हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं – 8 – बिनसर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -8 – बिनसर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -8 – बिनसर ☆ 

बिनसर एक छोटा सा गाँव है और यहीँ क्लब महिंद्रा के वैली रिसार्ट में हम तीन दिन रुके और प्रत्येक दिन सुबह सबेरे पहाड़ी क्षेत्र में सैर का आनन्द लिया । ऐसी ही सुबह की सैर करते समय दो पांडेय बंधु मिल गए। मेहुल पांचवीं में पढ़ते हैं तो उनके चचेरे भाई वैभव पांडे जवाहर नवोदय विद्यालय की सातवीं कक्षा में पढ़ते हैं। मेहुल वैज्ञानिक बनने का इच्छुक है और वैभव बड़ा होकर गणित का शिक्षक बनने का सपना संजोए हुए है। वैभव कहता है सफल जीवन के लिए गणित में प्रवीणता जरुरी है, वैज्ञानिक भी वही बन सकता है जिसकी गणित अच्छी हो। मुझे उसकी बातें अच्छी लगी और थोड़ी आत्मग्लानि भी हुई, कारण मुझे तो गणित से शुरू से, बचपन से ही डर लगता था। गणित की कमजोरी ने मुझे जीवन में मनोवांछित सफलता से दूर रखा और दुर्भाग्य देखिए मुझे रसायनशास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन भी भौतिक रसायन में करना पड़ा जिसे गणित ज्ञान के बिना समझना मुश्किल है फिर नौकरी भी बैंक में की जहां गणित का गुणा-भाग बहुत जरुरी है।  मैंने भी अपने अनुभव के आधार पर उसकी बात का समर्थन किया। पर्यावरण के विषय में दोनों बच्चों से चर्चा हुई, पर जितना स्कूल की किताबों में उन्होंने पढ़ा वे उसे स्पष्ट तौर से बता तो न सके लेकिन मोटा मोटी-मोटी जानकारी उन्हें थी। शायद गांव के बच्चे ऐसे ही होते हैं, उनमें संवाद क्षमता का अभाव होता है। मैंने अपना थोड़ा सा ज्ञान उन्हें दिया। मैंने बताया कि कैसे हिरण आदि जंगली जानवर पर्यावरण की रक्षा करते हैं। उनके द्वारा खाई गई घांस के बीज दूर दूर तक फैलते हैं और  दौड़ने से खुर पत्थर को मुलायम कर देता है इससे जमीन की पानी सोखने की क्षमता बढ़ती है। बच्चों ने मुझे बिनसर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी देखने की सलाह दी और अनेक जंगली जानवरों, बार्किंग डियर, जंगली बकरी आदि के बारे में बताया। उन्होंने बताया की देवदार का पेड़ काफी उपयोगी है। लकड़ी जलाने के काम आती है और फर्नीचर भी बनता है। बच्चों से मैंने सुंदर लाल बहुगुणा के बारे में पूंछा । उन्हें  एकाएक याद तो नहीं आया पर जब मैंने पेड़ों की कटाई रोकने के योगदान की बात छेड़ी तो मेहुल बोल पड़ा हां चिपको आन्दोलन के बारे में उसने सुना है।

बच्चों को गांधी जी के बारे में भी मालूम है।  गांधी जी के नाम से लेकर उनके माता पिता कानाम, जन्म तिथि, जन्म स्थान, भारत की स्वतंत्रता में उनका योगदान आदि सब वैभव ने एक सांस में सुना दिया। अब मेहुल की बारी थी, उसने गांधी जी की हत्या की कहानी सुनाई कि 30 जनवरी को उन्हें तीन गोलियां मारी गई थी। मैंने पूंछा गांधी जी के बारे में इतना कुछ कैसे जानते हो, वे बोले हम तो गांधीजी के बारे में पुस्तकों में तो पढ़ते ही हैं फिर हमारे   परदादा स्व.श्री हर प्रसाद पाण्डेय (1907-1978 ) स्वतंत्रता सेनानी थे और अल्मोड़ा जेल में भी बंद रहे। हालांकि बच्चों ने उन्हें गांधी जी के साथ जेल में बंद होना बताया पर शायद वे नेहरू जी के साथ बंद रहे। उनकी मूर्ति भी गांव में लगाई गई है। पर मूर्त्ति में लगा उनका नाम पट्ट  छोटा है और उद्घाटनकर्ताओं की पट्टिका बहुत लंबी चौड़ी है।

दोनों बच्चों से मिलकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। वे सवर्ण समुदाय के हैं और तरक्की करना चाहते हैं। उनकी यह सोच मुझे सबसे अच्छी  लगी, अद्भुत व अद्वतीय लगी। ऐसी सोच का मुझे मध्य प्रदेश के सवर्ण छात्रों में अभाव दिखा है और उन्हें भी शनै शनै धार्मिक कट्टरवाद की ओर ढकेला जा रहा है। वैभव को जवाहर नवोदय विद्यालय में , प्रतियोगिता से प्रवेश मिला था, पूरे ब्लाक से उसका अकेला चयन हुआ। दोनों के पिता साधारण कर्मचारी हैं और उन्होंने अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य का जो सपना संजोया है उसे पूरा करने में अपनी ओर से कोताही नहीं बरती है।अब सरकार की जिम्मेदारी है कि उनके सपने ध्वस्त न होने दें। अगर वैभव सरीखे बच्चे आगे बढ़ेंगे तो देश का भविष्य संवरेगा और यह बच्चे आगे बढ़ें, खूब पढ़ें , तरक्की करें इसकी जिम्मेदारी समाज की है, हम सबकी भी है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 38 ☆ रुखसत हो गयी जिंदगी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रुखसत हो गयी जिंदगी। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 38 ☆

☆ रुखसत हो गयी जिंदगी 

 

रुखसत हो गयी जिंदगी बहार के इंतज़ार में,

मैं खुद ही खुद का मेहमान हो गया जिंदगी में ||

 

कैसे खिदमत करूं खुद की कुछ समझ नहीं आता,

जवाब देते नहीं बना,कैसे आना हुआ जब पूछ लिया जिंदगी ने ||

 

जवानी से तो बचपन अच्छा था हंसी-खुशी से बीता था,

हर कोई मुझसे खुश था खुशियों से झोलियाँ भरी थी जिंदगी में ||

 

होश संभाला तब असल जिंदगी से मुलाकात हुई,

हंसी-खुशी गायब थी रौनक सौ-कोस दूर थी असल जिंदगी में ||

 

जिन लोगों के चेहरे मुझे देख खिल उठते थे,

खुद के गुनाहों का कुसूरवार भी मुझे ही ठहराने लगे जिंदगी में ||

 

दुनिया में हर तरफ झूठ कपट का है बोलबाला,

बनावटी हंसी-मुस्कान और दिखावे का अपनापन भरा है जिंदगी में ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 90 – ☆ कमळखुणा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 90 ☆

 ☆ कमळखुणा  ☆ 

आठवणी आता पुसट होत  चालल्यात सखी,

गढुळ पाण्यातल्या प्रतिबिंबासारख्या !

त्याच पाण्यात फुलल्या होत्या कधी,

शुभ्र कुमुदिनी,

आकांक्षेचं नीळं कमळ,

याच पाण्यात पाहिलं होतं ना आपण?

एक डोळा बंद करून,

कॅलिडोस्कोपमध्ये दिसणारी

हसरी, नाचरी, रंगीबेरंगी

असंख्य काचकमळं

फेर धरून नाचत रहायची!

 

रविवारची साद….

चर्चच्या घंटेचा नाद

एक भावणारा निनाद,

जाईच्या मांडवाखाली

पसरलेल्या वाळूत

काच लपविण्याचा खेळ

“काचापाणी”

तेव्हा ठाऊक तरी होतं का ?

भविष्यात पायाखाली

काचाच काचा अन् डोळाभर

पाणीच पाणी !

आठवणी आता पुसट होत चालल्या तरी,

कमळखुणा खुपतात ग काळजापाशी!

© प्रभा सोनवणे

(अनिकेत काव्यसंग्रह १९९७)

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 75 ☆ लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 75 ☆

☆ लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है ☆

नाशाद है दिल बस, हारा नहीं है

ज़िंदगी की शय से, मारा नहीं है

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

ज़िंदगी की शाम में और भी फ़साने हैं

वो भी एक ज़माना था, और भी ज़माने हैं

इंतज़ार नहीं तो क्या, कुछ तो लिखा होगा

लिखाई जानने के हम कितने ही दीवाने हैं

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

महफ़िल ये दोस्तों की, लहर लहर बहती है

इतराती ये शान से, कहानी कोई कहती है

भूल ही जाओ ग़म सब, ख़ुशी में अब खोना है

मुस्कान सी जाने क्यूँ आरिज़ पर अब रहती है

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

ज़िंदगी ये बस लम्हे की चुटकी भर के हैं पल

जुस्तजू तुम बिखेर दो खिल उठें कई कमल

धुंआ धुंआ सा अब नहीं हमें यूँ बिखेरना है

लम्हे ये नदिया से बहने लगे हैं कल कल

 

खोल दो ये किताब, लफ्ज़ लफ्ज़ सुनना है

इस किताब का हमें, सुन्दर अंत बुनना है

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 82 – लघुकथा – क्षमादान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  भावप्रवण एवं स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा  “क्षमादान ।  बरसों बाद गलती सुधार कर बेशक क्षमादान दिया जा सकता है किन्तु, वह गुजरा वक्त वापिस नहीं किया जा सकता है। फिर किसने किसे क्षमादान दिया यह भी विचारणीय है। इस  भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 82 ☆

? लघुकथा – क्षमादान ?

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सप्ताह मनाया जा रहा था। जगह-जगह आयोजन हो रहे थे। इसी के तहत गाँव के एक स्कूल में भाषण और महिला दिवस सम्मान समारोह रखा गया था। प्रभारी से लेकर सभी कर्मचारीगण, महिलाएँ बहुत ही उत्सुक थी।

आज के कार्यक्रम में बहुत ही गुणी और सरल सहज समाज सेविका वसुंधरा आ रही थी। उनके लिए सभी के मुँह से सदैव तारीफ ही निकलती थी। करीब 10- 12 साल से वह कहाँ से आई और कौन है इस बात को कोई नहीं जानता था।

परंतु वह सभी के दुख सुख में हमेशा भागीदारी करती थी। ‘वसुंधरा’ जैसा उनका नाम था ठीक वैसा ही उनका काम। सभी को कुछ ना कुछ देकर संतुष्ट करती। महिलाओं का विशेष ध्यान रखती थी। कठिन परिस्थितियों से जूझती- निकलती महिलाओं को हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देती।

उन्हें कहाँ से पैसा प्राप्त होता है? कोई कहता “सरकारी सहायता मिलती होगी” कोई कहता “राम जाने क्या है मामला”। खैर जितनी मुहँ उतनी बातें। ठीक समय पर वह मंच पर उपस्थित हुई। तालियों और फूल मालाओं से उनका स्वागत किया गया। सभी बैठकर उनकी बातें सुन रहे थे।

स्कूल प्रभारी ने कार्यक्रम के समाप्ति पर वसुंधरा जी को आग्रह किया कि “आज हम आपको उपहार देना चाहते हैं। आशा है आप को यह उपहार  पसंद आएगा।”  वसुंधरा ने “ठीक है” कहकर सोफे पर बैठे इंतजार करने लगी।

उन्होंने देखा हाथ में फूलों का सुंदर गुलदस्ता लिए जो चल कर आ रहा है वह उसका अपना पतिदेव है। जिन्होंने बरसों पहले उन्हें त्याग दिया था। माईक पर मानसिंह ने कहा “मैं हमेशा वसुंधरा को कमजोर समझता था। अपने ओहदे और काम को प्राथमिकता देते हमेशा प्रताड़ित करता रहा। मैं ही वह बदनसीब पति हूं जिसने वसुंधरा को छोटी सी गलती पर घर से ‘निकल’ कह दिया था, कि तुम कुछ भी नहीं कर सकती हो। परंतु मैं गलत था।”

“वसुंधरा तो क्या सृष्टि में कोई भी महिला अपनी लज्जा, दया, करुणा, क्षमा की भावना लिए चुप रहती है। मौन रहकर सब कुछ कहती है परंतु मौका मिलने पर वह कुछ भी कर सकती हैं। इतिहास साक्षी है कि वह अपना अस्तित्व और गर्व स्वयं बना सकती है। आज मैं सभी के समक्ष अपनी भूल स्वीकार कर इन्हें फिर से अपनाना चाहता हूं। तुम सभी को कुछ न कुछ देते आई हो, आज मुझे क्षमादान दे दो।”

वसुंधरा आवाक सभी को देख रही थी। एक कोने पर नजर गई वसुंधरा के सास-ससुर बाहें फैलाएं अपनी बहू का इंतजार कर रहे थे। तालियों के बीच निकलती वसुंधरा आज बसंत सी खिल उठी।।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 89 ☆ देहचा सागर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 89 ☆

☆ देहचा सागर ☆

नको उगाळूस दुःख

नाही चंदन ते बाई

दुःख माती मोल त्याला

गंध सुटणार नाही

 

तुझ्या कष्टाच्या घामाचे

नाही कुणालाच काही

पदराला ते कळले

टीप कागद तो होई

 

पापण्यांच्या पात्यावर

दव करतात दाटी

हलकासा हुंदका ही

फुटू देत नाही ओठी

 

तुझ्या देहचा सागर

सारे सामावून घेई

नाही कुणाला दिसलं

किती दुःख तुझ्या देही

 

संसाराला टाचताना

बघ टोचली ना सुई

कर हाताचा विचार

नको करू अशी घाई

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#42 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #41 – दोहे  ✍

विकल रहूं या मैं विवश, कौन करे परवाह ।

सब सुनते हैं शोर को, दब जाती है आह।।

 

सोच रहा हूं आज मैं, करता हूं अनुमान ।

अधिक अपेक्षा ही करें, सपने लहूलुहान।।

 

शब्द ब्रह्म आराधना, प्राणों का संगीत ।

भाव प्रवाहित जो सरित, उर्मि उर्मि है गीत ।।

 

कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार।

क्रोध जताया आपने, हम समझे हैं प्यार ।।

 

कितनी दृढ़ता में रखूं , हो जाता कमजोर।

मुश्किल लगता खींच कर, रखना मन की डोर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 19 ☆ व्यंग्य ☆ जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  विचारणीय व्यंग्य  “जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 19 ☆

☆ व्यंग्य – जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा ☆

यह जम्बूद्वीपे भारतखंडे आर्यावर्ते देशांतर्गते कल्याणकारी राज्य के ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ वाली व्यवस्था में बदल जाने की वृहद कथा का अंश है. वैसे तो जंबूद्वीप हजारों वर्ष पुराना राष्ट्र हुआ करता था, परंतु ताज़ा चेतना ईसा के उन्नीस सौ पचास वर्ष बाद आई थी. तब से चार दशक तक व्यवस्था अर्थनीति की बीचवाली राह पर चलती रही, न ज्यादा दांये न ज्यादा बांये. फिर राष्ट्र दांयी ओर मोड़ दिया गया, लगे हाथों प्रजाजन को हिन्दी में समझा दिया गया कि जन-उपयोगी सेवाएँ व्यापार का हिस्सा है और व्यापार करना सरकार का काम नहीं है. प्रजाजनों को अब आत्मनिर्भर हो जाना चाहिये, आगे से उन्हें आधारभूत सुविधाओं के लिए भी शासन के भरोसे नहीं रहना चाहिये.

इसका असर हुआ. बिजली पानी जैसी जरूरतों के लिये भी प्रजाजन शासक वर्ग पर निर्भर नहीं रहे. वे अपने लिये बोरवेल खुदवा लेते, वाटर प्यूरिफायर लगवा लेते, शासन के लिये परेशानी खड़ी नहीं करते थे. बिजली के लिये उन्होने इनवर्टर खरीद रखे थे, बहुतेरों ने डीजल जेनसेट भी लगवा लिये थे. निर्धन प्रजा पानी के टैंकर पर टूट पड़ती, ग्रामीण प्रजा चार किलोमीटर दूर से भर लाती. ढिबरी जलाकर रह लेती मगर शासन के इस निर्णय का सहर्ष अनुपालन करती कि एक सुखी और सम्पन्न राष्ट्र की तमाम जन-सुविधायें निजी हाथों में होनी चाहिये. इसकी कीमतें निजी बाज़ार तय करेगा, शासक इसके लिये दायी नहीं होगा. गाय एक पूजनीय चौपाया हुआ करती थी, प्रजाजन उसी की मानिंद सिर हिला देते. उनके रंभाने को शासन अपनी नीतियों का समर्थन मान लेता.

जंबूद्वीप की सड़कें ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ का परफेक्ट एक्जाम्पल थीं. बलशाली लोग महंगी तेज गति की कार से एक नगर से दूसरे नगर जाते. उससे कम हैसियत के लोग आरामदेह वातानुकूलित कोचों से यात्रा करते. शेष हारून मियां की टंडिरा हो चुकी बसों से आते-जाते. ग्रामीण प्रजा भेड़बकरियों सी लदकर टाटा-मैजिक या टेम्पो में भर कर जाती. राज्य परिवहन निगम की व्यवस्था समाप्त कर गई दी थी. यह कथा कहे जाने तक रेल भी निजी हाथों में देने की तैयारी कर ली जा रही थी. किराये से ज्यादा का टोल चुकाना पड़ता. प्रजाजनों को समझा दिया गया था देखो भैया सड़क बनाना शासन का काम नहीं है, पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप मॉडल में बनेगी तो लागत का आठ-दस गुना टोल तो चुकाना पड़ेगा. इस कालखंड के शासकों का मानना था कि रेल-मोटर चलाना राजकाज के काम का हिस्सा नहीं है. जनसंचार के सारे माध्यम भी प्रजाजनों को यही यकीन दिलाते. तो क्या करती गायें, उन्होने इसमें भी सिर हिलाकर सहमति दे दी.

सरकारी स्कूलों में न छत होती, न पंखे, न ब्लैक बोर्ड न चाक, और तो और शिक्षक भी पक्के नहीं होते. अतिथि शिक्षक होते जो अतिथियों की तरह आते. आते आते नहीं भी आते. तो क्या करते प्रजाजन? वे शिक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गये,  श्रेष्ठीजन लक़दक़ पाँच सितारा स्कूलों में एजुकेशन दिलवाते, ट्यूशन लगवाते, कोटा भिजवाते, टैबलेट पर बायजूस खरीद लेते. शेष प्रजा बच्चों को मोहल्ले के सेंट भंवरलाल कान्वेंट स्कूल में भर्ती कर देती. जो वहाँ तक भी नहीं जा पाते वे चाय की दुकान पर गिलास धोने की नौकरी कर लेते.

प्रजाजन को इलाज के लिये बीमा करवाना पड़ता. वे शासकीय अस्पताल से विमुख हो चुके थे. कारपोरेट अस्पताल में केशलेस कार्ड लेकर घुसते और बीमित राशि के शून्य हो जाने तक भर्ती रहते. जो अफोर्ड नहीं कर पाते वे नीमहकीमों से या बंगाली बाबाओं से शर्तिया इलाज़ कराते. नीति नियंताओं ने स्वयं को हेल्थ सेक्टर के दायित्व से भी मुक्त कर लिया था.

जम्बूद्वीपवासी पत्र भेजने के लिये डाकघर जैसी चीज को विस्मृत कर चुके थे. वे कोरियर सेवा का उपयोग करते जो महंगी होने के साथ साथ बहुत जवाबदेह भी नहीं होती. लाल डिब्बे शहर में ढूँढे से नहीं मिलते. हर कोरियर कंपनी का अपना रेट होता. सो आप जानों और कंपनी जाने. शासन आपकी चिट्ठी सही जगह पर मामूली कीमत में क्यों पहुंचाये ?

शासन ने जन सुरक्षा क्षेत्र में भी अपने को सिकोड़ लिया था और प्रजाजन को आत्मनिर्भर होने का संदेश दे दिया था जिसका अनुपालन करते हुवे जिम्मेदार नागरिक प्राईवेट सिक्यूरिटी गार्ड रख लेते. पुलिस होती थी मगर जिनका डर दूर करने के लिये उसे बनाया गया वे ही उससे सबसे ज्यादा डरते. सामान्य श्रेणी के नागरिकों को ए स्तर की सुरक्षा नहीं मिल पाती, रसूखदार लोग ज़ेड केटेगरी की सुरक्षा ले उड़ते.

पूर्व चक्रवर्ती सम्राट अशोक के शासन पर जम्बूद्वीप के वर्तमान शासक जितना गर्व करते उसके कल्याणकारी मॉडल से उतनी ही दूरी बनाकर चलते. आवारा शब्द पूंजी के पहले जुड़ा हो तो उसे सम्मान के साथ बरता जाता था. आर्थिक समानता और सामाजिक समरसता बीते युग की अवधारणा हो चली थी. जिस नागरिक की जितनी हैसियत रही वो उतना आत्मनिर्भर होता रहा. जो आत्मनिर्भर हो पाने में असमर्थ रहता वो आत्महत्या  कर लेता. शासक को दांयी ओर चलना हो तो तो पीठ पर से बिजली, पानी, लोक परिवहन, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसे बैगेजेस झटककर फेंकने ही पड़ते. कथासार ये कि जम्बूद्वीपे भारतखंडे आर्यावर्ते देशांतर्गते राजाधिराज अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों उपक्रमों को निजी क्षेत्र को सौंप कर कल्याणकारी राज्य होने के दायित्व से मुक्त होने की दिशा में द्रुत गति से चलने लगे. निर्बल निर्धन असहाय विवश नागरिक पीछे छूटते रहे, उनकी शेषकथा फिर कभी.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 41 – फूल ये अपराजिता के… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “फूल ये अपराजिता के … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 41 ।। अभिनव गीत ।।

☆ फूल ये अपराजिता के…  ☆

फूल ये अपराजिता के

आ गिरें ज्यों अश्रु

टूटी खाट पर,बूढ़े पिता के

 

बहुत गहरे और

नीले प्रश्न गोया

शाम के कुहरिल

प्रहर मैं कृष्ण हों, या

 

अडिग निष्ठावान

जैसे प्रेम में हों

दिल्ली -पति

संयोगिता के

 

समय की ताजा

इन्हीं पगडंडियों के

आढ़ती बैठे हुये

मंडियों के

 

मोल-भावों में पड़ा

सौन्दर्य सोचे

हो गये सामान हम

प्रतियोगिता के

 

नील से उतरी

लगी सम्भाविता के

आँख की कोरों

हृदय से गर्विता के

 

हाथ में सूखे हुये

रख कर निवाले,

लगा दिन भर की

खुशी, हों वंचिता के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

02-12-2-20

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 87 ☆ व्यंग्य – टूटी टांग और चुनाव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है आपका एक समसामयिक विषय पर आधारित व्यंग्य टूटी टांग और चुनाव। )  

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 87

☆ व्यंग्य – टूटी टांग और चुनाव ☆

इधर टांग क्या टूटी, सियासत गरमा गई। चुनावी चालें पलटी मार गईं। इतने दिन की मेहनत धरी रह गई। टांग ने सहानुभूति लहर पैदा कर परिवर्तन यात्राओं का बंटाधार कर दिया। चुनाव के समय एक हजार पुराने शिव मंदिर के नंदी महाराज नाराज हो गए। नाराजगी स्वाभाविक है, जय श्रीराम को जय सियाराम क्यों बोला। जय श्रीराम और जय सियाराम के नारे का झगड़ा है। चुनाव के समय नारों का बड़ा महत्व है, चुनाव के समय जितना घातक नारा लगेगा,वोटर पर उतना ज्यादा असर करेगा। राम का नाम चुनाव में बड़े काम का है, सामने वाले का काम तमाम कर ‘राम राम सत्य’ कर देता है। वैसे तो चुनाव के समय हर चीज का बड़ा महत्व है, बिकने वाले नेता तैयार बैठे रहते हैं, धजी का सांप बताने वाले खूब पैदा हो जाते हैं। पुराने देवी देवता जाग जाते हैं,परचा दाखिल करने के पहले पुराने देवी देवताओं की खूब पूछ परख होने लगती है, हनुमान जी को बड़ा माला पहनने का सुख मिल जाता है, फोटो-ओटो भी खिंच जाती है। चुनाव के समय दाढ़ी वालों की बाढ़ आ जाती है, कुछ लोग चुनाव में व्यस्तता दिखाने दाढ़ी बढ़ा लेते हैं, कुछ दाढ़ी कटा लेते हैं। चुनाव के समय पुलिस वालों के डण्डे ज्यादा तेल पीने लगते हैं, भीड़ बढ़ाने के हथकंडे अपनाए जाते हैं,बस और ट्रेन से लोगों को लोभ देकर लाया जाता है। शक्ति परीक्षण के लिए भीड़ सबसे अच्छा पेरामीटर होता है,पर बीच में अचानक ये टांग दिक्कत दे देगी, किसी ने भी सोचा न था।

चुनाव के समय सभी बड़े चैनल वाले चिल्लाने और मुंह चलाने वाली एंकरों को ज्यादा पसंद करते हैं। चुनाव के समय कुछ सेलीब्रिटी मुंह उठाए बैठे रहते हैं कि पार्टी में अचानक घुसने मिल जाएगा और मुफ्त में गृहमंत्रालय उन्हें वाई प्लस,जेड प्लस केटेगरी की सुरक्षा मुहैया करा देगा। टांग टूटने से व्हील चेयर चर्चा में आ जाती है,चेयर ढकेलने वाले और गोदी उठाने वालों के रुतबे बढ़ जाते हैं। हर नेता घायल होने के सपने देखने लगता है।आरोप-प्रत्यारोप, विरोध प्रदर्शन और टकराव के ठेके देने का काम पीक पर रहता है। समर्थकों को जगाने के लिए जानबूझकर शान्ति बनाए रखने की अपील जारी कर दी जाती है जिससे तैयारी अच्छी हो जाती है। शान्ति रखने की बयानबाजी से शान्ति और हिंसा के बीच कबड्डी मैदान बनाने का संकेत हो जाता है। माहौल में टूटी टांग की कीमत बढ़ जाती है,वोट प्रतिशत बढ़ने की खुशफहमी का प्लास्टर मीडिया की टीआरपी बढ़ाने के काम आता है, चैनलों में विज्ञापनों की बौछार लग जाती है। टूटी टांग और चुनाव की चर्चा से बाजार गुलजार हो जाता है, चर्चा में टूटी टांग और जनतंत्र का भावी रूप प्रगट होने लगता है, खबर पूरी दुनिया में फैल जाती है, आह और वाह के बीच नाज और नखरे वाले बयान आग में घी डालने का काम करने लगते हैं। अचानक काले कपड़े की बिक्री बढ़ जाती है, काले कपड़े से मुंह ढककर काले झंडे लिए सड़कें भर जातीं हैं। कुल मिलाकर चुनाव के समय सब कुछ जायज है, कोई भरोसा नहीं कौन सा नारा या शब्द चुनाव में कितना मार कर जाए , पिछले बार के चुनाव में ‘चौकीदार’ शब्द विपक्ष को दिक्कत देकर  खूब वोट बटोर लाया था, इस बार टूटी टांग का जलवा देखने लायक रहेगा क्योंकि चुनाव के समय टूटी टांग और व्हील चेयर जनता के मन में ‘ममता’ पैदा कर सकते हैं।

चुनाव के समय टांग टूटने से चुनाव लड़ने वाले का अलग व्यक्तित्व हो जाता है, लोगों का ध्यान बंट जाता है, सब टूटी टांग और प्लास्टर देखकर द्रवित हो जाते हैं, ऐसे समय टूटी टांग राष्ट्रीय महत्व की चीज हो जाती है, टूटी टांग चुनाव प्रचार में राष्ट्रीय मुद्दा बनकर उछल  पड़ती है। मीडिया चैनलों और सोशल मीडिया में टूटी टांग का कब्जा हो जाता है। टूटी टांग चुनाव के समय असली देशभक्ति जगाने में काम आती है, दर्द सहते हुए जनता के दुख दर्द की चिंता करने से चुनाव और वोटर के प्रति समर्पण दिखता है, बुद्धजीवी और शरीफ लोग इसे ‘परफेक्ट कमिटमेंट’ मानते हैं। ऐन वक्त कुछ लोग टांग टूटने को मजाक बना लेते हैं, कोई कहता है टांग नहीं टूटी, लिगामेंट टूटे हैं, कुछ लोग कहने लगते हैं कि यदि लिगामेंट टूटे हैं और दर्द भी है प्लास्टर लगा है तो बिस्तर में आराम क्यूं नहीं करते, व्हील चेयर में चुनाव प्रचार की धमकी क्यों देते हैं।

व्हील चेयर पर चुनाव प्रचार की धमकी से एक पार्टी घबरा गई है, उसने आरोप लगा दिया है कि टांग के बहाने फायदा उठाने की राजनीति की जा रही है,  राजनैतिक उथल-पुथल में टूटी टांग का अलग इतिहास रहा है, एक बार लालू की राजनीति सफाचट्ट होने के बाद लालू जी की अपनी टांग टूट गई थी, प्लास्टर लगा सिम्पेथी बटोरने की कोशिश की थी,पर शरद और नितीश ने बिल्कुल लिफ्ट नहीं दी थी तो लालू ने नयी पार्टी बना ली थी, चुनाव प्रचार में घोषणाएं होती हैं, भविष्यवाणी होती है, टांग टूटने के दो दिन पहले यदि किसी ने अपने भाषण में चोट लगने की भविष्यवाणी कर दी थी तो उनको अपनी टांग संभाल के रखनी थी, जो अपनी टांग नहीं संभाल सकता वो देश और प्रदेश की जनता की टांग की रखवाली कैसे कर सकता है। चुनाव के समय टांग पर राजनीति करना ठीक नहीं है, जनता परिवर्तन चाहती है, टूटी टांग विकास के रास्ते में बाधा उत्पन्न कर सकती है। बड़े लोगों की टांग यदि टूट भी जाती है तो अपनी टूटी टांग का प्रचार नहीं करते, परसाई जी अपनी टूटी टांग छुपा कर रखते थे, पर चुनाव के समय उनकी टूटी टांग पर पार्टी वाले राजनीति करने पर उतारू हो गए थे, चुनाव के समय उनकी टूटी टांग की बोली लगाने में नेता लोग चूके नहीं थे। चुनाव के समय एक दो पार्टी वाले उनकी टूटी टांग का जायजा लेने पहुंच जाते थे। एक पार्टी के लोगों ने प्रार्थना करते हुए उनसे कहा था कि ये एक ऐतिहासिक चुनाव है, और आपकी टूटी टांग इस चुनाव में बड़ा बदलाव ला सकती है, तानाशाही और जनतंत्र में संघर्ष है, सरकार ने नागरिक अधिकार छीन लिए हैं, वाणी की स्वतंत्रता छीन ली है, हजारों नागरिकों को बेकसूर जेल में डाल दिया गया है, न्यायपालिका के अधिकार नष्ट किए जा रहे हैं, हमारी पार्टी इस तानाशाही को ख़त्म करके जनतंत्र की पुनः स्थापना करने के लिए चुनाव लड़ रही है, इस पवित्र कार्य में आपकी टूटी टांग हमारी मदद कर सकती है, परसाई जी ने स्वार्थी, मौकापरस्त नेताओं को अपनी टांग नहीं दी, साफ मना कर दिया था। इस बार जिनकी टांग टूटी है उनकी टांग मीडिया में छा गई है, सहानुभूति की लहर दिनों दिन आंधी में तब्दील हो रही है ऐसे समय यदि उत्साह में टूटी टांग लंगड़ाते हुए मंच में चलती दिख गई तो सामने वाली पार्टी का बंटाधार होना तय है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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