हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #14 – आइये पर्यावरण बचाएं ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

यह आलेख आदरणीय श्री संजय भारद्वाज जी ने पर्यावरण दिवस की दस्तक पर लिखा था किन्तु, यह आलेख उस पल तक सार्थक एवं सामायिक दर्ज होना चाहिए जब तक हम पर्यावरण को बचाने में सफल नहीं हो जाते.  अब तो यह आलेख प्रासंगिक भी है. अभी हाल ही में 16 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता सुश्री ग्रेटा थनबर्ग जी  ने  संयुक्त राष्ट्र के उच्चस्तरीय जलवायु सम्मेलन के दौरान अपने भाषण से संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस सहित विश्व के बड़े नेताओं को झकझोर दिया.यदि अभी भी हम सचेत नहीं हुए और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रयास नहीं किए गए तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.

 – हेमन्त बावनकर 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 14☆

 

☆ आइए पर्यावरण बचाएं ☆

 

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोज़र और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 17 – लघुकथा – दयालु लोग ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं जो कथानकों को सजीव बना देता है. अक्सर  समय एवं परिवेश बच्चों की विचारधारा को भी परिपक्व बना देता है. आज प्रस्तुत है  उनकी एक ऐसी ही लघुकथा  “दयालु लोग” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 17 ☆

 

☆ लघुकथा – दयालु लोग ☆

मिसेज़ लाल के घर महीना भर पहले नयी बाई लगी है, झाड़ू-पोंछा, बर्तन के लिए। बाई अच्छी है लेकिन दुबली-पतली, बीमार सी है। इसलिए कभी खुद आती है, कभी अपनी बारह-चौदह साल की बेटी गिन्नी को भेज देती है।

मिसेज़ लाल काम के मामले में काफी सख्त हैं, हर काम को बारीकी से देखती हैं। बड़ी सफाई-पसन्द हैं। लेकिन काम खत्म होने के बाद बाइयों के प्रति उदार हो जाती हैं। चाय पिला देती हैं और घर-परिवार के बारे में फुरसत से गप भी लगा लेती हैं।

बाई के काम पर लगने के कुछ दिन बाद ही मिसेज़ लाल की आठ साल की बेटी का जन्मदिन आया। जन्मदिन का आयोजन हुआ। मिसेज़ लाल बाई से बोलीं, ‘शाम को गिन्नी को भेज देना। वो भी डॉली के बर्थडे में शामिल हो लेगी।’

शाम को जन्मदिन मनाया गया, सब बच्चे आये, लेकिन गिन्नी नहीं आयी। दूसरे दिन मिसेज़ लाल ने बाई से शिकायत की, ‘कल गिन्नी नहीं आयी?’

बाई संकोच में हँसकर बोली, ‘हाँ, नहीं आ पायी।’

लेकिन मिसेज़ लाल के मन में नाराज़ी थी कि उनकी उदारता के बावजूद गिन्नी नहीं आयी थी। बोलीं, ‘वजह क्या थी? क्यों नहीं आयी?’

बाई सिर झुकाकर बोली, ‘कुछ नहीं, पगली है।’

मिसेज़ लाल अड़ गयीं, बोलीं, ‘आखिर कुछ वजह तो होगी। क्या कहती थी?’

बाई ज़मीन पर नज़रें टिकाकर बोली, ‘अरे क्या बतायें! कहती थी कि वहाँ जाएंगे तो कुछ न कुछ काम करना पड़ेगा। इसीलिए नहीं आयी।’

मिसेज़ लाल, कमर पर हाथ धरे, बाई का मुँह देखती रह गयीं।

परिहार

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #21 – ☆ मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच… ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच… सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  मित्रता स्वयं की स्वयं सेसुश्री आरुशी जी का विमर्श अत्यंत सहज किन्तु गंभीर है.  सुश्रीआरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

 साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #21

 

☆ मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच…☆

 

मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच…

हम्म, पचायला थोडं जड आहे पण अतिशय आवश्यक… ही मैत्री साधायचा प्रयत्न चालू आहे…

गेल्या काही महिन्यात घडलेल्या घडामोडी ह्या मैत्रीला कारणीभूत आहेत… नक्कीच…

वेळ प्रसंगी कुटुंबीय, ऑफिस कलीग, अनेक मित्र मैत्रिणी सपोर्ट करायला असतात… पण आडात नसेल तर पोहऱ्यात कुठून येणार…

असो…

आपण हल्ली खूप busy असतो, नाही का?? आधी शिक्षण, नोकरी, मग छोकरी, मग पोटची छोकरी, आई वडील, मित्र मैत्रिणी, घर दार, प्रत्येक ठिकाणी we want to prove ourselves and want to be at par with everybody else… at any cost …!

सगळं दुसऱ्यांसाठी, ह्या जगासाठी करत राहायचं, पण मग स्वतःसाठी कधी करणार… ?

वेळ कुठे आहे !

तुम्ही म्हणाल दुसऱ्यांसाठी म्हणजे नवरा बायको मुलं, आई वडील ह्यांच्यासाठीच तर करतोय, त्यात काय अयोग्य आहे… करायलाच पाहिजे… पण ह्या सगळ्या प्रोसेसमध्ये, मी माझ्यासाठी काही करतोय का??? का फक्त घरातील इतर मंडळी खुश झाली की मी खुश होणार आहे??? Is my happiness dependent on them??? ते नसतील तर मला आनंदी होता येणार नाही का ??? मग मी useless, hopeless होते का ???

स्पर्धा असणारच, ती असावीच त्याशिवाय आपण अंगभूत गुणांना ओळखुच शकणार नाही… असेल माझा हरी तर देईल खाटल्यावरी, असा विचारही घातकच… अन्न, वस्त्र, निवारा ह्यासाठी हात पाय हलवले पाहीजेतच… आज काल आम्ही एवढे busy आहोत की काय अन्न खातो, कधी खातो, ह्याचा हिशोब नाही… वस्त्र मात्र एकदम stylish परिधान करतो… बाहेरून सगळं चकाचक… पण निवारा… त्यासाठी रक्ताचं पाणी करतो आणि ते करत असताना ह्या निवाऱ्यात थांबायला वेळच नसतो… त्यामुळे आपण कोणत्या स्पर्धेत उतरायचं आहे, त्यासाठी कुठली जब्बाबदरी घ्यावी लागेल, काय तयारी करावी लागेल, ह्याचा अभ्यास आपण करतो का??? त्याचे pros n cons बघतो का ??? ह्यातून जे हाती लागणार आहे तेच उलतीमते आहे का??? कधी स्वतःचा स्वतःशी असा संवाद केलाय, झालाय … ही मैत्री कधी अनुभवली आहे का???

काल youtube वर एक व्हिडिओ पाहत होते… त्यात असा उल्लेख आहे की,

Your life is just a thought away…

बाबो, केवढा गहन अर्थ दडला आहे ह्या वाक्यात… लगेच तो विडिओ स्टॉप केला आणि विचार करू लागले… किती योग्य आणि खरं वाक्य आहे… आपल्या मनातील विचार सगळं ठरवत असतात…

उदाहरणार्थ…

आपण रस्त्यावरून जात आहोत, समोर एक व्यक्ती तिला आवडलेला ड्रेस घालून दुकानापाशी उभी आहे… आणि गम्मत म्हणजे आपल्याला नेमका तोच माणूस दिसतो आणि त्याचा ड्रेस अजिबात आवडत नाही… झालं… आपले विचार चक्र सुरू होते…

इ हा काय ड्रेस घातलाय, काय पण रंग आहे, त्याला अजिबात सूट होत नाहीत, त्याला एवढपण कळत नाही का, बरं त्याला नाही कळलं तर त्याच्या बायकोला कळत नाही का??? एक नाही, हजारो प्रश्न म्हणजेच विचार आपण काही ही कारण नसताना तयार करतो… ह्याचा त्या व्यक्तीवर काहीच फरक पडत नाही… आपण आपल्या अपेक्षांचं ओझं त्याच्यावर टाकायचा प्रयत्न करतो, पण मन अस्वस्थ कोणाचे होते???

ह्यापुढे जाऊन आपण ही गोष्ट आपल्या मित्र मैत्रिणींना पण अगदी हिरीहीरीने सांगतो… तुम्ही कितीही नाही म्हटलं तरी आपल्याला हे करत असताना एक प्रकारचा आनंद मिळतो …कारण तो माणूस किती तुच्छ आहे हे आपण prove केलेलं असतं… आणि आपली अपेक्षा तो माणूस पूर्ण करू शकत नाही ह्याची खंत झाकायची असते… पण पुन्हा तीच अस्वस्थता… म्हणजे पुन्हा स्ट्रेस…

अजून एक उदाहरण घेऊ या…

आपण एखादा चित्रपट पाहून आलो, खूप आवडला असेल तर त्याची वाहह वा करतो, त्यातील गाणी, अभिनय, फोटोग्राफी, ह्याचा विचार करू लागतो… मित्र मैत्रिणींना सांगतो… एक प्रकारचा आनंद मिलतो… कारण त्या चित्रपटाविषयी आपल्या अपेक्षा पूर्ण झालेल्या असतात… पुन्हा स्ट्रेस…. पौसिटीव्ही स्ट्रेस…

म्हणूनच मला पटलं, my life is just a reminder thought away… स्वतःची स्वतःशी असलेली मैत्री…

आजू बाजूला घडणाऱ्या गोष्टी आपल्याला प्रभावित करत असतात… आणि त्यात आपण वाहून जातो… कुठवर वाहून जायचं, it’s just a thought away… त्या क्षणी येणारा विचार तुम्हाला त्या प्रवाहातुन वाचवू शकतो नाही तर तुमचा जीवही घेऊ शकतो…

विचार चक्र चालू राहणं हे नैसर्गिक आहे… पण कुठला विचार कधी करावा, का करावा, किती करावा… हा लूप आपणच तयार करतो, तो योग्य वेळी योग्य ठिकाणी तोडता आला पाहिजे.. ह्याचा अभ्यास करणं गरजेचं आहे… त्यासाठी स्वतःची स्वतःशी मैत्री होणं आवश्यक आहे… सोप्प नाहीये, त्यासाठी खूप awareness लागतो… पण केलं तर नक्की जमेल, ह्याची खात्री आहे… पण ही मैत्री खरंच चिरकाल राहील…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – विशाखा की नज़र से ☆ जगह भर जाती है ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना जगह भर जाती है .  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – विशाखा की नज़र से

 

☆ जगह भर जाती है  ☆

 

मुठ्ठी में रेत उठाओ

चुल्लू पानी का बनाओ

समुद्र से नदी बनाओ

उल्टा चाहे क्रम चलाओ

रीती जगह नही रहती

जगह भर जाती है ….

 

आँखों से आँसू बहे

पत्ते चाहे जितने झरे

आँखों में फिर पानी

पेड़ों में हरियाली

जगह भर जाती है ….

 

गर्म हवा ऊपर उठी

ठंड़ी हवा दौड़ पड़ी

निर्वात की वजह नही

रूखी हो या नमी

जगह भर जाती है ….

 

एक शख्स जगता रहा

इधर -उधर दौड़ता रहा

देह छुटी आत्मा मुक्त

उसकी निशानी ना चिन्ह कहीं

कुछ ही समय की बात है

यादें , यादों के साथ है

रिक्त जगह नहीँ रहती

जगह भर जाती है …….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य- पितृ पक्ष विशेष – कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ पितर चले गये ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा 16 वर्ष पूर्व लिखी गई लघुकथा “पितर चले गये ” आज भी सामयिक लगती  है.)

