हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 82 ☆ गजल – ’’बहुत कमजोर है मन…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  बहुत कमजोर है मन…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 82 ☆ गजल – बहुत कमजोर है मन…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बहुत कमजोर है ये मन जहां जाता फिसल जाता

समझने को बहुत है, पर बहुत कम ये समझ पाता।।

धरा पर हर कदम हर क्षण अनेकों दिखते आकर्षण

जहॉ भी ये चला जाता, बचा खुद को नहीं पाता।।

अचानक ही लुभा लेती दमकती रूपसी माया

सदा अनजान सा नादान ये लालच में फँस जाता।।

जहां मिलती कड़कती धूप में इसको घनी छाया

वहीं पर बैठ कुछ पल काटने को ये ललच जाता।।

तरसता है उसे पाने, जहां दिखती सरसता है

जिन्हें अपना समझता है नहीं उनसे कोई नाता।।

नदी से तेज बहती धार है दुनियाँ में जीवन की

कहीं भी अपनी इच्छा से नहीं कोई ठहर पाता।।

सयाने सब बताते है, ये दुनियाँ एक सपना है

जो भी मिलता है सपने में नहीं कोई काम है आता।।

सिमटते जब सुहाने दिन धुंधली शाम जाती है

समय जबलपुर बीत जाता है दुखी मन बैठ पछताता।।

भले वे हैं जो आने वाले कल का ध्यान रखते हैं

उन्हीं के साथ औरों का भी जीवन तक सँवर जाता।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 91 – दुःख और सुख ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #91 🌻 दुःख और सुख 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

पाप से मन को बचाये रहना और उसे पुण्य में प्रवृत्त रखना यही मानव जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है।

एक बहुत अमीर सेठ थे। एक दिन वे बैठे थे कि भागती-भागती नौकरानी उनके पास आई और कहने लगी : “सेठ जी! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।”

सेठ जी बोलेः “अच्छा हुआ….. भला हुआ।” उस समय सेठ जी के पास उनका रिश्तेदार बैठा था। उसने सोचाः बड़ा बेपरवाह है! आधा घंटा बीता होगा कि नौकरानी फिर आईः “सेठ जी! सेठ जी! वह हार मिल गया।” सेठ जी कहते हैं- “अच्छा हुआ…. भला हुआ।”

वह रिश्तेदार प्रश्न करता हैः “सेठजी! जब नौ लाख का हार चला गया तब भी आपने कहा कि ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ’ और जब मिल गया तब भी आप कह रहे हैं ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ।’ ऐसा क्यों?”

सेठ जीः “एक तो हार चला गया और ऊपर से क्या अपनी शांति भी चली जानी चाहिए? नहीं। जो हुआ अच्छा हुआ, भला हुआ। एक दिन सब कुछ तो छोड़ना पड़ेगा इसलिए अभी से थोड़ा-थोड़ा छूट रहा है तो आखिर में आसानी रहेगी।”

अंत समय में एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसलिए दान-पुण्य करो ताकि छोड़ने की आदत पड़े तो मरने के बाद इन चीजों का आकर्षण न रहे और भगवान की प्रीति मिल जाय।

दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है।

रिश्तेदार फिर पूछता हैः “लेकिन जब हार मिल गया तब आपने ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ’ क्यों कहा?”

सेठ जीः “नौकरानी खुश थी, सेठानी खुश थी, उसकी सहेलियाँ खुश थीं, इतने सारे लोग खुश हो रहे थे तो अच्छा है,….. भला है….. मैं क्यों दुःखी होऊँ? वस्तुएँ आ जाएँ या चली जाएँ लेकिन मैं अपने दिल को क्यों दुःखी करूँ ? मैं तो यह जानता हूँ कि जो भी होता है अच्छे के लिए, भले के लिए होता है।

जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है। होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है। मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा ज्ञान है, इसलिए मैं बाहर का सेठ नहीं, हृदय का भी सेठ हूँ।”

हृदय का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दुःख न दुःखी न हो तथा सुख में अहंकारी और लम्पट न हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है कि मेरी मृत्यु नहीं। जो मरता है वह मैं नहीं और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।

मान-अपमान आ जाए तो भी वह समझता है कि ये आने जाने वाली चीजें हैं, माया की हैं, दिखावटी हैं, अस्थाई हैं। स्थाई तो केवल परमात्मा है, जो एकमात्र सत्य है, और वही मेरा आत्मा है। जिसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महात्मा है, योगी है। वही बड़ा बुद्धिमान है क्योंकि उसमें ज्ञान का दीपक जगमगा रहा है।

संसार में जितने भी दुःख और जितनी परेशानियाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूफी भरी हुई है। सत्संग से वह बेवकूफी कटती एवं हटती जाती है। एक दिन वह आदमी पूरा ज्ञानी हो जाता है। अर्जुन को जब पूर्ण ज्ञान मिला तब ही वह पूर्ण संतुष्ट हुआ। अपने जीवन में भी वही लक्ष्य होना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 103 – नकोस देऊ आज साजणा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 103 – नकोस देऊ आज साजणा ☆

नकोस देऊ आज साजणा भास नव्याने सारे।

आठवणींच्या मोर पिसांचे रंग उधळती तारे।

 

मऊ मुलायम कुरणावरती प्रीत पाखरू येई।

साद घालता ओढ लाविते नित्य जिवाला कारे।

 

शब्दतार तव नाद छेडती धुंद जणू हे गाणे।

मुग्ध जाहला देह स्वरांनी भाव अनामिक न्यारे।

 

गुंजन करितो भ्रमर कळीशी गूज तयांचे चाले।

अधर थरथरे अवचित जुळता नयन राजसा घारे।

 

तव स्पर्शाची किमया न्यारी गाली येई लाली।

स्पर्श फुलांचा गंध दरवळे दाही दिशांत वारे।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #133 ☆ सुनना और सहना ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुनना और सहना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 133 ☆

☆ सुनना और सहना

‘हालात सिखाते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार इस कथन के माध्यम से समय व परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हैं। वैसे यह तथ्य महिलाओं पर अधिक लागू होता है, क्योंकि ‘औरत को सहना है, कहना नहीं और यही उसकी नियति है।’ उसे तो अपना पक्ष रखने का अधिकार भी प्राप्त नहीं है। वैसे कोर्ट-कचहरी में भी आरोपी को अपना पक्ष रखने की हिदायत ही नहीं दी जाती; अवसर भी प्रदान किया जाता है। परंतु औरत की नियति तो उससे भी बदतर है। बचपन से उसे समझा दिया जाता है कि यह घर उसका नहीं है और पति का घर उसका होगा। परंतु पहले तो उसे यह सीख दी जाती थी कि ‘जिस घर से डोली उठती है, उस घर से अर्थी नहीं उठती। इसलिए तुम्हें इस घर में अकेले लौट कर नहीं आना है।’ सो! वह मासूम आजीवन उस घर को अपना समझ कर सजाती-संवारती है, परंतु अंत में उस घर से उस अभागिन को दो गज़ कफ़न भी नसीब नहीं होता और उसके नाम की पट्टिका भी कभी उस घर के बाहर दिखाई नहीं पड़ती।

परंतु समय के साथ सोच बदली है और आठ से दस प्रतिशत महिलाएं सशक्त हो गई हैं– शेष वही ढाक के तीन पात। कुछ महिलाएं समानता के अधिकारों का दुरुपयोग भी कर रही हैं। वे ‘लिव इन व मी टू’ के माध्यम से हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा रही हैं तथा दहेज व घरेलू हिंसा आदि के झूठे इल्ज़ाम लगा पति व परिवारजनों को सीखचों के पीछे पहुंचा अहम् भूमिका वहन कर रही हैं। यह है परिस्थितियों के परिर्वतन का परिणाम, जैसा कि गुलज़ार ने कहा है कि समानता का अधिकार प्राप्त करने के पश्चात् महिलाओं की सोच बदली है। वे अब आधी ज़मीन ही नहीं, आधा आसमान लेने पर  आमादा हो रही हैं। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘मौसम भी बदलते हैं, हालात बदलते हैं/ यह समाँ बदलता है, जज़्बात बदलते हैं/ यादों से महज़ मिलता नहीं, दिल को सुक़ून/  ग़र साथ हो सुरों का, नग़मात बदलते हैं।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– समय के साथ- साथ व्यक्ति की सोच भी बदलती है। वैसे स्मृतियों में विचरण करने से दिल को सुक़ून नहीं मिलता। परंतु यदि सुरों अथवा संगीत का साथ हो, तो उन नग़मों की प्रभाव-क्षमता भी अधिक हो जाती है।

‘संसार में मुस्कुराहट की वजह लोग जानना चाहते हैं; उदासी की वजह कोई नहीं जानना चाहता।’ यहां ‘सुख के सब साथी, दु:ख में ना कोय।’ सो! इंसान सुखों को इस संसार के लोगों से सांझा नहीं करना चाहता, परंतु दु:खों को बांटना चाहता है। उस स्थिति में वह आत्म- केंद्रित रहते हुए दूसरों से संबंध-सरोकार रखना पसंद नहीं करता। अक्सर लोग सत्ता व धन- सम्पदा व सम्मान वाले व्यक्ति का साथ देना पसंद करते हैं; उसके आसपास मंडराते हैं, परंतु दु:खी व्यक्ति से गुरेज़ करते हैं। यही है ‘दस्तूर- ए-दुनिया।’

‘हौसले भी किसी हक़ीम से कम नहीं होते/ हर तकलीफ़ में ताकत की दवा देते हैं।’ मानव का साहस, धैर्य व आत्मविश्वास किसी वैद्य से कम नहीं होता। वे मानव को मुसीबतों में उनका सामना करने की राह सुझाते हैं। जैसे एक छोटी-सी दवा की गोली रोग-मुक्त करने में सहायक सिद्ध होती है, वैसे ही  संकट काल में सहानुभूति के दो मीठे बोल संजीवनी का कार्य करते हैं। ‘मैं हूं ना’ यह तीन शब्द से उसे संकट-मुक्त कर देते हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए तथा हार होने से पहले पराजय को नहीं स्वीकारना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला कहते हैं ‘हिम्मतवान् वह नहीं, जिसे डर नहीं लगता, बल्कि वह है जो डर को जीत लेता है’ तथा वैज्ञानिक मैडम क्यूरी का मानना है कि ‘जीवन डरने के लिए नहीं: समझने के लिए है। सकारात्मक संकल्प से ही हम मुश्किलों से बाहर निकल सकते हैं।’ सो! संसार में वीर पुरुष ही विजयी होते और कायर व्यक्ति का जीना प्रयोजनहीन होता है। इसके साथ हम सकारात्मक सोच व दृढ़-संकल्प से कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। नैपोलियन का यह संदेश अनुकरणीय है कि ‘समस्याएं भय व डर से उत्पन्न होती हैं। यदि डर की जगह विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। वे विश्वास के साथ आपदाओं का सामना कर उन्हें अवसर में बदल डालते थे।’ इसलिए हर इंसान को अपने हृदय से डर को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। यदि आप साहस-पूर्वक यह पूछते हैं–’इसके बाद क्या’ तो प्रतिपक्ष के हौसले पस्त हो जाते हैं। जिस दिन मानव के हृदय से भय निकल जाता है; वह आत्मविश्वास से आप्लावित हो जाता है और आकस्मिक आपदाओं का सामना करने में स्वयं को समर्थ पाता है। हमारे हृदय का भय का भाव ही हमें नतमस्तक होने पर विवश करता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यही संदेश दिया है कि ‘अन्याय करने वाले से अधिक दोषी अन्याय सहन करने वाला होता है।’ हमारी सहनशीलता ही उसे और अधिक ज़ुल्म करने को प्रोत्साहित करती है। जब हम उसके सम्मुख डटकर खड़े हो जाते हैं, तो वह अपनी झेंप मिटाने के लिए अपना रास्ता बदल लेता है। यह अकाट्य सत्य है कि हमारा समर्पण ही प्रतिपक्ष के हौसलों को बुलंद करता है।

मौन नव निधियों की खान है; विनम्रता आभूषण है। परंतु जहां आत्म-सम्मान का प्रश्न हो, वहाँ उसका सामना करना अपेक्षित व श्रेयस्कर है। ऐसी स्थिति में मौन को कायरता का प्रतीक स्वीकारा जाता है। सो! वहाँ समझौता करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। भले ही सुनना व सहना हमें हालात सिखाते हैं, परंतु उन्हें नतमस्तक हो स्वीकार कर लेना पराजय है।

‘यदि तुम स्वयं को कमज़ोर समझते हो, तो कमज़ोर हो जाओगे। यदि ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो ताकतवर’– स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। हमारी सोच ही हमारा भविष्य निर्धारित करती है। इसलिए जीवन में नकारात्मकता को जीवन में कभी भी घर न बनाने दो। रोयटी बेनेट  के अनुसार चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें हमारा साक्षात्कार कराने हेतु आती हैं कि हम कहां हैं? तूफ़ान हमारी कमज़ोरियों पर आघात करते हैं, लेकिन तभी हमें अपनी शक्तियों का आभास होता है। समाजशास्त्री प्रौफेसर कुमार सुरेश के शब्दों में ‘अगर हमारा परिवार साथ है, तो हमें मनोबल मिलता है और हम हर संकट का सामना करने को तत्पर रहते हैं।’ अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और  चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा मानकर आगे बढ़ता है।’ सो! मानव को उन्हें प्रभु-प्रसाद व अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल स्वीकारना चाहिए। माता देवकी व वासुदेव को 14 वर्ष तक काराग़ार में रहना पड़ा। देवकी के कृष्ण से प्रश्न करने पर उसने उत्तर दिया कि इंसान को अपने कृत-कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। आप त्रेतायुग में माता कैकेयी व पिता वासुदेव दशरथ थे। आपने मुझे 14 वर्ष का वनवास दिया था। इसलिए आपकी मुक्ति भी 14 वर्ष पश्चात् ही संभव थी। सो! ‘जो हुआ, जो हो रहा है और जो होगा, अच्छा ही होगा। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए और हर परिस्थिति का खुशी से स्वागत् करना चाहिए। समय कभी थमता नहीं; निरंतर गतिशील रहता है। इसलिए मन में कभी मलाल को मत आने दो। यह समाँ भी गुज़र जाएगा और उलझनें भी समयानुसार सुलझ जाएंगी। उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दें, तो सब अच्छा ही होगा। औचित्य-अनौचित्य में भेद करना सीखें और विपरीत परिस्थितियों में प्रसन्न रहें, क्योंकि शरणागति ही शांति पाने का सर्वोत्तम साधन है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #132 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 132 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

धरती कहे आकाश से, तपन बहुत है आज।

बरसो घन अब आज तुम, हे बादल सरताज।।

 

ग्रीष्म काल की तपन का, अब होता आभास।

झुलस रहे देखो सभी, बस वर्षा की आस।।

 

धरती तपती ताप से, पंछी हैं बेहाल।

सूखे है जल कूप अब, बुरा हुआ है हाल।।

 

गर्मी जबसे आ गई, नहीं मिली है ठांव।

गांव गांव सब सूखते, गायब होती छांव।।

 

जितनी बढ़ती तपन हैं, सूरज खेले दांव।

धीरे- धीरे बढ़ रहे, वर्षा के अब पांव।।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #122 ☆ मोहन जीवन प्राण आधार ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  भावप्रवण रचना “मोहन जीवन प्राण आधार। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 122 ☆

☆ मोहन जीवन प्राण आधार  

एक आसरो तुमरो स्वामी, झूठो सब संसार

पग-पग में प्रभु कंटक ठाड़े, तुमहिं करो परिहार

रीति जगत की हम नहिं जानें, अजबै कारोबार

कौन प्रभु जी अपनो परायो, मिथ्या जग व्यबहार

मन माया को बनो पुजारी, निरखत रंग हजार

प्रभु “संतोष” दरश को प्यासो, करियो श्याम उद्धार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #125 – विजय साहित्य – आला आला कवी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 125 – विजय साहित्य ?

☆ आला आला कवी…!  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

 (अतिशयोक्ती अलंकार)

आला आला कवी

वाचू लागला वही

चार तासांनी म्हणे

ही होती फक्त सही….!

 

कविता त्याची नाजूक

खसखशी पेक्षाही छोटी

मुंगी सुद्धा त्यांच्यापुढे

शंभर पट मोठी…!

 

आला आला कवी

किती त्याचे पुरस्कार

रद्दिवाला म्हणे

घेतो हप्त्यात चार..!

 

आला आला कवी

चला म्हणे घरी

दाखवतो तुम्हाला

स्वर्गातली परी…!

 

आला आला कवी

पिळतोय मिशा

शब्दांच्या कोट्यांनी

भरलाय खिसा…!

 

आला आला कवी

खांद्याला झोळी

शब्दांच्या भाकरीत

पुरणाची पोळी…!

 

आला आला कवी

चोरावर मोर

जोरदार घेई टाळ्या

कोल्हाट्याचं पोर…!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 100 ☆ शांति और सहयोग ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “शांति और सहयोग…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 100 ☆

☆ शांति और सहयोग… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

मैंने कुछ कहा और बुद्धिजीवियों ने उसे संशोधित किया बस यहीं से अहंकार जन्म लेता है कि आखिर मुझे टोका क्यों गया। सीखने की प्रक्रिया में लगातार उतार- चढ़ाव आते हैं। जब हम सुनना, गुनना और सीखना बंद कर देते हैं तो वहीं से हमारी बुद्धि तिरोहित होना शुरू कर देती है। क्या सही है क्या गलत है ये सोचने समझने की क्षमता जब इसके घेरे में आती है तो वाद- विवाद होने में देर नहीं लगती है। कदम दर कदम बढ़ाते हुए व्यक्ति बस एक दूसरे से बदला लेने की होड़ में क्या- क्या नहीं कर गुजरता।  होना ये चाहिए कि आप अपनी रेखा निर्मित करें और उसे बढ़ाने की ओर अग्रसर हों। सबको जोड़ते हुए चलने में जो आंनद है वो अन्य कहाँ देखने को मिलेगा।

आजकल यूट्यूब और इंस्टाग्राम में पोस्ट करने का चलन इस कदर बढ़ गया है कि हर पल को शेयर करने के कारण व्यक्ति कोई भी थीम तलाश लेता है। उसका उद्देश्य मनोरंजन के साथ ही लाइक व सब्सक्राइब करना ही होता है। यू टयूब के बटन को पाने की होड़ ने कुछ भी पोस्ट करने की विचारधारा को बलवती  किया है। तकनीकी ने एक से एक अवसर दिए हैं बस रोजगार की तलाश में भटकते युवा उसका प्रयोग कैसे करते हैं ये उन पर निर्भर करता है।

एप का निर्माण और उसे  अपडेट करते रहने के दौरान अनायास ही संदेश मिलता है कि समय के साथ सामंजस्य करने का हुनर आना चाहिए। कदम दर कदम बस चलते रहना है। एक राह पर चलते रहें, मनोरंजन के अवसर मिलने के साथ ही रोजगार परक व्यवसाय की पाइप लाइन बनाना भी आना चाहिए। सभी बुद्धिजीवी वर्ग को इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि सबके विकास को, सबके प्रयास से जोड़ते हुए बढ़ना है। एक और एक ग्यारह होते हैं इसे समझते हुए एकता की शक्ति को भी पहचानना होगा। संख्या बल केवल चुनावों में नहीं वरन जीवन हर क्षेत्र में प्रभावी होता है। कैसे ये बल हमारी उन्नति की ओर बढ़े इस ओर चिन्तन मनन होना चाहिए।

आजकल जाति वर्ग के आधार पर निर्णयों को प्रमुखता दी जाती है। इसे एकजुटता का संकेत माने या अलगाव की पहल ये तो वक्त तय करेगा।किन्तु प्रभावी मुद्दे मीडिया व जनमानस की बहस का हिस्सा बन कर सबका टाइम पास बखूबी कररहे हैं। आक्रोश फैलाने वाली बातों पर चर्चा किस हद तक सही कही जा सकती है। इन पर रोक होनी चाहिए। कार्यों का होना एक बात है किन्तु बिनाबात के हल्ला बोल या ताल ठोक जैसे कार्यक्रम किसी भी हद तक सही नहीं कहे जा सकते हैं। इन सबका असर जन मानस  पर पड़ता है सो सभी को एकजुटता का परिचय देते हुए सहयोगी भाव से  सही तथ्यों को स्वीकार करना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 157 ☆ आलेख  – शिव लिंग का आध्यात्मिक महत्व… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  शिव लिंग का आध्यात्मिक महत्व…! इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 157 ☆

? आलेख  – शिव लिंग का आध्यात्मिक महत्व.. ?

सनातन संस्कृति में भगवान शिव को सर्वशक्तिमान माना जाता है।  भगवान शिव की पूजा  शिवलिंग के स्वरूप में भी की  जाती है।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश, ये तीनों देवता सृष्टि की स्थापना , लालन पालन , तथा प्रलय के सर्वशक्तिमान देवता हैं।

दरअसल, भगवान शिव का कोई स्वरूप नहीं है, उन्हें निराकार माना जाता है। शिवलिंग के रूप में उनके इसी निराकार रूप की आराधना की जाती है।

शिवलिंग का अर्थ:

‘लिंगम’ शब्द ‘लिया’ और ‘गम्य’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ ‘आरंभ’ और ‘अंत’ होता है। दरअसल, मान्यता  है कि शिव से ही ब्रह्मांड प्रकट हुआ है और यह उन्हीं में मिल जाएगा।

शिवलिंग में ब्रम्हा विष्णु महेश तीनों देवताओ का वास माना जाता है। शिवलिंग को तीन भागों में बांटा जा सकता है। सबसे निचला हिस्सा जो आधार होता है, दूसरा बीच का हिस्सा और तीसरा शीर्ष सबसे ऊपर जिसकी पूजा की जाती है।

निचला हिस्सा ब्रह्मा जी (सृष्टि के रचयिता), मध्य भाग विष्णु (सृष्टि के पालनहार) और ऊपरी भाग भगवान शिव (सृष्टि के विनाशक) हैं। अर्थात शिवलिंग के जरिए ही त्रिदेव की आराधना हो जाती है।

अन्य मान्यता के अनुसार,  शिव लिंग में  शिव और शक्ति,का एक साथ में वास माना जाता है।

पिंड की तरह आकार के पीछे आध्यात्मिक और वैज्ञानिक, दोनों कारण है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो शिव ब्रह्मांड के निर्माण के आधार मूल हैं। अर्थात शिव ही वो बीज हैं, जिससे पूरा संसार बना है। वहीं अगर वैज्ञानिक दृष्टि से बात करें तो ‘बिग बौग थ्योरीज कहती है कि ब्रह्मांड का निमार्ण  छोटे से कण से हुआ है। अर्थात शिवलिंग के आकार को इसी से  जोड़कर  देखा जाता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ कथा संग्रह – ‘शॉप-वरदान’ – प्रभा पारीक ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है प्रभा पारीक जी के कथा संग्रह  “शॉप-वरदान” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ कथा संग्रह – ‘शॉप-वरदान’ – प्रभा पारीक ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक:  शॉप-वरदान

लेखिका:  प्रभा पारीक

प्रकाशक: साहित्यागार,धामणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर- 302013

मोबाइल नंबर : 94689 43311

पृष्ठ : 346

मूल्य : ₹550

समीक्षक : ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ शॉप-वरदान की अनूठी कहानियाँ – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

किसी साहित्य संस्कृति की समृद्धि उसके रचे हुए साहित्य के समानुपाती होती है। जिस रूप में उसका साहित्य और संस्कृति समृद्ध होती है उसी रूप में उसका लोक साहित्य और समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता है। लौकिक साहित्य में लोक की समृद्धि संस्कार, रीतिरिवाज और समाज के दर्शन होते हैं।

इस मायने में भारतीय संस्कृति में पुराण, संस्कृति, लोक साहित्य, अलौकिक साहित्य आदि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। समृद्ध काव्य परंपरा, महाकाल, ग्रंथकाव्य, पुराण,  वेद, वेदांग उपाँग और अलौकिक-लौकिक महाकाव्य में हमारी समृद्ध परंपरा को सहेज कर रखा है। इसी के द्वारा हम गुण-अवगुण, मूल्य-अमूल्य, आचरण-व्यवहार, देव-दानव आदि को समझकर तदनुसार कार्य-व्यवहार, भेद-अभेद, शॉपवरदान आदि का निर्धारण कर पाते हैं।

अमृत परंपरा का अध्ययन, चिंतन-मनन व श्रम साध्य कार्य करके उसमें से शॉप और वरदान की कथाओं का परिशीलन करना बहुत बड़ी बात है। यह एक श्रमसाध्य कार्य है। जिसके लिए गहन चिंतन-मनन, विचार-मंथन, तर्क-वितर्क और आलोचना-समालोचना की बहुत ज्यादा जरूरत होती है।

तर्क, विचार और सुसंगतता की कसौटी पर खरे उतरने के बाद उसका लेखन करना बहुत बड़ी चुनौती होता है। इसके लिए गहन अध्ययन व चिंतन की आवश्यकता होती है। इस कसौटी पर प्रभा पारीक का दीर्धकालीन अध्ययन, शोध, चिंतन एवं मनन उनके लेखन में बहुत ही सार्थक रूप से परिणित हुआ है।

वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, रामायण, भगवत आदि में वर्णित अधिकांश शॉप उनके वरदान के परिणीति का ही प्रतिफल है। हर शॉप उनके वरदान को पुष्ट करता है। इसी द्विकार्य पद्धति को प्रदर्शित करती पुस्तक में शॉप और वरदान की अनेकों कहानियां हैं जो हमारी भारतीय संस्कृति के अनेक पुष्ट परंपराओं और रीति-रिवाजों को हमारे समुख लाती है। इसी पुस्तक के द्वारा इन्हीं कथाओं के रूप में हमारे सम्मुख सहज, सरल, प्रवहमय भाषा में हमारे सम्मुख रखने का कार्य लेखिका ने किया है।

वेद, पुराण, श्रीमद् भागवत आदि का ऐसा कोई प्रसंग, कथा, कहानी, शॉप, वरदान नहीं जिसका अनुशीलन लेखिका ने न किया हो। प्रस्तुत पुस्तक इसी दृष्टि से बहुत उपयोगी है। साजसज्जा उत्तम हैं। त्रुटिरहित छपाई, आकर्षक कवर ने पुस्तक की उपयोगिता में चार चांद लगा दिए हैं। 346 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹550 वर्तमान युग के हिसाब से वाजिब है।

पुस्तक की उपयोगिता सर्वविदित हैं। साहित्य के क्षेत्र में इसका सदैव स्वागत किया जाएगा।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-03-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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