हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 44 – लघुकथा – पतंग की डोर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  दो  छोटे भाइयों के संबंधों  के ताने बाने और पिता की भूमिका पर आधारित एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “पतंग की डोर ।  इस सर्वोत्कृष्ट विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 44 ☆

☆ लघुकथा  – पतंग की डोर

 

छत में पतंग बाजी चल रही थी। सभी बच्चें, युवा अपने अपने पतंग का मांझा और पतंग संभालकर ऊंचे आकाश में पतंग उड़ा रहे थे। पवन मंद गति से सभी का साथ निभाते हुए  पतंग आगे बढ़ने में सहायक हो रही थी।

रंग-बिरंगे पतंग चारों तरफ दिखाई दे रही थी। दो भाई रोशन और रोहित भी पतंग उड़ा रहे थे। उनके पापा  धीरे-धीरे टहल रहे थे

अचानक हवा तेज हो गई। छोटे भाई रोहित ने आवाज़ लगाई.. भैया मेरी पतंग कटने वाली है, जरा संभाल लेना, शायद डोर उलझ गई है।

बड़े भाई रोशन ने तुरंत अपनी पतंग संभाल, छोटे भाई की भी उलझी हुई मांझा सुधारने लगा।

उसी समय उनके पापा धीरे धीरे चलते आकर कहने लगे.. बेटा तुम दोनों अपनी पतंग का ध्यान रखो। मैं डोर सुलझा कर दोनों का मांझा चरखा संभाल रहा हूं। तुम पतंग गिरने नहीं देना।

दोनों भाई रोशन, रोहित पतंग की डोर संभाले पापा से  जाकर लिपट  गए। उंचाई पर  पतंग हवा के साथ अठखेलियाँ कर रही थीं।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 46☆ गर्भार प्रतिभा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण कविता  “गर्भार प्रतिभा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 46 ☆

☆ गर्भार प्रतिभा ☆

 

गर्भार प्रतिभा, कधी कुठे प्रसुत होईल

याची काही खात्री देता येत नाही

म्हणूनच तिचे डोहाळे पुरवण्यात

प्रज्ञाही कुठं कमी पडत नाही

 

तिच्या प्रसुतिचा काळ, असू शकतो

नऊ मिनिटे, नऊ तास, नऊ दिवस नऊ महिने किंवा आजूनही काही

उगाच चिरफाड करून

ती आपल्या आपत्याला जन्म देत नाही…

 

प्रसुतीवेदना सहन करण्याची ताकद

आणि जिद्द असते तिच्या मनात

म्हणून ती विहार करत असते

केतकीच्या वनात…

 

कधी प्रेम, कधी वात्सल्य, तर कधी क्रोध

अस एक एक जन्माला येतं आपत्य

आणि प्रत्येक आपत्य सांगतं

आपलं उघडं नागडं सत्य…

 

तिच्या जवळ असतात वजनदार शब्द

आणि प्रतिमा, प्रतीकांचे अलंकार

प्रत्येक आपत्याच्या गळ्यात ते अलंकार घालून

ती देत असते त्याला सौंदर्य अन् आकार

 

कुठलाही सोहळा न करता

ती आपल्या आपत्याला देते गोंडस नाव

देते त्याला वाढण्याचं बळ

मिळावे त्याला नाव, भाव आणि वाव

म्हणून सोसत असते वेदनेची कळ…

 

एक बिजातून जन्मा येते माता अथवा पिता

तरी कुळाचे नाव काढाते सांगे नाव कविता…!

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 1 – वाटचाल ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(ई-अभिव्यक्ति में  सुप्रसिद्ध मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी का हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी एक भावप्रवण कविता वाटचाल। अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की संक्षिप्त साहित्यिक यात्रा उनके ही शब्दों में:-

माझा साहित्यिक प्रवास 

  • मासिके, वृत्तपत्रे यातून लेखनाला सुरवात
  • आकाशवाणी-चर्चा, परिसंवाद, कविता, कथावाचन ई.
  • कौटुंबिक श्रुतीका- प्रतिबिंब 100च्या वर भागांचे लेखन (10वर्षात)
  • नभोनाटये-5
  • प्रकाशित पुस्तके – कथासंग्रह 5, कवितासंग्रह 2, संकिर्ण 3
  • अनुवादित पुस्तके (हिन्दी) – उपन्यास 6, लघुकथा संग्रह 6, तत्त्वज्ञानपर 6, कथा संग्रह-14
  • माझ्या काही मराठी कथांचा हिन्दी अनुवाद विविध हिन्दी पत्रिकातून-समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती, प्राची, अक्षरपर्व, भाषा पत्रिका
  • अनुवादासाठी काही पुरस्कार व सन्मान

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 1 ☆ 

☆ वाटचाल  

 

मध्यान्हीचं ऊन नवलाख धारांनी

येतं ओसंडून,

तेव्हा पायतळीची सावलीदेखील

जाते जळून कापूर बनून.

वाटतं तितकं सोपं नसतं, एकाकी चालण चकाकत्या वणव्यातून,

तुझी मेंदीची पावलं, केव्हाच गेली आहेत मातीने माखून.

मृगजळाकाठी डोलणारं रक्तफुलांचं बन खूपच दूर आहे इथून.

मंतरलेली कुणाची साद शीळ घालतीय अजून तिथून?

ती साथ शोधत फिरशील, तेव्हा जाईल सोनेरी संध्या मिटून.

तुझ्या डोळ्यातील सूर्यफुले मात्र

ढळू देऊ नकोस विकलांग बनून.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अजर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अजर  ☆

कौन कहता है

निर्जीव वस्तुएँ

अजर होती हैं,

घर की कलह से

घर की दीवारें

जर्जर होती हैं।

# घर में रहें। स्वस्थ रहें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

20.9.2018 11.15 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 30 – इस सदी में भी  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  स्त्री जीवन के कटु सत्य को उजागर कराती एक सार्थक रचना ‘इस सदी में भी । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 30– विशाखा की नज़र से

☆ इस सदी में भी  ☆

 

चहकती हो मुंडेर पर

लगाती हो आवाज़

दाना लेकर आऊँ तो

उड़ जाती क्यों बिन बात

 

ओ ! चिरैया

तुम स्त्रियों की भांति कितनी

डरी , सहमी हो

शायद ! तुम भी भूली नहीं हो

पिंजरा और अपना इतिहास

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 4 ☆ यह फुर्सत के पल मिले हैं कई सालों के बाद ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  जीवन के स्वर्णिम कॉलेज में गुजरे लम्हों पर आधारित एक  समसामयिक भावपूर्ण कविता  “यह फुर्सत के पल मिले हैं कई सालों के बाद”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 4 ☆

☆  यह फुर्सत के पल मिले हैं कई सालों के बाद ☆

 

यह गुजरे जमाने  ताजा हुए हैं, कई सालों के बाद,

यह भागती दौड़ती सी जिंदगी रुक सी गई है कई सालों के बाद ।

 

अब शाम की चाय की प्याली भी टकराने लगी है,

पुरानी डायरी फिर संदूक से निकलकर होठों की मुस्कान बनने लगी है,

यह सुबह का अखबार भी शाम को पलटने लगा है,

 

यह गुजरे जमाने ताजा हुए हैं, कई सालों के बाद,

यह भागती दौड़ती सी जिंदगी रुक सी गई है कई सालों के बाद ।

 

ये अब गुजरे दिनों के किस्से भी दोहराने लगे हैं,

अब दोपहर का खाना भी साथ परोसने लगा हैं ,

ये पुरानी सी गजल भी गुनगुनाने लगे हैं ,

ये हर दिन रविवार सा लगने लगा हैं  ।

 

यह गुजरे जमाने ताजा हुए हैं, कई सालों के बाद,

यह भागती दौड़ती सी जिंदगी रुक सी गई है कई सालों के बाद ।

 

देर तक पिक्चर देखना फिर  देर से सोकर उठना,

ये बेफिक्री का आलम आराम की जिंदगी अच्छी लगना,

मौसम आएंगे और चले जाएंगे,

ये पल जाएंगे फिर ना आएंगे,

हर दिन हर पल ताजा हो जाएंगे।

आओ इन्हें जी ले, ये पल फिर ना मिल पाएंगे,

 

यह गुजरे जमाने ताजा हुए हैं, कई सालों के बाद,

यह भागती दौड़ती सी जिंदगी रुक सी गई है कई सालों के बाद ।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 43 ☆माइक्रो व्यंग्य – आ गले लग जा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  एक समसामयिक और काफी कुछ कहती एक माइक्रो व्यंग्य   “आ गले लग जा” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 43

☆ माइक्रो व्यंग्य – आ गले लग जा ☆ 

विनीत टाकीज में ‘आ गले लग जा’ फिल्म देखकर बाहर निकले थे तो दस पैसे में “आ गले लग जा” के गाने लिए थे। गाने का गुटका बेचने वाला चिल्ला चिल्ला कर परेशान हो रहा था कि ‘दस पैसे में आ गले लग जा “पर कोई इतने सस्ते में गले लगने तैयार नहीं हुआ था। पर हाय री दुनिया…….. गजब हो गया एक जमाने में गले लग जाने से करोड़ों के वारे न्यारे हो जाते हैं। संसद हाल में एक क्लीनसेव एक दाढ़ी वाले से तपाक से गले मिले थे तो सबको खूब मज़ा आया था। अब देखो कोरोना की कारस्तानी कि इंसान को इंसान से गले मिलने पर जान लेने पर उतारू हो जाता है। इस प्रकार हाथ मिलाने और गले मिलने की परम्परा खतम कर दी इस निर्जीव वायरस ने।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 44 – माझी बोली माझी कविता – सांगाल का बाई ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपकी एक अत्यंत भावप्रवण कविता ” माझी बोली माझी कविता – सांगाल का बाई”।  आज वास्तविकता यह है  कि वाचन संस्कृति रही ही नहीं । न पहले जैसे पुस्तकालय रहे  न पुस्तकें और न ही पढ़ने वाले।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 44 ☆

☆ माझी बोली माझी कविता – सांगाल का बाई ☆

मिळेल का पाठी थाप?

सांगाल का वो बाई?

मला बी तो गुरूर्ब्रह्मा

कधी दिसंल का नाई

 

मळले हत जरासे

हे फाटलेलं कापडं

अन् लाज झाकाया

माईने जोडलंत तुकडं।

 

येत असंल वास तरं

थोडं लांबच बसनं।

नजर टाका मायेनं

मीबी जरासं हसंन।

 

झोका बांधून झाडाला

माय राबती रानात ।

सांबाळ ग सोनुताई

गेली सांगून कानात ।

 

धाय मोकलून रडं

दुधाइना बाळ तान्हा।

गेला जळून ऊरात

मह्या मायीचा पान्हा।

 

कशी येऊ मी शाळंत

पाश मायेचं तोडून।

पोट भरंल का सांगा

समदी अक्षरे  जोडून ।

 

सुट्टी आईला मिळता

आवसे पुनवेला शाळा।

चिंध्या मनाच्याबी व्हती

नका मोडू नाक डोळा।

 

वही नसू दे बापडी

ध्यान धरून शिकणं।

बापाविन पोरं जरी

ज्ञान ज्योत मिरवीणं।

 

आठवा ना साऊ माय

वाड्या वस्तीत रमली।

म्हणूनच आबादानी

आज ज्ञानाअनं नटली।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 46 ☆ व्यंग्य – विभीषण के वंशज ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘विभीषण के वंशज’। डॉ परिहार जी ने प्रत्येक चरित्र को इतनी खूबसूरती से शब्दांकित किया है कि हमें लगने लगता  है  इन पात्रों को कहीं तो देखा है । ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 46 ☆

☆ व्यंग्य – विभीषण के वंशज ☆

 

उस दिन श्रीमती जी पड़ोस के गप-सेशन से लौटकर गद्गद स्वर में कहने लगीं, ‘देखिए न, पड़ोस वाले भाई साहब ने अपने पूरे घर में खुद पेन्ट किया है।बहुत बढ़िया रंग आया है।’

सुनकर मेरे मन की कली मुरझा गयी।जब मेरे पुरुष भाई गलत उदाहरण पेश करके और गलत परंपराएं डालकर अन्य पुरुषों के लिए काँटे बोते हैं तो फिर क्या कहा जाए।।

मेरे एक मित्र गुप्ता जी हैं, पाक-कला में निपुण, कपड़ों की कटाई-सिलाई में माहिर, घर के हर छोटे बड़े काम में दखल रखने वाले।घर में नाना प्रकार के व्यंजन बनाते हैं, अचार-मुरब्बे के बारे में विस्तृत निर्देश देते हैं और घर में कोई भी यंत्र गड़बड़ होने पर तुरन्त औज़ार लेकर दौड़ पड़ते हैं।और मैं उनकी नादानी पर कुढ़ता हूँ।सब के घरों में कैसा पलीता लगाते हैं ये।मैं पूछता हूँ अव्वल तो इन्होंने शादी क्यों की, और शादी की तो मेरे पड़ोस में रहने क्यों आये?

एक और मित्र थे।बड़े नफ़ासत वाले।बासमती चावल और बढ़िया घी के शौकीन।चाय और भोजन बनाने में माहिर।कपड़े धोयें तो ऐसा लगे कि साबुन का विज्ञापन है।घर की सफाई पर बहुत ध्यान देने वाले।भाग्य से वे दिल्ली चले गये और उनके दुर्गुणों का दुष्प्रभाव ज़्यादा नहीं फैल पाया।

कुछ नये विवाहित पति आरंभ में शेखी मारने के लिए घर के कई काम करते हैं। ‘देखो, मैं कैसी बढ़िया चाय बनाता हूँ’, ‘देखो, मैं कैसी बढ़िया सब्ज़ी बनाता हूँ।’ समझदार पत्नियाँ इस स्थिति का लाभ उठाकर अपना रास्ता चुन लेती हैं।फिर जब श्रीमान कहते हैं, ‘भई चाय बनाओ’, तब श्रीमती जी जवाब देती हैं, ‘आप ही बनाइए।आपसे अच्छी मैं नहीं बना सकती।’ परिणाम यह होता है कि शेखी में की गयी भूल के कारण कई पतियों की परिवार के रसोइया, टेलर या अन्य पदों पर स्थायी नियुक्ति हो जाती है।फिर आप उनसे मिलने जाएंगे तो अक्सर वे कंधे पर झाड़न डाले रसोईघर से प्रकट होंगे।

मेरे एक वकील मित्र भी कुछ ऐसे ही चक्कर में फंसे हैं।एक दिन उन्होंने बड़े प्यार से पत्नी से कहा, ‘भई, ज़रा अमरूद काटो हम लोगों के लिए’, और पत्नी ने लौटती डाक से उत्तर दे दिया, ‘आप ही काटिए, आप बहुत अच्छा काटते हैं।’ मित्र का मुँह उतर गया।मैंने सोचा, ज़रूर इन्होंने कभी पत्नी के सामने अमरूद काटने का ‘दुरुस्त नमूना’ पेश किया होगा और अब उसका फल भोग रहे हैं।

हमारे एक और साथी हैं, मेरे हिसाब से आदर्श पुरुष।बैडमिन्टन खेलने के शौकीन हैं।जब उनका विवाह हुआ था तब परिवार-नियोजन का दौर-दौरा नहीं था, इसलिए परिवार भरा-पूरा है।शाम को जब वे बैडमिन्टन का रैकेट उठाते हैं तो पत्नी कहती है, ‘ज़रा छोटे बच्चे को संभालिए तो कुछ काम कर लूँ।’ वे दो चार मिनट रुकते हैं, फिर मौका मिलते ही सटक लेते हैं।मुझे बताते हैं, ‘जब लौट कर आता हूँ तब सब काम ठीक मिलता है।यह कहना बकवास है कि हमारे सहयोग के बिना घर का काम रुक जाएगा।’

एक पत्रिका में एक लेख पढ़ा था कि मूरख बने रहना ही सबसे ज़्यादा फायदेमन्द है।रास्ते में मोटर पंक्चर हो जाए तो तब तक इन्तज़ार कीजिए जब तक कोई मोटरवाला पास आकर न रुके।जब वह उतर कर आये उस वक्त पहिये पर अनाड़ीपन के दो चार हाथ मारिए और पसीना-पसीना हो जाइए।वह आकर आपको देखेगा, फिर उसका ज्ञान-गर्व जागेगा।वह आपसे कहेगा, ‘हटिए एक तरफ, आप तो बिलकुल अनाड़ी हैं।’ आप चुपचाप अलग हो जाइए और जब वह आपका पहिया बदले तब हैरत से उसके कंधे के ऊपर से झाँकते रहिए।जब वह पहिया बदल कर हाथ झाड़े तब आश्चर्य और प्रशंसा के भाव से मुँह खोले उसकी ओर देखिए, या बुदबुदाइए, ‘कमाल है!’ वह मुस्कराता हुआ अपनी कार में बैठकर रवाना हो जाएगा और आप सीटी बजाते हुए अपनी कार में प्रवेश कीजिए।वह भी खुश,आप भी खुश।

घर में कभी श्रीमती जी चाय बनाने को कहें तो ऐसी बनाइए कि उन्हें तुरन्त दूसरी चाय बनानी पड़े और अगली बार आपसे कहने से पहले छः बार सोचना पड़े।आपने अच्छी वस्तु तैयार करके दी और समझिए कि आपका बेड़ा ग़र्क हुआ।

तो भाइयो, सबसे ज़्यादा सुख और आराम भकुआ बने रहने में है।आराम से बैठे रहिए और देखिए कि संसार का काम आपके योगदान के बिना कैसे बाकायदा चलता है।इस संबंध में मेरी गुज़ारिश है कि पुरुष वर्ग में जो विभीषण बनकर मेरे जैसों की लंका ढाने की कोशिश करते हैं उन्हें सभ्य समाज से दूर किसी अलग कॉलोनी में बसाया जाए ताकि संक्रमण न फैले और मेरे जैसों की गृहस्थी की तन्दुरुस्ती सलामत रहे।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 3 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

 ☆ Anonymous Litterateur of Social  Media # 3/ सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 3☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का अंग्रेजी भावानुवाद  किया है।  इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

ज़रा सी कैद से ही

   घुटन होने  लगी…

    तुम तो पंछी पालने

      के  बड़े  शौक़ीन थे…

 

  Just a little bit of confinement

   Made you feel so suffocated

    But keeping the birds caged

      You were so very fond of…!

§

  लगता था जिन्दगी को

  बदलने में वक्त लगेगा

    पर क्या पता था बदला

      वक्त जिन्दगी बदल देगा…!

 

  Always felt, it would take

 Time  to  change  the life…

  Never knew that changed

   time would change the life…!

§

  हालात तो कह रहे हैं

 मुलाकात नहीं मुमकिन

   पर उम्मीद कह रही है

    थोड़ा  इंतजार  कर…

 

  Circumstances are saying

    It’s not possible to meet

     But the expectation  says

       Just  wait  for a  while..!

§

अब तो तन्हाई भी

  मुझसे है कहने लगी

    मुझसे ही कर लो मोहब्बत

      मैं  तो  बेवफा नहीं…

 

  Now,  even loneliness

   has also started saying 

    Please fall in love with me

      At least I am not unfaithful…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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