 

☆ लघुकथा – पितर चले गये  

 

कौआ सुबह सुबह एक छत से दूसरी छत पर कांव कांव करता हुआ उड़ उड़ कर बैठ रहा था किंतु उसे आज कुछ भी खाने को नहीं मिल रहा था ।

कल ही पितृ मोक्ष अमावस्या के साथ पितृ पक्ष समाप्त हो गए । इन पन्द्रह दिनों में कौओं को भरपेट हलुआ पूड़ी एवम तरह तरह के पकवान खाने को मिले थे । इसी आस में आज भी कौआ इस छत से उस छत पर भटक रहा था ।

थक हार कर वह एक छत की मुंडेर पर बैठ गया । उसे महसूस हो गया था कि पितर चले गए हैं ।अतः वह पुनः कचरे के ढेर में अपना भोजन तलाशने उड़ गया ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 10 – अहंकार दहन ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   अहंकार दहन।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 9 ☆

 

☆ अहंकार दहन 

 

राहु और केतु राहु हिन्दू ज्योतिष के अनुसार असुर स्वरभानु का कटा हुआ सिर है, जो ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा का ग्रहण करता है । इसे कलात्मक रूप में बिना धड़ वाले सर्प के रूप में दिखाया जाता है, जो रथ पर आरूढ़ है और रथ आठ श्याम वर्णी घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है । वैदिक ज्योतिष के अनुसार राहु को नवग्रह में एक स्थान दिया गया है । दिन में राहुकाल नामक मुहूर्त (24 मिनट) की अवधि होती है जो अशुभ मानी जाती है । समुद्र मंथन के समय स्वरभानु नामक एक असुर ने धोखे से दिव्य अमृत की कुछ बूंदें पी ली थीं । सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया और मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु को बता दिया । इससे पहले कि अमृत उसके गले से नीचे उतरता, विष्णु जी ने उसका गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया । परंतु तब तक उसका सिर अमर हो चुका था । यही सिर राहु और धड़ केतु ग्रह बना और सूर्य- चंद्रमा से इसी कारण द्वेष रखता है । इसी द्वेष के चलते वह सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है । ग्रहण करने के पश्चात सूर्य राहु से और चंद्र केतु से, उसके कटे गले से निकल आते हैं और मुक्त हो जाते हैं ।

केतु भारतीय ज्योतिष में उतरती लूनर नोड को दिया गया नाम है । केतु एक रूप में स्वरभानु नामक असुर के सिर का धड़ है । यह सिर समुद्र मन्थन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था । यह एक छाया ग्रह है । माना जाता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है । कुछ मनुष्यों के लिये यह ग्रह ख्याति दिलाने में अत्यंत सहायक रहता है । केतु को प्रायः सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उलटी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । चुकी ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के कारण ही राहु और केतु की स्थिति भी साथ-साथ बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद केतु (अथवा राहू) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं । तथ्य यह है कि ग्रहण तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा इन बिंदुओं में से एक पर सांप द्वारा सूर्य और चंद्रमा की निगलने की समझ को जन्म देता है । प्राचीन तमिल ज्योतिषीय लिपियों में, केतु को इंद्र के अवतार के रूप में माना जाता था । असुरो के साथ युद्ध के दौरान, इंद्र पराजित हो गया और एक निष्क्रिय रूप और एक सूक्ष्म राज्य केतु के रूप में ले लिया । केतु के रूप में इंद्र अपनी पिछली गलतियों, और असफलताओं को अनुभव करने के बाद भगवान शिव की आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो गया ।

दरअसल रावण ने सभी नौ ग्रहों के देवताओं का अपहरण कर लिया था और उन्हें लंका में ले आया था, लेकिन जल्द ही भगवान ब्रह्मा लंका आये और रावण से सभी ग्रहों को मुक्त करने का अनुरोध किया ताकि ब्रह्मांड में जीवन का चक्र प्रभावित न हो । रावण ने उन्हें एक शर्त पर मुक्त किया कि रावण प्रत्येक ग्रह की एक प्रतिलिपि बनायीं, और उन्हें बनाने के बाद उसने सभी ग्रहों के देवताओं को अपने ग्रहों की शक्तियो के सार को प्रत्येक प्रतिलिपि में प्रविष्ट करने का आदेश दिया,एक-एक करके मुख्य ग्रह के अनुसार । इसलिए सूर्य ने रावण द्वारा बनाए गए सूर्य की प्रतिलिपि में अपनी शक्तियों के सार को डाला, चंद्रमा ने रावण द्वारा बनाए गए चंद्रमा की प्रतिलिपि में अपनी शक्तियों को सम्मिलित किया आदि आदि अन्य ग्रहो ने भी किया । इसके बाद रावण ने सभी नौ ग्रहो को मुक्त कर दिया ।

तब रावण ने लंका का अपना निजी राशि चक्र बनाया जिससे लंका के प्रत्येक हिस्से पर एक ही तरह का प्रभाव पड़े और सभी प्रतिलिपि ग्रहों को रावण द्वारा परिभाषित गति के साथ आगे बढ़ने का आदेश दिया गया, इसका अर्थ है कि लंका में कभी भी कोई नुकसान या खतरा नहीं होगा किसी भी परिस्थिति में । भगवान हनुमान, रावण की शक्ति और बुद्धि से आश्चर्यचकित थे । फिर उन्होंने अपने मस्तिष्क में सोचा कि लंका को यदि कोई नुकसान पहुँचाना है, तो इन प्रतिलिपि ग्रहों को किसी भी तरह से मुक्त करना होगा । रावण भी भगवान हनुमान को लगभग एक मिनट तक देखता रहा, आखिर में उन्होंने भगवान हनुमान से कहा, “तो तुम हो वो शरारती वानर जिसने मेरे सबसे खूबसूरत बगीचे को नष्ट कर दिया और मेरे बेटे अक्षय कुमार को भी मार डाला, क्या तुम सजा के लिए तैयार हो?”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 7 ☆ अब कहाँ है रास्ता? ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘अब कहाँ है रास्ता?’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 8 

☆ अब कहाँ है रास्ता?

अमन के नाम पर झगड़े होते हैं
खून -खराबे, आगजनी, मारकाट होती है
इन्सा का इन्सा से नहीँ रहा वास्ता
अब कहाँ है रास्ता?

 

दिन में गलबाँहें डालते हैं दोस्त जो
पीठ में खंज़र वे ही चुभाते हैं
दोस्तों का दोस्तों से मिट गया है राब्ता
अब कहाँ है रास्ता?

 

आज़ाद देश में नारी पर होता अत्याचार है
मासूम सी कलियों को ये ही कुचलते हैं
नारी के जीवन की करूण है दास्ताँ
अब कहाँ है रास्ता?

 

© सौ. सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 7 ☆ डोंगर दऱ्या ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी  भावप्रवण कविता  डोंगर दऱ्या.  श्रीमती उर्मिला जी  के द्वारा ग्राम्य परिवेश का शब्द चित्र अत्यंत मोहक है  एवं  नेत्रों के सम्मुख  एक सुन्दर ग्राम का सम्पूर्ण  दृश्य परिलक्षित होता है. श्रीमती उर्मिला जी  को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 7 ☆

 

☆ डोंगर दऱ्या ☆

 

माझ्या म्हायेरास्न आईनं सांगावा धाडला!

सुटीत पोरास्नी घिऊन ये की, महाडला !

 

आठव आली मला माज्या देखन्या गावाची !

लगबगीनं तयारी केली मी

आईकडं जान्याची !

आई म्हनं वाट वळनावळनाची  लागती तुला गाडी !

रित्यापोटी नग निगूस ,खा आवळ्याची वडी !!

 

निसर्गातल्या कुशीतलं देखनं माज गाव !

हायती धा बारा घरं आन् येकच बाव !

भातखाचरातनं चालल्यात पान्याचं पाट !

पुलाजवळ उभी -हाऊन यस्टी बगं प्यासेंजरची वाट !!

 

डोंगरदऱ्यातंन व्हात्यात

झुळुझुळू झरं. !

साऱ्या रस्त्यानं कोसळत्यात धबाबा धबधबं !!

ल ई छान रंगीबेरंगी फूलपाखरांचं थवं !

थुईथुई नाचत्यात मोर फुलवून सुंदर पिसारं !!

 

डोंगरघाटातनं गेल्याव दिसं  रांगड गाव छान !

हिरवंहिरवं गालिचे अन् पाचूचं रान !

गोठ्यात शेपूट हालवीत बघं

देखनी कपिला गाय !

हाती भाकरतुकडा घिऊन दारी हुबी माजी माय !!

 

©® उर्मिला इंगळे, सातारा

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 17 ☆ औरत धूर्त और खतरनाक नहीं – एंजेलीना ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का  आलेख “औरत धूर्त और खतरनाक नहीं – एंजेलीना”.  डॉ . मुक्ता जी ने इस आलेख के माध्यम से  यू• एन• एच• सी• आर• की गुडविल एंबेसेडर हॉलीवुड अभिनेत्री  एंजेलीना के कथन को व्यापक विस्तार दिया है और नारी के सम्मान एवं अधिकारों के प्रति समाज में सजगता का सन्देश दिया है. साथ ही वे कदापि नहीं मानती  कि पुरुषों एवं बच्चों  के खिलाफ अपराध को किसी भी तौर से कमतर आँका जाये. उन्होंने  इस विषय पर अपनी बेबाक राय रखी है। अब आप स्वयं पढ़ कर आत्म मंथन करें  कि – हम इस दिशा में क्या कर सकते हैं?  आदरणीया डॉ मुक्ता जी  का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 17 ☆

 

☆ औरत धूर्त और खतरनाक नहीं – एंजेलीना ☆

 

हॉलीवुड की अभिनेत्री एंजेलीना का यह कथन समाज के तथाकथित सफेदपोश लोगों को कटघरे में खड़ा कर देता है, जो अपने अधिकार छीने जाने पर आवाज़ दबाने को तैयार नहीं. वे ऐसी महिलाओं के पक्षधर नहीं हैं। परंतु एंजेलिना उस अवधारणा को बदलने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहती हैं, “जो अन्याय से थक चुकी महिलाओं को ‘अस्वाभाविक और खतरनाक’ बताते हैं… समाज में निर्मित नियमों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली महिलाओं को असामान्य करार देते हुए, उनके लिए ‘अजीब, चरित्रहीन और खतरनाक’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।”

आधुनिक युग में ऐसी सोच पर कायम रहना लज्जा-स्पद है। यू• एन• एच• सी• आर• की गुडविल एंबेसेडर अभिनेत्री ने कहा कि – “उनके इस आलेख का मतलब पुरुषों व बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध को कमतर आंकना नहीं है।”

आश्चर्य होता है यह देख कर कि 21वीं सदी में भी ऐसी मानसिकता हावी है। समान अधिकारों व अन्याय के विरुद्ध मांग उठाने वाली महिलाओं को अस्वाभाविक व असामान्य करार करना,उन्हें विचित्र, चरित्रहीन, धूर्त व खतरनाक कहना…क्या यह महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है? क्या गीता का संदेश त्याज्य है ‘यदि अधिकार मांगने से न मिले तो उसे छीन लेना श्रेयस्कर है’…अपराध नहीं है? क्या ऐसी नकारात्मक पुरुष मानसिकता को स्वीकारना अनिवार्य है?

