(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित दोहा सलिला- कवि-कविता। )
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख “रक्तदान ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – रक्तदान ☆
रक्तदान के संबंध में विचारणीय प्रश्न यह है कि – स्वैक्षिक रक्तदान क्यों ?
दान एक आदर्श जीवन वृत्ति है जो मानव को लोक कल्याण हेतु प्रेरित करती है, जिसके बहुत सारे आयाम तथा स्वरूप है। इन्हें याचक की आवश्यकता के अनुसार दिया जाता है जैसे भूखे को अन्नदान, प्यासे को जलदान, नंगे बदन को वस्त्रदान। उसी प्रकार मृत्यु शै य्या पर पडे़ जीवन की आस में मौत से जूझ रहे व्यक्ति को अंग दान तथा रक्त दान की आवश्यकता पड़ती है। रक्तदान तथा अपने परिजनों की मृत्यु के पश्चात अंग दान द्वारा हम किसी की जान बचा कर नर से नारायण की श्रेणी में जा सकते हैं।
अपने परिजनों के नेत्रों को किसी की आंखों में संरक्षित उस नेत्रज्योति को जो मानव को ईश्वरीय उपहार में मिली है को लंबे समय तक दूसरों की आंखो में सुरक्षित कर सकते हैं। इससे ज़रूरत मंद नेत्रहीन तो दुनियां देखेगा हमें भी अपने परिजनों की आंखों के जीवित होने का एहसास बना रहेगा।
आज के इस आधुनिक युग में दुर्घटना, बिमारी तथा युद्ध के समय घायल अवस्था में मानव शरीर से अत्यधिक रक्तस्राव के चलते मानव अस्पतालों में मृत्युशैया पर पड़ा मृत्यु से जूझ रहा होता है, उस समय उसके शरीर को रक्त की अति आवश्यकता पड़ती है। इसके अभाव में व्यक्ति की जान जा सकती है। रक्तदाताओं द्वारा दान किए गये रक्त के प्रत्येक बूंद की कीमत का पता उसी समय चलता है। रक्तदान से किसी भी व्यक्ति की जान बचाई जा सकती है। जिस अनुपात में रक्तकी जरूरत है उस अनुपात में आज रक्त की उपलब्धता नहीं है। आज भी दुर्घटना में घायलों मरीजों के परिजनों अथवा रक्ताल्पता से जूझ रहे बीमारों के परिजनों को उसके ग्रुप के रक्त के लिये भटकते हुए, लाइन में लगते छटपटाते देखा जा सकता है। उस समय यदि रक्त की सहज सुलभता हो और समय से उपलब्ध हो तो किसी का जीवन आसानी से बचाना संभव हो सकता है इन्हीं उद्देश्यों को पूरा करने के लिए रक्तकोष बैंकों की स्थापना की गई।
स्वैक्षिक रक्तदान में बाधायें –
स्वैक्षिक रक्तदान में सबसे ज्यादा बाधक अज्ञानता तथा जनचेतना का अभाव है। संवेदनशीलता का अभाव तथा तमाम प्रकार की भ्रांतियों से भी हमारा समाज ग्रस्त हैं। उन्हें दूर कर, युद्ध स्तर पर अभियान चला कर, विभिन्न प्रचार माध्यमों द्वारा रक्तदान के महत्व तथा उसके फायदे से लोगों को अवगत कराना होगा। लोगों को समझा कर, जनचेतना पैदा कर, अपने अभियान से वैचारिक रूप से जोड़ना होगा। संवाद करना होगा,और इस बात को समझाना होगा कि आप द्वारा किया गया रक्तदान अंततोगत्वा आप के समाज के ही तथा आप के ही परिजनों के काम आता है। जब हम मानसिक रूप से लोगों को अपने अभियान से जोड़ने में सफल होंगे तथा अपने अभियान को जनांदोलन का रूप दे पायेंगे तो निश्चित ही रक्तदाता समूहों की संख्या बढ़ेगी। रक्त का अभाव दूर कर हम किसी को जीवन दान देने में सफल होंगे। स्वैक्षिक रक्तदान की महत्ता का ज्ञान करा सकेंगे।
रक्तदान से होने वाले फायदे –
जब हम रक्तदान करते हैं तो हमें दोहरा फायदा होता है, प्रथम तो हमारा रक्त हमारे समाज के किसी परिजन की प्राण रक्षा करता है, दूसरा जब हमारे शरीर से रक्त दान के रूप में रक्त बाहर निकलता है तब हमारा शरीर कुछ समय बाद ही नया रक्त बना कर शरीर को नये रक्त से भर देता है, जिसके चलते शरीर को नइ स्फूर्ति तथा नवचेतना का आभास होता है और नया रक्त कोलेस्ट्राल तथा ब्लड शुगर से मुक्त होता है। जिसके चलते हम स्वस्थ्य जीवन जी सकते हैं। इस लिए प्रत्येक व्यक्ति को रक्तदाता समूहों से जोड़ कर, किसी की जान बचाकर जीवन दाता के रूप में खुद को स्थापित कर अक्षय पुण्य लाभ का भागी बनना चाहिए।
अंत में लोक मंगल कामना “सर्वेभवन्तु सुखिन:” के साथ एक अनुरोध – लोक मंगल हेतु इस आलेख को जन-जन तक पहुंचा इस मंगल कार्य में सहभागिता करें।
मागच्या भागात सांगितलेल्या पौराणिक कथेनुसार जे सहा राग पहिल्यांदा उत्पन्न झाले त्या मुख्य सहा रागांच्या प्रत्येकी सहा किंवा पाच (याबबत प्राचीन ग्रंथकारांच्या मतांमधे भिन्नता आढळते) रागिण्या आणि पुढं प्रत्येक रागिणीचे पुत्रराग व पुत्रवधू राग अशी ‘राग-वर्गीकरण’ पद्धती प्राचीन ग्रंथांत आढळून येते. त्याकाळी ती प्रचलितही होती. मात्र, ह्या कल्पनेला काहीही वैज्ञानिक, शास्त्रीय आधार नसल्याने ती लोप पावत जात पुढे इतर रागवर्गीकरण पद्धती अस्तित्वात आल्या. त्या सहा मुख्य रागांपैकी ज्या भैरव रागाची माहिती आपण मागच्या भागात घेतली त्याची एक रागिणी म्हणजे ‘भैरवी’!
‘भैरवी’ हा दहा थाटांमधील हा एक थाटही असल्याचे आपण पाहिले आहे. त्यामुळे हा राग भैरवी थाटाचा आश्रयराग आहे. भैरवी हे नाव प्रत्येकाच्याच परिचयाचे असते. कारण कुठल्याही मैफिलीची सांगता ही भैरवीमधील रचना गाऊन करायची अशी एक पद्धती आपल्याकडे रूढ झाली आहे. त्यामुळे कधी इतर एखाद्या कंटाळवाण्या व्याख्यान/प्रवचनात किंवा अगदी गंमतीत घरी बोलत असतानाही बोलणं ‘आवरतं’ घ्या हे सूचित करण्यासाठी आता ‘भैरवी घ्या’ असं म्हटलं जातं, कारण भैरवी म्हणजे ‘सांगता’ ही सर्वसामान्य माणसाची कल्पना असते. शास्त्रीय संगीत जाणणाऱ्या किंवा न जाणणाऱ्या सगळ्यांचाच एखाद्या कार्यक्रमाला जाऊन आलेल्याकडे ‘भैरवी कोणती गायली?’ हा उत्सुक प्रश्न असतोच.
खरंतर उत्तर भारतीय हिंदुस्थानी संगीत पद्धतीत कोणताही राग गाण्याची शास्त्राधारित वेळ ठरलेली आहे. त्यानुसार भैरवी हा प्रात:कालीन राग आहे. मग कोणत्याही वेळी होणाऱ्या मैफिलीची सांगता भैरवीने करायची ही प्रथा रूढ होण्यामागे काय कारण असावं? तर काही गुणी अभ्यासू व्यक्तींच्या मते काही प्रथा ह्या ‘समाजमान्यतेतून निर्माण होतात. भैरवी हा राग लोकांना इतका भावला असेल कि प्रत्येक मैफिलीमधे तो ऐकायला मिळावा असे वाटू लागले असेल, गायकालाही भैरवी गायल्यानंतर परिपूर्णतेची अनुभूती येत असेल आणि त्यातूनच मग हा पायंडा पडत गेला असावा.
भैरवी रागाचे वैशिष्ट्य म्हणजे ह्या रागात आरामशीर ख्यालगायन आपल्याला ऐकायला मिळत नाही. अगदी संपूर्ण शास्त्रीय गायनाची मैफील असेल तेव्हांही सांगतेला भैरवीतली एखादी उपशास्त्रीय रचना किंवा भैरवीतला छोटा ख्याल व तराणा, बंदिश कि ठुमरी असं काहीतरी गायलं जातं. मात्र ठुमरी, टप्पा, गझल इ. उपशात्रीय प्रकारांमधे, सुगम संगीतामधे ह्या रागाचा भरपूर वापर केलेला दिसून येतो. दुसरे एक वैशिष्ट्य म्हणजे ह्या रागात पूर्ण बारा स्वरांचा वापर केला जातो. खरंतर रागात म्हणण्यापेक्षा ह्या रागाधारित रचना करताना किंवा रचनांना विस्तार करताना असं म्हणणं जास्त संयुक्तिक ठरेल. अर्थातच उपशास्त्रीय रचनांमधे रागाचे नियम पाळण्याचे बंधन नसतेच. मात्र ह्या रागात इतर सर्वच स्वरांचा वापर खुलूनही दिसतो. परंतू, जेव्हां एखादी रचना भैरवी रागाची ‘बंदिश’ म्हणून प्रस्तुत केली जात असेल तेव्हां मात्र रागनियम पाळावेच लागतात. इतर स्वरांपैकी फक्त शुद्ध रे चा आरोही वापर हा बंदिशींमधेच दिसून येतो तेवढाच!
भैरवी थाटाचे सर्व सूर ह्या रागाच्या आरोह-अवरोहात आहेत. म्हणजे सर्व सात सूर आहेतच मात्र त्यांत रे , ग, ध, नि हे चारही स्वर कोमल आहेत. ह्या रागाच्या वादी-संवादी स्वरांविषयी मतभिन्नता आहे. काहीजण ते अनुक्रमे म व सा तर काहीजण ध व ग असल्याचे मानतात. संपूर्ण सातही स्वरांचा वापर झाल्याने रागाची जाती ही ‘संपूर्ण’ आहे. समाजमान्य प्रथेनुसार हा सर्वकालीन राग मानला गेला असला तरी शास्त्रानुसार तो प्रात:कालीन राग आहे.
मात्र सगळ्या व्याकरणीय गोष्टींच्या पलीकडे जाऊन भैरवी अनुभवताना आपण स्वत:ला विसरून एका वेगळ्याच विश्वात पोहोचतो. ही भैरवी अंत:चक्षूंना ‘पैलतीर’ दाखवते किंवा अंतर्मनाला ती जाणीव करून देते असं मला वाटतं. गुणी गायकाची संपूर्ण सर्वांगसुंदर मैफिल ऐकल्यावरही परमानंदाच्या उच्च शिखरावर नेणारी भैरवी म्हणूनच कदाचित सर्वांनाच हवीहवीशी!
किशोरी ताईंचं ‘अवघा रंग एक झाला’, भीमसेनजींचं ‘जो भजे हरी को सदा’, जसराजजींचं ‘निरंजनी नारायणी’, अभिषेकी बुवांचं ‘कैवल्याच्या चांदण्याला भुकेला चकोर’ ह्या रचनांचं स्मरण झालं तरी श्वासांतलं चैतन्य जाणवून अंगावर रोमांच उभे राहातात…. त्या जणू कैवल्याचं चांदणंच वाटतात! ह्या रागातल्या किती रचना सांगाव्या…!
अगा वैकुंठीच्या राया, प्रभु अजि गमला, बोला अमृत बोला, तम निशेचा स्मरला, सुकतातची जगी या अशी कित्येक नाट्यपदं भवानी दयानी, जे का रंजले गांजले, अच्युता अनंता श्रीधरा माधवा, हेचि दान देगा देवा तुझा विसर न व्हावा, जातो माघारी पंढरीनाथा, जनी नामयाची रंगली कीर्तनी, अजि सोनियाचा दिनु, गा बाळांनो श्री रामायण, वृक्षवल्ली आम्हा सोयरे अशा कित्येक भक्तिरचना, असेन मी नसेन मी, एकाच जा जन्मी जणू, रंगरेखा घेऊनी मी, आकाश पांघरोनी जग शांत झोपले हे अशी कित्येक भावगीतं, खुलविते मेंदी माझासारखी लावणी, झुकझुकझुकझुक अगीनगाडी सारखं बालगीत अशा सगळ्याच रचनांमधे भैरवी खुलली आहे… अर्थातच राग भैरवीतल्या स्वरांसोबत इतरही स्वरांचा वापर करून!
