डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘बेख़ुदी के लमहे। चित्रकार, कलाकार और ऐसे ही मिलते जुलते पेशे के लोगों की बेखुदी के लमहों के भी क्या कहने? डॉ परिहार सर के लेखनी के जादू ने तो ऐसे पात्र का सजीव शब्दचित्र ही खींच कर रख दिया। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 81 ☆

☆ व्यंग्य – बेख़ुदी के लमहे

तुफ़ैल भाई हमारे शहर के एकमात्र बाकायदा मान्यता-प्राप्त चित्रकार हैं। बाथरूम पेन्टर तो बहुत से होंगे, उनसे हमें क्या लेना-देना।  बाथरूम में मोर नाचा,किसने देखा?

तुफ़ैल भाई अपनी हरकतों की वजह से अक्सर चर्चा में रहते हैं। उनके पास एक छोटी सी कार है जिसे उन्होंने चलता-फिरता कैन्वास बना रखा है। कार पर सब तरफ पेन्टिंग बनी है,जिसमें से कहीं आदमी की आँख, कहीं घोड़े का थूथन, कहीं बैल के सींग नज़र आते हैं। कार में कैन्वास, ब्रश और पेन्ट लादे वे पूरे शहर में घूमते रहते हैं और जहाँ मन होता है वहाँ ब्रश पेन्ट निकालकर शुरू हो जाते हैं। चौराहों पर खड़ी कई गायों की चमड़ी को वे समृद्ध, सुन्दर और मूल्यवान बना चुके हैं। कभी शास्त्री पुल पर कैन्वास टिकाकर पेन्टिंग शुरू कर देते हैं और ट्रैफिक गड़बड़ा जाता है।

तुफ़ैल भाई पक्के कलाकार हैं। जूते वे पहनते नहीं, क्योंकि जूते पहनने से काम बढ़ता है और ध्यान बँटता है। इतना क्या कम है कि कपड़े पहने रहते हैं। एक बार उसमें भी गड़बड़ हो गया। एक पान की दूकान पर पान खाने उतरे तो पता चला कुर्ता तो पहन आये, पायजामा घर में ही छूट गया। लोगों ने वापस उन्हें कार में बन्द कर दिया और एक आदमी को दौड़ा कर घर से पायजामा मंगवाया। अपने शहर के भद्र समाज को वे ऐसे ही संकट में डालते रहते थे।

तुफ़ैल भाई धूम्रपान को रचनाशीलता का ज़रूरी हिस्सा मानते हैं लेकिन वे सिगरेट की बजाय बीड़ी पसन्द करते हैं। उनका मत है कि बीड़ी ज़मीन की चीज़ है, जनता के पास पहुँचने में मददगार होती है।

एक बार वे भारी लफड़े में पड़ गये थे।  अपना कैन्वास-कूची लेकर वे एक भद्र परिवार की विवाहित युवती के पीछे पड़ गये थे। उनका कहना था कि उक्त नारी का सौन्दर्य ‘परफेक्ट’ है और इसलिए कलाकार होने के नाते इच्छानुसार उससे बातचीत करने और उसका चित्र बनाने का उन्हें हक है। मुश्किल यह है कि अभी हमारा समाज कलाकारों की अभीष्ट कद्रदानी नहीं जानता। युवती के परिवार के कुछ मूर्ख युवकों ने तुफ़ैल भाई पर हमला बोल दिया। लड़ाई में उनके चार कैन्वास, छः ब्रश और बायें हाथ की हड्डी काम आयी। वह तो अच्छा हुआ कि उनका दाहिना हाथ बच गया, अन्यथा कला जगत की भारी क्षति हो जाती।

कुछ दिन बाद मैंने अपने घर की मरम्मत कराके उसकी रंगाई-पुताई करायी। घर की सूरत निखर आयी तो घर के लोगों का मन बना कि उसमें एक दो पेन्टिंग टाँगी जाएं। जब आदमी का धन -पक्ष मज़बूत हो जाता है तो उसका ध्यान कला-पक्ष की तरफ जाता है ताकि दुनिया को लगे कि उसके पास माल के अलावा तहज़ीब और नफ़ासत भी है।

हुसेन और रज़ा को टाँगने की अपनी हैसियत नहीं थी, इसलिए तय हुआ कि फ़िलहाल तुफ़ैल भाई को टाँगकर काम चलाया जाए। ‘तुफ़ैल’ नाम भी कुछ ऐसा था कि कमज़ोर नज़र वाला उसे ‘हुसैन’ समझ सकता था। ज़्यादातर लोग पेन्टर का नाम देखकर ही यह निर्णय ले पाते हैं कि पेन्टिंग महत्वपूर्ण है या नहीं।

तुफ़ैल भाई के घर पहुँचा तो पाया कि गेट से लेकर दीवारें तक उनकी कला के नमूनों से सजी हैं। बरामदे में उनका एक चेला गन्दा कुर्ता पहने बेतरह दाढ़ी खुजा रहा था। लगता था किसी भी क्षण उसकी दाढ़ी से पाँच दस जूँ टपक पड़ेंगे।

मैंने उससे कहा कि मैं तुफ़ैल भाई से मिलना चाहता हूँ तो वह दाढ़ी खुजाने के आनन्दातिरेक में आँखें बन्द करके बोला, ‘नामुमकिन’।

मैंने वजह पूछी तो वह हाथ को विराम देकर बोला, ‘उस्ताद आजकल एक महान पेन्टिंग की तैयारी में डूबे हैं। दिन रात उसी के बारे मे सोचते रहते हैं। हर पेन्टिंग के पहले यही हालत हो जाती है। न खाते-पीते हैं, न सोते हैं। एकदम बेख़ुदी की हालत है। दीन-दुनिया का होश नहीं है। जब तक पेन्टिंग पूरी नहीं हो जाती, ऐसा ही जुनून सवार रहेगा। ‘

फिर मेरी आँखों में आँखें डालकर बोला, ‘इस बार जो पेन्टिंग बनेगी वह पिकासो की ‘गुएर्निका’ को पीछे छोड़ देगी। आप देखना, दुनिया भर के पेन्टर उस्ताद को सलाम करने दौड़े आएंगे। ‘

मैंने प्रभावित होकर कहा, ‘मुझे उस्ताद की एक दो पेन्टिंग खरीदनी हैं। ‘

वह ज़ोर से सिर हिलाकर बोला, ‘अभी तो भूल जाइए। उस्ताद की इजाज़त के बिना पेन्टिंग मिलेगी नहीं, और उस्ताद को अभी इस दुनिया में वापस लौटा लाना बहुत मुश्किल है। ‘

फिर वह मुझसे बोला, ‘आइए, आपको उस्ताद की हालत दिखाते हैं। ‘

मैं उसके पीछे हो लिया। एक खिड़की के पास रुककर इशारा करते हुए वह बोला, ‘देखिए। ‘

मैंने खिड़की से झाँका।  अन्दर कमरे में तख्त पर तुफ़ैल भाई ऐसे चित्त पड़े थे जैसे दीन-दुनिया से पूरा रिश्ता ही टूट गया हो। मैंने घबराकर चेले से पूछा, ‘तबियत तो ठीक है?’

वह फिर दाढ़ी खुजाते हुए हँस कर बोला, ‘फिकर की बात नहीं है। ऐसा तो होता ही रहता है। लेकिन परेशानी बहुत होती है। अभी कल उस्ताद के लिए चाय लाकर रखी। थोड़ी देर में देखा कि चाय ज्यों की त्यों रखी है और कूची धोने वाला कप खाली हो गया है। क्या कीजिएगा। कलाकारों के साथ यही मुश्किल सामने आती है। ‘

मैंने मायूस होकर कहा, ‘ठीक है। बाद में आ जाऊँगा। ‘

इतने में तख्त से एक कमज़ोर आवाज़ आयी, ‘कौन है, शेख़ू?’

चेला चमत्कृत होकर बोला, ‘ये सिंह साहब आये हैं, उस्ताद। पेन्टिंग देखना चाहते हैं। ‘

तुफ़ैल भाई उसी तरह आँखें बन्द किये बोले, ‘चाबियाँ लेकर दिखा दे। ‘

चेला एक कील से चाबियाँ उतारकर मुझे एक कमरे में ले गया। वहाँ सैकड़ों पेन्टिंग अलग अलग दीवारों से टिकी थीं। वह इशारा करके बोला, ‘देख लीजिए। ‘

मैंने पेन्टिंग उलट पलट कर देखीं। कुछ समझ में नहीं आया। चेला एक हाथ कमर पर रखे दाढ़ी खुजाता खड़ा था। शर्मिन्दगी से बचने के लिए मैंने ढेर में से दो पेन्टिंग निकाल लीं। चेले से कहा, ‘ये दोनों मुझे पसन्द हैं। ‘

चेला निर्विकार भाव से बोला, ‘उस्ताद से पूछना पड़ेगा। ‘

हम फिर झरोखे पर पहुँचे। तुफ़ैल भाई उसी तरह बेजान पड़े थे। चेला बोला, ‘वो आदिवासियों वाली दो पेन्टिंग लेना चाहते हैं।

तुफ़ैल भाई के ओठों में जुम्बिश हुई। आवाज़ आयी, ‘बीस हज़ार ले ले। ‘

मैंने कुछ शर्मिन्दगी के भाव से कहा, ‘तुफ़ैल भाई, मुझे पाँच छः हज़ार से ज़्यादा की गुंजाइश नहीं है। ‘

लाश में से आवाज़ आयी, ‘मुरमुरा ख़रीदने निकले हैं क्या?’

मैं लज्जित होकर चुप हो गया। तख्त से फिर आवाज़ आयी, ‘पन्द्रह हज़ार दे जाइए। ‘

मैंने कहा, ‘चलता हूँ तुफ़ैल भाई। ख़ामख़ाँ आपको तक़लीफ़ दी। ‘

मैं दरवाज़े से बाहर निकला ही था कि चेले ने पीछे से आवाज़ दी। हम फिर खिड़की पर पहुँचे। तुफ़ैल भाई के शरीर से फिर आवाज़ आयी, ‘दस हज़ार से कम नहीं होगा। वैसे बाज़ार में पचास पचास रुपये वाली भी मिलती हैं। ‘

चेला अपने गुरू को सुनाकर बोला, ‘आपको ये मिट्टी मोल पड़ रही हैं। आर्ट का मोल करना सीखिए, जनाब। एक दिन यही दो पेन्टिंग आपको करोड़पति बना देंगीं। ‘

मैंने कहा, ‘मैं फिर आऊँगा। अभी इजाज़त चाहता हूँ। ‘

तुफ़ैल भाई के मुर्दा जिस्म से फिर आवाज़ आयी, ‘नगद ले ले। ‘

चेले ने छः हज़ार लेकर मुझे दोनों पेन्टिंग एक अखबार में लपेट कर दे दीं।

चलते वक्त मैंने खिड़की के सामने रुककर तुफ़ैल भाई के शरीर को संबोधन करके कहा, ‘चलता हूँ , तुफ़ैल भाई। बहुत बहुत शुक्रिया। ‘

जिस्म से कोई आवाज़ नहीं आयी। पीछे से चेला बोला, ‘किससे बात कर रहे हैं?’

मैंने कहा, ‘तुफ़ैल भाई से। ‘

वह बोला, ‘अब तुफ़ैल भाई कहाँ हैं? वे तो वापस बेख़ुदी की हालत में चले गये हैं। इस वक्त वे इस रोज़गारी दुनिया से ऊपर कला की दुनिया में हैं। आपसे अब उनकी बात नयी पेन्टिंग पूरी होने के बाद ही हो पाएगी। आप ख़ामख़ाँ अपना वक्त ज़ाया कर रहे हैं। ‘

मैं कला की उन दोनों अमूल्य कृतियों को बगल में दबाकर बाहर आ गया।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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