हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 33 ☆ आव्हान ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  कविता आव्हान। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 33☆ 

☆ कविता – आव्हान ☆ 

जीवन-पुस्तक बाँचकर,

चल कविता के गाँव.

गौरैया स्वागत करे,

बरगद देगा छाँव.

.

कोयल दे माधुर्य-लय,

देगी पीर जमीन.

काग घटाता मलिनता,

श्रमिक-कृषक क्यों दीन?

.

सोच बदल दे हवा, दे

अरुणचूर सी बाँग.

बीना बात मत तोड़ना,

रे! कूकुर ली टाँग.

.

सभ्य जानवर को करें,

मनुज जंगली तंग.

खून निबल का चूसते,

सबल महा मति मंद.

.

देख-परख कवि सत्य कह,

बन कबीर-रैदास.

मिटा न पाए, न्यून कर

पीडित का संत्रास.

.

श्वान भौंकता, जगाता,

बिना स्वार्थ लख चोर.

तू तो कवि है, मौन क्यों?

लिख-गा उषा अँजोर.

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 76 ☆ संघे शक्ति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 76 – संघे शक्ति ☆

कुछ घटनाएँ ऐसी घटती हैं जो नेत्रों को खारी बूँदों से भर देती हैं। उस सुबह भी कुछ ऐसा ही हुआ। कलेवर में छोटी पर प्रभाव में बड़ी घटना का साक्षी बना।

प्रात: भ्रमण से लौट रहा था। बस स्टॉप के पास वाले फुटपाथ पर एक पेड़ के नीचे दो-तीन वर्ष से एक फकीरनुमा भिक्षुक का बसेरा है। फुटपाथ के एक ओर पार्क की दीवार है, दूसरी ओर सड़क और सड़क के उस पार छोटी-सी टपरी। आते-जाते लोगों से फकीर की कभी चाय की मांग हो तो केवल पैसे देकर काम नहीं चलता। सड़क पार से एक प्याला चाय लाकर देना पड़ता है। शायद पैरों से लाचार से है यह वृद्ध क्योंकि उसे कभी चलते नहीं देखा।

सहसा दृष्टि पड़ी कि वृद्ध को घेरकर पास के उर्दू माध्यम के विद्यालय में पढ़नेवाली आठ-दस छात्राएँ खड़ी हैं। सिर पर स्कार्फ बाँधे, छठी-सातवीं में पढ़नेवाली बच्चियाँ। उत्सुकता के शमन के लिए अवलोकन किया तो नेत्र सजल हो उठे। भिक्षुक को पीने के लिए पानी चाहिए था और हर बच्ची अपने वॉटर बॉटल में से थोड़ा-थोड़ा पानी भिक्षुक के जलपात्र में डाल रही थी। अद्भुत, अलौकिक दृश्य! देखता ही रह गया मैं!

इच्छा हुई दौड़कर जाऊँ और इनके माथे पर हाथ रखकर कहूँ, “ वेल डन बेटियो! सबाब का काम किया।” फिर लगा इस कच्ची उम्र को पाप-पुण्य के जटिल समीकरण से मुक्त ही रहने दूँ, रहने दूँ इन्हें सहज। सहजता जो जानती है कि प्यास है तो पानी की व्यवस्था करनी चाहिए।

फकीर की पानी की ज़रूरत पूरी करने के लिए एक साथ बढ़े इन नन्हे हाथों ने एक बात और सिखाई कि प्रयास सामूहिक हों तो पानी का पात्र ही नहीं, सूखी नदियाँ और रूठी बावड़ियाँ भी भरी जा सकती हैं।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 32 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 32 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 32) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 32☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

शाम  ख़ामोश  है,

पेड़ों  पे  उजाला  कम  है ..

लौट  आए  हैं  सभी,

पर  एक  परिंदा  कम  है।

 

Evening is somberly silent,

Light is also less on trees

All have returned, but one

Bird  is  less  in  the  flock!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मुख़्तसर  सा  गुरूर  भी

ज़रूरी  है  जीने  के  लिए

ज़्यादा झुक के मिलो तो दुनिया

पीठ को पायदान बना लेती है

 

Little  bit  of  ego  is

also a must to survive…

If you bend too much,

World makes you a pedestal

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जो बात…

पी गया था मैं,

वो बात ही…

खा गई मुझे…!

 

Whatever matter

I had digested,

That matter only

consumed  me…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जब भी तुम मुझे ढूँढना

चाहो, तो  सुन  लो…

मेरी  पसंदीदा  जगहों में,

एक  तुम्हारा  दिल  है…

 

Listen, whenever you’re

desirous of finding me …

Among my most favorite

places, one is your heart..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – ‌अन्नदाता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी  की एक भावप्रवण कविता  “अन्नदाता। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – अन्नदाता

मै‌ किसान ‌अन्नदाता हूँ, इस देश का भाग्य विधाता हूँ।

अपने कठिन परिश्रम से, मै सबकी भूख मिटाता हूँ।

 

वर्षा सर्दी‌ गर्मी सहकर, सब्जी फल फूल उगाता हूँ।

पर लूट‌खसोट के‌ चलते, भइया मै‌ भूखा‌ सो‌ जाता हूँ।

 

कभी आपदा के चलते, हम सब के सपने चूर  हुए।

कर्जे महंगाई के चलते, मरने पे‌ मजबूर हुए।

 

हम सबकी मेहनत  का फल, हर समय बिचौलिया खाता है।

सरकारी ‌राहत का सारा ‌धन, घपलेबाज की जेब में जाता है।

 

बेटी की‌ शादी पढ़ाई की चिंता, हम को खाये जाती‌ है।

रातें आंखों में कटती है, नींद न हमको आती है।

 

अपने छप्पर में मैं बैठा, खाली कोठारें तकता हूँ।

हाथों की लकीरें देख देख, अपनी क़िस्मत मैं पढता‌ हूँ।

 

अंधेरी काली रातों में  ,खाली बर्तन टटोलता हूँ मैं।

कर्जे खर्चे की डायरी के पन्ने, अब बार बार खोलता हूँ मैं।

 

अपने खेत में बैठा हूँ, पशुओं की रखवाली करता हूँ।

फसल चर रहे आवारा पशु, कुछ भी कहने से डरता हूँ।

 

आशा और निराशा ‌से, जब दिल मेरा घबराता है।

तब भूतकाल भविष्य बन‌कर, मुझको रोज डराता है।

 

फिर‌ भी उम्मीदों के दामन में, रंगीन नजारे दिखते हैं।

जीवन की अंधेरी रातों में, चांद सितारे दिखते हैं।

 

अब सूनी-सूनी आंखों से, उम्मीद की राहें तकता हूँ।

खेत की मेड़ पे बैठा हूँ, पगला दीवाना दिखता हूँ।

 

मैं नील‌कंठ बन बैठ गया, पीकर‌ के‌ विष का प्याला।

अपनी व्यथा‌ कहें किससे, है कौन उसे सुनने वाला।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 57 – अभंग – अहंकार ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 57 – अभंग – अहंकार ☆

सोडी अहंकार

व्यर्थ बडीवार

मिरविशी फार

सदोदीत…./१/

 

प्रसिद्धीची हाव

वृथा धावाधाव

मनाचा घे ठाव

थांब थोडा……/२/

 

अहंभाव वारे

शिरताच कानी

बुद्धी मनमानी

करितसे…./३/

 

अपुऱ्या ज्ञानाचे

उगा प्रदर्शन

अज्ञान दर्शन

जगतास…./४/

 

योग्यतेची जाण

कुवतीचे भान

ज्ञानियांचा मान

चित्ती हवा …./५/

 

ज्ञानार्जन ध्यास

प्रयत्नांची कास

सचोटी विश्वास

अंगी बाण…./६/

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगत (भाग – ८) – पाऊलखुणा ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर वाईकर

☆ सूर संगत (भाग – ८) – पाऊलखुणा ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆  

आपण एखाद्या गोष्टीचा अनुभव घेत असताना आपलं भान हरपतं, भवताल विसरलं जातं, वाऱ्याच्या लहरीवर तरंगत जात असल्यासारखं मन हलकं होऊन जात अक्षरश: एका भारलेल्या अवस्थेत आपण जातो. निर्गुण-निराकारत्वाची खूण पटवणाऱ्या, ‘त्याच्या’ अस्तित्वाची साक्ष देणाऱ्या, त्या सर्वोच्च शक्तीनं वेढलेल्या अवस्थेतले क्षण हे खरंतर जाणिवेच्या पलीकडले असेच म्हणावे लागतील. मात्र ही अवस्था लोप पावल्यानंतरही तिचा प्रभाव टिकून राहातो, ते क्षण मनात रेंगाळत राहातात. ह्या रेंगाळत्या क्षणांमधेच आपण खरोखरी काही चैतन्यदायी, निखळ आनंद देणारे क्षण अनुभवले हे जाणवतं… मनावर उमटलेल्या त्या अनुभूतीच्या पाऊलखुणा स्पष्ट दिसतात! अशाच प्रकारच्या एकाच वेळी तेजस्वी आणि हळव्याही पाऊलखुणा भैरवी कायमच मनावर उमटवत राहाते असं मला वाटतं.