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आजकल आप हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर आपने साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना स्वीकार किया है जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं । उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है आलेख हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार : शख़्सियत: गुरुदत्त…6।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 21 ☆
☆ शख़्सियत: गुरुदत्त…6 ☆
गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,
जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर
निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई
फ़िल्म कागज़ के फूल के बाद गुरु दत्त ने यह फ़ैसला लिया था कि अब वह कभी भी कोई भी फिल्म का निर्देशन नहीं करेंगे और यही वजह थी कि साहिब बीबी और ग़ुलाम का निर्देशन उनके लेखक दोस्त अबरार अलवी ने किया था।
गुरु दत्त ने पहले इस फ़िल्म को निर्देशित करने के लिए सत्येन बोस और फिर नितिन बोस से बात की। लेकिन जवाब न मिलने पर यह फ़िल्म अबरार अलवी को निर्देशित करने के लिए दे दी गई। गुरु दत्त चाहते थे कि भूतनाथ का किरदार शशि कपूर निभायें लेकिन समय न होने के कारण शशि कपूर ने मना कर दिया और गुरु दत्त को ही यह किरदार निभाना पड़ा। वहीदा रहमान छोटी बहू का रोल चाहती थीं लेकिन गुरु दत्त ने उनकी कम उम्र को देखते हुये मना कर दिया। फिर वहीदा ने अबरार अलवी से कह कर अपने लिए इस फ़िल्म में रोल लिखवाया और फ़िल्म का हिस्सा बनीं।
फ़िल्म वर्तमान से शुरु होती है। कई वर्ष बीत चुके होते हैं और अब अधेड़ उम्र का अतुल्य चक्रवर्ती उर्फ़ भूतनाथ (गुरु दत्त), जो कि एक वास्तुकार है, अपने कर्मचारियों के साथ एक हवेली के खण्डरों को गिराकर एक नयी इमारत का निर्माण करने जा रहा है। उन खण्डरों को देखकर उसे पुराने दिनों की याद आ जाती है।
फ़िल्म फ़्लेश बैक में चली जाती है और भूतनाथ गांव से कोलकाता शहर नौकरी की तलाश में अपने मुँह बोले बहनोई के यहाँ आता है जो इसी हवेली के मुलाज़िमों की रिहाइशगाह में रहता है। यह हवेली शहर के बड़े ज़मीनदारों में से एक, चौधरी ख़ानदान की है जो तीन भाई थे-बड़े बाबू, मंझले बाबू (सप्रू) और छोटे बाबू (रहमान)। फ़िल्म में पहले से ही बड़े बाबू का इन्तक़ाल हुआ दिखाया गया है। भूतनाथ को मोहिनी सिंदूर बनाने वाले कारख़ाने में नौकरी मिल जाती है जिसके मालिक़ सुबिनय बाबू (नज़ीर हुसैन) हैं, जो कि एक ब्रह्म समाजी हैं और उनकी एक बेटी है जबा (वहीदा रहमान)। रात को जब भूतनाथ हवेली में चल रहे क्रियाकलापों को देखता है तो अचंभे में पड़ जाता है। हर रात छोटे बाबू बग्घी में बैठकर तवायफ़ के कोठे की ओर निकल पड़ते हैं। वह छिपकर हवेली में ही चल रही मंझले बाबू की महफ़िल का भी आनन्द लेता है।
भूतनाथ कारख़ाने के शीघ्र छपने वाले विज्ञापन को ठीक कराने के लिए सुबिनय बाबू के पास जाता है लेकिन जबा वहाँ होती है जो भूतनाथ को विज्ञापन पढ़ने को कहती है। उस विज्ञापन में ऐसी चमत्कारी बातें लिखी होती हैं कि यदि पत्नी या प्रेमिका उस सिंदूर को धारण कर अपने पति या प्रेमी के सामने पड़ती है तो पति अथवा प्रेमी उस पर मोहित हो जायेगा। उस रात छोटे बाबू का नौकर बंसी (धुमाल) भूतनाथ के पास आता है और कहता है कि छोटी बहू (मीना कुमारी) उसे बुला रही है। दोनों छिपकर छोटी बहू के कमरे में जाते हैं और छोटी बहू भूतनाथ को सिंदूर की डिबिया थमाकर कहती है कि इसमें मोहिनी सिंदूर भर के लाये ताकि वह अपने बेवफ़ा पति को अपने वश में कर सके। भूतनाथ छोटी बहू की ख़ूबसूरती और संताप से मंत्रमुग्ध हो जाता है और न चाहते हुये भी उसके राज़ों का भागीदार हो जाता है। भूतनाथ अगले दिन मोहिनी सिंदूर की सच्चाई सुबिनय बाबू से सुनना चाहता है लेकिन सुबिनय बाबू इस बात को टाल जाते हैं। फिर भी वह छोटी बहू के संताप से इतना व्याकुल हो जाता है कि वह उस सिंदूर को छोटी बहू के पास ले जाता है। इसी बीच भूतनाथ का मुँह बोला बहनोई एक स्वतंत्रता सेनानी निकलता है जो बीच बाज़ार अंग्रेज़ पुलिस पर बम का हमला कर देता है और उसके बाद चली गोली-बारी में भूतनाथ की टांग ज़ख़्मी हो जाती है। जबा भूतनाथ का उपचार करती है। चोट ठीक हो जाने के बाद भूतनाथ एक अच्छे वास्तुकार का सहयोगी बन जाता है और कुछ समय के लिए अपने काम में इतना तल्लीन हो जाता है कि वह न ही जबा और न ही छोटी बहू की ख़बर लेता है।
भूतनाथ द्वारा छोटी बहू को दिए गए सिंदूर का असर तो नहीं होता है अलबत्ता छोटे बाबू छोटी बहू से कहते हैं कि यदि वह नाचने वालों की तरह उनके साथ शराब पीकर सारी रात रंगरलियाँ मनाये तो वह घर में रुकने को तैयार हैं। छोटी बहू यह चुनौती भी स्वीकार कर लेती है और अपने पति को घर में रखने के लिए शराब पीना और तवायफ़ों के जैसा बर्ताव भी शुरु कर देती है। तरक़ीब कुछ दिनों के लिए तो कामयाब हो जाती है और छोटे बाबू छोटी बहू के ही साथ वक़्त बिताने भी लगते हैं। लेकिन ऐयाशी के शिकार छोटे बाबू एक दिन अपनी प्रिय तवायफ़ के कोठे में पहुँचते हैं तो पाते हैं कि उनका दुश्मन छेनी दत्त उसके रास में डूबा है। छेनी दत्त और उसके साथी छोटे बाबू को लहु-लुहान कर देते हैं और वह अपंग हो जाते हैं। जब कुछ समय बाद भूतनाथ वापस आता है तो पाता है कि छोटी बहू को तो शराब की लत लग गयी है और छोटे बाबू अपंग पड़े हैं। वह जब जबा के पास जाता है तो पता चलता है कि अभी-अभी सुबिनय बाबू का देहान्त हो गया है और जबा म्लेछ न होकर एक सम्भ्रांत परिवार की लड़की है और सुबिनय बाबू जबा को गांव से चुराकर लाये थे लेकिन एक साल की उम्र में ही उसका उसी गांव के अतुल्य चक्रवर्ती (जो कि भूतनाथ स्वयं है) से विवाह कर दिया गया था।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू।यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 73 ☆
☆ ख़ामोशी एवं आबरू ☆
‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम् तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर, अपने दायित्व का वहन कर सके।
घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह खामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह खामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है।
वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। खामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते खामोशी का भूषण धारण कर, न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे खामोश रहने का पाठ पढ़ाया जाता है और असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’ परंंतु तुझे तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीख। खामोशी तेरा श्रृंगार है और तुझे ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए खामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ, उनके हर आदेश की अनुपालना करनी है।
इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ, उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह खामोश अर्थात् मौन रहती है, प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे तो किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है।
अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए खामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं; मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करतीं, कभी प्रतिरोध नहीं करतीं। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह चल देती हैं।
परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं, न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।
संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गलियों में खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।
‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं ,जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर, स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगें, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की… अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेएंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।
इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्मसीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता।’ पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।
ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर, क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए, समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए खामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। खामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह तो हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है। देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहन-शक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और खामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “एहसास“. )
☆ किसलय की कलम से # 25 ☆
☆ एहसास ☆
मुझे लगता है, जब हम अपनी पूर्ण सामर्थ्य और श्रेष्ठता से कोई कार्य करते हैं, सेवा करते हैं या फिर प्रयास करते हैं तब सफलता के प्रति अधिक आशान्वित रहते हैं। सफलता मिलती भी है। सफलताएँ अथवा असफलताएँ समय एवं परिस्थितियों पर भी निर्भर करती हैं। ये परिस्थितियाँ उचित-अनुचित अथवा अच्छी-बुरी भी हो सकती हैं। अक्सर सफलता का श्रेय हम स्वयं को देते हैं, जबकि इसमें भी अनेक लोगों का योगदान निहित होता है।
जब असफलता हाथ लगती है तब हम अपने भाग्य के साथ साथ दूसरों को भी कोसते हैं। कमियों को भी खोजते हैं।
सबसे महत्त्वपूर्ण बातें ये होती हैं कि उस समय हमें अपने द्वारा किये अधर्म, अन्याय, बुरे कर्म, अत्याचार, दुर्व्यवहार आदि की स्मृति अवश्य होती है। कदाचित पश्चाताप भी होता है।
आखिर खुद या अपने निकटस्थों के अनिष्ट पर उपरोक्त कर्मों को स्मरण करते हुए हम घबराए, चिंतित और पश्चाताप की मुद्रा में क्यों आ जाते हैं, जबकि यह पूर्णरूपेण सत्य नहीं होता!
जब सफलता का श्रेय स्वयं को देते हैं तब असफलता अथवा अनिष्ट होने पर भाग्य को, अनैतिक कार्यों को, दुर्व्यवहार को दोष क्यों देते हो जबकि आप के द्वारा किये गए कार्य अथवा कमियाँ ही इसकी जवाबदार होती हैं। अब मुद्दे की बात ये है कि अनिष्ट को अपने कर्मों, दुर्व्यवहारों और अनैतिक कार्यों का परिणाम निरूपित करने के पीछे उपरोक्त कारक सक्रिय क्यों हो जाते है। यह एक मानव का सामान्य स्वभाव है कि जब हताशा होती है तो हम अपने भूतकाल को स्मृतिपटल पर बार-बार दोहराते हैं और सोचते हैं, कहीं मेरे द्वारा किये गए फलां कार्य का यह परिणाम तो नहीं है। फिर ‘का बरसा जब कृषी सुखानी’ की तर्ज पर सोचने लगते हैं कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। पर “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत” लेकिन ये सभी बातें हैं कि मानस पटल से ओझल होती ही नहीं। आशय यही है कि कहीं न कहीं हम भयभीत जरूर होते हैं कि हमारे दुष्कर्मों के कारण ही ये अनिष्ट हुआ है। इन परिस्थितियों में हमारे मन को “बुरे कर्म का बुरा नतीजा” की बात सही लगती है। वास्तव में भी यदि व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो कुल मिलाकर अंत में यही सिद्ध होता है और निष्कर्ष भी यही निकलता है कि हमें बुरे कर्मों से बचना ही चाहिए।
इसमें दो मत नहीं है कि यदि हम जीवन में सदाचार, सरलता, सादगी, सत्यता और संतोष अपना लेते हैं, तो कम से कम पिछले बुरे कर्मों को दोष देने से बच सकते हैं। इसे जग के हर एक इंसान को एक चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिए कि अब इंसानियत पुनर्जीवित करने के लिए आपको एक अवसर और दिया जाता है।
इसीलिए बुरे वक्त में पिछली बुरी बातें याद आती हैं और उन गल्तियों का एहसास भी होता है, जो एक अच्छे इंसान के रूप में नहीं करना चाहिए थीं।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावप्रवण गीत “गीत – मैं जीवन हूँ ,तू ज्योति है… ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 70 – साहित्य निकुंज ☆
☆ गीत – मैं जीवन हूँ ,तू ज्योति है… ☆
भुलाकर दुश्मनी हमको, गले सबको लगाना है ।
प्यार से जीवन है जीना, प्यार से गुनगुनाना है।
दूर न रह पाउँगा तुझसे, तुझे अपना बनाना है
तू मेरे ही करीब आये, तू मेरा शामियाना है।
तुझे मैंने ही चाहा है, तुझे मैंने ही जाना है
मेरा दिल तो तेरा ही, अब पागल दीवाना है।
तू प्यारा ही मुझे लगता, तेरे बस गीत गाना है।
तेरे छोटे से दिल में तो. मेरा बस ही ठिकाना है।
मैं सच कहता हूँ बस तुझसे, मेरा तू आशियाना है।
मैं जीवन हूँ ,तू ज्योति है, तुझे बस मुस्कुराना है।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी ऐतिहासिक लघुकथा ‘वह झांसी की झलकारी थी’। ऐसे कई ऐतिहासिक चरित्र हैं जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं किन्तु, उन्हें हमारी आने वाली पीढ़ियां नहीं जानती। ऐसे ऐतिहासिक चरित्र की चर्चा वंदनीय है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 53 ☆
☆ लघुकथा – वह झांसी की झलकारी थी ☆
उसकी उम्र कुछ ग्यारह वर्ष के आसपास रही होगी, घर में खाना बनाने के लिए वह रोज जंगल जाती और लकडियां बीनकर लाती थी। बचपन में ही माँ का देहांत हो गया था। घर की जिम्मेदारी उस पर आ गई थी। एक दिन ऐसे ही वह लकडियां लाने जंगल जा रही थी कि सामने से बाघ आ गया, वहीं थोडी दूर पर ही एक छोटा बच्चा खेल रहा था। वह जरा भी ना घबराई, उसने अपने तीर कमान निकाले और बाघ को मार डाला। बच्चे को सुरक्षित देख गाँववालों की जान में जान आई, वे सब इसकी जय-जयकार करने लगे। डरना तो उसने सीखा ही नहीं था, साहस उसकी पूंजी थी। भले ही वह शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाई थी लेकिन उसके पिता ने उसे तलवार चलाना, घुडसवारी करना सिखा दिया था। पिता जितनी रुचि से सिखाते बेटी उससे ज्यादा उत्साह से सीखती। बुंदेलखंड की इस बेटी ने देश के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया, ऐसी थी वीरागंना झलकारीबाई।
पहली बार जब रानी लक्ष्मीबाई ने झलकारी को देखा तो आश्चर्यचकित रह गईं क्योंकि वह साहसी तो थी ही, दिखती भी रानी लक्ष्मीबाई जैसी ही थी। उसका साहस और लगन देखकर रानी ने उसे अपनी दुर्गा सेना का सेनापति बना दिया। अपने अनेक गुणों के कारण झलकारी बहुत जल्दी रानी लक्ष्मीबाई की विश्वासपात्र ही नहीं बल्कि उनकी अच्छी सहेली बन गई। शत्रु को चकमा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध किया करती थीं।
अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा करने के लिए चाल चली कि निसंतान रानी लक्ष्मीबाई अपना उत्तराधिकारी गोद नहीं ले सकतीं। रानी लक्ष्मीबाई अपनी झांसी इतनी आसानी से अंग्रेजों को कैसे दे सकती थी ? उसकी सेना में झलकारी और उसके साहसी पति पूरन जैसे योद्धा थे जो अपने देश के लिए मर मिटने को तैयार थे। अंग्रेजों की सेना ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। जब ऐसा लगा कि अब इन अंग्रेजों से जीतना कठिन है, और किला छोडना पड सकता है, तो झलकारी बाई ने रानी को कुछ सैनिकों के साथ युद्ध छोड़कर जाने की सलाह दी। इस संकटपूर्ण समय में वीरांगना झलकारी बाई ने एक योजना बनाई। वह लक्ष्मीबाई का भेष धारणकर सेना का नेतृत्व करती रही और युद्ध में अंग्रेजों को उलझाए रखा। तब तक रानी लक्ष्मीबाई अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं। ब्रिटिश सैनिक समझ ही नहीं पाए कि रानी लक्ष्मीबाई किले से कब सुरक्षित बाहर निकल गईं। बाद में अंग्रेजों को पता चला कि जिस वीरांगना ने उन्हें कई दिनों तक युद्ध में घेरकर रखा था, वह रानी लक्ष्मीबाई नहीं बल्कि उनकी हमशक्ल झलकारी बाई थी।
सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम में झलकारी बाई ने अपने बहादुरी और साहस से ब्रिटिश सेना को नाकों चने चबवा दिए थे। झलकारी बाई का पति पूरन सिंह वीर सैनिक था, युद्ध करते हुए वह भी वीरगति को प्राप्त हुआ। अपने पति की मृत्यु का समाचार जानकर भी झलकारी विचलित नहीं हुई। पति की मृत्यु का शोक ना मनाकर वह तुरंत ही ब्रिटिशों को चकमा देने की नई योजना बनाने लगी थी।