प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  बहुत कमजोर है मन…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 82 ☆ गजल – बहुत कमजोर है मन…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बहुत कमजोर है ये मन जहां जाता फिसल जाता

समझने को बहुत है, पर बहुत कम ये समझ पाता।।

धरा पर हर कदम हर क्षण अनेकों दिखते आकर्षण

जहॉ भी ये चला जाता, बचा खुद को नहीं पाता।।

अचानक ही लुभा लेती दमकती रूपसी माया

सदा अनजान सा नादान ये लालच में फँस जाता।।

जहां मिलती कड़कती धूप में इसको घनी छाया

वहीं पर बैठ कुछ पल काटने को ये ललच जाता।।

तरसता है उसे पाने, जहां दिखती सरसता है

जिन्हें अपना समझता है नहीं उनसे कोई नाता।।

नदी से तेज बहती धार है दुनियाँ में जीवन की

कहीं भी अपनी इच्छा से नहीं कोई ठहर पाता।।

सयाने सब बताते है, ये दुनियाँ एक सपना है

जो भी मिलता है सपने में नहीं कोई काम है आता।।

सिमटते जब सुहाने दिन धुंधली शाम जाती है

समय जबलपुर बीत जाता है दुखी मन बैठ पछताता।।

भले वे हैं जो आने वाले कल का ध्यान रखते हैं

उन्हीं के साथ औरों का भी जीवन तक सँवर जाता।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments