हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 127 ☆ इच्छा मृत्यु ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीयआलेख  ‘इच्छा मृत्यु । इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 127☆

?  इच्छा मृत्यु  ?

राजा शांतनु सत्यवती से विवाह करना चाहते थे.  किंतु सत्यवती के पिता ने शर्त रख दी कि राज्य का उत्तराधिकारी सत्यवती का पुत्र ही हो.  अपने पिता की सत्यवती से विवाह की प्रबल इच्छा को पूरा करने के लिए गंगा पुत्र भीष्म ने अखंड ब्रह्मचार्य की प्रतिज्ञा ले ली.  पिता के प्रति प्रेम के इस अद्भुत   त्याग से प्रसन्न हो, उन्होने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था.  

किंतु पितामह भीष्म को बाणों की शैया पर मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी.  भीष्म शर शैया पर दुखी थे और उनकी इस अवस्था पर भगवान कृष्ण मुस्करा रहे थे.  

दूसरी ओर यह समझते हुये भी कि सीता हरण कर भागते रावण को रोक पाना उसके वश में नहीं है, जटायु ने रावण से भरसक युद्ध किया.  घायल जटायु को लेने यमदूत आ पहुंचे, किंतु जटायु ने मृत्यु को ललकार कर कहा, जब तक मैं इस घटना की सूचना, प्रभु श्रीराम को नहीं दे देता मृत्यु तुम मुझे छू भी नहीं सकती.  जटायु ने स्वयं ही जैसे इच्छा मृत्यु का चयन कर लिया.  

श्रीराम सीता को ढ़ूंढ़ते हुये आये, जटायु से उन्हें सीताहरण की जानकारी मिली.  जटायु ने  अपनी अंतिम सांसे भगवान श्रीराम की गोद में लीं.  भगवान दुखी थे और जटायु स्वयं की ऐसी इच्छा मृत्यु पर प्रसन्न थे.  

भीष्म पितामह और जटायु दोनो ने ही इच्छा मृत्यु का वरण किया.  किन्तु अंतिम पलों में दोनो की मृत्यु में विरोधाभास. .. कदाचित इसलिये क्योंकि भीष्म ने स्वयं की लाज बचाने के लिये बिलखती द्रौपदी की चीत्कार अनसुनी कर दी थी, तो दूसरी ओर  सीता जी की रक्षा का सामर्थ्य न होते हुये भी जटायु ने स्वयं को दांव पर लगा दिया था.  

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 105 – लघुकथा – प्रायश्चित ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “बेटी बचाओ ” जैसे अभियान जो पोस्टर एवं बयानों तक ही सीमित रह जाते हैं , पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “प्रायश्चित। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 105 ☆

? लघुकथा – प्रायश्चित ?

सुलोचना आज पुरानी पेटी से शादी का जोड़ा निकाल कर देख रही थी। बीते 25 वर्षों से वह अपनी नन्ही सी परी को लेकर पतिदेव से अलग हो चुकी थी। परी ने आवाज लगाई… मम्मी फिर वही पुरानी बात भूल जाओ, मैं अब बड़ी हो गई हूँ। मैं अपनी मम्मी को किसी प्रकार का कष्ट होने नहीं दूंगी।    

 माँ ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा… तुम बेटी हो न, इसी बात को लेकर मुझे चिंता होती है। तुम्हारे पापा सहित ससुराल में सभी ने मुझे बेटी हुई है, और उन्हें बेटा चाहिए था, यह कह कर मुझे घर से निकाल दिया था।

परी ने देखा मां की आंखें नम हो चली थी । उसने कहा.. अच्छा चलो मैं ही तुम्हारा बेटा हूँ मैं आपको छोड़कर कहीं भी नहीं जाऊंगी।

माँ ने कहा… यह संभव नही है। हमारी संस्कृति है कि बेटियों को एक दिन ससुराल जाना पड़ता है। बात करते-करते सुलोचना अपना काम कर रही थी और परी अपना बैग उठा ऑफिस के लिए निकल गई।

शाम को उसके साथ एक नौजवान आया परी ने कहा… मम्मी इनसे मिलिए ये संदेश हैं और इनको मैं बारात लेकर ब्याह कर लाऊंगी।  यह हमारे साथ घर पर रहेंगे क्योंकि इनकी यही इच्छा है जो लड़की इनको पसंद करेगी। यह उनके घर ही रहेंगे।

आपकी समस्या का समाधान हो गया। चाय नाश्ता चल ही रहा था कि डोर बेल बज उठी। मां ने दरवाजा खोला। देखा सामने जाना पहचाना चेहरा और मुस्कुराती आंखों पर आंसू.. पतिदेव ने कहा… सुलोचना तुम्हारे जाने के बाद मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ ‘प्रायश्चित’ करने के लिए मैं इसी दिन का इंतजार कर रहा था।

यह हमारे ऑफिस में काम करता है इसका कोई नहीं है मैं इसे जानता हूं। मैं अपना कोई अधिकार नहीं जमा रहा हूँ पर मुझे एक मौका दो और माफ कर सको तो मेरा प्रायश्चित हो जाएगा और एक परिवार फिर से बन संवर जाएगा। संदेश और परी दूर से यह सब देख रहे थे।

सारा खेल अब सुलोचना को समझ आने लगा। मन अधीर हो उठा। परी सचमुच बड़ी हो गई है।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 65 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 65 –  दोहे ✍ 

निकल ‘हरम’ से आ गए, निभा गए दस्तूर।।

डेढ़ बरस के बाद फिर, शायद मिलें हुजूर।।

 

हो इलाज परदेश में, ऐसे उनके भाग।

माल गले सरकार का, मिर्जा खेले फाग।।

 

सेवा की तो शपथ ली,  खाया मेवा खूब।

शोला जैसे दमकते, जनता जैसे दूब।।

 

बेटा बेटी आपके, जन के कीट -पतंग।

दुहरेपन को देख कर, जनता होती तंग।।

 

अपनी करनी कुछ नहीं, पूर्वज रहे महान।

बस उनके ही नाम से, चला रहे दुकान।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 65 – मुमकिन है खोजते रहें….☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – मुमकिन है खोजते रहें ….. । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 65 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || मुमकिन है खोजते रहें….. || ☆

बुनना है इतने समय में

तुमको कहानियाँ

बचपन या बुढ़ापा या

किंचित जवानियाँ

 

महल, कुटीर, कोठियाँ

या फिर अटारियाँ

घर, मकान, भवन, या कि

बस आलमारियाँ

 

निष्ठुर हुये से बैठे

फिर से कई कई

हैं राजनीति में ही

गुम राजधानियाँ

 

दासी- दास, नौकरों

की भीड़ में पड़े

भूले हुये से वक्त के

गुमशुदा झोंपड़े

 

मुमकिन है खोजते रहें

अपनी शिनाख्त को

इस शहर में तमीज की

कुछ मेहरवानियाँ

 

जो दोस्त, दूकानदार

या व्यापार में मशगूल

सड़कों पर चहल-पहल

को कुछ लौटते स्कूल

 

उनकी ही पीठ पर लदी

जनकृत व्यवस्थायें

खिडकियों से देखतीं

कुलवंत रानियाँ

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-11-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 111 ☆ जीवन के रंग…. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  ‘जीवन के रंग….’ )  

☆ संस्मरण # 111 ☆ जीवन के रंग….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

याद हैं वे स्कूल के दिन

याद हैं वे बचपन के दिन,

 

तितली पकड़ने को

फिर भागना दौड़ना,

हवाई जहाज़ बनाना

क्लासरूम में उड़ाना,

 

बचपन में सुना था …

हरी थी, मन भरी थी,

लाख मोती जड़ी थी,

राजा जी के बाग में 

दुशाला ओढ़े खड़ी थी, 

 

बचपन की बातें साथ हैं

सारी यादें अभी खास हैं,

 

उम्र जरुर बढ़ती गई है

मुस्कुराहट साथ रही है,

 

मुस्कुराहट जिनकी रुकी है

उम्र उनकी जल्दी बढ़ी है, 

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #55 ☆ # छाया चित्र # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# छाया चित्र #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 55 ☆

☆ # छाया चित्र # ☆ 

हमारा एक करीबी रिश्तेदार

जिससे हमको था

स्नेह और प्यार

कोरोना से अचानक चल बसा

उसके परिवार में

एक पेंच फंसा

उसकी पुत्री की शादी

महीने भर बाद तय थी

समस्या विकत  

ऐसे समय थी

लड़के वाले इसी तारीख पर

अड़े हुए थे

शादी करने के लिए

पीछे पड़े हुए थे

आखिर वधुपक्ष ने

समझौता किया

शादी नियत तिथि पर

करने का निर्णय लिया

‘वर’ के शहर में

शादी का मंडप सजा

वधुपक्ष ने दे दी

अपनी रजा

शादी में सिर्फ करीबी

दस रिश्तेदारों को बुलाया

वैवाहिक कार्य

दोनों पक्षों ने

मिलकर संपन्न कराया

 

मै भी आमंत्रित था

माहौल देखकर अचंभित था

किसी को हमारे मित्र के

मृत्यु का शोक नहीं था

हर चीज हो रही थी

किसी को कोई रोक नहीं था

हर कोई सज धज रहा था

‘डी जे’ बज रहा था

सब लोग नाचते नाचते

झूम रहे थे

हाथ में लिए

ड्रिंक के ग्लास को

चूम रहें थे

वर-वधु, बहू-बेटा और पत्नी

नाचते हुए मस्ती में चूर थे

रंजों-गम से कोसों दूर थे

सारा माहौल रंगीन था

ना किसी को गम

ना कोई गमगीन था

मुझे लगा-

सारे रिश्ते

दिखावे की चीज़  है

ना‌ कोई अपना

ना कोई अज़ीज़ है

सांस चलते तक

सब अपने और मित्र हैं

सांस रूकते ही,

सब रिश्ते

दीवार पर

टंगा हुआ

फ्रेम में जड़ा हुआ

एक छायाचित्र है

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ अप्रूप पाखरे – 22 – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ अप्रूप पाखरे – 22 – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

 

[१०५]

टेकड्या-टेकड्यांची    

पाकळी न् पाकळी उलगडून

प्रकाश प्राशन करणारा

हा पर्वत

किती गोजिरवाणा दिसतो

एखाद्या प्रफुल्लित फुलासारखा….

 

[१०६]

प्रकाशाने झगमगणार्या 

दिवसाच्या या हिरव्यागार जगाला

स्पर्श करण्यासाठी

उचंबळत आहेत अनावर

माझ्या गीतांच्या

या लालस लाटा

काळजाच्या गाभ्यातून

 

[१०७]

मीलनाची ज्योत

तेवत राहते

रेंगाळत –  रेंगाळत

पण विरहाची फुंकर

फक्त एका क्षणाची

आणि

फटकन विझून जाते ज्योत

 

[१०८] 

संपून गेली एकदाची

दिवसभराची कामं

लपेटून घे मला

तुझ्या आणि तुझ्याच कुशीत

स्वप्नं पडू देत ग मला-  

 

मूळ रचना – स्व. रविंद्रनाथ टैगोर 

मराठी अनुवाद – रेणू देशपांडे (माधुरी द्रवीड)

प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #114 ☆ व्यंग्य – शोभा बढ़ाने का मामला ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘शोभा बढ़ाने का मामला’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 114 ☆

☆ व्यंग्य – शोभा बढ़ाने का मामला 

वे मेरे एक मित्र वर्मा जी को पकड़ कर मेरे घर आये थे। पूरे दाँत दिखाकर बोले, ‘स्कूल खोल रहा हूँ। अगले महीने की बीस तारीख को उद्घाटन है। वर्मा जी ने चीफ गेस्ट के लिए आपका नाम सुझाया। कहा आप बड़े आदमी हैं, बहुत बड़े कॉलेज के प्रिंसिपल हैं। आपसे बेहतर आदमी इस काम के लिए नहीं मिलेगा। बस जी,आपकी सेवा में हाज़िर हो गया।’

मैंने पूछा, ‘स्कूल खोलने की बात आपके मन में कैसे आयी?’

वे बोले, ‘बस जी, ऐसे ही। कोई धंधा तो करना ही था। बिना धंधे के कैसे चलेगा?’

मैंने पूछा, ‘पहले क्या धंधा करते थे आप?’

वे बोले, ‘अपना पोल्ट्री का धंधा है जी। उसे बन्द करना है।’

मैंने पूछा, ‘क्यों?’

वे बोले, ‘उस धंधे में बरक्कत नहीं है। चौबीस घंटे की परेशानी है जी। कोई बीमारी लग जाए तो पूरी पोल्ट्री साफ हो जाती है। फिर नौकर भी बड़े बेईमान हो गये हैं। नजर चूकते ही दो चार मुर्गी-अंडे गायब हो जाते हैं। कहाँ तक चौकीदारी करें जी?मन बड़ा दुखी रहता है।’

मैंने पूछा, ‘तो फिर स्कूल खोलने की क्यों सोची?’

वे बोले, ‘अच्छा धंधा है जी। लागत कम है,मुनाफा अच्छा है। चार पाँच हजार रुपये महीने में पढ़ाने वाले मास्टर मिल जाते हैं। आजकल तो मजदूर भी दो तीन सौ रुपये रोज से कम नहीं लेता। पढ़े लिखे लोग सस्ते मिल जाते हैं,बेपढ़े लिखे लोग मँहगे पड़ते हैं।

‘इसके अलावा इस धंधे में ड्रेस और किताबों पर कमीशन भी अच्छा मिल जाएगा। बहुत रास्ते खुल जाएंगे।’

मैंने उनसे पूछा, ‘आप कितना पढ़े हैं?’

वे दाँत निकालकर बोले, ‘इंटर फेल हूँ जी। लेकिन धंधे की टेकनीक खूब जानता हूँ। स्कूल बढ़िया चलेगा। डिपार्टमेंट वालों से रसूख बना लिये हैं। आगे कोई परेशानी नहीं होगी।’

मैंने उनसे पूछा, ‘मंजूरी मिल गयी?’

वे बोले, ‘हाँ जी। वो काम तो आजकल रातोंरात हो जाता है। इंस्पेक्शन रिपोर्ट डिपार्टमेंट में ही बन जाती है। सब काम हो जाता है। वो कोई प्राब्लम नहीं है।’

उन्होंने विदा ली। चलते वक्त हाथ जोड़कर बोले, ‘हमें अपना कीमती वक्त जरूर दीजिएगा जी। आपसे हमारे प्रोग्राम की शोभा है।’

मैंने ‘निश्चिंत रहें’ कह कर उन्हें आश्वस्त किया।

उनका नाम पी.एल. सन्त था। आठ दस दिन बाद सन्त जी का फोन आया कि उद्घाटन कार्यक्रम टल गया है, अगली तारीख वे जल्दी बताएंगे। वे अपने मुर्गीख़ाने को स्कूल में बदलना चाहते थे, उसमें कुछ देर लग रही थी। उनकी नज़र में मुर्गियों और आदमी के बच्चों में कोई ख़ास फर्क नहीं था। बस मुर्गियों की जगह बच्चों को भर देना था। मुर्गियों के साधारण अंडे की जगह अब बच्चे सोने के अंडे देने वाले थे।

इस तैयारी में करीब डेढ़ महीना निकल गया और इस बीच मैं रिटायर होकर घर बैठ गया। फिर एक दिन सन्त जी का फोन आया कि मामला एकदम फिटफाट हो गया है और अगली बारह तारीख को मुझे चीफ गेस्ट के रूप में पधार कर प्रोग्राम की शोभा बढ़ानी है। मैंने सहमति ज़ाहिर कर दी।

आठ दस दिन बाद वे घर आ गये। बड़े उत्साह में थे। वर्मा जी साथ थे। सन्त जी उमंग में बोले, ‘बस सर, सब फिट हो गया। अब आपको शोभा बढ़ानी है। लो कार्ड देख लो। बढ़िया छपा है।’

उन्होंने बाइज्ज़त कार्ड मुझे भेंट किया। देकर बोले, ‘हमने अपने इलाके के एमएलए साहब को प्रोग्राम का अध्यक्ष बना दिया है। आप जानते ही हैं कि आजकल पॉलिटीशन को खुश किये बिना काम नहीं चलता। आप ठहरे एजुकेशन वाले, इसलिए बैलेंस के लिए पॉलिटिक्स वाले आदमी को शामिल कर लिया। आप से तो प्रोग्राम की शोभा बढ़नी है, लेकिन आगे वे ही काम आएंगे।’

मैंने कार्ड देखकर कहा, ‘कार्ड तो बढ़िया छपा है, लेकिन मेरे बारे में कुछ करेक्शन ज़रूरी है।’

सन्त जी अपनी उमंग में ब्रेक लगाकर बोले, ‘क्या हुआ जी? कुछ प्रिंटिंग की मिसटेक हो गयी क्या?  आपके नाम के आगे डॉक्टर तो लगाया है।’

मैंने कहा, ‘मेरे नाम के नीचे जो ‘प्राचार्य’ शब्द छपा है उससे पहले ‘रिटायर्ड’ लगाना ज़रूरी है।’

सन्त जी जैसे आसमान से गिरे, बोले, ‘क्या मतलब जी?’

मैंने कहा, ‘मैं पिछली तीस तारीख को रिटायर हो गया हूँ, इसलिए सही जानकारी के लिए ‘रिटायर्ड’ शब्द लगाना ज़रूरी है।’

सन्त जी का चेहरा उतर गया। उनका उत्साह ग़ायब हो गया। शिकायत के स्वर में बोले, ‘आपने पहले नहीं बताया।’

मैंने कहा, ‘क्या फर्क पड़ता है?’

वे दुखी स्वर में बोले, ‘ज़मीन आसमान का फर्क होता है जी। कुर्सी पर बैठे आदमी में पावर होता है, रिटायर्ड आदमी के पास क्या होता है?’

वर्मा जी ने बात सँभालने की कोशिश की, बोले, ‘कोई फर्क नहीं पड़ता। डॉक्टर साहब शहर के माने हुए विद्वान हैं। पूरा शहर इन्हें जानता है।’

सन्त जी आहत स्वर में बोले, ‘ज़रूर विद्वान होंगे जी, हम कहाँ इनकार करते हैं, लेकिन पावर की बात और है। ये तो दुखी करने वाली बात हो गयी जी।’

वे थोड़ी देर सिर लटकाये बैठे रहे, फिर बोले, ‘ठीक है जी। अब जो हुआ सो हुआ, लेकिन हम तो आपको प्रिंसिपल ही बना कर रखेंगे। हम कार्ड में कुछ नहीं जोड़ेंगे, न अपनी तरफ से प्रोग्राम में आपको रिटायर्ड बतलाएंगे। हमारी इज़्ज़त का सवाल है। आपको अपनी तकरीर में बताना हो तो बता देना। हम तो बारह तारीख तक आपको रिटायर नहीं होने देंगे।’

फिर मज़ाक के स्वर में बोले, ‘आपने कुर्सी क्यों छोड़ दी जी? हमारी खातिर बारह तारीख तक कुर्सी पर बैठे रहते।’

मैंने अपराधी भाव से कहा, ‘अपने हाथ में कहाँ है? जिस तारीख को उम्र पूरी हुई, उस दिन रिटायर होना पड़ता है।’

सन्त जी दाँत चमकाकर बोले, ‘यूँ तो मौत का दिन भी फिक्स्ड होता है, लेकिन आदमी चवनप्राश वगैरः खाकर महूरत टालने की कोशिश में लगा रहता है।’

मैं उनके सटीक जवाब पर निरुत्तर हो गया।

वे चलने के लिए उठे। चलते चलते बोले, ‘आपकी शान के खिलाफ कुछ बोल गया हूँ तो माफ कीजिएगा। दरअसल आपने ऐसी खबर दे दी कि जी दुखी हो गया। जो होता है भले के लिए होता है। प्रोग्राम में ज़रूर पधारिएगा। आपसे ही शोभा है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 114 ☆ किमाश्चर्यमतः परम् ! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 114 ☆ किमाश्चर्यमतः परम् !

देख रहा हूँ कि एक चिड़िया दाना चुग रही है। एक दाना चोंच में लेने से पहले चारों तरफ चौकन्ना होकर देखती है, कहीं किसी शिकारी के वेश में काल तो घात लगाये नहीं बैठा। हर दाना चुगने से पहले, हर बार न्यूनाधिक यही प्रक्रिया अपनाती है।

माना जाता है कि पशु-पक्षी बुद्धि तत्व में विपन्न हैं पर जीवन के सत्य को सरलता से स्वीकार करने की दृष्टि से वे सम्पन्न हैं। मनुष्य में बुद्धितत्व विपुल है पर  सरल को  जटिल करना, भ्रम में रहना, मनुष्य के स्वभाव में प्रचुर है।

मनुष्य की इसी असंगति को लेकर यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था,

दिने दिने हि भूतनि प्रविशन्ति यमालयम्।शेषास्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।

अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहाँ बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य है?

युधिष्ठिर ने प्रश्न में ही उत्तर ढूँढ़कर कहा था,

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥

अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहीं बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य हो सकता है?

सचमुच इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है कि लोग रोज़ मरते हैं पर ऐसे जीते हैं जैसे कभी मरेंगे ही नहीं। हास्यास्पद है कि पर मनुष्य चोर-डाकू से डरता है, खिड़की-दरवाज़े मज़बूत रखता है पर किसी अवरोध के बिना कहीं से किसी भी समय आ सकनेवाली मृत्यु को भूला रहता है।

संभवत: इसका कारण ज़ंग लगना है। जैसे लम्बे समय एक स्थान पर पड़े लोहे में वातावरण की नमी से ज़ंग लग जाती है, वैसे ही जगत में रहते हुए मनुष्य की बुद्धि पर अहंकार की परत चढ़ जाती है। सामान्य मनुष्य की तो छोड़िए, अपने उत्तर से यक्ष को निरुत्तर करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिर भी इसी ज़ंग का शिकार बने।

हुआ यूँ कि महाराज युधिष्ठिर राज्य के विषयों पर मंत्री से गहन विचार- विमर्श कर रहे थे। तभी अपनी शिकायत लेकर एक निर्धन ब्राह्मण वहाँ पहुँचा। कुछ असामाजिक तत्वों ने उसकी गाय छीन ली थी। यह गाय उसके परिवार की उदरपूर्ति का मुख्य स्रोत थी।

महाराज ने उससे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। अभी मंत्री से चर्चा पूरी हुई भी नहीं थी कि किसी देश का दूत आ पहुँचा। फिर नागरी समस्याओं को लेकर एक प्रतिनिधिमंडल आ गया। तत्पश्चात सेना से सम्बंधित किसी नीतिविषयक निर्णय के लिए राज्य के सेनापति, महाराज से मिलने आ गए। दरबार के काम पूरे कर महाराज विश्राम के लिए निकले तो निर्धन  को प्रतीक्षारत पाया।

उसे देखकर धर्मराज बोले, ” आपको न्याय मिलेगा पर आज मैं थक चुका हूँ। आप कल सुबह आइएगा।”

निराश ब्राह्मण लौट पड़ा। अभी वापसी के लिए चरण उठाये ही थे कि सामने से भीम आते दिखाई दिए। सारा प्रसंग जानने के बाद भीम ने ब्राह्मण से प्रतीक्षा करने के लिए कहा। तदुपरांत भीम ने सैनिकों से युद्ध में विजयी होने पर बजाये जानेवाले नगाड़े बजाने के लिए कहा।

उस समय राज्य की सेना कहीं किसी तरह का कोई युद्ध नहीं लड़ रही थी। अत: नगाड़ों की आवाज़ से आश्चर्यचकित महाराज युधिष्ठिर ने भीम से इसका कारण जानना चाहा। भीम ने उत्तर दिया, ” महाराज युधिष्ठिर ने एक नागरिक को उसकी समस्या के समाधान के लिए कल आने के लिए कहा है। इससे सिद्ध होता है कि महाराज ने जीवन की क्षणभंगुरता को परास्त कर दिया है तथा काल पर विजय प्राप्त कर ली है।”

महाराज युधिष्ठिर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। ब्राह्मण को तुरंत न्याय मिला।

हर क्षण मृत्यु का भान रखने का अर्थ जीवन से विमुखता नहीं अपितु हर क्षण में जीवन जीने की समग्रता है। अपनी कविता ‘चौकन्ना’ स्मरण हो आती है-

सीने की / ठक-ठक / के बीच

कभी-कभार / सुनता हूँ

मृत्यु की भी / खट-खट,

ठक-ठक.. / खट-खट..,

कान अब / चौकन्ना हुए हैं

अन्यथा / ठक-ठक और /

खट-खट तो / जन्म से ही /

चल रही हैं साथ / और अनवरत..,

आदमी यदि / निरंतर /सुनता रहे /

ठक-ठक / खट-खट / साथ-साथ,

बहुत संभव है / उसकी सोच / निखर जाए,

खट-खट तक / पहुँचने से पहले

ठक-ठक / सँवर जाए..!

मनुष्य यदि ठक-ठक और खट-खट में समुचित संतुलन बैठा ले तो संभव है कि भविष्य के किसी यक्ष को भविष्य के किसी युधिष्ठिर से यह पूछना ही न पड़े कि किमाश्चर्यमतः परम् !

© संजय भारद्वाज

रात्रि 1:10 बजे, 18 नवम्बर 2021

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 67 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 67 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 67) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 67☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

रहने दीजिए कुछ लकीरें

माथे  पे  परेशानी  की…

ग़र हमेशा मुस्कुराएँगे आप तो

नज़र लग जाएगी ज़माने की

 

Let there be a few worry

lines on your forehead

If you keep smiling always,

World may cast an evil eye…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

फिसलती ही चली गई,

इक पल, रुकी भी नहीं,

अब जा के महसूस हुआ,

रेत के मानिंद है जिंदगी…

 

Not for a moment, did it

stop, just kept slipping,

Now I realised that why

life is  like sand  only…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

एक सुकूँ सा मिलता है

तुझे सोचने से भी,

फिर कैसे ये  कह दूँ  कि

मेरा इश्क़ बेवजह सा है…

 

I get a feeling of solace

even by thinking of you,

Then how can I say that

my love is meaningless…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कई बार कुछ झूठ

इतने बड़े हो जाते हैं…

कि वो हकीकत को

छोटा  कर  देते  हैं… !!

 

Sometimes some

lies become so big…

That they even

dwarf  the  truth..!!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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