श्री सदानंद आंबेकर

 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष लघुकथा  “सार्थक”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन । 

☆ कथा कहानी  ☆ लघुकथा –  सार्थक ☆ श्री सदानंद आंबेकर

देश  स्वतंत्र हुये 75 वर्ष  बीत रहे थे, ऐसे में स्वर्ग में महात्मा गांधी जी को लगा कि चलो, एक बार चल कर मेरे भारत को देख आया जाये। ईश्वर से विशेष अनुमति लेकर बापू एक अत्यंत वृद्ध के वेश में भारत में आये। दो मिनट बाद जब नेत्र खोले तो देखा एक विशालकाय खंभों वाले पुल के नीचे वे खडे हैं। ऊपर अचानक कुछ ध्वनि सुनाई दी तो देखा पांच छह डिबों वाली ट्रामनुमा रेल बड़ी तेजी में निकल गई। उन्होंने देखा इसमें तीसरे दर्जे का डिब्बा तो है ही नहीं, फिर सोचा कि ट्राम है-मतलब मैं कलकत्ता आ गया हूं। धोती लाठी को संभालते हुये आगे बढे कि एक बस उनके बाजू से निकली जिस पर संसद भवन से कनॉट प्लेस लिखा था तो वे एकदम प्रसन्न हो गये अरे, ये तो दिल्ली है। वाह, कितनी बदल गई है मेरी दिल्ली।

गला सूखने लगा तो आसपास नजर दौडाई, सोचा- हमारे जमाने में धर्मार्थ प्याऊ थे उनमें से कोई तो बचा होगा। इधर-उधर खोजा तो एक भी नहीं दिखा, थोड़ी दूर उन्हें एक दुकान से कुछ लोग कांच की बोतलें ले जाते हुये दिखे तो बापू ने सोचा शायद शीतल पेय की दुकान है चलो कुछ मिल जायेगा। पास गये तो देखा वह बीयर की दुकान थी, नीचे पते में लिखा था गांधी रोड दिल्ली। दुखी होकर सूखा गला लेकर लाठी टेकते चल दिये।

धूप और प्यास से थक गये तो सोचा रिक्शा कर लिया जाये, कुछ समय प्रतीक्षा की तो एक रिक्शे वाला आया जिसे रोक कर बापू बोले भैया थोड़ा आसपास घुमा फिरा दो और पहले कहीं ठंडा पानी पिला दो। बूढे़ बाबा को देखकर रिक्शेवाले को भी दया आई बोला- बैठो दादा मैं सब दिखा दूंगा। कहां से आये हो, यूपी से या बिहार से ? अकेले ही इस उमर में निकल पड़े ?

अपनी बोतल से पानी पिला कर रिक्शावाला चल पड़ा। बापू ने भी उत्सुक दृष्टि से आसपास देखना शुरू किया।    

थोड़ा चलने के बाद बापू ने उससे पूछा भैया, यहां गांधी की जितनी जगहें हैं वे जरूर दिखाना, रिक्शेवाले ने पूछा – राजीव या श्रीमती इंदिरा गांधी की ? बापू ने कहा- ये कौन हैं, क्या बापू के रिश्तेदार हैं? रिक्शेवाला हंसा और बोला- कौन देहात से हो बाबा, चुपैचाप बैठे रहो मैं सब दिखा दूंगा।

चलते चलते एक विशाल चौराहे पर उनकी मूर्ति के नीचे सफेद टोपीधारी धरने पर बैठे थे, बापू ने सोचा वाह, मेरा सत्याग्रह अभी भी चलता है। धन्य हो भारत ! पास से गुजरे तो देखा सब धरने वाले हंसी ठिठोली कर रहे हैं, सिगरेट चाय, अंडे, समोसे खाये जा रहे हैं। उन्होंने दूसरी ओर दृष्टि कर ली।

बात करने के हिसाब से रिक्शेवाले से पूछा भैया तुम रिक्शा चलाते हो तो कुछ काम धंधा या नौकरी क्यों नहीं करते हो ? उसने बड़े उखडे़ स्वर में कहा क्या करें दादा, कॉलेज पढे़ हैं पर हम आरक्षण वर्ग से नहीं हैं तो हमें कहां काम मिलेगा, खेती बाडी है नहीं तो पेट पालने के लिये रिक्शा खींचते हैं। मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। यह कहावत सुनकर गांधी जी सन्न रह गये। आरक्षण किस बात का है यह उन्हें समझ ही नहीं आया।

चलते चलते एक मैदान में नेता जोर जोर से भाषण दे रहा था उसके स्वर उन तक भी पहुंच रहे थे। वह कह रहा था- हम गांधीजी के अनुयायी हैं, अगर आपने मुझे जिता दिया तो मैं उनके नाम पर बड़ी बड़ी  वातानुकूलित बंगलों की कॉलोनी  आपके लिये बनवा दूंगा, सबके लिये कैंब्रिज जैसे इंगलिश स्कूल कॉलेज बनवा दूंगा, गांधी इंटरनेशनल मॉल में आपको सारा आयातित सामान मिला करेगा। बापू ने रिक्शेवाले से कहा भैया कहीं और ले चलो।

रिक्शेवाले ने समय बचाने के लिये एक पतली गली में रिक्शा मोड़ दिया उसे देख कर बापू को वे दिन याद आये जब वे ऐसी ही गलियों में लोगों के घर जाते थे। उस गली में घर, दरवाजे, दीवारें सब हरे रंग में रंगे हुये थे, पर वहां उन्हें कहीं भी अपनी कोई मूर्ति आदि नहीं दिखाई दी।

उनका मन खट्टा हो आया। गली पार करते करते रास्ते में भीड़ दिखाई दी, बाजू से रिक्शा निकला तो देखा दो तीन दाढी वाले और धोती कुर्ता पहने युवा मारपीट कर रहे थे। बापू से नहीं रहा गया, रिक्शा रुकवा कर भीड में घुसे और सबको अलग किया। समझाते हुये बोले बेटे झगडे़ मारपीट से कोई हल नहीं निकलता है, दोनों एक दूसरे की बात शांति से मान लो समस्या हल हो जायेगी। एक युवा ने आंखे तरेर कर कहा बूढे़ बाबा ज्यादा गांधीगिरी हमें मत सिखाओ, अब तो समय है एक मारे तोे लौट कर दो मारो, समझे आप! गांधी के जमाने गये, और अब आप भी  निकल लो यहां से।

बापू ने लंबी सांस भरी और सोचा इस देश को आजादी दिलाने के लिये हजारों वीरों ने अपना जीवन होम दिया, क्या हमारी आहुति सार्थक हुई ? बहुत भारी मन से रिक्शे वाले से कहा- भैया किसी खाली जगह पर हमें उतार दो, अब हम बहुत थक गये हैं।

रिक्शावाले ने मंद गति से रिक्शा खींचना शुरू किया। दूर क्षितिज में सूर्य अस्त हो रहा था, थोड़ी दूर पर बापू ने देखा कि एक छोटा बच्चा आंखों पर पतली कमानी का चश्मा, सिर पर सफेद टोपी लगाये, अटपटी धोती लपेटे हाथ में लाठी और कागज का तिरंगा लिये नारा लगा रहा था- अंग्रेजों भारत छोडो, भारत माता की जय, महात्मा गांधी की जय। रिक्शेवाले ने कहा दादा, कल दो अक्टूबर है ना तो बच्चे उसकी ही तैयारी कर रहे हैं।

बापू ने मन ही मन कहा नहीं,  हमारा त्याग सार्थक हुआ है। आकाश की ओर देख कर प्रभु से प्रार्थना की और अदृश्य हो गये।

 

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सुधीर

एक बहुत ही चुभता हुआ व्यंग उन तथाकथित गांधीवादियों और गांधी के जीवन दर्शन को मात्र प्रतीक मानकर चिन्ह पूजा करने वाले उनके अनुयाइयों के लिए |
आपकी लेखनी की ये धार दिन प्रतिदिन और भी पैनी होती रहेगी हमें यह विश्वास है |