रह गया। हम पाते हैं कि बड़े पैमाने पर बेस्ट सेलर किताबों के लेखक, खासकर अंग्रेजी लेखक, सेक्स का तड़का लगाकर उपन्यास लिख रहे हैं। उनकी किताबें अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी तर्जुमे में भी बिक रही हैं। खोटे सिक्कों ने अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर दिया है। मगर, अब भी मु_ी भर लोग हैं जो एक ईमानदार प्रतिबद्ध लेखन से समाज को देख भी रहे हैं और दिखा भी रहे हैं। आप इसे घोड़े की आँख कह सकते हैं। वे लेखन की लगाम से गति पर नियंत्रण भी कर सकेंगे और दिशा भी दे सकेंगे। मगर इसमें वक्त लगेगा।

बहरहाल, ये लतियाए जाने को एन्जॉय करने का समय है।

  • श्री शांतिलाल जैन 

 

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – * तो फक्त प्राजक्त होता… * – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

तो फक्त प्राजक्त होता… 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी की एक  शाश्वत प्रेम पर भावप्रवण कविता।) 

तुझी वाट पाहिली त्याने ,
ओघळला पण,
आवाज न करता,
रोजच्यासारखा.
फरक एवढाच होता,
ओघळण्याचं दुःख नसलं तरी,
तुझ्या ओंजळीचा आधार नव्हता.
श्वासऋतूंना बहरताना,
स्पर्शगंधाची बोचरी उणीव घेऊन,
निरागस आर्त भाव नव्हता.
कळेल का तुला कधी,
समर्पणातील समाधान,
ज्यात तुझा माझा भेद नव्हता.
हृदयस्थ प्रेमाने सुगंधित,
तुझ्या वाटेवर पायदळी जाताना,
तो फक्त प्राजक्त होता.
© आरुशी दाते
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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (22) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।22।।

जीर्ण वसन ज्यों त्याग नर , करता नये स्वीकार

त्यों ही आत्मा त्याग तन नव गहती हर बार।।22।।

      

भावार्थ :   जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।22।।

 

Just as a man casts off worn-out clothes and puts on new ones, so also the embodied Self casts off worn-out bodies and enters others that are new. ।।22।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – Shirsana Yogic Asana – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

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The headstand is one of the most important yogic asanas. The inversion in the final pose brings a rejuvenating supply of blood to the braincells.

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore
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हिन्दी साहित्य – कविता – * चिट्ठियाँ * – सुश्री प्रभा सोनवणे “कात्यायनी”

सुश्री प्रभा सोनवणे “कात्यायनी”

चिट्ठियाँ 

(प्रस्तुत है ज्येष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री प्रभा सोनवणे जी  की  भावप्रवण कविता  “चिट्ठियाँ “)

 

अक्सर हमे मिलने आती है चिट्ठियाँ

चाहत भरे नगमे गाती है चिट्ठियाँ

 

आहट तुम्हारे पैरों की जब आती है

खबर कोई मीठी लाती है चिट्ठियाँ

 

चिठ्ठी नही यह तो मेरी धडकन ही है

दर्द कितने सनम छुपाती है चिट्ठियाँ

 

छोडा हमारे ख्वाबों को तन्हाँ तुमने

यादे तुम्हारी संजोती है चिट्ठियाँ

 

वादा कभी कोई करके भुला भी दे

आँसू बहाती है रोती है चिट्ठियाँ

 

रौनक’ प्रभा’ तुमने माँगी अंधेरोंसे

किस्मत यहाँ पर चमकाती है चिट्ठियाँ

 

© प्रभा सोनवणे”कात्यायनी”

गणराज ,135/2 सोमवार पेठ पुणे 411011 (महाराष्ट्र)

मोबाईल -9270729503

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – * चार मराठी कविताएँ  * – सुश्री मीनाक्षी भालेराव

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

चार मराठी कविताएँ 

(सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की भारतीय परिवेश में स्त्री की पहचान उजागर करती हृदयस्पर्शी कविताएँ।)

 

१)

आई म्हणायची ,

आपल्या मुलींवर कधी हात  टाकू नये.

लक्ष्मी रुसते.

आज  सगळीकडे

दारिद्य्र वाढतंय,

महागाई वाढतेय,

कारण

आज  देशात ठिकठिकाणी

मुलींना मारले जातंय .

 

२)

शेजाऱ्यांच्या घरात भिंत उभी राहिली आहे आताशा .

असे वाटतंय , त्यांची  मुले  कमवू लागली आहेत आताशा .

ज्या आईवडिलांनी हौसेने बांधलं होते घर

ते  वृध्दआश्रम गले  आहेत आताशा .

शेजाऱ्यांच्या घरात भिंत उभी राहिली आहे आताशा .

असे वाटतंय , त्यांची  मुले  कमवू लागली आहेत आताशा .

 

३)

लहानपणी आईपासून

नाईलाजाने दूर राहावे लागले होते ,

तेव्हा आई मला नेहमी

पत्र पाठवत असे.

आज खूप वर्षे झाली

आई जाऊन.

तेव्हापासून तिची ती पत्रेच

बनली आहेत आई !

 

४)

पूर्वी कच्चे असायचे राखीचे धागे

पण नाती असायची पक्की.

आज अगदी मजबूत असतात राखीचे धागे

पण नाती मात्र बनत आहेत तकलादू .

जेव्हापासून आईवडिलांच्या मृत्युपत्रात

मुलीलाही मिळू  लागला वाटा

तेव्हापासून माहेरी भाऊ-वहिनीच्या प्रेमाच्या

राहून गेल्या कथा .

© मीनाक्षी भालेराव, पुणे 
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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (21) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌।

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌।।21।।

अविनाशी अज सतत जो,उसका कहाँ विनाश

उसके मारण-मरण का झूठा है विश्वास।।21।।

 

भावार्थ :   हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?।।21।।

 

Whosoever knows Him to be indestructible, eternal, unborn and inexhaustible, how can that man slay, O Arjuna, or cause to be slain? ।।21।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – Laughter Meditation – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

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Laughter and meditation are not opposites. Laughter opens a beautiful door to transcendence. Laughter meditation is one of the most intense and beautiful experiences that you can ever have.

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Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore
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