शायद नहीं…संसार के प्रत्येक जीव को अपने ढंग से जीने का अधिकार है। यदि परिस्थितियां उसके प्रतिकूल हैं, तो उनका विरोध न करने वाले मनुष्य को आप क्या कहेंगे… शायद ज़िन्दा लाश…क्योंकि जिस इंसान में आत्मसम्मान,स्वाभिमान व अधिकारों के प्रति सजगता नहीं है, वह अस्तित्वहीन है,त्याज्य है।

हाँ !अधिकार व कर्त्तव्य अन्योन्याश्रित हैं। एक का अधिकार दूसरे का कर्त्तव्य है। सो! आवश्यकता है दायित्व-वहन की, एक-दूसरे के प्रति प्यार,सम्मान व समर्पण की… जिसकी अनुपालना दोनों के लिए आवश्यक है।

स्त्री व पुरुष गाड़ी के दो पहिए हैं। यदि एक कमज़ोर होगा, तो दूसरे की गति स्वतः धीमी पड़ जाएगी।

दूसरे शब्दों में समाज की उन्नति के लिए तालमेल व सामंजस्य आवश्यक है अन्यथा समाज में मासूमों की भावनाओं पर कुठाराघात होता रहेगा और लूट- खसोट, दुष्कर्म व हत्या के मामले बढ़ते रहेंगे, इनकी संख्या में निरंतर इज़ाफा होता रहेगा…चहुं ओर अव्यवस्था का साम्राज्य बना रहेगा।

सो!इसके लिये आवश्यकता है…नारी की भावनाओं, सोच व दृष्टिकोण को अहमियत देने की, उसके द्वारा समाज हित में किए गए योगदान व उसकी प्रति- भागिता अंकित करने की… यह तभी संभव हो पायेगा, जब वर्षों से प्रचलित रूढ़ियों, अंधविश्वासों व दकियानूसी मान्यताओं द्वारा दासता की ज़ंजीरों से मुक्त करवा पाना संभव होगा…उसे दोयम दर्जे का न स्वीकार कर, मात्र कठपुतली नहीं, संवेदनशील समाज के विशिष्ट अंग के रूप में स्वीकारेगा। यदि हम समाज को उन्नत करना चाहते हैं, तो हमें नारी को मात्र भोग्या व उपयोगिता की वस्तु नहीं, समाज के अभिन्न अंग के रूप में  स्वीकारना होगा। जैसाकि सर्वविदित है कि एक सुशिक्षित बालिका दो घरों को सुव्यवस्थित करती है, आगामी पीढ़ी को सुसंस्कृत करने में संस्कारित करती है और समाज को एक नई दिशा प्रदान करती है।

बच्चे,सुखद परिवार की सुदृढ़ नींव होते हैं और माता -पिता की अनमोल विरासत व अभिन्न दौलत।अर्थात् जिनके बच्चे शिक्षित ही नहीं, सुसंस्कारित व शालीन होते हैं, मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते…वे माता-  पिता संसार में सबसे अधिक सौभाग्यशाली व निर्धन हो कर भी सबसे अधिक धनी होते हैं।

चलिए!विचार करते हैं इसके मुख्य उपादान पर। ..यदि आप अपनी पत्नी की भावनाओं का सम्मान कर, उसे बराबर का दर्जा देते हैं, उसका तिरस्कार नहीं करते, उसके त्याग व योगदान की सराहना करते हैं… सामाजिक विषमता, विश्रृंखलता व विसंगतियों का विरोध करने पर, दाहिने हाथ की भांति उसके साथ खड़े रहते हैं…उसकी भावनाओं का तिरस्कार कर, उसे अपमानित नहीं करते तो आप एक-दूसरे के प्रतिपूरक हैं, एक महत्वपूर्ण कड़ी है तथा आप परिवार व समाज को उन्नत व समृद्ध  बना सकते हैं।

स्मरण होंगे.. आपको अंग्रेज़ी के यह मुहावरे ‘चैरिटी बिगिंस एट होम और ‘निप दी इविल इन दी बड ‘ अर्थात् घर से ही प्रारंभ होती, बुराई को प्रारंभ में ही दबा देना चाहिए अन्यथा वह कुत्तों की तरह समाज को दूषित कर देगी स्वस्थ समाज की शांति को लील जाएगी। महिलाओं को सम्मान व समान दर्जा देना, उसकी सद्भावनाओं व सत्कर्मों का बखान करना… आगामी पीढ़ी को सुसंस्कारों से सिंचित कर सकता है। हां! आवश्यकता है उसके बढ़ते कदमों को व यथोचित योगदान को देख सराहना करना। यदि वह उसे अपनी जीवनसंगिनी, हमसफ़र व शरीक़ेहयात समझ उससे शालीनता से व्यवहार करेगा तो वह यह सबके हित में होगा अन्यथा समाज से आतंक व अराजकता का शमन कभी नहीं होगा…समाज में सदैव भय, डर व आशंका का माहौल बना रहेगा… समाज में फैली कुरीतियों-दुष्प्रवृत्तियों का अंत नहीं कभी सम्भव नहीं होगा। राम राज्य की स्थापना का स्वप्न व समन्वय-सामंजस्य का स्वप्न कभी साकार नहीं होगा। शायद यह  कपोल-कल्पना बनकर रह जाएगी। आइए! हम सब इस यज्ञ में अहम् की समिधा डालें क्योंकि अहम द्वंद्व व संघर्ष का जनक है, जिसका परिणाम हम परिवारों में माता-पिता के अलगाव के रूप में तथा बच्चों को एकांत की त्रासदी से जूझते हुए एकाकीपन के रूप में देखते हैं। संयुक्त परिवार व्यवस्था के टूटने पर वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या, महिलाओं की असामाजिक कृत्यों में प्रतिभागिता, फ़िरौती, हत्या आदि संगीन जुर्मों में लिप्तता हमारी नकारात्मक सोच को उजागर करती है। आइए!हम सब स्वस्थ समाज की संरचना में  योगदान दें,जहां सब को यथोचित सम्मान मिल पाये। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि अधिकारों की मांग करना, न मिलने पर प्रतिरोध कर बग़ावत का झंडा उठाना,अन्याय को सहन करने की प्रतिबद्धता को नकारना, महिलाओं के चरित्र का प्रमाण-पत्र नहीं है और न ही ऐसी महिलाओं का,जो समाज में व्याप्त अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाती हैं…उन्हें अस्वाभाविक व  खतरनाक समझने का कोई औचित्य है। इस लाइलाज रोग से निज़ात पाने का एकमात्र उपाय है…समाज की सोच को परिवर्तित कर, नारी को दोयम दर्जे का न समझ, समानता का दर्जा प्रदान किया जाये। शायद!इसके परिणाम- स्वरूप लोगों की दूषित मानसिकता में परिवर्तन हो जाये।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 15 ☆ अक्सर ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक  प्रेरणास्पद एवं भावप्रवण कविता  “अक्सर ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 15  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ अक्सर

 

अपने ही दिखाते है

सपना

और अपने ही देते हैं धोखा

अक्सर।

 

वक्त देती है

तरह तरह के इम्तिहान

सिखाती है जंग

अक्सर।

 

टूटे हुए अहसास

मिलता है जख्म

दे जाते है सीख

अक्सर।

 

मुश्किलों का तूफान

डराने का

करें प्रयत्न

कोशिश होती विफल

अक्सर।

 

मंजिल की करतें है तलाश

करते रहेंगे प्रयत्न

जीवन में

मानेंगे नहीं हार

अक्सर।

 

असफलता ही

दिलाती सफलता

मिलती है प्रेरणा

अक्सर।

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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