(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित भावप्रवण “दोहे“। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “सत्तर से एक कम!”)
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #57 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार☆
किसी दूर गाँव में एक पुजारी रहते थे जो हमेशा धर्म कर्म के कामों में लगे रहते थे। एक दिन किसी काम से गांव के बाहर जा रहे थे तो अचानक उनकी नज़र एक बड़े से पत्थर पे पड़ी। तभी उनके मन में विचार आया कितना विशाल पत्थर है क्यूँ ना इस पत्थर से भगवान की एक मूर्ति बनाई जाये। यही सोचकर पुजारी ने वो पत्थर उठवा लिया।
गाँव लौटते हुए पुजारी ने वो पत्थर के टुकड़ा एक मूर्तिकार को दे दिया जो बहुत ही प्रसिद्ध मूर्तिकार था। अब मूर्तिकार जल्दी ही अपने औजार लेकर पत्थर को काटने में जुट गया। जैसे ही मूर्तिकार ने पहला वार किया उसे एहसास हुआ की पत्थर बहुत ही कठोर है। मूर्तिकार ने एक बार फिर से पूरे जोश के साथ प्रहार किया लेकिन पत्थर टस से मस भी नहीं हुआ। अब तो मूर्तिकार का पसीना छूट गया वो लगातार हथौड़े से प्रहार करता रहा लेकिन पत्थर नहीं टूटा । उसने लगातार 99 प्रयास किये लेकिन पत्थर तोड़ने में नाकाम रहा।
अगले दिन जब पुजारी आये तो मूर्तिकार ने भगवान की मूर्ति बनाने से मना कर दिया और सारी बात बताई। पुजारी जी दुखी मन से पत्थर वापस उठाया और गाँव के ही एक छोटे मूर्तिकार को वो पत्थर मूर्ति बनाने के लिए दे दिया। अब मूर्तिकार ने अपने औजार उठाये और पत्थर काटने में जुट गया, जैसे ही उसने पहला हथोड़ा मारा पत्थर टूट गया क्यूंकि पत्थर पहले मूर्तिकार की चोटों से काफी कमजोर हो गया था। पुजारी यह देखकर बहुत खुश हुआ और देखते ही देखते मूर्तिकार ने भगवान शिव की बहुत सुन्दर मूर्ति बना डाली।
पुजारी जी मन ही मन पहले मूर्तिकार की दशा सोचकर मुस्कुराये कि उस मूर्तिकार ने 99 प्रहार किये और थक गया, काश उसने एक आखिरी प्रहार भी किया होता तो वो सफल हो गया होता।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख बदलाव बनाम स्वीकार्यता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 98 ☆
☆ बदलाव बनाम स्वीकार्यता ☆
‘जो बदला जा सके, उसे बदलिए; जो बदला न जा सके, उसे स्वीकार कीजिए; जो स्वीकारा न जा सके, उससे दूर हो जाइए। लेकिन ख़ुद को खुश रखिए’ ब्रह्माकुमारी शिवानी का यह सार्थक संदेश हमें जीवन जीने की कला सिखाता है; मानव को परिस्थितियों से समझौता करने का संदेश देता है कि उसे परिस्थितियों के अनुसार अपनी सोच को बदलना चाहिए, क्योंकि जिसे हम बदल सकते हैं; अपनी सूझबूझ से बदल देना चाहिए। परिवर्तन सृष्टि का नियम हैऔर समय का क्रम निरंतर चलता रहता है,कभी थमता नहीं है। इसलिए जिसे हम बदल नहीं सकते, उसे स्वीकारने में ही मानव का हित है। ऐसे संबंध जो जन्मजात होते हैं, उन संबंधियों व परिवारजनों से निबाह करना हमारी नियति बन जाती है। हमें चाहे-अनचाहे उन्हें स्वीकारना पड़ता है ।इसी प्रकार प्राकृतिक आपदाओं र भी हमारा वश नहीं है। हमें उनका पूर्ण मनोयोग से विश्लेषण करना चाहिए तथा उसके समाधान के निमित्त यथा-संभव प्रयास करने चाहिए। यदि हम उन्हें बदलने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं, तो उन्हें स्वीकारना श्रेयस्कर है। इन विषम परिस्थितियों में हमें चिन्ता नहीं चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि चिंतन-मनन हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है। चिन्ता को चिता सम कहा गया है, जो मानव को इहलोक से परलोक तक पहुंचाने में सक्षम है।
बदलने व स्वीकारने पर चर्चा करने के पश्चात् आवश्कता है अस्वीकार्यता पर चिन्तन करने की अर्थात् जिसे स्वीकारना संभव न हो, उससे दूर हो जाना बेहतर है। जो परिस्थितियां आपके नियंत्रण में नहीं है तथा जिनसे, आप निबाह नहीं सकते; उनसे दूरी बना लेना ही श्रेयस्कर है। मुझे भी बचपन में यही सीख दी गयी थी; जहां तनिक भी मनमुटाव की संभावना हो, अपना रास्ता बदलने में ही हित है अर्थात् जो आपको मनोनुकूल नहीं भासता, उसकी और मुड़कर कभी देखना नहीं चाहिए। यही है वह संदेश जिसने मेरे व्यक्तित्व निर्माण में प्रभावी भूमिका अदा की। इसी संदर्भ में मैं एक अन्य सीख का ज़िक्र करना चाहूंगी, जो मुझे अपनी माताश्री द्वारा मिली कि विपत्ति के समय पर इधर-उधर मत झांकें/ अपनी गाड़ी को ख़ुद हांकें’ में छिपा है गीता का कर्मशीलता का संदेश व जीवन-दर्शन–विपत्ति के समय स्वयं पर विश्वास रखें; दूसरों से सहायता की अपेक्षा मत रखें, क्योंकि अपेक्षा दु:खों की जनक है। जब हमें दूसरे पक्ष से सहयोग की प्राप्ति नहीं होती और मनोनुकूल अपेक्षित सहायता नहीं मिलती, तो हमारी जीवन नौका हमें दु:खों के अथाह सागर में हिचकोले खाने के लिए छोड़ जाती है। ऐसी स्थिति अत्यंत घातक बन जाती है। सो! ऐसे लोगों की कारस्तानियों को नजरांदाज़ करना ही बेहतर है। ये परिस्थितियां हमें निराशा के गर्त में भटकने के लिए छोड़ देती हैं और हम ऊहापोह की स्थिति में उचित निर्णय लेने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।
सो! जिन परिस्थितियों और मन:स्थितियों को बदलने में हम सक्षम हैं, उन्हें बदलने में हमें जी-जान से जुट जाना चाहिए; कोई कोर-कसर उठाकर नहीं रखनी चाहिए। हमें पराजय को कभी स्वीकारना नहीं चाहिए, निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए, क्योंकि ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ अर्थात् परिश्रम ही सफलता की कुंजी है। हमें अंतिम सांस तक उन अप्रत्याशित परिस्थितियों से जूझना चाहिए, क्योंकि जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है तथा निरंतर चलने का नाम ही ज़िंदगी है।
‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!’ जहां हमें ऊर्जस्वि करता है, वहीं हमारे अंतर्मन में अलौकिक तरंगें भी संचरित करता है। यह हमें इस तथ्य से अववगत कराता है कि इस संसार में सब संभव है और असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है। सो! इसे तुरंत बाहर निकाल फेंकना चाहिए। हम अदम्य साहस व अथक प्रयासों द्वारा अपना मनचाहा लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। यदि तमाम प्रयासों के बाद भी हम उन्हें बदलने में असमर्थ रहते हैं, तो उन्हें स्वीकार लेना चाहिए। व्यर्थ में अपनी शक्ति व ऊर्जा को नष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है। यह परिस्थितियां हमें अवसाद की स्थिति में लाकर छोड़ देती हैं, जिससे उबरने के लिए हमें वर्षों तक संघर्ष करना पड़ता है। हमें अपने जीवन से घृणा हो जाती है और जीने की तमन्ना शेष नहीं रहती। हमारे मनोमस्तिष्क में सदैव पराजय के विचार समय-असमय दस्तक ही नहीं देते; हमें पहुंचते कोंचते, कचोटते व आहत करते रहते हैं। इसलिए उन परिस्थितियों से समझौता करने व स्वीकारने में आपका मंगल है। उदाहरण बाढ़, भूचाल, सुनामी तथा असाध्य रोग आदि प्राकृतिक आपदाओं पर हमारा वश नहीं होता, तो उन्हें स्वीकारने में हमारा हित है। हमें तन-मन-धन से इनके समाधान तलाशने में जुट जाना चाहिए, पूर्ण प्रयास भी करने चाहिए, परंतु अंत में उनके सामने समर्पण करना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम विकल्प है। पर्वतों से टकराने व बीच भंवर में नौका ले जाने से हानि हमारी होगी। इससे किसी दूसरे को कोई फर्क़ पड़ने वाला नहीं है।
आजकल लोगों से किसी की उन्नति कहां बर्दाश्त होती है। इसलिए अक्सर लोग अपने दु:ख से कम, दूसरे के सुखों को देखकर अधिक दु:खी रहते हैं। उनका यह ईर्ष्या भाव उन्हें निकृष्टतम कार्य करने की ओर प्रवृत्त करता है। वे दूसरे को हानि पहुंचाने के लिए अपना घर जलाने को भी तत्पर रहते हैं। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य उन्हें अधिकतम हानि पहुंचाना होता है। इसलिए ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखने में जीवन की सार्थकता है। दूसरे शब्दों में स्वीकार्य नहीं है, उससे दूरी बनाए रखना ही हितकर है। यही है खुश रहने का मापदंड। इसलिए मानव को सदा खुश रहना चाहिए, क्योंकि प्रसन्न-चित्त मानव सबकी आंखों का तारा होता है, सबका प्रिय होता है। उसका साथ पाकर सब हर्षोल्लास अनुभव करते हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों से स्वयं को बचा कर रखना चाहिए; जानबूझकर आग में छलांग नहीं लगानी चाहिए।खुशी हमारे अंतर्मन में निहित रहती हैऔर हम उसे हम ज़र्रे-ज़र्रे में तलाश सकते हैं। हमारी मन:स्थिति ही हमारे भावों को आंदोलित व उद्वेलित करती है।हमारे भीतर नवीन भावनाओं को जागृत करती है, जिसके परिणाम-स्वरूप हम सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। वर्डस्वर्थ का यह कथन कि ‘सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में निवास करता है।’ इसलिए सौंदर्य के मापदंडों को निर्धारित करना असंभव है। वैसे ही खुशी भी प्रकृति की भांति पल-पल रंग बदलती है, क्योंकि जिस वस्तु या व्यक्ति को देखकर आपको प्रसन्नता प्राप्त होती है, चंद लम्हों बाद वह सुक़ून नहीं प्रदान करती, बल्कि आपके रोष का कारण बन जाती है। हमारी मन:स्थितियां परिस्थितियों व आसपास के वातावरण पर आधारित व काल-सापेक्ष होती हैं। बचपन, युवावस्था व वृद्धावस्था में इनके मापदंड बदल जाते हैं। सो! हमें विपरीत परिस्थितियों में भी कभी निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि सदैव प्रसन्न रहने से ज़िंदगी का सफ़र आसानी से कट जाता है। आइए! छोटी-छोटी खुशियां अपने दामन में समेट लें, ताकि जीवन उमंग व उल्लास से आप्लावित रह सके। मन-मयूर सदैव मद-मस्त रहे, क्योंकि खुश रहना हमारा दायित्व है, जिसका हमें बखूबी वहन करना चाहिए।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “बाल सखा”.)
☆ किसलय की कलम से # 50 ☆
☆ बाल सखा ☆
मिट्टी अर्थात वह पदार्थ जिसका साधारणतः मूल्यांकन कभी नहीं किया जाता, लेकिन इसके उपयोग से हम क्या-क्या नहीं बनाते। कुम्भकार जब मिट्टी गूँथकर उसे अपने हाथों में लेता है, तब तक सामने वाला समझ नहीं पाता कि यह कलाकार उसे कौन सा रूप देगा। उसका कौशल, उसका ज्ञान, उसका अनुभव और उसका विवेक उसे एक मूल्यवान वस्तु, खिलौना, मूर्ति, उपयोगी उपकरण में तब्दील कर देता है। शिशु भी एक गुँथी हुई मिट्टी जैसा जीता-जागता बुद्धि, विवेक, ज्ञान और अनुभव विहीन होता है। उसे एक श्रेष्ठ, विवेकशील और आदर्श बनाने के लिए दक्षता का सानिध्य बहुत जरूरी होता है।
जिस तरह कच्चे घड़े पर यथास्थान दबाव, थपकी और सहारे की जरूरत होती है ठीक उसी प्रकार एक शिशु के उत्तरोत्तर विकास हेतु भी इन सभी बातों की आवश्यकता होती है। धैर्य, शांति, स्नेह और उसके समकक्ष व्यवहार के साथ ही स्नेहिल वार्तालाप भी महत्त्वपूर्ण होता है। हमें समझना होता है कि एक बार की सीख या शिक्षा नन्हा शिशु स्मृत नहीं रख पाएगा। हमें उसको प्रायोगिक तौर तरीके से भले-बुरे का ज्ञान कराना होगा।
एक प्रौढ़ एवं शिशु के मध्य आयु का विशाल फासला होता है। आपकी सोच और अनुभव आपका पका-पकाया कहा जा सकता है, लेकिन शिशु के जीवन में, उसके कोरे मस्तिष्क में शिक्षा, संस्कार, संस्कृति एवं सामाजिक परंपराएँ स्थापित करने के लिए आपको अपने स्तर से नीचे उसके समकक्ष आना होगा और उसके जैसा बनना भी होगा। उसे सत्कर्मों हेतु प्रोत्साहित करना होगा, उसकी प्रशंसा करनी होगी। उसकी त्रुटियों, उसकी असफलताओं तथा उसकी जिद पर नियंत्रित व्यवहार करना होगा। जिस तरह नन्हे शिशु आपस में गलत-सही का भेद किए बिना रूठकर, हँसकर व रोकर भी बार-बार साथ में खेलने लगते हैं। इसी तरह आपको भी बार-बार उनकी बात सुनना होगी। बार-बार उनके एक ही प्रश्न का उत्तर देना होगा। बार-बार उनकी जिज्ञासा शांत करना होगी।
माता-पिता अथवा अभिभावक जब तक संतानों के बालसखा नहीं बनेंगे, अपेक्षानुरूप शिशु का विकास संभव हो ही नहीं सकता। शिशु हतोत्साहित, भयभीत या ढीठ किस्म का भी बन सकता है। अपनी उपेक्षा से अपनों के स्नेह को पहचान ही नहीं पाएगा। यही कारण है कि आयाओं द्वारा पोषित बच्चे अक्सर माँ-बाप के महत्त्व एवं स्नेह से काफी हद तक अनभिज्ञ रह जाते हैं।
आज के बदलते परिवेश में हम अपना जीवन जी लेते हैं और बच्चों को उनकी किस्मत पर छोड़ देते हैं, यह कहाँ तक और कितना उचित है? बच्चे भला समाज और किताबों से कितना और क्या सीख पाएँगे। जब तक अपनों के बीच स्नेह, समर्पण, त्याग, सद्भावना और आदर का पाठ नहीं पढ़ेंगे, सामाजिक जीवन में इनको व्यवहृत कैसे कर पाएँगे।
आज के क्षरित होते मानवीय मूल्यों के बीच रिश्तों की टूटन और मानसिक घुटन की अजीबोगरीब परिस्थितियों में जब हम अपनों को ही महत्त्व नहीं देते तो क्या हमारी संतानें भविष्य में आपको महत्त्व दे पाएँगी?
हमें स्वीकारना होगा कि हम अपनी संतानों के कभी सखा नहीं बन पा रहे हैं। हम अर्थ एवं स्वार्थ तक ही सीमित होते जा रहे हैं। हम संतानों में आदर्श संस्कार के बजाय उनको दिखावटी आधुनिकता व कुबेर के खजाने का महत्त्व ही बताने को श्रेयष्कर मानने लगे हैं। जब संतान आपके द्वारा दिशादर्शित मार्ग पर चल पड़ता है और पीछे मुड़कर आपको भी नहीं देखता, तब जाकर आपको याद आता है कि हमने ही तो अपनी संतान को यही सब सिखाया था। हम ही थे जिनके पास अपने बच्चों के लिए कभी वक्त नहीं रहा। हम ही थे जो कभी अपनी संतानों के बालसखा नहीं बन पाए, लेकिन जब चिड़िया हाथ से उड़ जाए तो आपके पास बचता ही क्या है। हम बचपन से बुढ़ापे तक अपने धार्मिक ग्रंथों, अपने बुजुर्गों व महापुरुषों के उद्धरण पढ़ने-सुनने के बावजूद इन पर अमल न करने और अपनी संतानों को इनसे दूर रखने का प्रतिफल ही तो भोग रहे हैं। निश्चित रूप से जिनके माँ-बाप अपनी संतानों के बालसखा बने थे और उन्होंने भी अपनी संतानों के बालसखा बनकर अपने बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण किया। उनकी बच्चे भी निश्चित रूप से अपने माँ-बाप के कृतज्ञ होंगे।
वक्त आदिकाल का रहा हो, वर्तमान का हो या भविष्य में आने वाला हो। मानव-मन, मानव-विवेक सदैव नीति-अनीति, सत्य-असत्य व प्रेम-घृणा में अंतर भलीभाँति समझता रहा है और समझेगा भी। इसीलिए समय या युगपरिवर्तन के बावजूद संतानों को आपके द्वारा दी गई सीख एवं आपके द्वारा प्रदत्त संस्कार कभी व्यर्थ नहीं होंगे यह हमें मानकर ही चलना चाहिए।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है वर्तमान परिस्थितयों में ह्रदय कठोर कर निर्णय लेने के लिए प्रेरित करती लघुकथा नॉट रिचेबल। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 71 ☆
☆ लघुकथा – नॉट रिचेबल ☆
पत्नी का देहांत हुए महीना भर ही हुआ था । घर में बडा अकेलापन महसूस कर रहे थे । बेटा – बहू , बच्चे अपना – अपना लैपटॉप लेकर कमरों में बंद हो जाते थे । घर खाने को दौड रहा था । पत्नी के जाते ही हाथ- पाँव जैसे कट से गए थे , कुछ सूझ ही नहीं रहा था । अब समझ में आ रहा है कि बेटे बहू की बातें भी वह अपने तक ही रखती थी । समय रहते कद्र नहीं समझी मैंने उसकी , गुमसुम बैठ सोच रहे थे । तभी बेटा आकर बोला – पापा ! एक बात करनी थी आपसे । असल में ऑनलाइन क्लास के लिए सबको अलग कमरा चाहिए । मम्मी रही नहीं तो अब —– वे चश्मा उतारकर उसे देखने लगे – तो ?
क्या है सुमन आपके साथ कम्फर्टेबिल फील नहीं करती ।
गैरेज के पास जो कमरा है आप उसमें रह लेंगे क्या ?
हाँ — उन्होंने गहरी साँस ली । अगले दिन वे फ्लाईट्स के चार टिकट ले आए । बहू से बोले – बेटी! बहुत दिनों से तुम लोग कहीं घूमने नहीं गए हो । मैंने केरल में होटल की बुकिंग करवा दी है, खर्चे की चिंता मत करना । बच्चों की ऑनलाइन क्लासेस हैं और तुम दोनों का काम भी घर से ही हो रहा है तो तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी । सब खुश हो गए । बेटा भौचक्का था , बोला – पापा आप नाराज नहीं हैं ना मुझसे ? मुझे लगा था कि —
अरे ! अपने बच्चों से भी कोई नाराज होता है – वे मुस्कुराकर बोले ।
बेटे – बहू के जाने के बाद दूसरे दिन ही मकान के खरीददार आ गए । अपना बंगला बेचकर वे वन बेडरूम के छोटे फ्लैट में शिफ्ट हो गए । बेटा घूमकर लौटा तो वॉचमैन ने बेटे को एक पत्र दिया जिसमें बेटे के किराए के फ्लैट का पता लिखा हुआ था । पिता का फोन नॉट रिचेबल बता रहा था ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित नाटक नर्मदा परिक्रमा की कथा। इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 113 ☆
नाटक – नर्मदा परिक्रमा की कथा
(समाहित संदेश… नदियो का सामाजिक महत्व)
नांदी पाठ…
पुरुष स्वर… हिन्दू संस्कृति में धार्मिक पर्यटन का बड़ा महत्व है, नदियो, पर्वतो, वनस्पतियों तक को देवता स्वरूप में कल्पना कर उनकी परिक्रमा का विधान हमारी संस्कृति की विशेषता है.नदियो का धार्मिक महत्व प्रतिपादित किया गया है, जिससे जन मन में जल के प्रति सदैव श्रद्धा भाव बना रहे. नर्मदा नदी की तो परिक्रमा की परम्परा है. इस प्रदक्षिणा यात्रा में जहाँ रहस्य, रोमांच और खतरे हैं वहीं प्रकृति से सानिध्य और अनुभवों का अद्भुत भंडार भी है। लगभग 1312 किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर चलते हुए परिक्रमा की जाती है. गंगा को ज्ञान की, यमुना को भक्ति की, ब्रह्मपुत्र को तेज की, गोदावरी को ऐश्वर्य की, कृष्णा को कामना की और लुप्त सरस्वती नदी तक को आज भी विवेक के प्रतिष्ठान के लिए पूजा जाता है. नदियो का यही महत्व जीवन को परमार्थ से जोडता है.प्रकृति और मानव का गहरा संबंध नदियो की परिक्रमा से निरूपित होता है. नर्मदा को चिर कुंवारी नदी कहा जाता है, स्कंद पुराण के अनुसार नर्मदा के अविवाहित रहने का कारण उनका स्वाभिमान है जो स्त्री अस्मिता और स्वाभिमान का प्रतीक है.
मंच पर दृश्य
सूत्रधार…. कथा बताती है कि राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री नर्मदा के विवाह हेतु यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। शोणभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ. नर्मदा अब तक सोनभद्र से मिली नहीं थी, लेकिन उनके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वे भी उसे चाहने लगी थी. विवाह होने में समय शेष था. नर्मदा से यह विछोह सहा नही जा रहा था. उनने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची. जुहिला को ठिठोली सुझी, उसने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और नर्मदा के वेश में राजकुमार सोनभद्र से मिलने चल पड़ी . सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठे. सोनभद्र के प्रस्ताव से जुहिला की नीयत में भी खोट आ गया. वह राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी.
नेपथ्य पुरुष स्वर.. इधर जुहिला के लौटने में होती देर से नर्मदा स्वयं सोनभद्र से मिलने चल पड़ी, वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को एकसाथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं. तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटीं. सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रह गया, लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक नर्मदा चिर कुंवारी रही आईं.इस कथानक को इस अंक में प्रदर्शित किया गया है.
रानी.. मेखल राज हमारी पुत्री नर्मदा के विवाह के संबंध में आपका क्या अभिमत है ?
पर्वत राज मेखल.. हे रानी, मैंनें सतपुड़ा के सघन जंगल में एक दुर्गम दिव्य स्थान देखा है, जहां पर्याप्त नमी है. वहां अद्भुत चमत्कारी औषधीय गुणो वाले गुलबकावली के पौधे होते हैं. इन पौधो के मदहोश करने वाली भीनी भीनी महक वाले श्वेत पुष्प इतने कोमल होते हैं कि उन्हें उस दुर्गम दिव्य स्थान से तोड़कर वैसे ही खिले हुये कोई साहसी, किन्तु कौशलवान धैर्यवान तेज पुरुष ही यहां तक सुरक्षित ला सकता है. अतः मैंने तय किया है कि जो राजकुमार गुलबकावली के वे दुर्लभ कोमल सुगंधित श्वेत पुष्प मेरी पुत्री नर्मदा के लिए यहां तक लेकर लाएगा,मैं उस वीर, योग्य, क्षमतावान निपुण पुरुष से ही अपनी सुपुत्री नर्मदा का विवाह उसी राजकुमार के साथ संपन्न करूंगा.
रानी.. महाराज इस निश्चय को सुनाकर मुझे तो आपने और भी चिंता में डाल दिया. ऐसा कोई तीव्र धावी वीर होगा भी जो गुलबकावली के पुष्पगुच्छ यहां तक यथावत ला सके?
आमात्य… बाहर देखते हुये.. महाराज ! मुझे यह गुलबकावली की महक कहां से आ रही है ?
राजकुमार सोनभद्र… गुलबकावली के श्वेत सुगंधित पुष्पों का गुच्छा लिये हुये राज सभा में प्रवेश करते हैं.
आमात्य.. अरे वाह महाराज ! ये तो राजकुमार सोनभद्र हैं. राजकुमार का स्वागत करते हुये… स्वागतम् राजकुमार सोनभद्र ! पर्वत राज मेखल की सभा में आपका हार्दिक स्वागत है. आपने तो हमारे महाराज के प्रण की लाज रख ली, आप सर्वथा राजकुमारी नर्मदा के लिये सुयोग्य वर हैं.
पर्वत राज मेखल.. अरे वाह.. राजकुमार सोनभद्र ! आपने वह कर दिखाया है, जिसकी मुझे आप जैसे फुर्तीले, वीर, बुद्धिमान राजकुमार से ही अपेक्षा थी. आपने ये गुलबकावली के पुष्प लाकर मेरे हृदय में स्थान बना लिया है. आईये हमारा आतिथ्य स्वीकार कीजीये. आमात्य, राजकुमार शोण के आतिथ्य की समुचित व्यवस्थायें कीजीये और राजपुरोहित जी से कहिये कि वे हमारी नर्मदा के विवाह समारोह की तिथियां तय करें.
सूत्रधार… विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों राजकुमार शोण को प्रेम संदेश भेजने की सोची।
नर्मदा.. गंभीर स्वर में… सखी जुहिला, मैने तुझे कभी अपनी दासी नही हमेशा सखि ही समझा है, इसलिये तुझे अपने धड़कते व्यग्र मन के हाल बताना चाहती हूं.
जुहिला… शोखी से चहकते हुये.. तो ये बात है ! राजकुमारी जी को प्रेम रोग लागा है. मैं देख ही रही हूं नयनो से नींद गायब है.
नर्मदा.. धत.. वो बात नही है, पर मैं क्या करूं जुहिला, मुझे रह रह कर ख्याल आते हैं, वे कैसे होंगे ? मैने तो कभी उन्हें देखा तक नही है.. क्या तुम एक बार मेरा संदेश उन तक पहुंचा सकती हो ? विवाह में तो अभी बहुत दिन हैं, मैं विवाह पूर्व एक बार उनसे रूबरू मिलना चाहती हूं.
जुहिला.. न बाबा न, कही रानी साहिबा को मालूम हुआ तो फिर मेरी तो खैर ही न ली जायेगी.. आप मुझसे यह न करवायें. आप स्वयं ही राजकुमार से मिलने क्यो नही चली जाती.
नर्मदा.. अच्छा तू तो मेरा संदेशा तक ले जाने में डर रही है, और मैं स्वयं सीधे मिलने पहुंच जाऊं ? खूब कही सखी तुमने. बस इतना ही नेह है तेरा मेरे लिये.
जुहिला.. मेरा तो आपके लिये इतना नेह है कि मैं अपनी जान पर खेल जाऊं . पर मैं मानती हूं कि हमारी राजकुमारी नर्मदा अपने होने वाले पति से मिलने की हिम्मत तो रखती हैं.
नर्मदा… इसे साहस नही दुस्साहस कहते हैं.
जुहिला.. अच्छा दुस्साहस ही सही, चलो एक ठिठोली करते हैं, आप मुझे अपने वस्त्र और आभूषण दीजीये, मैं राजकुमारी नर्मदा के वेश में मिलती हूं राजकुमार शोणभद्र से.
जुहिला, नर्मदा से उसका मुकुट व दुपट्टा लेती है, और आईने में स्वयं को निहारते, इठलाते हुये चल पड़ती है. सोनभद्र के पास पहुंचती है.
सूत्रधार … राजकुमार उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठते हैं…. जुहिला की नियत में भी खोट आ जाता है वह राजकुमार के प्रणय-निवेदन को ठुकरा नहीं पाती और स्वयं जुहिला होने की सचाई छिपा कर शोण के अंकपाश में समा जाती है .
प्रकाश संयोजन से दृश्य परिवर्तन
राजकुमार सोनभद्र… नर्मदा रूपी जुहिला को आता देखकर..उत्फुल्लता पूर्वक स्वागत है नर्मदे ! स्वागत है मेकल सुते ! स्वागत है मेरी रेवा ! मैं स्वयं तुमसे मिलने को व्याकुल हूं किन्तु राजा मेखल की लोक मर्यादा ने मेरे पग रोक रखे थे. यह तुमने बहुत ही श्रेष्ठ कार्य किया जो तुम स्वयं मुझसे मिलने आ गईं. हे सुभगे.. आओ मेरा हृदय तुम्हें जाने कितनी बार बल्कि सच कहूं तो हर रात्रि तुम्हारी कल्पना कर तुम्हें अपने अंकपाश में ले चुका है, आज मेरा स्वप्न सत्य हुआ आओ हम एक बंधन में समा जायें.
नर्मदा बनी जुहिला.. शर्माते लजाते हुये शोण की बाहों में आ जाती है.
सूत्रधार… इधर जुहिला की प्रतीक्षा करती नर्मदा के सब्र का बांध टूटने लगा. दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो स्वयं नर्मदा सोनभद्र से मिलने चल पड़ीं. वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को वे एक साथ आबद्ध देखतीं है और अपमान की भीषण आग में जल उठती हैं. तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी, सोनभद्र व जुहिला अपनी गलती पर पछताते ही रह गये किन्तु स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं लौटीं.
नर्मदा… मंच के दूसरे ओर से प्रवेश करती हैं और जुहिला व शोण को साथ बांहो में आबद्ध देखकर तेजी से लौट पड़ती हैं व आक्रोश में मंच से भीतर चली जाती हैं. तेज ड्रम म्यूजिक… पर्दा गिरता है.
सूत्रधार….. इस प्रतीकात्मक लाक्षणिक कथा का भौगोलिक प्रमाण है. नर्मदा, सोन, और जुहिला तीनो का ही उद्गम अमरकंटक पर्वत का त्रिकूट है. किन्तु सोन व जुहिला का प्रवाह पूर्व दिशा की ओर है. धार्मिक मान्यता के अनुसार जुहिला को दूषित नदी माना जाता है. सोनभद्र को नदी नहीं वरन पुल्लिंग अर्थात नद के रूप में मान्यता प्राप्त है. भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि जुहिला व सोन का जैसीनगर में दशरथ घाट पर संगम है. जुहिला सोन में विलीन हो जाती है. कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा चिरकुंवारी, अकेली पश्चिम की ओर विपरीत दिशा में बहती हुई खम्बात की खाड़ी में समुद्र तक अकेले ही बहती है.