मागच्या लेखात भैरवीला शब्दमर्यादेत मुडपून कसंबसं बसवलं असं माझं मलाच वाटत राहिलं. मन भरलं नाही, ते पुरेसं कागदावर उतरलंच नाही असं अधुरेपण जाणवत राहिलं. किंबहुना, भैरवीविषयी लिहिल्यावरही तिच्या पाऊलखुणा अजून मनात रेंगाळत राहिल्या आहेत म्हणायला हरकत नाही. बारा सुरांपैकी सगळे कोमल सूर भैरवीत आहेत म्हणूनच कि काय आपल्या मनालाही तीच कोमल अवस्था प्राप्त होत कुणी एखादा शब्द आपल्याशी बोललं तरी त्या ध्वनिलहरींच्या हलक्याशा धक्क्यानंही जिभेवर पिठीसाखर विरघळावी तितक्या सहजी आपलं अस्तित्वच विरघळून जाईलसं वाटत राहातं. म्हणूनच अशा अनुभवानंतर प्रत्येकच संवेदनशील व्यक्ती नि:शब्द होत मनावरचा भैरवीच्या रुतल्या पाऊलखुणांचा रेंगाळ ओलसर डोळ्यांनी जपत राहाते.

निरीक्षण केलं तर लक्षात येईल कि, कुठल्याही उत्तम रंगलेल्या मैफिलीतील भैरवीनंतर वातावरणात एक आल्हाददायक शांतता भरून राहिलेली असते, प्रत्येक श्रोत्याच्या मनात भैरवी आणखी ठळकपणे पाऊलखुणा उमटवत जात असते. श्रोते त्या परमानंदावस्थेत नुसते एकमेकांकडे पाहताना डोळ्यांतूनच ‘अहाहा… क्या बात है!’ असं गायकाविषयीचं कौतुक एकमेकांपर्यंत पोहोचवत असतात. त्या भारलेल्या अवस्थेला आपल्या शब्दानं धक्का लागू नये ह्याची काळजीच जणू प्रत्येकजण घेत असतो. भैरवीनं श्रोत्याला आनंदात न्हाऊ-माखू घालण्याचं कसब गायक-वादक कलाकाराचं हे वादातीत! त्यानं संगीतसाधनेतून कमावलेली शक्तीच इतक्या सगळ्या श्रोत्यांचं बोट धरून त्यांना वेगळ्या विश्वात घेऊन जाण्याची किमया घडवून आणू शकते. मात्र भैरवीच्या बाबतीत थोडंसं झुकतं माप त्या सुरांना जातं असं माझं वैयक्तिक मत!

मागच्या भागात आपण भैरवीवर आधारित काही मराठी रचनांचा उल्लेख केला होता. हिंदी रचनांविषयी बोलायचं झाल्यासही अक्षरश:  लांबलचक यादी तयार होईल. पण पटकन आठवते ती रचना म्हणजे भारतरत्न पं. भीमसेन जोशीजी, पं. बालमुरलीकृष्णनजी, लताबाई ह्यांचे सूर आणि दर्शनासोबत भारतातील इतरही प्रांतांमधील अनेक गुणी व्यक्तींचं दर्शन घडवणारी, अनेक भाषांत सजलेली पूर्वी दूरदर्शनवर लागणारी ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ ही संपन्न रचना! मागच्या लेखात उल्लेखिल्याप्रमाणे कोणतीही मैफिल ‘भैरवी’ने संपन्न करण्याची प्रथा उत्तर भारतीय संगीत पद्धतीत रूढ आहे. ही रचना मात्र भैरवीमुळे जास्त संपन्न झालीये असं मनात येतं. ह्या संपन्नतेचं लक्षण म्हणजे ही रचना पाहाताना डोळे पाणावतातच, देशभक्ती उरात दाटून येतेच, अनेकविध प्रांतांमधील आपल्या देशबांधवांविषयी आस्था, एकात्मतेची भावना मनात जागतेच, सगळ्याच अर्थांनी दुजाभावाच्या कल्पना लोप पावत एक उदात्त, संपन्न जाणीव मनात जागतेच जागते. कितीही वेळा ही रचना ऐकली तरी प्रत्येकवेळी अशीच अनुभूती येते! पुन्हा म्हणेन, मनात जागणारी ही अनोखी जाणीव ‘भैरवी’नं गडद केली आहे!

हिंदी चित्रपट संगीतातल्याही किती रचना सांगाव्या! लताबाईंचं ‘माता सरस्वती शारदा’ अंगावर रोमांच उभं करतं, ‘बाबूल मोरा नैहर छूटो जाए’ हळवंहळवं करून टाकतं, ‘दिल का खिलौना हाए टूट गया’, ‘मीठे बोल बोले’, ‘फुल गेंदवा ना मारो’, ‘कैसे समझाऊ बडे नासमझ हो’ अशा कितीतरी रचना मनात रुंजी घालू लागतात. ‘कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवालें वतन साथियों’ ह्या ओळी ऐकताना काळजाला घरं पडतात, अंतऱ्यात मात्र वेगळे सूर वेगळा नूर घेऊन येत उरांत अभिमान जागवतात आणि पुन्हा ध्रुवपदाशी आल्यावर भैरवी काळजाचं पाणीपाणी करते. बेगम अख्तर, शोभा गुर्टू  ‘हमरी अटरिया पे आजा रे सावरिया’ गातात तेव्हां त्यातली विरहवेदना जीव जाळत जाते.

खरंतर अशा अजून कितीतरी रचना आहेत ज्या मुख्यत्वे भैरवीची आठवण करून देतात, मात्र इतर स्वरांच्या वापरामुळे वेगळ्या ढंगानं पुढं जातात. मग तिथे भैरवीतल्या सुरांमध्ये एखाद- दुसऱ्या सुराचा फरक केल्यावर जे राग निर्माण होतात त्यांची आठवण जास्त गडद होत जाते. म्हणूनच अशा कित्येक रचनांचा उल्लेख मुद्दाम टाळतेय. सुगम रचनांबाबत हेच महत्त्वाचं आहे. रागनियम हा भागच तिथे लागू नसल्याने एखाद्या रचनेवर धडमकन एखाद्या रागाचं लेबल लावायला मन धजावत नाही, ते संयुक्तिकही नाही. एक मात्र खरं की, कोणताही संगीतप्रकार असो, त्यातली भैरवीची प्रत्येक सुरावट ही काळजावर पाऊलखुणा उमटवत जाते हे नि:संशय!

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 19 ☆ जबलपुर हमारा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  संस्कारधानी जबलपुर शहर पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “जबलपुर हमारा “।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 19 ☆

☆  जबलपुर हमारा 

रेवा तट पर बसा जबलपुर, शहर हमारा हमको प्यारा

इसकी मन भावन माटी ने, हमें सवारा हमें निखारा

 

इसके वातावरण, वायु, जल, नभ ने नित उत्साह बढाये

इसके शिष्ट समाज सरल, सदा नेह ममता बरसाये

 

दृश्य देख इसके बातें सुन, मन ने नये नये स्वप्न सजाये

इससे प्राप्त विशेष ज्ञान ने, पावन विविध विचार जगाये

 

मन भरती आल्हाद अनोखे, इसकी मंगल परंपराये

इसकी धार्मिक भावनाओ ने, आराधन के गीत गुंजाये

 

इससे ही बन सका आज मैं, जो हूं साहित्यिक अनुरागी

संवेदी मन ने ज्ञानार्जन की, उत्कंठा, प्रीति न त्यागी

 

इसकी हर हलचल में दिखता, मुझको एक संसार सुहाना

श्वेत श्याम चट्टानो में है, भरा प्रकृति का सुखद खजाना

 

दूर-दूर फैला दिखता है, विध्यांचल का हरित वनाचंल

छाया देता, प्यास बुझाता, सबकी मॉ रेवा का आंचल

 

