ई-अभिव्यक्ति: संवाद-11 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–11 

भारतवर्ष के प्रत्येक प्रदेश एवं उस प्रदेश की प्रत्येक भाषा के साहित्य का एक अपना गौरवान्वित इतिहास रहा है। यह भी सत्य है कि प्रत्येक साहित्यकार जो अपना इतिहास रच कर चले गए हैं उनकी बराबरी की परिकल्पना करना भी उनके साहित्य के साथ अन्याय है। किन्तु, यह भी शाश्वत सत्य है कि समकालीन साहित्य एवं विचारधारा को भी किसी दृष्टि से कम नहीं आँका जा सकता।

इतिहास गवाह है कई साहित्यकार एवं कलाकार अपनी प्रतिभा के दम पर मील के पत्थर साबित हुए हैं । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं स्वतंत्र विचारधारा के कारण उनके  साहित्य एवं कला ने उन्हें उनके देश से निष्काषित भी किया है। इनमें से कुछ नाम है जोसेफ ब्रोद्स्की, नज़िम हिक्मेत, तसलीमा नसरीन, मकबूल फिदा हुसैन और एक लंबा सिलसिला।

इस संदर्भ में मुझे अपनी एक कविता “साहित्यकार-पुरुसकार-टिप्पणी” याद आ रही है। प्रस्तुत है उस कविता के कुछ अंश :

 

यदि ‘‘अकवि’’

कोई संज्ञा है, तो वह

निरर्थक कविता करने पर

तुला हुआ है।

 

स्वान्तःसुखाय

एवं

साहित्य को समर्पित

वृद्ध साहित्यकार

किंकर्तव्यमूढ़ खड़ा है।

 

इतिहास साक्षी है

‘‘साहित्यकार’’

जिसका जीवन

जीवन स्तर से निम्न रहा है

प्रकाशक

उसके साहित्य पर पल रहा है।

ट्रस्ट उसके नाम से

धनवान प्रतिभावान साहित्यकार को

पुरुस्कृत कर रहा है।

नवोदित साहित्यकारों को

चमत्कृत कर रहा है।

 

वह वृद्ध हताश

देख रहा है तमाशा

चकनाचूर है

साहित्य सेवा की अभिलाषा

कल तक वह

शब्द महल गढ़ता था

आज वे ही शब्द उसे

छलते हैं।

 

वह समाचार पढ़ता है

अमुक साहित्यकार को

अमुक मंत्री ने

चिकित्सा हेतु

सहायता कोष से दान दिया।

उसे तसल्ली होती है

कि – चलो

एक और मुक्त्बिोध

कुछ दिन और जी लेगा।

 

वह आगे पढ़ता है

निर्वासित जोसेफ ब्रोद्स्की को

नोबल पुरुस्कार मिला।

वह काफी चेष्टा करता है

किन्तु,

हृदय कोई भी

टिप्पणी करने से

इन्कार कर देता है।

 

वह बाध्य करता है

अपने पाठकों को,

रुस में जन्में

अमरीका में शरण पाये

साम्यवाद और पूंजीवाद

के साये में पले

निर्वासित बोद्स्की पर

टिप्पणी करने

निर्वासित या स्वनिर्वासित

नज़िम हिक्मेत,

मकबूल फिदा हुसैन,

तसलीमा नसरीन …. पर

टिप्पणी करने ।

 

वह अनुभव करता है कि –

यदि,

टिप्पणी वह स्वयं करता है

तो निरर्थक होगी

यदि,

टिप्पणी पाठक करता है

तो

निःसन्देह सार्थक ही होगी।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

27 मार्च 2019