डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

(कृपया आदरणीया डॉ मुक्ता जी की पुस्तक “चिंतन के शिलालेख” की समीक्षा के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 169 ☆

☆ संवाद : संबंधों की जीवन-रेखा

‘संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। परंतु जब आप संवाद अर्थात् वार्तालाप करना बंद कर देते हैं, तो आप अपने अनमोल संबंध खो देते हैं।’ यह वाक्य गहन-गूढ़ अर्थ को परिलक्षित करता है। जैसे संवाद अथवा कथोपथन कहानी या नाटक को गति प्रदान करते हैं; वैसे ही संवाद हमारे जीवन को ऊर्जा व जीवंतता प्रदान करते हैं… हमारे अंतर्मन में जीने की उमंग जाग्रत करते हैं। जैसाकि सर्वविदित है– मानव एक सामाजिक प्राणी है और वह अकेला रहने में स्वयं को असमर्थ पाता है। इसलिए ही वह जन्म- जात संबंधों के रहते भी अन्य संबंध स्थापित करता है, क्योंकि वह अपने सुख-दु:ख की अभिव्यक्ति किए बिना ज़िंदा नहीं रह सकता। वह अपने हृदय के भावों को अभिव्यक्ति प्रदान कर सुक़ून पाता है तथा स्वयं को अकेला, असहाय व विवश अनुभव नहीं करता।

यदि आप वार्तालाप/ संवाद करना बंद कर देते हैं, तो अनमोल संबंधों को खो देते हैं। संवादहीनता मान-दशा तक तो  वाज़िब है, परंतु उसके बाद यह सज़ा बनकर रह जाती है और एक अंतराल के पश्चात् मानव स्वयं को  नितांत अकेला अनुभव करता है। प्रश्न उठता है– क्या संबंध बनाए रखने के लिए मानव को दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए अपने आत्म-सम्मान को दाँव पर लगा देना चाहिए? नहीं…यह तो चाटुकारिता कहलायेगी। यदि लंबे समय तक यह स्थिति बनी रहती है, तो मानव तनाव, चिंता व अवसाद से घिर जाता है और अंततः उस व्यूह को भेदना मानव के वश से बाहर हो जाता है। तनाव संबंधों की ताज़गी व पारस्परिक स्नेह-सौहार्द को लील जाता है और ऐसे व्यक्ति के साथ रहने से दूसरे पक्ष के लोग भी गुरेज़ करना प्रारंभ कर देते हैं। सो! उसे जीवन में अकेले विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।

लंबे समय तक तनाव की यह स्थिति मानव को चिंता के अथाह सागर में धकेल देती है। चिंता चिता समान है, जो दीमक की भांति मानव के उत्साह, साहस, धैर्य आदि को लील कर, शरीर रूपी इमारत की चूलों को हिला कर खोखला कर देती है। चिंताग्रस्त मानव सदैव ख़ुद से बेखबर स्वनिर्मित लोक में विचरण करता रहता है। वह बेसिर-पैर की कल्पनाओं में खोया, अनगिनत शंकाओं में घिरा स्वयं को अपाहिज-सा अनुभव करता है। यदि ऐसा-वैसा हो गया, तो उसका क्या होगा? उसके परिवार की क्या दशा होगी? उन विषम परिस्थितियों से वे कैसे निज़ात पा सकेगे? चिंताग्रस्त मानव को चारों ओर अंधकार ही अंधकार नज़र आता है। जीवन में उसे आशा की कोई किरण दिखाई नहीं पड़ती और न ही कोई उम्मीद की झलक दिखाई पड़ती है…उसे जीवन मरु-सम भासता है। उसकी दशा रेगिस्तान के उस हिरण-सी हो जाती है, जो प्यास से आकुल-व्याकुल सूर्य की किरणों को जल समझ उनके पीछे दौड़ा चला जाता है और अंत में अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। यही होती है अवसाद-ग्रस्त मानव की मन:स्थिति… जिसके जीवन में न कोई उमंग रहती है; न ही कोई तरंग; न प्रसन्नता; न ही उल्लास…वह तो नितांत अकेला, तन्हा-सा अपना जीवन बसर करता है अर्थात् ढोता है।

संवादहीनता मानव को उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां वह हरदम तन्हाई के दंश झेलता है; जो नासूर बन उसे आजीवन सालते हैं। संवादहीनता आजकल सभी रिश्ते-नातों में सेंध लगाकर जीवन के सुक़ून व सुखों पर डाका डाल रही है। सुक़ून मन की वह निर्विकार अवस्था है, जहां मानव राग-द्वेष व स्व-पर की निकृष्टतम वृत्तियों से ऊपर उठ जाता है और अंतर्मन रूपी सागर के शांत जल में निरंतर अवगाहन करता रहता है और वहां पहुचने के पश्चात् सभी इच्छाओं का शमन हो जाता है। परंतु उस स्थिति तक पहुंचने में मानव को वर्षों तक साधना-तपस्या करनी पड़ती है।

आइए! हम संबंध-निर्वाह के विषय पर चर्चा कर लें। संबंध विश्वास के आधार पर स्थापित तो हो जाते हैं, परंतु उनका निबाह करने के लिए आवश्यकता होती है बर्दाश्त करने की…यदि हममें सहनशीलता का मादा है, तो संबंध स्थायी व स्थिर रह सकते हैं, अन्यथा वे पानी के बुलबुले की भांति पल-भर में विलीन हो जाते हैं। संबंध कभी भी दूसरों से जीतकर नहीं निभाए जा सकते; उन्हें बनाए रखने के लिए तो जीतकर भी हारना पड़ता है। उनकी भावनाओं को महत्व देते हुए, प्रियजनों की प्रसन्नता के लिए पराजय को स्वीकारना पड़ता है। इसके विपरीत यदि आप वार्तालाप बंद कर देते हैं, तो संबंध टूट जाते हैं;  समाप्त हो जाते हैं और उन विषम परिस्थितियों में आप अकेले रह जाते हैं और कोई पल-भर के लिए भी आपके साथ समय व्यतीत करना पसंद नहीं करता।

यदि हम संबंधों को चिरस्थाई व शाश्वत् रूप प्रदान करना चाहते हैं, तो हमारे लिए यथासमय झुकना व दूसरों को सहन करना कारग़र होगा। दूसरे शब्दों में हमें परिस्थितियों के अनुसार समझौता करना होगा। झुकना, सहना व समझौता करने की एक ही मांग होती है…अहं का विसर्जन। यह ही एक ऐसा उपादान है; जिसके द्वारा आप दूसरों का हृदय परिवर्तित कर सकते हैं…अपने प्रति दूसरों के मन में विश्वास जाग्रत कर सकते हैं। वैसे भी जीवन केवल संघर्ष ही नहीं; समझौता है। संघर्ष की स्थिति हमारे अंतर्मन की आंतरिक शक्तियों को जाग्रत करती है; प्रेरित करती है; हमें अपने लक्ष्य तक पहुंचाती है। दूसरे शब्दों में समझौता हमारे अंतर्मन की दुष्प्रवृत्तियों का शमन कर, संबंधों को शाश्वत रूप प्रदान कर हमें सुक़ून देता है; जीने की प्रेरणा देता है। सो! संबंधों को सार्थकता प्रदान करने हेतु जहां संवादों की दरक़ार है; वहीं समझौता भी वह संजीवनी है, जिसमें प्राणदायिनी शक्ति निहित है।

अंतत: हम कह सकते हैं कि जीवन में कभी संवादहीनता की स्थिति न पनपने दें, क्योंकि यह वह सुनामी है; जो संबंधों को लील जाता है और जीवन को शून्यता से भर देता है। यह स्थिति मानव के लिए अत्यंत घातक है, विस्फोटक है। सो! हम सबको अपने दायित्व का वहन करना चाहिए और समाज में स्नेह, सौहार्द, समन्वय, सामंजस्यता व समरसता की स्थिति बनाए रखने के लिए अपने अहम् का विसर्जन कर, संबंधों को सार्थक बनाने का भरसक प्रयास करना चाहिए …यही समय की मांग है और मानव-मात्र से अपेक्षित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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