जहॉ ज्ञान वैराग्य भक्ति तप, रत है सब शोभित तट वासी

मन वांछित सब सुख सुविधाये, पाते हैं साधू सन्यासी

 

शिक्षा और रक्षा के स्थित, कई एक संस्थान उजागर

धर्म प्राण हैं अधिक निवासी, रेल वायु सुविधाये यहाँ पर

 

लगता मेरा शहर मुझे प्रिय, अनुपम सब नगरो से ज्यादा

परिवारी स्वजनो से ज्यादा, ममतामय संबंध हमारा

 

इसकी स्वात्विक रूचि ने ही, संपोषित की मम जीवन धारा

यह ही है पालक पोषक,  पूज्य धरा प्रिय नगर हमारा

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ कोरोनाला पळवूया ☆ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ☆

☆ कोरोनाला पळवूया ☆

पूर्वी गावं होती लहान

पण माणसं होती महान !

आज गावं झाली मोठी

अन् माणसं झाली छोटी!!२!!

 

वाडा संस्कृतीत होता एकोपा !

आज झाले फ्लॅट प्रत्येकाचा वेगळा कप्पा !

कुणाशी ना गप्पा ना टप्पा !!३!!

 

पूर्वी माणसं असायची भजनपूजनात दंग !

आज आम्ही सारे मोबाईलमध्ये गुंग !!

विषाणूंनी बांधला चांगला चंग!

आमच्या सुखी आयुष्याचा केला भंग !!४!!

 

अहो जगरहाटीत काय होइल सांगता येईना !

त्यात सगळ्या जगाला छळायला आलाय कोरोना!

अहो कोरोनाने माणसं केली वेडी !

धास्तावलीत मोठमोठी गाव आणि खेडी!!५!

 

कोरोनाला अजिबात घाबरायचं नस्त !

खायचे आवळे चिंचा पेरु बोरं मस्त!

रहायचं साऱ्यांनी मजेत चुस्त!

करोनाला पळवायला एक नामी युक्ती!

ठणठणीत ठेवायची सर्वांनी प्रतिकारशक्ती!!

 

©️®️ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

सातारा

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 74 ☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 74 ☆

☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़

अल्फ़ाज़ जो कह दिया/ जो कह न सके जज़्बात/ जो कहते-कहते कह न पाए अहसास। अहसास वह अनुभूति है, जिसे हम शब्दों में बयान नहीं कर सकते। जिस प्रकार देखती आंखें हैं, सुनते कान हैं और बयान जिह्वा करती है। इसलिए जो हम देखते हैं, सुनते हैं, उसे यथावत् शब्दबद्ध करना मानव के वश की बात नहीं। सो! अहसास हृदय के वे भाव हैं, जिन्हें शब्द-रूपी जामा पहनाना मानव के नियंत्रण से बाहर है। अहसासों का साकार रूप हैं अल्फ़ाज़; जिन्हें हम बयान कर देते हैं… वास्तव में सार्थक हैं। वे जज़्बात, जो हृदय में दबे रह गए, निरर्थक हैं, अस्तित्वहीन हैं, नश्वर हैं… उनका कोई मूल्य नहीं। वे किसी की पीड़ा को शांत कर सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते। इसलिए उनकी कोई अहमियत नहीं; वे निष्फल व निष्प्रयोजन हैं। मुझे स्मरण हो रहा है, रहीम जी का वह दोहा… ‘ऐसी बानी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ के द्वारा मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया गया है, जिससे  दूसरों के हृदय की पीड़ा शांत हो सके। इसलिए मानव को अपना मुख तभी खोलना चाहिए; जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों। यथासमय सार्थक वाणी का उपयोग सर्वोत्तम है। मानव के शब्दों व अल्फाज़ों में वह सामर्थ्य होनी चाहिए कि सुनने वाला उसका क़ायल हो जाए; मुरीद हो जाए। जैसाकि सर्वविदित है कि शब्द-रूपी बाणों के घाव कभी भर नहीं सकते;  वे आजीवन सालते रहते हैं। इसलिए मौन को नवनिधि के समान अमूल्य, उपयोगी व प्रभावकारी बताया गया है। चेहरा मन का आईना होता है और अल्फ़ाज़ हृदय के भावों व मन:स्थिति को अभिव्यक्त करते हैं। सो! जैसी हमारी मनोदशा होगी, वैसे ही हमारे अल्फ़ाज़ होंगे। इसीलिए कहा जाता है, यदि आप गेंद को ज़ोर से उछालोगे, तो वह उतनी अधिक ऊपर जाएगी। यदि हम नल की जलधारा में विक्षेप उत्पन्न करते हैं, तो वह उतनी ऊपर की ओर जाती है। यदि हृदय में क्रोध के भाव होंगे, तो अहंनिष्ठ प्राणी दूसरे को नीचा दिखाने का भरसक  प्रयास करेगा। इसी प्रकार सुख-दु:ख, ख़ुशी-ग़म व राग-द्वेष में हमारी प्रतिक्रिया भिन्न होगी और जैसे शब्द हमारे मुख से प्रस्फुटित होंगे; वैसा उनका प्रभाव होगा। शब्दों में बहुत सामर्थ्य होता है। वे पल-भर में दोस्त को दुश्मन व दुश्मन को दोस्त बनाने की क्षमता रखते हैं। इसलिए मानव को अपने भावों को सोच-समझ कर अभिव्यक्त करना चाहिए।

