(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता “मन की बात”।)
☆ कविता # 140 ☆ मन की बात ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# धूप-छांव #”)
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
नरेंद्रनाथ यांच्या जीवनाचा नवा अध्याय सुरू झाला होता. श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानंद घडवित होते. नरेंद्रनाथांच्या प्रापंचिक अडचणी हळूहळू कमी होत होत्या. पुस्तकाची भाषांतरे आणि काही काळ नोकरी करून ते आर्थिक बाजू सावरत होते. एव्हाना १८८३-८४ या काळात श्रीरामकृष्ण कलकत्त्यातील सर्वांच्या परिचयाचे झाले होते. त्यांच्या दर्शनासाठी आणि उपदेश ऐकण्यासाठी झुंडीच्या झुंडी येत असत लोकांच्या,
विसाव्या शतकातील एक आदर्शाचा परिपूर्ण आविष्कार म्हणजे भगवान श्रीरामकृष्ण समजले जात. म्हणूनच संन्यासीश्रेष्ठ स्वामी विवेकानंदानी समस्त समाजाला घनगंभीर आवाजात ऐकविले होते, “जर तुम्हाला डोळे असतील तरच तुम्ही पाहू शकाल. जर तुमच्या हृदयाचे दार उघडे असेल तरच तुम्हाला ते जाणवू शकेल. ज्याला समयाची लक्षणे, काळाची चिन्हे दिसू शकत नाहीत, समजू शकत नाहीत, तो अंध, जन्मांधच म्हटलं पाहिजे. दिसत नाही की काय, दरिद्री ब्राम्हण आईबापाच्या पोटी एका लहानशा खेड्यात, जन्मलेल्या या मुलाची आज तेच सारे देश, अक्षरश: पूजा करीत आहेत. की जे शतकानुशतके मूर्तिपूजेविरुद्ध सारखी ओरड करीत आले आहेत”.
नरेंद्रनाथांना देवदेवतांची दर्शने होत होती. पण ही सगळी साकार रुपे होती. त्यात त्याचे समाधान होत नव्हते. अद्वैताचा अनुभव देणारी निर्विकल्प समाधी त्यांना हवी होती. ज्ञान, साधना आणि गुरूंचे समर्थ मार्गदर्शन यांच्यामुळे नरेंद्रनाथांनी अनेक वेळा आत्मसाक्षात्काराचा अनुभव घेतला. निर्विकल्प समाधीचा अनुभव पण त्यांनी घेतला.
१८८६ मध्ये ,या सगळ्या काळात श्रीरामकृष्ण यांची तब्येत बिघडली. घशाच्या कर्करोगाचे निदान झाले. उपचारासाठी कलकत्ता आणि नंतर काशीपूर मध्ये एक घर घेऊन तिथे उपचारासाठी त्यांना ठेवण्यात आले. सर्व भक्त मंडळी चिंतेत होती. श्रीरामकृष्णांच्या सेवा सुश्रुशेचा बंदोबस्त, त्यांची निगा राखणे यासाठी नरेंद्र नाथांनी आपल्या नोकरीचा राजीनामा दिला आणि घर सोडून श्रीरामकृष्ण यांच्या सेवेसाठी काशीपूरला येऊन राहिले जेणे करून चोवीस तास सेवा करता येईल.
इतर भक्त पण येऊन राहत असत. हे घर आता नुसते निवास न राहता तो एक मठ आणि विश्वविद्यालय होऊन बसले होते. भक्तगण साधना, निरनिराळ्या शास्त्रांचे पठण करत. रामकृष्ण यांच्या सेवेच्या निमित्ताने सर्व भक्त एकत्र राहत असल्याने सर्वजण एका आध्यात्मिक प्रेमबंधाने एकमेकांशी जोडले गेले. इथेच भावी श्रीरामकृष्ण संघाची मुहुर्तमेढ रोवली गेली म्हटले तरी चालेल. शुभ दिवस पाहून श्री रामकृष्ण यांनी सर्व कुमार शिष्यांना भगवी वस्त्रे देऊन संन्यास देण्याचा संकल्प केला.
गुरूंचा आजार बळावला होता. श्री रामकृष्ण यांच्या अखेरच्या दिवसातले त्यांचे उद्गार, लौकिक-अलौकिक, पार्थिव-अपार्थिव, क्षणिक-चिरंतन अशा दोन्ही बाजूंची स्पष्टता करणारे होते. मात्र हे जग सोडून जातांना आपला अनमोल वारसा कोणाकडे सोपवून जायचा, तो जपता यावा म्हणून त्याच्या मनाची कशी सिद्धता करायची याचा विचार शेवटपर्यंत त्यांच्या मनात असे.
अशा परिस्थितीतही सदासर्वकाळ ते बालक भक्तांना उपदेश देण्यात दंग असत. कधी नरेंद्रनाथांना जवळ बोलवून सांगत, “नरेन ही सारी मुले मागे राहिलीत. तू या सार्यापरिस बुद्धीमान आणि शक्तिमान आहेस. तूच त्यांच्याकडे पहा. त्यांना सन्मार्गाने ने. हे सारे आध्यात्मिक जीवन घालवतील. यातला कुणी घरी जाऊन संसारात गुंतणार नाही असे पहा. मी आता लवकरच देह सोडीन. त्यांच्या वारसदारांच्या अग्रणी नरेंद्र च होता. ‘नरेंद्र हा तुमचा नेता आहे’ असे रामकृष्ण शिष्यांनाही सांगीत.
महासमाधीच्या तीन-चार दिवस आधी, श्री रामकृष्णांनी नरेंद्रला आपल्या खोलीत बोलावले, आपली दृष्टी त्यांच्यावर स्थिर केली. आणि ते समाधीत मग्न झाले. जणू एखादा विजेचा प्रवाह आपल्या शरीरात शिरतो आहे, असा भास नरेंद्रला झाला. त्याचे बाह्य विश्वाचे ज्ञान नष्ट झाले. पुन्हा भानावर आल्यावर पाहतो तो, श्री रामकृष्णांच्या डोळ्यातून अश्रुधारा लागल्या आहेत. काय झालं असे नरेंद्र नाथांनी विचारताच, रामकृष्ण म्हणाले, “नरेन माझ्याजवळ जे काही होतं, ते सारं मी तुला आज देऊन टाकलं आणि आता मी केवळ एक फकीर झालो आहे. माझ्याजवळ दमडी देखील उरलेली नाही. मी ज्या शक्ति तुला दिलेल्या आहेत,त्यांच्या बळावर तू महान कार्य करशील आणि ते पुरं झाल्यावर तू जिथनं आला आहेस तिथं परत जाशील”.
शेवटी शेवटी क्षणाक्षणाला त्यांच्या वेदना वाढत होत्या. कोणत्याही औषधाचा काहीच उपयोग होत नव्हता. श्वासोच्छवासाचा त्रास होत होता. तेव्हढ्यात त्यांची समाधी लागली. नरेंद्रनाथांच्या सांगण्यावरून नरेंद्रसहित सर्वांनी, ‘हरी ओम तत्सत’ चा घनगंभीर आवाजात गजर सुरू केला. काही क्षण भानावर येऊन त्यांनी नरेंद्रला अखेरचे काहीतरी सांगीतले आणि कालीमातेचे नाव घेऊन शरीर मागे टेकवले. त्यांच्या चेहर्यावर एक ईश्वरी हास्य होते आणि ते अखेरच्या समाधीत गेले होते. त्यांनी पार्थिव शरीराचा त्याग केला. शिष्यांच्या दु:खाला पारावार राहिला नाही. त्यांच्या जीवनातला चालता बोलता प्रकाश हरपला होता. महासमाधी !
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य ‘जल-संरक्षण के व्रती’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 143 ☆
☆ व्यंग्य – जल-संरक्षण के व्रती ☆
दशहरा मैदान में जल-संरक्षण पर धुआँधार भाषण हो रहे थे। बड़े-बड़े उत्साही वक्ता और विशेषज्ञ जुटे थे। कुछ गाँवों, शहरों में ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ की बात कर रहे थे, कुछ पुराने टाइप के फटकारदार कुल्लों का त्याग करने की गुज़ारिश कर रहे थे। कुछ टॉयलेट में कम पानी बहाने का सुझाव दे रहे थे। कुछ की शिकायत थी कि स्त्रियाँ अमूमन ज़्यादा नहाती हैं और केश धोने में अधाधुंध पानी खर्च करती हैं, इसलिए जल- संरक्षण की दृष्टि से सभी स्त्रियों को अपने बाल छोटे करा लेना चाहिए। इससे जल की बचत होने के साथ-साथ वे आधुनिका भी दिखेंगीं। इससे घरेलू हिंसा भी कम होगी क्योंकि पति महोदय आसानी से पत्नी के केश नहीं गह सकेंगे। एक साहब ने क्रान्तिकारी सुझाव दिया कि भारत में टॉयलेट के भीतर ‘टॉयलेट पेपर’ का उपयोग कानूनन अनिवार्य बना देना चाहिए और वहाँ पानी बहाने वालों को जेल भेजना चाहिए।
यह भी सुझाव आया कि जैसे फौज में दारू का कम उपभोग करने वाले जवानों के अफसरों को पुरस्कृत किया जाता है वैसे ही शहरों में साल भर में पानी का न्यूनतम उपयोग करने वाले परिवारों को पुरस्कृत और सम्मानित किया जाना चाहिए और इसके लिए तत्काल जाँच- प्रक्रिया का निर्धारण किया जाना चाहिए।
इस सभा में मंच पर दूसरी पंक्ति में चार महानुभाव आजू बाजू विराजमान थे। बढ़ी दाढ़ी और मैले-कुचैले कपड़े। लगता था महीनों से शरीर को जल का स्पर्श नहीं हुआ। उनके आसपास बैठे लोग नाक पर रूमाल धरे थे।
अन्य वक्ताओं के भाषण के बाद संचालक महोदय बोले, ‘भाइयो, आज हमारे बीच चार ऐसी हस्तियाँ मौजूद हैं जिन्होंने अपने को पूरी तरह जल-संरक्षण के प्रति समर्पित कर दिया है। इन्होंने अपने व्रत के कारण समाज से बहुत उपेक्षा और अपमान झेला, लेकिन ये अपने जल-संरक्षण के व्रत से रंच मात्र भी नहीं डिगे। ज़रूरत है कि अपने उसूलों के लिए जीने मरने वाली ऐसी महान विभूतियों को समाज पहचाने और उन्हें वह सम्मान प्राप्त हो जिसके ये हकदार हैं। अब आपका ज़्यादा वक्त न लेकर मैं इन चार जल- संरक्षण सेनानियों में से श्री पवित्र नारायण को आमंत्रित करता हूँ कि वे माइक पर आयें और अपने साथियों के द्वारा जल-संरक्षण के लिए किये गये कामों पर विस्तृत प्रकाश डालें।’
नाम पुकारे जाने पर जल-संरक्षण के पहले सेनानी पवित्र नारायण जी सामने आये। उनके दर्शन मात्र से दर्शक धन्य हो गये। चीकट कपड़े, हाथ-पाँव पर मैल की पर्तें, पीले पीले दाँत और आँखों में शोभायमान कीचड़। दर्शक मुँह खोले उन्हें देखते रह गये।
पवित्र नारायण जी माइक पर आकर बोले, ‘भाइयो, आज मुझे और मेरे कुछ साथियों को आपके सामने आने का मौका मिला, इसके लिए हम आज के कार्यक्रम के आयोजकों के आभारी हैं। मैंने और मेरे साथियों ने जब से होश सँभाला तभी से हम जल-संरक्षण में लगे हैं, लेकिन हमें अफसोस है कि दुनिया ने हमें हमेशा गलत समझा है। इस कार्यक्रम में आने के बाद हमारे मन में उम्मीद जगी है फिर हमारे काम को समझा और सराहा जाएगा।
‘भाइयो, हमारी जल-संरक्षण की प्रतिबद्धता इतनी अडिग है कि हम कई साल से तीन-चार मग पानी में ही अपनी दिन भर की क्रियाएँ संपन्न कर रहे हैं। न हमें स्नान का मोह है, न कपड़े चमकाने का। पानी की बचत ही हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। कुछ लोग इस गलतफहमी का शिकार हो जाते हैं कि हम स्वभावतः गन्दे हैं, लेकिन यह सच नहीं है। हम यहाँ इस उम्मीद से आये हैं कि कम से कम आप लोग हमें सही समझेंगे और हमारे काम और त्याग को महत्व देंगे।’
इतना बोल कर उन्होंने जनता की तरफ देखा कि उनके वक्तव्य पर ताली बजेगी, लेकिन वहाँ तो सबको साँप सूँघ गया था।
जनता में माकूल प्रतिक्रिया न देख पवित्र नारायण जी ने अपने तीनों साथियों को जनता के सामने ला खड़ा किया। बोले, ‘भाइयो, इस जल-संरक्षण अभियान में शामिल अपने तीन साथियों का परिचय कराता हूँ। ये धवलनाथ हैं। इनके हुलिया से ही आप समझ सकते हैं कि इन्होंने कितनी ईमानदारी से अपने को जल-बचत अभियान में झोंक रखा है। ये पानी की एक बूँद को भी ज़ाया करना हराम समझते हैं। लेकिन विडम्बना देखिए कि इनकी दस साल पहले शादी हुई और बीवी दूसरे ही दिन इस महान आदमी को छोड़कर चली गई। तब से उसने इधर का रुख नहीं किया। धवलनाथ जी का जज़्बा देखिए कि इस हादसे के बाद भी वे अपने मिशन में तन मन से लगे हैं।
‘और ये हमारे एक और साथी सुगंधी लाल हैं। आप देख सकते हैं कि इनकी उम्र ज्यादा नहीं है, लेकिन ये भी पूरी तरह हमारे मिशन को समर्पित हैं। अपने उद्देश्य के लिए इनका त्याग भी ऊँचे दर्जे का है। पिछले चार-पाँच सालों में इनको चार पाँच बार इश्क हुआ, लेकिन हर बार एक दो महीने में ही इनकी महबूबा ने इन से कन्नी काट ली। शिकायत वही घिसी-पिटी है कि ये नहाते- धोते नहीं हैं। इसके जवाब में हमारे भाई सुगंधी लाल जी पूछते हैं कि जब मजनूँ, फरहाद, रांँझा और महीवाल इश्क फ़रमाने निकलते थे तो क्या वे रोज़ नहाते थे? महीवाल ज़रूर मजबूरी में नहाते होंगे क्योंकि कहते हैं कि वे दरया में तैर कर अपनी महबूबा से मिलने जाते थे, लेकिन बाकी महान प्रेमियों के नहाने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। जो भी हो, अब भाई सुगंधी लाल ने मुहब्बत जैसी फिजूल बातों से मुँह मोड़ लिया है और पूरी तरह जल-बचत अभियान में डूब गये हैं। लोग कहते हैं कि इन्हें ‘हाइड्रोफोबिया’ है। बात सही भी है, लेकिन यह कुत्ते को काटने वाला हाइड्रोफोबिया नहीं है। इन्हें आपके आशीर्वाद की ज़रूरत है।’
पवित्र नारायण जी ने अपने आखिरी साथी का परिचय कराया, कहा ‘ये हमारे बड़े समर्पित साथी शफ़्फ़ाक अली हैं। इनके साथ यह जुल्म हो रहा है कि लोगों ने इनके मस्जिद में घुसने पर पाबन्दी लगा दी है। कहते हैं ये नापाक हैं। लेकिन भाई शफ़्फाक अली अपने उसूलों पर चट्टान की तरह कायम हैं। इनका कहना है नमाज़ तो कहीं भी और कैसे भी पढ़ी जा सकती है। उसके लिए मस्जिद की क्या दरकार?’
उपसंहार के रूप में पवित्र नारायण बोले, ‘तो भाइयो, मैंने जल-संरक्षण में पूरी तरह समर्पित इन साथियों से आपका परिचय कराया। हमारी इच्छा है कि समाज और सरकार हमारे काम को तवज्जो दे और हमें स्वतंत्रता-संग्राम सेनानियों के बराबर दर्जा दिया जाए। हमें प्रशस्ति-पत्र मिले और हमारे लिए पेंशन मुकर्रर हो। इसके अलावा जो लोग हमसे अछूतों जैसा बर्ताव करते हैं उन्हें छुआछूत कानून के अंतर्गत दंडित किया जाए। हमें पूरी उम्मीद है कि हमारी आवाज सरकार के कानों तक पहुँचेगी और हमें हमारी कुरबानी के हिसाब से सम्मान और पुरस्कार मिलेगा।’
Anonymous Litterateur of Social Media # 95 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 95)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 141 ☆ दर्शन-प्रदर्शन☆
आज यूँ ही विचार उठा कि समय ने मूल्यों को कितनी गति से और आमूल बदल दिया है। अपवाद तो हर समय होते हैं पर समय के विश्लेषण का मानक तो परम्परा ही होती है। दो घटनाओं के माध्यम से इसे समझने का प्रयास करेंगे।
पहली घटना लगभग चालीस वर्ष पुरानी है। बड़े भाई महाविद्यालय में पढ़ते थे। उनके एक मित्र उनसे मिलने घर आए। यह साइकिल का जमाना था। गर्मी की छुट्टियों का समय रहा होगा। वे काफी दूर से आए थे, पसीने से लथपथ थे। पानी पीने के बाद माँ से बोले, “चाची शिकंजी बनाना।” फिर पैंट की जेब में हाथ डाल कर दो नीबू निकाले और कहा, “सोचा, पता नहीं घर में नीबू होगा या नहीं। रास्ते में एक जगह नीबू दिखे तो खरीद लाया।” माँ ने उन्हीं नीबुओं से शिकंजी बनाई।
ये वे दिन थे जब जीवन को सहजता से जिया जाता था। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का दर्शन हमारे सामाजिक-जीवन का केंद्र था। समय के साथ केंद्र सरका और दर्शन को प्रदर्शन ने विस्थापित कर दिया। इस विस्थापन का एक अनुभव हुआ लगभग दस वर्ष पहले।
एक व्याख्यान के लिए दिल्ली जाना था। सम्बंधित संस्था ने आने-जाने के लिए हवाई जहाज की यात्रा का किराया देने का प्रावधान किया था। मैंने इकोनॉमी क्लास के टिकट खरीदे। एक परिचित भी उसी आयोजन में जाने वाले थे। सोचा एक से भले दो। यात्रा में साथ हो जाएगा। उनसे बात की। उन्होंने बताया कि वे एक अन्य प्रीमियम एयरलाइंस की बिजनेस क्लास से यात्रा करेंगे। बात समाप्त हो गई।… मैं दिल्ली पहुँचा। व्याख्यान हुआ। होटल में मैं और मेरे परिचित अड़ोस-पड़ोस के कमरे में ही ठहरे थे। बातचीत के दौरान किसी संदर्भ में उन्होंने आने-जाने के टिकट दिखाए। उनके टिकट भी इकोनॉमी क्लास के ही थे। उन्हें तो अपना असत्य याद नहीं रहा पर सत्य सारी परतें भेदकर बाहर आ गया।
गाड़ी के शीशे पर लिखा होता है, ‘ऑब्जेक्ट्स इन मिरर आर क्लोजर देन दे एपियर।’ सत्य भी मनुष्य के निकट ही होता है, उसे दिखता भी है पर गाड़ी के शीशे में दिखती वस्तु की भाँति वह उसे दूर मानकर उससे भागने की फिराक में रहता है। नश्वरता को शाश्वत से बड़ा मान लेने की मनुष्य की प्रवृत्ति विचित्र है। ‘लार्जर देन लाइफ’ सामान्यत: अद्वितीय सकारात्मक क्षमता के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके मूल को नष्ट करते हुए हमने प्रदर्शन के लिए इसका प्रयोग करना आरंभ कर दिया है।
वस्तुत: जीवन जितना सादा होगा, जितना सरल होगा, जितना सहज होगा, उतना ही ईमानदार होगा। जीवन को काँच-सा पारदर्शी रखें, भीतर-बाहर एक-सा। भीतर कुछ और, बाहर कुछ और.. इस ओर-छोर का संतुलन बनाये रखने की कोशिश में बीच की नदी सूख जाती है। जीवन प्रवाह के लिए है। अपने आप को सूखने से बचाइए।
प्रकृति का एक घटक है मनुष्य। प्रकृति हरी है, जीवन हरा रहने के लिए है। पर्यावरण दिवस पर इस हरेपन का सबसे बड़ा प्रतिदान मनुष्य, प्रकृति को दे सकता है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित मुक्तिका…मीर मानो या न मानो….)
☆ आलेख – नाम की महत्ता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
सुमिरी पवन सुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू।।
(रा० च०मानस०)
गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते है कि- नाम स्मरण करते करते हनुमान जी ने भगवान राम को भी अपने बस में कर लिया था और उनके प्रिय अनुचर बन बैठे थे। वहीं पर राम चरित मानस में नाम की महिमा बताते हुए कहते हैं कि –
कलियुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा।।
के अलावा भी बहुत कुछ लिखा गया है यूँ तो नाम व्याकरण के अनुसार एक संज्ञा है जिसके बारे में
हिंदी भाषा व्याकरण में पारिभाषित किया गया है कि – किसी वस्तु व्यक्ति अथवा स्थान के नाम को संज्ञा कहते हैं।
जिससे हमें उसकी आकृति, प्रकृति, गुण, स्वभाव तथा प्रभाव का बोध होता है। नाम से ही सबकी पहचान है, यहाँ तक कि सृष्टि के समस्त प्राणी देव दानव सुर असुर किन्नर गंधर्व मानव सभी अपनी पहचान के लिए नाम के ही मोहताज है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सारी शक्तियों की सिद्धि में नाम जप ही मूल है। हजारों की भीड़ में पुकारा गया नाम आप आपको भीड़ से अलग कर देता है।
नाम में शक्ति है, नाम में भक्ति है, नाम में ही सार छुपा है, नाम में ही मारण मोहन वशीकरण सब कुछ समाया हुआ है इसकी महिमा अनंत है तभी तो नाम की महिमा से प्रभावित तुलसी दास जी लिखते है कि-
राम न सकहि नाम गुण गाई।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नाम की महिमा अगम अगोचर अनंत है।