प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “दिखते जो है बड़े उन्हें वैसा न जानिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #120 ☆  कविता  – “प्रार्थना…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

भगवान तुम्हारी माया को जग समझ सके आसान नहीं ।

तुम करुणा के आगार अमित जिसका जग को अनुमान नहीं ।।

जग में माया का मायापति तुमने ऐसा विस्तार किया

कण कण में आकर्षण भर कर सबको सुन्दर संसार दिया।

पर नयन बावरे देख सकें इसका उनको तो भान नहीं ।। 1 ।।

दुनियाँ ने की उन्नति बहुत पर सच अब भी अज्ञानी है

विज्ञानी ने कीं खोज कई, पर तज न सका नादानी है।

उस पार तुम्हारी इच्छा के जा सकता है विज्ञान नहीं ॥ 2 ॥

लेकर एक सीमित आयु यहाँ प्राणी जग में क्यों आते हैं ?

रहते, हँसते, गाते, रोते फिर छोड़ चले क्यों जाते हैं?

अब भी रहस्य है उलझा सा, हो पाया अनुसंधान नहीं ॥। 3 ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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