‘तूफ़ान में कश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जातीं हैं। ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध की बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं।’ मानव को मुसीबत में साहस व धैर्य बनाए रखना चाहिए; अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही मानव को अभिमान को भी स्वयं से कोसों दूर रखना चाहिए। मुसीबतें तो सब पर आती हैं–कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है और जो आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखता है; सभी आपदाओं पर मुक्ति प्राप्त कर लेता है।’ स्वेट मार्टन का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है…’केवल विश्वास ही हमारा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल पर पहुंचा देता है।’ शायद इसलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ सिद्धांत पर बल दिया है। यह वाक्य मानव में आत्मविश्वास जाग्रत करता है, क्योंकि एकांत में रह कर विभिन्न रहस्यों का प्रकटीकरण होता है और वह उस अलौकिक सत्ता को प्राप्त होता है। इसीलिए मानव को मुसीबत की घड़ी में इधर- उधर न झांकने का संदेश प्रेषित किया गया है।

सुंदर संबंध वादों व शब्दों से जन्मते नहीं, बल्कि दो अद्भुत लोगों द्वारा स्थापित होते हैं…जब एक दूसरे पर अगाध विश्वास करे और दूसरा उसे बखूबी समझे। जी, हां! संबंध वह जीवन-रेखा है, जहां स्नेह, प्रेम, पारस्परिक संबंध, अंधविश्वास और मानव में समर्पण भाव होता है। संबंध विश्वास की स्थिति में ही शाश्वत हो सकते हैं, अन्यथा वे भुने हुए पापड़ के समान पल-भर में ज़रा-सी ठोकर लगने पर कांच की भांति दरक़ सकते हैं, टूट सकते हैं। सो! अहं संबंधों में दरार ही उत्पन्न नहीं करता, उन्हें समूल नष्ट कर देता है। ‘इगो’ (EGO) शब्द तीन शब्दों का मेल है; जो बारह शब्दों के ‘रिलेशनशिप’ ( RELATIONSHIP) अर्थात् संबंधों को नष्ट कर देता है। दूसरे शब्दों में अहं चिर-परिचित संबंधों में सेंध लगा हर्षित होता है; फूला नहीं समाता और एक बार दरार पड़ने के पश्चात् उसे पाटना अत्यंत दुष्कर ही नहीं, असंभव होता है। इसलिए मानव को बोलने से पूर्व तोलने अर्थात् सोचने-विचारने की सीख दी जाती है। ‘पहले तोलो, फिर बोलो।’ जो व्यक्ति इस नियम का पालन करता है और सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता; उसके संबंध सबके साथ सौहार्दपूर्ण व शाश्वत बने रहते हैं।

मित्रता, दोस्ती व रिश्तेदारी सम्मान की नहीं;  भाव की भूखी होती है। लगाव दिल से होना चाहिए; दिमाग से नहीं। यहां सम्मान से तात्पर्य उसकी सुंदर-सार्थक भावाभिव्यक्ति से है। भाव तभी सुंदर होंगे, जब मानव की सोच सकारात्मक होगी और उसके हृदय में किसी के प्रति राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होगा। इसलिए मानव को सदैव सर्वहिताय व अच्छा सोचना चाहिए, क्योंकि मानव दूसरों को वही देता है जो उसके पास होता है। शिवानंद जी के मतानुसार ‘संतोष से बढ़कर कोई धन नहीं। जो मनुष्य इस विशेष गुण से संपन्न है; त्रिलोक में सबसे बड़ा धनी है।’ रहीम जी ने भी कहा है, ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ इसके लिए आवश्यकता है… आत्म-संतोष की, जो आत्मावलोकन का प्रतिफलन होता है। इसी संदर्भ में मानव को इन तीन समर्थ, शक्तिशाली व उपयोगी साधनों को कभी न भूलने की सीख दी गई है…प्रेम, प्रार्थना व क्षमा। मानव को सदैव अपने हृदय में प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए और प्रभु से सबके लिए मंगल- कामना करनी चाहिए। जीवन में क्षमा को सबसे बड़ा गुण स्वीकारा गया है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात्’ अर्थात् बड़ों को सदैव छोटों को क्षमा करना चाहिए। बच्चे तो स्वभाववश नादानी में ग़लतियां करते हैं। वैसे भी मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। अक्सर मानव को दूसरों में सदैव ख़ामियां- कमियां नज़र आती हैं और वह मंदबुद्धि स्वयं को गुणों की खान समझता है। परंतु वस्तु-स्थिति इसके विपरीत होती है। मानव स्वयं में तो सुधार करना नहीं चाहता; दूसरों से सुधार की अपेक्षा करता है; जो चेहरे की धूल को साफ करने के बजाय आईने को साफ करने के समान है। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग होते हैं, जो आपको उन्नति करते देख, आपके नीचे से सीढ़ी खींचने में विश्वास रखते हैं। मानव को ऐसे लोगों से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए। शायद! इसलिए ही कहा जाता है कि ‘ढूंढना है तो परवाह करने वालों को ढूंढिए, इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेंगे।’ परवाह करने वाले लोग आपकी अनुपस्थिति में भी सदैव आपके पक्षधर बने रहेंगे तथा किसी भी विपत्ति में आपको पथ-विचलित नहीं होने देंगे, बल्कि आपको थाम लेंगे। परंतु यह तभी संभव होगा, जब आपके भाव व अहसास उनके प्रति सुंदर व मंगलकारी होंगे और आपके ज़ज़्बात समय- समय पर अल्फ़ाज़ों के रूप में उनकी प्रशंसा करेंगे। यह अकाट्य सत्य है कि जब आपके संबंधों में परिपक्वता आ जाती है; आपके मनोभाव हमसफ़र की ज़ुबान बन जाते हैं। सो! अल्फ़ाज़ वे संजीवनी हैं, जो संतप्त हृदय को शांत कर सकते हैं; दु:खी मानव का दु:ख हर सकते हैं और हताश-निराश प्राणी को ऊर्जस्वित कर उसकी मंज़िल पर पहुंचा सकते हैं। अच्छे व मधुर अल्फ़ाज़ रामबाण हैं; जो दैहिक, दैविक, भौतिक अर्थात् त्रिविध ताप से मानव की रक्षा करते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 26 ☆ महापुण्य उपकार है, महापाप अपकार ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “महापुण्य उपकार है, महापाप अपकार)

☆ किसलय की कलम से # 26 ☆

☆ महापुण्य उपकार है, महापाप अपकार ☆

स्वार्थ के दायरे से निकलकर व्यक्ति जब दूसरों की भलाई के विषय में सोचता है, दूसरों के लिये कार्य करता है। वही परोपकार है।

इस संदर्भ में हम कह सकते हैं कि भगवान सबसे बड़े परोपकारी हैं, जिन्होंने हमारे कल्याण के लिये प्रकृति का निर्माण किया। प्रकृति का प्रत्येक अंश परोपकार की शिक्षा देता प्रतीत होता है। सूर्य और चाँद हमें प्रकाश देते हैं। नदियाँ अपने जल से हमारी प्यास बुझाती हैं। गाय-भैंस हमारे लिये दूध देती हैं। मेघ धरती के लिये झूमकर बरसते हैं। पुष्प अपनी सुगन्ध से दूसरों का जीवन सुगन्धित करते हैं।

परोपकारी मनुष्य स्वभाव से ही उत्तम प्रवृत्ति के होते हैं। उन्हें दूसरों को सुख देकर आनंद मिलता है। परोपकार करने से यश बढ़ता है। दुआयें मिलती हैं। सम्मान प्राप्त होता है।

तुलसीदास जी ने कहा है-

‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहीं अधभाई।’

प्रकृति भी हमें परोपकार करने के हजारों उदाहरण देती है जैसे :-

परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः

परोपकाराय वहन्ति नद्यः ।

परोपकाराय दुहन्ति गावः

परोपकारार्थं इदं शरीरम् ॥

अपने लिए तो सभी जीते हैं किन्तु वह जीवन जो औरों की सहायता में बीते, सार्थक जीवन है.

उदाहरण के लिए किसान हमारे लिए अन्न उपजाते हैं, सैनिक प्राणों की बाजी लगा कर देश की रक्षा करते हैं। परोपकार किये बिना जीना निरर्थक है। स्वामी विवेकानद, स्वामी दयानन्द, रवींद्र नाथ टैगोर, गांधी जी जैसे महापुरुषों के जीवन परोपकार के जीते जागते उदाहरण हैं। ये महापुरुष आज भी वंदनीय हैं।

आज का इन्सान अपने दुःख से उतना दुखी नहीं है, जितना की दूसरे के सुख से।

मानव को सदा से उसके कर्मों के अनुरूप ही फल भी मिलता आया है। वैसे कहा भी गया है:-

 ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’।

 

वे रहीम नर धन्य हैं, पर-उपकारी अंग । 

बाँटन बारे के लगे, ज्यों मेहंदी के रंग ॥

जब कोई जरूरतमंद हमसे कुछ माँगे तो हमें अपनी सामर्थ्य के अनुरूप उसकी सहायता अवश्य करना चाहिए। सिक्खों के गुरू नानक देव जी ने व्यापार के लिए दी गई सम्पत्ति से साधु-सन्तों को भोजन कराके परोपकार का सच्चा सौदा किया।

एक बात और ये है कि परोपकार केवल आर्थिक रूप से नहीं होता; वह मीठे बोलकर,  किसी जरूरतमंद विद्यार्थी को पढ़ाकर, भटके को राह दिखाकर, समय पर ठीक सलाह देकर, भोजन, वस्त्र, आवास, धन का दान कर जरूरतमंदों का भला कर के भी किया सकता है।

पशु-पक्षी भी अपने ऊपर किए गए उपकार के प्रति कृतज्ञ होते हैं, फिर मनुष्य तो विवेकशील प्राणी है। उसे तो पशुओं से दो कदम आगे बढ़कर परोपकारी होना चाहिए ।

परोपकार अनेकानेक रूप से कर आत्मिक आनन्द प्राप्त किया जा सकता है। जैसे-प्यासे को पानी पिलाना, बीमार या घायल व्यक्ति को अस्पताल ले जाना, वृद्धों को बस में सीट देना, अन्धों को सड़क पार करवाना, गोशाला बनवाना, चिकित्सालयों में अनुदान देना, प्याऊ लगवाना, छायादार वृक्ष लगवाना, शिक्षण केन्द्र और धर्मशाला बनवाना परोपकार के ही रूप हैं ।

आज का मानव दिन प्रति दिन स्वार्थी और लालची होता जा रहा है। दूसरों के दु:ख से प्रसन्न और दूसरों के सुख से दु:खी होता है। मानव जीवन बड़े पुण्यों से मिलता है, उसे परोपकार जैसे कार्यों में लगाकर ही हम सच्ची शान्ति प्राप्त कर सकते हैं। यही सच्चा सुख और आनन्द है। ऐसे में हर मानव का कर्त्तव्य है कि वह भी दूसरों के काम आए।

उपरोक्त तथ्यों से अवगत कराने का मात्र यही उद्देश्य है कि यदि हमें ईश्वर ने सामर्थ्य प्रदान की है, हमें माध्यम बनाया है तो पीड़ित मानवता की सेवा करने हेतु हमें कुछ न कुछ करना ही चाहिए। सच यह भी है कि ऐसी अनेक संस्थाएँ यत्र-तत्र-सर्वत्र देखी जा सकती हैं जो निरंतर लोक कल्याण में जुटी हैं। मेरी दृष्टि से इससे अच्छे कोई दूसरे विकल्प हो भी नहीं सकते और मानवता का भी यही धर्म है।

किसलय जग में श्रेष्ठ है, मानवता का धर्म।

अहम त्याग कर जानिये, इसका व्यापक मर्म।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares