हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 158 ☆ व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने. इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 158 ☆

? व्यंग्य – जिजिविषा के बन्द पन्ने  ?

निज़ाम-ए-मय-कदा साक़ी बदलने की ज़रूरत है

हज़ारों हैं सफ़े जिन में न मय आई न जाम आया

रफ कापी मतलब पीरियड किसी भी विषय का हो, नोट्स जिस कापी में लिखे जाते थे, वह महत्वपूर्ण दस्तावेज एक अदद रफ कापी हुआ करती थी जैसे गरीब की लुगाई गांव की भौजाई होती है. फिर भी रफ कापी अधिकृत नोटबुक नही मानी जाती.

छुट्टी के लिये आवेदन लिखना हो तो रफ कापी से ही बीच के पृष्ठ सहजता से निकाल लिये जाते थे, मानो सरकारी सार्वजनिक संपत्ति हो. रफ कापी के पेज फाड़कर ही राकेट, नाव और कागज के फ्लावर्स बनाकर ओरोगामी सीखी जाती थी.  यह रफ कापी ही होती थी, जिसके अंतिम पृष्ठ में नोटिस बोर्ड की महत्वपूर्ण सूचनायें एक टांग पर खड़े होकर लिखी जाती थीं.

रफ कापी में ही कई कई बार लाइफ रिजोल्यूशन्स लिखे जाते थे, परीक्षायें पास आने लगती तो डेली रूटीन लिख लिख कर हर बीतते दिन के साथ बार बार सुधारे जाते थे. टीचर के व्याख्यान उबाऊ लग रहे होते  तो रफ कापी ही क्लास में दूर दूर बैठे मित्रो के बीच लिखित संदेश वाहिका बन जाती थी, उस जमाने में न तो हर हाथ में मोबाइल थे और न एस एम एस, व्हाट्स एप की चैटिंग.

उम्र के किशोर पड़ाव पर रफ कापी के पृष्ठ पर ही पहला लव लेटर भी लिखा था, यदि ताजमहल भगवान शिव का पवित्र मंदिर नही, प्रेम मंदिर ही है तो  चिंधी में तब्दील वह सफा, हमारे ताज बनाने की दास्तां से पूर्व उसकी स्वयम की गई भ्रूण हत्या थी. कुल मिलाकर रफ कापी हमारी पीढ़ी  का बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज रहा है. शायद जिंदगी का पहला  व्यंग्य भी रफ कापी पर ही लिखा था  मैंने.

नोट्स रि राइट करने की अपेक्षा  रफ कापी के वे पन्ने जो सचमुच रफ वर्क के होते उन्हें स्टेपल कर रफ वर्क को दबा कर फेयर कापी में तब्दील करने की कला हम समय के साथ सीख गये थे. जब रफ कापी के कवर की दशा दुर्दशा में बदल जाती और कापी सबमिट करनी विवशता हो तो नया साफ सु्थरा ब्राउन कवर चढ़ा कर निजात मिल जाती. नये कवर में पुराना माल ढ़ंका, मुंदा बन्द बना रहता. बन्द सफों और ढ़ंके कवर को खोलने की जहमत कोई क्यों उठाता.

इस ढ़ांकने, मूंदने, अपनी गलतियों को छुपा देने,  के मनोविज्ञान को नेताओ ने भली भांति समझा है, रफ कापी में टाइम पास के लिए हाशिये पर गोदे गये चित्र  इतिहास और मनोविज्ञान के समर्थ अन्वेषी साधन हैं.

बरसों से सचाई की खोज महज शोधकर्ताओ की थीसिस या किसी फिल्म का मटेरियल मात्र मानी जाती रही है.

तभी तो आजाद भारत में भी किसी को ताजमहल के तलघर के बन्द कमरों, या स्वामी पद्मनाभ मंदिर के गुप्त खजाने के महत्वपूर्ण इतिहास को खोजने में किसी की गंभीर रुचि नही रही. मीनार पर मीनार, गुम्बद पर गुम्बद की सचाई को ढ़ांके, नये नये कवर चढ़े हुये हैं.

लम्बी अदालती कार्यवाहियों के स्टेपल, जांच कमेटियों की गोंद, कमीशन रिपोर्ट्स के फेवीकाल, कानून के उलझे दायरों के मुडे सिले क्लोज्ड पन्नो में  बहमत के सारे मनोभाव, कौम की  सचाई छिपी है. वोट दाता नाराज न हो जाएं सो उनके तुष्टीकरण के लिये देश की रफ कापी के ढेरों पन्ने चिपका कर यथार्थ छिपाई जाती रही है. शुतुरमुर्ग की तरह सच को न देखने से सच बदल तो नही सकता, पर यह सच बोलना भी मना है.

पर आज  नोटबुक के सारे जबरदस्ती  बन्द रखे गए पन्ने फडफड़ा रहे हैं  उन्हें सिलसिलेवार समझना होगा क्योंकि अब मैं समझ रहा हूं कि रफ कापी के वे स्टेपल्ड बन्द पन्ने केवल रफ वर्क नहीं सच की फेयर डायरी है । जिनमें  दर्ज है पीढ़ी की जिजिविषा, तपस्या, निष्ठा और तत्कालीन बेबसी की दर्दनाक पीड़ा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विश्व परिवार दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “विश्व परिवार दिवस।)

☆ आलेख ☆ विश्व परिवार दिवस  ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत मई माह के तीसरे रविवार को अलसुबाह एक मित्र का ‘विश्व परिवार दिवस’ का मेसेज प्राप्त हुआ ही था कि स्थानीय समाचार पत्र ने विस्तार पूर्वक एक सर्वे की जानकारी देकर इस बाबत पुष्टि कर दी थी।

हमारी संस्कृति तो सदियों से “वसुधैव कुटुंबकम्” की वकालत कर रही हैं। हमें आज परिवार दिवस की दरकार क्यों आन पड़ी हैं ?

पश्चिमी संस्कृति हमारी संस्कृति को दीमक के समान चट कर रही हैं। दीमक जिस प्रकार पूरे दिन के चौबीस घंटे लगकर वस्तुओं को नष्ट कर देता हैं, उसी प्रकार से पश्चिमी सभ्यता हमारी जड़े खोखली कर चुका हैं।

उसी दिन दोपहर को एक परिचित परिवार से लंबे अंतराल के बाद बातचीत हुई तब पता चला एकल परिवार के दोनों पहिए अब स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के कारण अलग अलग शहर में बस गए हैं। परिचित (आयु चालीस वर्ष) की पत्नी जयपुर से कोटा चली गई हैं, ताकि वहां उपलब्ध कोचिंग संस्थान में बच्चे के लिए विशेष पढ़ाई करवा सकें। उनकी पत्नी किसी विदेशी कंपनी के लिए एक दशक से ऑनलाइन कार्य कर रही हैं, इसलिए उनकी नौकरी में कोई बाधा नहीं होगी। लेकिन बातों बातों में ऐसा प्रतीत हुआ कि एकल परिवार में कुछ तो गड़बड़ हैं। अंदाज लगा पाए शायद ईगो/ स्पेस बाबत कोई कारण हैं।

हमने परिचित को उनके परिवार का हवाला दिया की वो एक जाने माने साहित्यकार और कला के क़द्रदानों कदरदानों के परिवार से आते हैं।   

युवा परिचित भी तुरंत पलट कर बोले – “वो ये सब अब नहीं मानते, सुप्रसिद्ध कहानीकार सलीम साहब के दो बेटों ने तो भी विवाह विच्छेद कर लिया हैं। जावेद साहब तो स्वयं और उनके पुत्र भी विवाह विच्छेद कर चुके हैं।“

वो यहां भी नहीं रुके और धर्मेंद्र/हेमामालिनी के दूसरे विवाह की बात सुनकर हम तो निश्शब्द हो गए।

कुछ बहाना कर, हमने उनकी वार्तालाप को विराम दिया। हृदय में कहीं से आवाज़ आई “बहते पानी के साथ चलो” और विश्व परिवार दिवस मनाने के लिए परिवार सहित रात्रि का भोजन किसी भोजनालय में करते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #139 ☆ कुंपण माणुसकीचे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 139  ?

☆ कुंपण माणुसकीचे

माती, लाकुड, कौलाने घर शांत राखले

सिमेंट, वाळू, लोखंडाने खूप तापले

 

दोन फुटांच्या भिंतींचे घर जरी कालचे

वीतभराच्या भिंतीवर येऊन ठेपले

 

सारवलेली छान ओसरी स्वच्छ घोंगडे

खांद्यावरचा नांगर ठेवत अंग टेकले

 

घराभोवती होते कुंपण माणुसकीचे

काटेरी तारांचे कुंपण मात्र टोचले

 

पान सुपारी सोबत चालू होत्या गप्पा

पारावरती जमले होते लोक थोरले

 

हायजीनची उगाच पात्रे हवी कशाला

केळीच्या पानात जेवणे खूप चांगले

 

पाश्चात्त्यांच्या संस्कृतीचे गुलाम झालो

प्राचीन संस्कृतीचे आम्ही पंख छाटले

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 92 – “कमर-कमर अंधियारा…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कमर-कमर अंधियारा…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 92 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कमर-कमर अंधियारा”|| ☆

 

एक बहिन गगरी

कलशा एक भाई

लौट रही पनघट से

मुदिता भौजाई

 

प्यास बहुत गहरी पर

उथली घड़ोंची

पानी की पीर जहाँ

गई नहीं पोंछी

 

एक नजर छिछली पर

जगह-जगह पसरी है

सम्हल-सम्हल चलती है

घर की चौपाई

 

कमर-कमर अंधियारा

पाँव-पाँव दाखी

छाती पर व्याकुल

कपोत सदृश पाखी

 

एक छुअन गुजर चुकी

लौट रही दूजी

लम्बाया इन्तजार

जो था चौथाई

 

नाभि-नाभि तक उमंग

क्षण-क्षण गहराती है

होंठों ठहरी तरंग

जैसे उड़ जाती है

 

इठलाती चोटी है पीछे को

उमड़ -घुमड़

आज यह नई सन्ध्या

जैसे बौराई

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-05-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 138 ☆ अहसास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता “अहसास”।)  

☆ कविता # 137 ☆ अहसास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

अपने गांव की 

पगडंडी पर

चलते हुए

धूप क्यों नहीं

लग रही है ?

 

जबकि शहर में

दुपहरी काटे नही

 कटती चाहे

कितनी भी फेक दे

एसी अपनी हवा,

 

गांव की गली

 में अमलतास

पसर जाता है

हमें देखकर,

 

और शहर के

अमलतास में

चल जाता है

बुलडोजर विकास

के नाम पर,

 

गांव के आंगन में

दाना चुगने आ गई

गौरैया की भीड़

हमें देखकर,

 

जबकि शहर में

गौरैया आंगन से

गायब सी हो गई

नहीं दिखती बहुत

चाहने पर,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 82 ☆ # ये महानगर है # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता “# ये महानगर है #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 82 ☆

☆ # ये महानगर है # ☆ 

ये महानगर है

सपनों का शहर है

दौड़ते हुए पांव है

कहीं धूप कहीं छांव है

कुछ पाने की तड़प है

तपती हुई सड़क है

खाली खाली हाथ है

सपनों का साथ है

आंखों में एक आस है

होंठों पर प्यास है

झुलसाती दोपहर है

ये महानगर है

 

जो दौड़ते दौड़ते गिर गया

वो दुखों से घिर गया

कितने रोज गिरते हैं

कितने रोज मरते हैं

किसको इसकी खबर है

सरकारें बेखबर है

सब अपने में मस्त हैं

रोटी कमाने में व्यस्त हैं

ना सर पर छप्पर

ना रहने को घर है

हां जी यह महानगर है

 

इस शहर के कई रंग है

यहां कदम कदम पर जंग है

यहां अमीर भी है

यहां गरीब भी है

यहां पल पल

बनते बिगड़ते नसीब भी है

ज़मीन से उठकर

कोई सितारा बन गया

लोगों की आंखों का

तारा बन गया

कोई अपनी प्रतिभा से

लोगों के दिलों में घर कर गया

कोई फुटपाथ पर जन्मा

फुटपाथ पे मर गया

ये शहर सबको देता अवसर है

हां भाई! ये महानगर है

 

जिनको यहां आना है

शिक्षित होकर आयें

अपने पसंद के क्षेत्र में जायें

संघर्ष करें, मेहनत करें

ना घबरायें

लक्ष्य को पाने

तन-मन से जुट जाएं

वो ही जीतकर

बाजीगर कहलाए

हार के आगे जीत है

आंसुओं के आगे प्रीत है

जो सदा जीतने के लिए

खेला है

उसके ही आगे पीछे

लगा मेला है

यहां हर रोज बनती

एक नई खबर है

हां भाई हां! यह महानगर है /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे #82 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 82 ? 

☆ अभंग…   ☆

 

वात कफ पित्त, त्रय दोष युक्त

नच कधी मुक्त, जीव पहा…!!

 

रोगाचे आगार, मानवाचा देह

सुटतो का मोह, कधी याला…!!

 

संपूर्ण आयुष्य, हावरट बुद्धी

नाहीच सुबुद्धी, याच्याकडे…!!

 

शेवट पर्यंत, पाहिजे म्हणतो

स्वतःचे करतो, अहंकारी…!!

 

वाईट आचार, सदैव साधतो

देवास भजतो, स्वार्थ हेतू…!!

 

कवी राज म्हणे, स्वभाव जीवाचा

उपाय कुणाचा, चाले ना हो…!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 18 – असतील शिते तर जमतील भुते ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 18 –  असतील शिते तर जमतील भुते ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प

नरेंद्र ब्राह्मो समाजाच्या कामात, त्यांच्या मतप्रणालीत आतापर्यंत चांगला मुरला होता. त्यामुळे श्री रामकृष्णांबरोबर पूर्ण वेळ काम करण्याचे अजून त्याचे मन मानत नव्हते. बर्‍याच दिवसांत नरेंद्र दक्षिणेश्वरला गेला नव्हता. त्यामुळे रामकृष्णांचे मन सुद्धा नरेंद्रला भेटण्यास उत्सुक होते. ब्राह्मो  समाजात गेलं तर, नरेंद्र तिथे नक्की भेटेल असं त्यांना वाटलं आणि ते सरळ संध्याकाळी उपासनेच्या वेळी ब्राह्मो समाजात गेले. त्यावेळी आचार्य, वेदिवरून धर्मोपदेश देत होते. त्यांच्या ईश्वरीय गोष्टी ऐकून रामकृष्ण सरळ वेदीजवळ जाऊन पोहोचले, याचा अंदाज नरेंद्रला होताच. लगेच तोही त्यांच्या पाठोपाठ वेदीजवळ गेला आणि त्यांना सावरू लागला. यावेळी आचार्य, आसनावरून उठले नाहीत आणि रामकृष्णान्शी बोलले देखील नाहीत. साधा शिष्टाचार सुद्धा पाळला नाही. नरेन्द्रनी, कसेतरी     श्री रामकृष्णांना सभागृहाबाहेर काढून, त्यांना दक्षिणेश्वरला रवाना केले. त्यांचा आपल्यासाठी असा झालेला अपमान नरेंद्रला सहन झाला नाही. या जाणिवेने क्षुब्ध आणि व्यथित होऊन नरेन्द्रने त्या दिवसापासून ब्राह्मो समाजाचे काम सोडले ते कायमचेच.

नरेंद्र बी.ए.ला शिकत असतानाच विश्वनाथ बाबूंनी त्यांचे मित्र, निमईचरण बसू यांच्याकडे कायद्याच्या शिक्षणाची सोय केली होती. त्याच्या जीवनात स्थैर्य यावं, म्हणून त्यांचा प्रयत्न चालला होता. घरी नेहमी पाहुणे रावळे, येणारे जाणारे, नातेवाईक यांची वर्दळ असे. त्यामुळे नरेंद्र अभ्यासाला आजीकडे जात असे. साधे अंथरूण, आवश्यक पुस्तके, एक तंबोरा एव्हढेच त्याचे सामान असे. एकांतवास, ध्यानधारणा, कठोर शारीरिक नियम असा ब्रम्हचार्‍याचा दिनक्रम असे. काही वेळा तर श्रीरामकृष्ण सुद्धा तिथे येऊन साधनेसंबंधी उपदेश देऊन जात असत. काही नातेवाईक आणि मित्रांना हे वागणे आवडत नसे. सर्वजण आध्यात्मिकतेपासून नरेंद्रला परावृत्त करण्याचा प्रयत्न करत असत. मात्र तरीही नरेंद्र चे मित्रांना भेटणे सुरू असे.

एकदा असेच वराहनगर मध्ये मित्राकडे सर्व जमले होते. गप्पागाणी यात सर्व दंग झाले असताना, अचानक घाबरलेल्या अवस्थेत एकाने येऊन, नरेंद्रच्या वडिलांची हृदयक्रिया बंद पडून ते गेल्याची बातमी दिली. या बातमीने सगळ्या झगमगाटात सुद्धा नरेंद्रला सगळीकडे अंधार दिसू लागला. ताबडतोब तो घरी आला. ते दृश्य पाहून, पितृशोकाने नरेंद्रचे वज्रदृढ हृदय वितळून अश्रुंच्या धारा लागल्या.

आता भविष्यकाळ कसा असेल? आता दर महिन्याचा हजारो रूपयांचा खर्च कसा चालवायचा? भुवनेश्वरी देवींना आकाश फाटल्यासारखं झालं. संसारासंबंधी नेहमी उदासीन असलेल्या नरेंद्रला दारिद्र्याच्या कल्पनेने गांगरून जायला झालं. अनुकूल अवस्थेत अगदी जवळची म्हणवणारी, प्रतिकूल अवस्था येताच जवळचीच मंडळी पारखी होऊ लागली. विपन्नावस्थेत कुणी साथ देत नाहीत ही जगाचीच रीत. नरेन्द्रनाथाच्या तीक्ष्ण बुद्धीला सर्व उमजलं आणि समजलं सुद्धा. हे बसणारे चटके ते नेटाने आणि धैर्याने सहन करू लागले होते.

एकीकडे वकिलीची परीक्षा देत होते. दुसरीकडे कामधंदा, नोकरी शोधत होते. तीन चार महीने असेच गेले. घरात धान्याचा कण नसल्याने एखाद्या दिवशी सर्वांना उपाशीच झोपावे लागे. जवळच्या मित्रांना त्याने हे कळू दिलं नव्हतं. कधी अन्न आहे पण सर्वांना पुरेसे नाही. असे पाहून नरेंद्रनाथ, “आज मला एकाने जेवायला खूप आग्रह केला आहे, तेंव्हा, मी आज घरी जेवणार नाही” असे खोटेच भुवनेश्वरी देवींना सांगून कडकडीत उपास करत असे.

अशा लागोपाठ उपवासांनी तर एकदा ग्लानी येऊन  निपचीतच पडले. काही जवळचे मित्र आर्थिक मदत करायला पुढे येत, त्यांची मदत ते सविनय परत करत असत. पोटाची खळगी भरण्यासाठी भिक्षा स्वीकारायची हे त्यांना असह्य होत असे. कधी कधी मित्र त्याला घरी जेवायला बोलावण्याचा प्रयत्न करीत. तेंव्हा कामाचा बहाणा करून नरेंद्र टाळत असे. नाहीतर कधी खोटा खोटा आव आणत जेवायला जात असे तेंव्हा त्यांच्या मनात कालवाकालव होऊन, डोळ्यासमोर, भुकेने कोमेजलेली आपली लहान लहान भावंडे दिसत.

तारुण्यात पाय ठेवत असतानाच भाग्यचक्र अचानक पालटल्यामुळे, पितृछत्र गेल्याने नरेन्द्रनाथ कुटुंबाचा पालनपोषणाचा भार सांभाळत असतानाच आणखी एक अरिष्ट आलं. नातेवाइकांनी कुटुंबाला घराबाहेर काढण्याचा डाव रचून कोर्टात फिर्याद दाखल केली.

एक दिवस सकाळच्या प्रहरी उठता उठता भगवंताचे नाव घेऊन नरेंद्र अंथरुणातून उठत असताना, आईने ऐकले आणि त्वेषाने संतपून त्यांना म्हणाली, “ चूप रहा कार्ट्या, लहानपणापासून केवळ भगवान आणि भगवान. फार छान केलं भगवानानं?” हे शब्द ऐकून नरेन्द्रनाथाच्या व्यथित मनाला घरे पडली. तसच भाग्य फिरताच, वडिलांच्या जुन्या मित्रांचं वागणं पाहून नरेंद्र अचंभीत झाला. जगाच्या ह्या शोचनीय कृतघ्नतेचे बीभत्स रूप पाहून त्याचं मन बंडखोर होऊन उठलं.

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 12 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 12 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

 [१९]

 जर तू अबोला धरलास,

 तर तूझे मूकपण मनात साठवून,

 तेच मी सोसत राहीन, गप्प बसेन,

 तारकांप्रमाणे सतत पहारा करेन

 आणि सहनशीलपणे

 नतमस्तक होणाऱ्या निशेप्रमाणे स्तब्ध राहीन

 

 निश्चितच पुन्हा उजाडेल,

 अंधार नाहीसा होईल,

 आकाशातून वाहणाऱ्या सोनेरी किरणांतून

 तुझी साद ऐकू येईल

 

तुझ्या गीतांचे शब्द

माझ्या घरट्यातील पक्ष्यांच्या पंखावर

झुलू लागतील

आणि माझ्या रानफुलाबरोबरच

 तुझ्या गीतांची धून उमलत राहील.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #141 ☆ व्यंग्य – बड़े घर की बेटी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘बड़े घर की बेटी’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 141 ☆

☆ व्यंग्य – बड़े घर की बेटी

(प्रेमचन्द से क्षमायाचना सहित)

बब्बू भाई सयाने आदमी हैं। जहाँ चार पैसे मिलने की उम्मीद नहीं होती वहाँ हाथ नहीं डालते। परोपकार, दान वगैरः को बेवकूफी मानते हैं। भावुकता में कभी नहीं पड़ते। मन्दिर में पाँच रुपये  चढ़ाते हैं तो हाथ जोड़कर कहते हैं, ‘प्रभु, चौगुना करके देना।’

बब्बू भाई के पुण्य उदय हुए हैं। बड़ा बेटा पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी पा गया है। अब उसके लिए शादी वाले आने लगे हैं। बब्बू भाई को लक्ष्मी की पदचाप सुनाई दे रही है। लड़की वालों से मुँह ऊपर उठाकर महानता के भाव से कहते हैं, ‘हमें कुछ नहीं चाहिए, भगवान का दिया हमारे पास सब कुछ है। फिर भी आप अपना संकल्प बता दें तो हमें सुविधा होगी। शादी हमारे ‘स्टेटस’ के हिसाब से नहीं हुई तो नाते-रिश्तेदारों के बीच हमारी नाक कटेगी।’

लड़की वाले का संकल्प बब्बू भाई के  मन माफिक न हुआ तो कह देते हैं, ‘हम फ़ेमिली में विचार करके बताएँगे। इस बीच आपके संकल्प में कुछ संशोधन हो तो बताइएगा।’

कोई लड़की वाला लड़की के गुण गिनाने लगे तो हाथ उठा कर कहते हैं, ‘अजी लड़कियाँ तो सभी अच्छी होती हैं। आप तो अपना संकल्प बताइए।’

अन्ततः बब्बू भाई को एक ऊँची हैसियत और ऊँचे संकल्प वाला घर मिल गया। लड़की भी पढ़ी लिखी। शादी भी हो गयी। लड़की के साथ बारह लाख की कार, गहने-ज़ेवर और बहुत सा सामान आ गया। बहुत सा सामान सिर्फ देने वाले की हैसियत बताने के लिए। बब्बू भाई ने कार घर के दरवाज़े पर खड़ी कर दी ताकि आने जाने वाले देखें और उनके सौभाग्य पर जलें भुनें।

बहू के आने से बब्बू भाई गद्गद हो गये। बहू निकली बड़ी संस्कारवान। सबेरे जल्दी उठकर नहा-धो कर तुलसी को और सूरज को जल चढ़ाती, फिर सिर ढँक कर धरती पर माथा टेक कर सास ससुर को प्रणाम करती। दिन भर उनकी सेवा में लगी रहती। बब्बू भाई मगन होकर आने जाने वालों से कहते, ‘बड़ी संस्कारी बहू है। बड़े घर की बेटी है। समधी से भी फोन पर कहते हैं, ‘बड़ी संस्कारी बेटी दी है आपने। हम बड़े भाग्यशाली हैं।’

कुछ दिनों बाद समझ में आने लगा कि बहू बड़े घर की ही नहीं, बड़े दिल वाली भी है। अब घर में जो भी काम करने वाली बाइयाँ आतीं उनसे बहू कहती, ‘नाश्ता करके जाना’, या ‘पहले नाश्ता कर लो, फिर काम करना।’ घर में जो भी काम करने आता, उसका ऐसा ही स्वागत-सत्कार होने लगा। बब्बू भाई को दिन भर घर के आँगन में कोई न कोई भोजन करता और बहू को दुआएँ देता दिख जाता। देखकर उनका दिल बैठने लगता। वह बहू की दरियादिली के कारण नाश्ते पर होने वाले खर्च का गुणा-भाग लगाते रहते।

अब दरवाज़े पर कोई बाबा-बैरागी या अधिकारी आवाज़ लगाता तो बहू दौड़ी जाती। कभी भोजन-सामग्री लेकर तो कभी दस का नोट लेकर। दरवाज़े से कोई खाली हाथ लौटकर न जाता। बब्बू भाई देख कर मन ही मन कुढ़ते रहते। उन्होंने कभी बाबाओं या भिखारियों को दरवाज़े पर रुकने नहीं दिया था, लेकिन अब वे भगाते तो सुनने को मिलता, ‘आप जाइए, बहूरानी को भेजिए।’ बब्बू भाई को डर था कि अगर वे बहू से कुछ कहेंगे तो वह भी प्रेमचन्द की ‘बड़े घर की बेटी’ की तरह कह देगी, ‘वहाँ (मायके में) इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं।’

बहू की कृपा अब आदमियों के अलावा पशु-पक्षियों पर भी बरसने लगी। सामने सड़क पर गायों के रँभाते ही बहू रोटियाँ लेकर दौड़ती। दो आवारा कुत्ते घर के सामने पड़े रहते थे। उन्हें नियम से घी की चुपड़ी रोटी मिलने लगी। एक बिल्ली लहट गयी थी। बिना दूध पिये जाने का नाम न लेती। भगाओ तो बहू के पैरों के पास और पसर जाती। बहू खुशी से सबको खिलाती- पिलाती रहती। एक बब्बू भाई थे जो देख देख कर आधे हुए जा रहे थे।

घर में कोई रिश्तेदार आता तो उसके बच्चों को बहू झट से पाँच सौ का नोट निकाल कर दे देती। बब्बू भाई ने कभी सौ से ज़्यादा का नोट नहीं निकाला, वह भी बड़े बेमन से। बहू दस बीस हज़ार का ज़ेवर भी आराम से दान कर देती। घर के पुराने कपड़े जूते ज़रूरतमन्दों को दान में चले जाते। बब्बू भाई अब अपने पुराने कपड़ों जूतों को छिपा कर रखने लगे थे। पता नहीं कब गायब हो जाएँ।

बब्बू भाई के दोस्तों की अब मौज हो गयी थी। जब भी आते, भीतर से नाश्ते की प्लेट आ जाती। दो तीन दोस्त इसी चक्कर में जल्दी जल्दी आने लगे। खाते और बहू की तारीफ करते। बब्बू भाई चुप बैठे उनका मुँह देखते रहते। एक दोस्त लखनलाल दरवाज़े पर पहुँचते हैं तो ज़ोर से आवाज़ देते हैं, ‘कहाँ हो भैया?’ सुनकर बब्बू भाई का खून जल जाता है क्योंकि वे समझ जाते हैं कि यह पुकार उनके लिए नहीं, बहू के लिए है।

अगली बार लखनलाल आये तो हाथ में नाश्ते की प्लेट आने पर प्रेमचन्द की कहानी के बेनीमाधव सिंह के सुर में बोले, ‘बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।’

सुनकर बब्बू भाई जल-भुन कर बोले, ‘नाश्ता हाथ में आते ही तुम्हारा सुर खुल गया। तुमने भी तो दो बेटों की शादी की है। एकाध बड़े घर की बेटी ले आते तो आटे दाल का भाव पता चल जाता।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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