English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 59 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 59 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 59) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 59 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

गुमसुम  ही  रहती  हैं

अब बवाल नही करतीं

वो दबी दबी सी ख्वाहिशें

अब सवाल नही करतीं…

They remain silent only and

don’t make ruckus anymore

Those suppressed desires

never ask questions anymore

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

बस यही दो मसले कभी

जिंदगी  भर  हल  ना हुए,

ना  कभी  नींद  पूरी ही हुई,

ना ही ख़्वाब मुकम्मल हुए…

 

Only these two issues could

never be resolved in the life,

Neither could I get any sleep

nor did dreams ever realise..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अभी  जिंदा हूँ  तो थोड़ा

गुफ़्तगू भी कर  लिया करो…

अगर मेरे मरने के बाद किया

तो ताबीज ही बनवाते फिरोगे…

 

Do talk to me a bit till the

time I’m alive, if done after

My death, then you’ll be busy

in getting the amulet made

 

* Amulet= Taabiz

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 59 ☆ उषा का स्वागत गीत ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  रचित  भावप्रवण कविता ‘उषा का स्वागत गीत। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 60 ☆ 

☆ उषा का स्वागत गीत ☆ 

*

एक नन्हीं परी का धरा अवतरण

पर्व उल्लास का ऐ परिंदो! उड़ो

कलरवों से गुँजा दो दिशाएँ सभी

लक्ष्य पाए बिना तुम न पीछे मुड़ो

*

ऐ सलिल धार कलकल सुनाओ मधुर

हो लहर का लहर से मिलन रात-दिन

झूम गाओ पवन गीत सोहर अथक

पर्ण दो ताल, कलियाँ नचें ताक धिन

*

ऐ घटाओं गगन से उतर आओ री!

छाँह पल-पल करो, वृष्टि कर स्नेह की

रश्मि ऊषा लिए भाल पर कर तिलक

दुपहरी से कहे आज जी जिंदगी

*

साँझ हो पुरनमी, हो नशीली निशा

आहना के कोपलों का चुंबन करे

आह ना एक भी भाग्य में हो लिखी

कहकहों की कहकशा निछावर करे

*

चाँदनी कज्जरी दे डिठौना लगा

धूप नजरें उतारे विहँस रूप की  

नाच राकेश रवि को लिए साथ में

ईश को शत नमन पूर्ण आकांक्षा की

*

देख मुखड़ा नया नित्य मुखड़ा बने

अंतरा अंतरा गीत सलिला बहे

आहना मुस्कुरा नव ऋचाएँ रचे

खिलखिला मन हरे, नव कहानी कहे

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #89 ☆ कतरनें ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता “#कतरनें #। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #89 ☆ कतरनें ☆

१ –अनुरोध–

फुटपाथों की दुकानों पर टंगे,

गद्दों रजाइयों के खोल।

तकियों के गिलाफ,

और बच्चों के कपड़े।

मुझे बुला रहे थे,

अपनी राम कहानी सुना रहे थे।

मुझे देखो टुकड़ों के रूप में,

आपस‌ मे मिला हूं।

सही है सुइ‌‌ की चुभन और पीड़ा,

कपड़ों के रूप में सिला हूं ।।१।।

२–मोलभाव–

उनके रूप में कोई न था आकर्षण,

पर आग्रह में छलकी थी अपार‌ वेदनायें।

किसी ने उनको हिकारत से देखा,

किसी ने अपनी जरूरत से देखा।

लोग आते रहे लोग जाते रहे,

मोल करते रहे भाव खाते रहे।

अचानक से कपड़े बोल पड़े,

ओ बाबू जी आप क्यूं है खडे़ ।।

३–आग्रह–

मुझे खरीद लो तुम्हारे न सही,

नौकर के काम आ सकता हूं।

उसके बिस्तर की शान बढ़ा सकता हूं,

उसकी जरूरतें पूरी कर सकता‌हूं ।

अभी भी इन कतरनों में जान है बाकी,

आपकी चुकाई कीमत अदा कर सकता हूं।,

‌‌४–हकीकत–

मेरी जरूरत देखो मेरी बातें सुनो,

मेरे बिकने की बारी हकीकत सुनो।

मुझमें चश्में के पीछे ‌से झांकती,

‌ किसी बूढ़ी आंखों का सपना है।

किसी सेवा की जरूरत का सहारा है,

किसी भूखे बूढ़े के भोजन की थाली है।

छोटे छोटे बच्चों की टाफियां है,

और उनके खिलौने हैं।।

५–कौतूहल–

मैं ब्रांडेड कंपनी का उत्पाद नहीं,

सहायता समूहों की उपज हूं।

मैं बेसहारों की आस हूं ,

उनकी कामयाबी का बिश्वास हूं ।

मै गरीबों की जरूरते हूं ,

आप का कौतूहल हूं।।

आओ आओ खरीद लो,

ले चलो अपने घर।।

६–सपना रूठ जायेगा–

ओ बाबू मेरी बात का ऐतबार करो,

अगर खरीद न सको तो

रूको देखो थोड़ा सा प्यार करो।

मैं बिश्वास दिलाता हूं उनके सपने सजाऊंगा,

अगर आपके नौकर ने नहीं स्वीकारा तो,

दान देने के काम आऊंगा।

वरना मेरा दिल टूट जायेगा,

सैकड़ों बेसहारों का सपना रूठ जायेगा।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कलास्वाद ☆ भेंडाच्या कलाकृती ☆ सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

? कलास्वाद ?

☆ भेंडाच्या कलाकृती ☆ सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते ☆

आजच्या कलास्वाद मध्ये  एक दुर्लक्षीत विषय घेणार आहे  तो म्हणजे ‘भेंडाच्या कलाकृती’.

भेंड म्हणजे काय? हे आधी समजून घेवू.भेंड म्हणजे मऊ लाकूड त्याला ‘सोलाऊड’ ही म्हणतात. हे लाकूड चिपाडा सारखे असते. चिपाड बाहेरू पिवळसर टणक आतून पांढरे असते . तसेच भेंड ही बाहेरून तपकिरी आणि आतून पांढरे शुभ्र. ते अतिशय मऊ आणि हलके असते. त्याला वेगवेगळे आकार देता येतो. खोडाचे गोल पातळ पापुद्रे अखंड स्वरूपात कापतात. तो गोल बाजारात मिळतो.त्याच्या लांब अखंड पट्टया ही बाजारात मिळतात. आपल्या गरजे नुसार वापरता येतात. या पट्टया पासून जाई, जुई , निशिगंध, गुलाब, मोगरा इ.फुले बनवता येतात.

विशेष म्हणजे ओडीसा शास्त्रीय नृत्यात नर्तकी याच भेंडा पासून तयार केलेले दागिने वापरतात. तिथे या भेंडा पासून वेगवेगळे दागिने बनवतात ते खुप आकर्षक असतात. त्यांना धार्मिक महत्त्व आहे. आपल्या भागात ही पूर्वी बांशिंगाच्या  सजावटीसाठी भेंड वापरत.

मी या भेंडापासून म्हणजेच सोलाऊड पासून वेगवेगळ्या फ्रेमस तयार करते. काळ्या कापडावर भेंडाची फुले पाने सुंदर दिसतात. कोंबडा कोंबडी आणि तिची पिल्ले, मोर इ.चित्रे भेंडातून तयार करते. प्रथम आवश्यकते नुसार काच घेते. त्याला गर्द काळा, निळा किंवा  तपकिरी रंग देते. मग त्यावर चित्रे काढून त्यावर सोलाऊड कापून चिकटवते व चित्र तयार करते. काम कौशल्य पूर्ण असल्याने बराच वेळ लागतो ही चित्रे तयार करताना आनंद वाटतो. चित्र पूर्ण झाल्यावर फ्रेम केली जाते. फ्रेमच्या आकारा नुसार मोराची रचना बदलते. दोन, तीन, चार, पाच मोर चित्रात दाखवते. काळ्याभोर पार्श्वभूमीवर हे चित्र अधिक उठून दिसते. या चित्राने घरातील हाॅलची शोभा निश्चित वाढते. जोग सरांच्या कलेचा वारसा मी आज जोपासत आहे.

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

सांगली

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #3 – व्यंग्य से मुठभेड़ की रचनात्मकता ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य से मुठभेड़ की रचनात्मकता

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #3 – व्यंग्य से मुठभेड़ की रचनात्मकता ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

अमूमन जब आदमी लेखन के क्षेत्र में घुसता है तो एक प्रकार से घुसपैठिया हो जाता है। वह अपने व्यक्तिगत जीवन से सामाजिक जीवन की चिंताओं में सेंध मारता है। उस जगह का आकर्षण रहता है। नाम और नामा का खिंचाव भी रहता है। वह सोचता है कि उसे वैचारिक कंदराओं से गुजरना होगा। वहाँ वैचारिक चिंताओं का आयातित खतरा होगा। उसे अपने अस्तित्व के मोह का त्याग करना पड़ेगा। उसे उस भीड़ से मुठभेड़ करना होगा जो उससे बेहतर जीवन, बेहतर विचार और बेहतर संसार की अपेक्षा करता है। उस भीड़ में एक से एक मट्ठर पड़े हैं जिनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपना दैहिक, आर्थिक लाभ देखना होता है। इन मट्ठरों को समाज की विषमताओं, विसंगतियों, विडम्बनाओं, मानवीय मूल्यों व मानवीय संवेदनाओं की चिंताओं से कोई सरोकार नहीं रहता है। उसे उनसे भी जूझना होगा। इन चिंताओं का चयन ही उसे लेखक बनने को प्रेरित करता है। यही चिंताएँ ही लेखक की मानसिक तैयारी होती है। यही तैयारी हजारों वर्षों से परम्पराओं के आइसलैण्ड, विचारों के विशाल शिलाखण्ड, विश्वासों की अंधेरी कंदराएँ, धार्मिक उन्मादों की धधकती ज्वालाएँ, सत्ता की ठूँठ हो गयी संवेदनाएँ, बाजार की बर्बरता से बंजर हो गयी आदमियत से मुठभेड़ करने की ऊर्जा देती है। उसके लेखन से टकराने से चिंगारियाँ निकलने लगती हैं। पर जो इससे बचने का रास्ता देखते हैं वे लेखक दिखते हैं, होते नहीं हैं। लेखक स्लम्स गलियों की गंध से लेकर मॉल्स के परफ्यूम में फर्क करने लगता है, उसे वंचित, षोशित, पीड़ित की पीड़ा की कसक समझ आने लगती है। यही कसक उसके माथे पर चिंता की रेखा खींच जाती है। वह इनस बेचैन हो उठता है, उसकी रात की नींद गायब हो जाती है। बेचैनी में वह एक जकड़न महसूस करता है। वह उस जकड़न से मुक्त होना चाहता है, यही जकड़न विचार और कलम की मुठभेड़ है जो कागज पर आकार लेती है। तब एक साहित्यकार अगर तीखा हुआ तो व्यंग्यकार के रूप में जन्म लेता है। व्यंग्यकार ही सामाजिक संवेदनाओं, जीवन की चिंताओं, विषमताओं, विसंगतियों, विडम्बनाओं, नैतिक मूल्यों में बढ़ती अराजकता, ठकुर सुहाती, दुमुहाँपन को उजागर करता है, वही उसका रचनात्मक बिन्दु होता है।

यहाँ पर अपने मित्र पत्रकार, कथाकार श्री हरीश पाठक जी की बात करना चाहूँगा। उनके परिवार के उनके समकक्ष और छोटे बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, सी. ए. आदि पद पर वह काम कर रहे हैं पर उनके पिता उनसे भी इनमें से चुनाव कर उनके भविष्य को सुरक्षित करना चाहते थे। पर वे अपनी दुनिया सबसे अलग पत्रकारिता में देख रहे थे। इस कारण उनका अपने पिता से वैचारिक संघर्ष होता था। पिता उनसे सदा असंतुष्ट और नाराज रहते थे। इसी नाराजी के चलते वे पिता से विद्रोह कर पत्रकार बन गए और अपने विद्रोही तेवरों को उन्होंने कथा में ढाल दिया। यही चीज वे व्यंग्य की शैली और भाषा  में ढाल देते तो व्यंग्यकार बन जाते।

समय का लेखन ही करीब-करीब व्यंग्य लेखन है। समय साहित्य की अन्य विघाओं में भी होता है, पर व्यंग्य में इसका प्रभाव अधिक होता है। यह मन मस्तिष्क पर तीव्रता से प्रभाव डालता है। यह विचारणीय पक्ष है कि आज सामने जो गलत घट रहा है, विद्रूपताएँ मुखर हो रही हैं, उसे आमजन मजबूरीवश, अपनी क्षमताओं को देखते हुए यथास्थिति स्वीकार कर लेता है। कोई विपरीत प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता है। यह अजीब समय है (पहले ऐसा नहीं होता था। पहले लोग विरोध करते थे)। इसका सटीक उदाहरण है हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना ‘अकाल उत्सव’। परसाई जी ने उस समय की अकाल विभीषिका का, शासकीय अराजकता, सत्ता की संवेदनहीनता, विरोध के प्रपंच को ‘अकाल उत्सव’ में जोरदार ढंग से उकेरा है। ‘अकाल उत्सव’ द्वारा उस समय का चित्र हमारे सामने आ जाता है (आज के पाठकों को उस समय को समझने में मदद मिलेगी)। यह व्यंग्य से मुठभेड़ का रचनात्मक पहलू है। परसाई जी की रचनाओं पर नामवर सिंह जी ने कहा था कि स्वतंत्रता के बाद के इतिहास को जानना है तो परसाई को पढ़ें।

लगभग इसी समय के आसपास की शरद जोशी की महत्वपूर्ण रचना है – ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’। यह व्यंग्य से मुठभेड़ को उकसाती रचना है। इस रचना ने ब्यूरोकेट्स की अराजकता को अपने व्यंग्य से तार-तार कर दिया था तथा सत्ता की संवेदनहीनता और मानवीय जीवन के ताने-बाने के बिखरे रूप को समाज के सामने ला दिया था। आज भी कुछ नहीं बदला है, वरन् कुछ और ह्रास ही हुआ है। मानवीय रिश्ते दरक रहे हैं – उनको बखूबी पढ़ा है वरिष्ठ व्यंग्यकार ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक डॉ. प्रेम जनमेजय ने। उनकी महत्त्वपूर्ण व्यंग्य रचना ‘बर्फ का पानी’ ने विषमता भरे समाज की मानवीयता के दरके रूप को समाज के समकक्ष नंगा कर दिया है। कारुणिक अंत वाली संवेदनहीनता की यह सशक्त रचना है। इसने ढोंग वाले समाज को अंदर तक तार-तार कर दिया है। यह जीवन मूल्यों के विचलन को भी अभिव्यक्त करती रचना है। यह सोचने को मजबूर करती है कि अभी भी समय है, संभल जाओ!

हमारा दैनिक जीवन उथल-पुथल से भरा पड़ा है। सुबह उठो, दूध की लाइन, मोबाइल उठाओ, सिगनल/नेट का गायब हो जाना, फोन करो बात का कट जाना। वाट्स एप में पोस्ट की भरमार, उसमें डिलीट का श्रम साधक समय व्यय। फेसबुक में लाइक, कमेंट्स का हिसाब, बस-मैट्रो में भीड़ की मारामारी, शहर में लंगड़े बुखार की महामारी, अस्पतालों के चक्कर पै चक्कर, बच्चों की बसों से माता-पिताओं का घटता विश्वास, नेताओं के वायदों की उठती मीनार आदि सैकड़ों बातें हैं। ऐसी विद्रूपताएँ हैं जिनसे हम रोज रूबरू होते हैं। इन चीजों ने व्यंग्य से मुठभेड़ करने का आमंत्रण दिया है, जिसे स्वीकार किया है डॉ. ललित लालित्य ने। डॉ. ललित लालित्य ने विद्रूपताओं को रचनात्मकता से जोड़ दिया है। विलायती राम छोटी-छोटी मुठभेड़ को आगाह कर रहे हैं। व्यंग्य की ये रचनाएँ व्यंग्य का नया संसार रच रही हैं। पाठक को सावधान करती हैं।

यह भी देखा जा रहा है कि समय की विवशता ने व्यंग्यकार को समझौतावादी बना दिया है। वह  छोटी-छोटी चीजों पर तो अपनी प्रतिक्रिया देता है, पर बड़ी से आँख मूँद लेता है। पर व्यंग्य में यह भेदभाव नहीं चलता है। अधिकांश व्यंग्यकार, राजनीति और धर्म में व्याप्त विसंगतियों पर बात करने से बचता है। पर ऐसा भी नहीं है कि सब बच रहे हैं। अधिकांश व्यंग्यकार राजनीति और समाज में व्याप्त विद्रूपताओं पर त्वरित दखल दे रहे हैं। वर्तमान में राजनीति और समाज में फैली अपराधिक वृत्तियों पर व्यंग्यकार द्वारा त्वरित तीखी टिप्पणी आ रही हैं। यहाँ पर सबका उल्लेख करना कठिन है पर उदाहरण स्वरूप  वरिष्ठ व्यंग्यकार गिरीश पंकज, फेसबुक, अख़बार, पत्रिकाओं में घटनाओं के दूसरे दिन दिख जाते हैं। स्त्रियों पर हो रहे अनाचार पर इंद्रजीत कौर की अभी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। बल्देव त्रिपाठी, दिलीप तेतरवे, बिजी श्रीवास्तव, बृजेश कानूनगो, शशांक, मीना अरोरा, सुदर्शन सोनी, अरुण अर्णव खरे, अनूप शुक्ल डॉ. सोमनाथ यादव, विनोद साव, राजशेखर चौबे, शांतिलाल जैन, राजेन्द्र मौर्य आदि अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में सजग हैं।

व्यंग्य से मुठभेड़ के फलस्वरूप व्यंग्य की रचनात्मकता को अप्रतिम विस्तार मिला है। व्यंग्य का महत्त्वपूर्ण गुण बीमारी में ऐन्टीबायोटिक के समान है। यह तीव्र असरकारक होता है। सभी व्यंग्य यात्री सत्ता, समाज, धर्म के अंतर्विरोधों से मुठभेड़ कर रहे हैं और यह भविष्य में भी जारी रहेगा

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 47☆ शुद्ध तन हो शुद्ध मन हो सदाचारी हों नयन ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “शुद्ध तन हो शुद्ध मन हो सदाचारी हों नयन। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 47 ☆ शुद्ध तन हो शुद्ध मन हो सदाचारी हों नयन ☆

शुद्ध तन हो शुद्ध मन हो सदाचारी हों नयन

तो सदा हो शुद्ध जीवन और सब वातावरण

हर बुराई का तो उद्गम मन का सोच विचार है

कर्मों के परिणाम ही उत्थान अथवा हैं पतन

 

कर्मों से बनता बिगड़ता व्यक्ति का संसार है

किए गए शुभ कर्म ही उन्नति के आधार हैं

क्या उचित अनुचित है इस पर ध्यान होना चाहिए

सबको अपने विचारों पर इतना तो अधिकार है

 

सुधरता जीवन परस्पर स्नेह मेल मिलाप से

क्या सही है क्या गलत मन बोलता खुद आपसे

वही होना चाहिए जो सबके हित का काम है

जो अहित करता किसी का जलता खुद संताप से

 

शुद्ध बुद्धि से होते हैं जब काम खुश होता है मन

मन की खुशियों से ही बनता आदमी का स्वस्थ तन

विमल निश्चल आचरण सबको सुखद प्रतिदान है

जिसकी हार्दिक कामना जीवन में करता हरएक जन

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…2”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…2 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

दरअसल “मैं” की यात्रा दुरूह होती है। माँ के गर्भ में आते ही “मैं” को कई सिखावन से लपेटना शुरू होता है वह यात्रा के हर पड़ाव पर कई परतों से ढँक चुका होता है। घर, घर के सदस्य, मोहल्ला, मोहल्ला के साथी, पाठशाला, पाठशाला के साथी, शिक्षक, संस्कारों की बंदिशें, मूल्यों की कथडियों, संस्था और संस्थाओं के रूढ़-रुग्ण नियमों से “मैं” घबरा कर समर्पण कर देता है। यह समर्पण स्थापित व्यवस्था के समक्ष होता है, देव या सर्वोच्च दैविक सत्ता के समक्ष नहीं। “मैं” का   दैविक सत्ता के समक्ष समर्पण अंतिम परिणति है। वह समर्पण मृत्यु के पूर्व चिंतन विधि से नियति के समक्ष जागृत अवस्था में होता है या मृत्यु देव के शिकंजे में लाचार स्थिति में होता है। यही मुख्य भेद है।

“मैं” मौलिकता खो देता है। उसकी जगह नया सृजित “मैं” सिंहासन पर क़ाबिज़ हो चुकता है। जिसे धन, यौवन, यश, मोह की रस्सियों से कस दिया जाता है। “मैं” जब कभी मौलिकता की ओर लौटना चाहता है तो उसे संस्कारों की दुहाई से बरबस खींच कर सृजित “मैं” की खोल में पुनः लाकर लपेट दिया जाता है।

आध्यात्मिक इतिहास को देखें तो पाते हैं कि “मैं” को छापों से मुक्त करके ही प्रज्ञा जन्मी है। कृष्ण गीता में अर्जुन के मस्तिष्क पर से उसके “मैं” की छापों से मुक्त करके एक स्वतंत्र अस्तित्व से परिचय करवाते हैं। जहाँ मोहग्रस्तता से मुक्त आत्मा निष्काम कर्म को प्रेरित होती है।

भगवत गीता में, “मैं” याने आत्मा की खोज याने आत्मचिंतन द्वारा आत्मबोध की पहली सीढ़ी पर चढ़ने का हवाला मिलता है। गीता कहती है “मैं” याने आत्मा देह से विलग एक स्वतंत्र अस्तित्व है। देह प्रकृति से उत्पन्न है उसमें परमात्मा का तत्व आत्मा रूप में स्थित है, जब तक आत्मा देह में है, देह सत्य है, शिव है, सुंदर है परंतु आत्मा के निकलते ही देह शव हो जाती है। जिसे अविलम्ब पंचतत्वों में विलीन करके प्रकृति को वापस करना होता है।

गीता बताती है कि आत्म तत्व को देह से अलग करने की अनुभूति ध्यनापूर्वक चिंतन से प्राप्त की जा सकती है। ग्रंथ कहता है कि “मैं” और देह के बीच इंद्रियों की सत्ता है। जब मैं भोग करूँ तब यह भाव मन में रहे कि “मैं कुछ नहीं कर रहा, इंद्रियाँ इंद्रियों में बरत रहीं हैं।” यदि जलेबी खा रहा हूँ तो यह कहना होगा कि रसना रस ले रही है, आत्मा को रस से कोई मतलब नहीं है। इस सोच से इंद्रियों से मोह छूटना आरम्भ होता है। यहीं से आत्मतत्व को देह तत्व से विलग करने की यात्रा आरम्भ की जा सकती है। इस यात्रा को ध्यान पद्धति से निरंतर करके आत्मबोध की तरफ़ बढ़ा जा सकता है। जैसे-जैसे आत्मबोध अनुभूति पक्की होने लगती है वैसे-वैसे जन्म-मृत्यु का बोध लुप्त होने लगता है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #59 – शोरगुल किसलिये ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #59 – शोरगुल किसलिये ☆ श्री आशीष कुमार

मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी। मक्खी बहुत भिनभिनाई आवाज की, और कहा, ‘भाई! तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना। वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछ सुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरने लगा बड़ी पहाड़ी नदी थी, भयंकर गङ्ढ था, मक्खी ने कहा कि ‘देख, दो हैं, कहीं पुल टूट न जाए! अगर ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’

हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के विदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं, कोई काम हो, तो मुझे कहना, तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी, उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं, कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी सन्त कहते हैं, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने, ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

हाथी और मक्खी के अनुपात से भी कहीं छोटा, हमारा और ब्रह्मांड का अनुपात है। हमारे ना रहने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी?

वह चाहती थी कि हाथी स्वीकार करे, तू भी है,,,,, तेरा भी अस्तित्व है, वह पूछना चाहती थी। हमारा अहंकार अकेले नहीं जी सकता,,,,,,, दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है।

इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें और हमारी उपेक्षा न हो।

सन्त विचार- हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,, स्नान करते हैं सजाते-संवारते हैं ताकि दूसरे हमें सुंदर समझें,,,,,,, धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,,,,, दूसरे देखें और स्वीकार करें कि हम कुछ विशिष्ट हैं, ना कि साधारण।

हम मिट्टी से ही बने हैं और फिर मिट्टी में मिल जाएंगे,,,,,,,,

हम अज्ञान के कारण खुद को खास दिखाना चाहते हैं,,, वरना तो हम बस एक मिट्टी के पुतले हैं और कुछ नहीं।

अहंकार सदा इस तलाश में रहता है कि वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।

याद रखना चाहिए आत्मा के निकलते ही यह मिट्टी का पुतला फिर मिट्टी बन जाएगा इसलिए हमे झूठा अहंकार त्याग कर,,, जब तक जीवन है सदभावना पूर्वक जीना चाहिए और सब का सम्मान करना चाहिए,,,, क्योंकि जीवों में परमात्मा का अंश आत्मा है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 73 – मंद वारा सुटला होता ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 73 – मंद वारा सुटला होता ☆

 

मंद वारा सुटला होता, गंध फुलांचा दाटला होता।

आज तुझ्या आठवांनी कंठ मात्र दाटला होता।।धृ।।

 

हिरव्या गार वनराईला चमचमणारा  ताज  होता।

मखमली या कुरणांवरती मोतीयांचा साज होता।

चिमुकल्यां चोंचीत माझ्या,तुझ्या चोंचिचा आभास होता।।१।।

 

पहाटेलाच जागवत  होतीस , झेप आकाशी घेत होतीस ।

अमृताचे कण चोचीत ,आनंदाने भरवत होतीस।

आमच्या चिमण्या डोळ्यांत ,स्वप्न  फुलोरा फुलत होता ।।२।।

 

आनंद अपार होता, खोपा स्वर्ग बनला होता।

विधाताही लपून  छपून , कौतुक सारे पाहात होता।

आज कसा काळाने वेध तुझा घेतला होता।।३।।

 

आता बाबा पहाटेला ऊठून काम सारं करत असतो।

लाडे लाडे बोलत असतो गाली गोड हसत असतो।

आज त्याच्या डोळ्यांचा कडं मात्र ओला होता।।४।।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 100 ☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 100 ☆

☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ ☆

ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ इंसान को हर रिश्ते से  गुमराह कर देता है। इसलिए सबको साथ रखो; स्वार्थ को नहीं, क्योंकि आपके विचारों से अधिक कोई भी आपको कष्ट नहीं पहुंचा सकता– यह कथन कोटिशः सत्य है। मानव की सोच ही शत्रुता व मित्रता का मापदंड है। ग़लत सोच के कारण आप पूरे जहान को स्वयं से दूर कर सकते हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप आपके अपने भी आपसे आंखें चुराने लग जाते हैं और आपको अपनी ज़िंदगी से बेदखल कर देते हैं। यदि आपकी सोच सकारात्मक है, तो आप सबकी आंखों के तारे हो जाते हैं। सब आपसे स्नेह रखते हैं।

ग़लत सोच के साथ-साथ ग़लत अंदाज़ भी बहुत खतरनाक होता है। इसीलिए गुलज़ार ने कहा है कि लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं और इंसान को लफ़्ज़ों को परोसने से पहले अवश्य चख लेना चाहिए। महात्मा बुद्ध की सोच भी यही दर्शाती है कि जिस व्यवहार की अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं, वैसा व्यवहार आपको उनके साथ भी करना चाहिए, क्योंकि जो भी आप करते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म कीजिए ताकि आपको उसका अच्छा फल प्राप्त हो।

मानव स्वयं ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि जैसी उसकी सोच व विचारधारा होती है, वैसी ही उसे संपूर्ण सृष्टि भासती है। इसलिए कहा जाता है कि मानव अपनी संगति से पहचाना  जाता है। उसे संसार के लोग इतना कष्ट नहीं पहुंचा सकते; जितनी वह स्वयं की हानि कर सकते हैं। सो! मानव को स्वार्थ का त्याग करना कारग़र है। इसके लिए उसे अपनी मैं अथवा अहं का त्याग करना होगा। अहं मानव को आत्मकेंद्रिता के व्यूह में जकड़ लेता है और वह अपने घर-परिवार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सोच पाता। सो! मानव को सदैव ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की कामना करनी चाहिए, क्योंकि हम भारतीय ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की संस्कृति में विश्वास रखते हैं, जो सकारात्मक सोच का प्रतिफलन है।

सुख व्यक्ति के साहस की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और सुख और दु:ख दोनों की परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाला व्यक्ति ही सफल होता है। मानव को सुख दु:ख में सदैव सम रहना चाहिए, क्योंकि सुख में व्यक्ति अहंनिष्ठ हो जाता है और अपने समान किसी को नहीं समझता। दु:ख में व्यक्ति के धैर्य की परीक्षा होती है। परंतु  दु:ख में वह टूट जाता है; पथ-विचलित हो जाता है। उस स्थिति में चिंता व तनाव उसे घेर लेते हैं और वह अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है। सुख दु:ख का चोली दामन का साथ है; दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक की उपस्थिति होने पर दूसरा दस्तक नहीं देता और उसके जाने के पश्चात् ही वह आता है। सृष्टि का क्रम आना और जाना है। मानव संसार में जन्म लेता है और कुछ समय पश्चात् उसे अलविदा कह चला जाता है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है।

परमात्मा हमारा भाग्य नहीं लिखता। हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य निश्चित करते हैं। जैसी हमारी सोच होगी, वैसे हमारे विचार होंगे और कर्म भी यथानुकूल होंगे। हमें किसी के प्रति ग़लत विचारधारा नहीं बनानी चाहिए, क्योंकि वह हमारे अंतर्मन में शत्रुता का भाव जाग्रत करती है और दूसरे लोग भी हमारे निकट आना तक पसंद नहीं करते। इस स्थिति में सब स्वप्न व संबंध मर जाते हैं। इसलिए मानव को ग़लत सोच कभी नहीं रखनी चाहिए और बोलने से पहले सदैव सोचना चाहिए, क्योंकि हमारे बोलने के अंदाज से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए रहीम जी का यह दोहा मानव को मधुर वाणी में बोलने की सीख देता है– ‘रहिमन वाणी ऐसी बोलिए, मनवा शीतल होय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल होय।’ इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य का उल्लेख करना चाहूंगी कि मानव को तभी बोलना चाहिए जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अर्थात् यथासमय, अवसरानुकूल सार्थक शब्दों का ही प्रयोग करना सबसे कारग़र है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares