हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पहचान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “पहचान।)

☆ आलेख ☆ पहचान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज प्रातः काल में मोबाईल दर्शन से ज्ञात हुआ कि श्री के के का रात्रि निधन हो गया। मैसेज भेजने वाले को हमने अपनी अनिभिज्ञता जाहिर की और कहा हमारा संगीत में ध्यान नहीं हैं। कुछ समय के पश्चात सभी टी वी चैनल वाले उनके गीत सुना रहे थे। गीत प्रायः सभी सुने हुए थे, और जुबां पर भी थे। देश के सभी बड़े नेताओं ने संवेदनाएं व्यक्त की। चैनल वाले भी उन से संबंधित जानकारी देते रहे।

हमने मन ही मन विचार किया इनका नाम और चेहरा कभी नही सुना/देखा। अंतर्मन में अपनी आयोग्यता को लेकर नए आयाम तय करने में लगे रहे।

उनको पहचान न पाने के कारण खोज में लगे हुए थे। तभी विचार किया- क्या स्वर्गीय के के ने किसी भी विज्ञापन में कार्य किया था?

क्या किसी रियलिटी शो में प्रतियोगी या जज के रूप में टी वी पर आए थे?

क्या उनके साथ कभी कोई विवाद हुआ था?

यदि इन सब का उत्तर ना है, तो फिर हम उनको कैसे पहचानते?

वर्तमान समय में अकेले काम से आपकी पहचान नहीं बनती हैं। आपको सोशल मीडिया में कार्यशील रहना होता हैं। बिग बॉस या अन्य किसी टीवी शो में छोटे स्क्रीन पर नजर आना होगा। किसी विवाद में आपका नाम है, तो लोग आपको चेहरे से पहचानने लग जाएंगे।

ये सब केके के साथ नहीं था। वो सिर्फ आवाज़ के जादूगर थे। इसलिए वो एक अच्छे इंसान  बनकर ही रह गए। पुरानी कहावत भी है “जो दिखता है, वो ही बिकता है।

ॐ शांति🙏🏻

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #142 ☆ अत्तर उडून गेले ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 142 ?

☆ अत्तर उडून गेले 

आता नव्या पिढीला मिळणार मोकळेपण

बंधन नसेल आणिक कोणी नसेल राखण

 

बांधीलकी कशाला आकाश स्वैर आहे

स्वीकार कलियुगाला व्यापार मुक्त धोरण

 

उघड्या कुपी मधूनी अत्तर उडून गेले

वेळीच या कुपीचे मी लावले न झाकण

 

नाही सकसपणा हा कोठेच राहिलेला

हे राज्य भेसळीचे मिळणार काय पोषण

 

नाही शुभंकरोती गीता न वाचली मी

संस्कार भावनांचे व्हावे कुठून रोपण

 

बोलू नकोस वेड्या त्यांच्या विरूद्ध काही

नेते करो कितीही अश्लाघ्य रुक्ष भाषण

 

दाणा कसा टिपावा पक्षास ह्या कळेना

हुसकून लावण्याला आहे तयार गोफण

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 92 – गीत – नील झील से नयन तुम्हारे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – नील झील से नयन तुम्हारे…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 92 – गीत – नील झील से नयन तुम्हारे…✍

नील झील से नयन तुम्हारे

जल पांखी सा मेरा मन है।

 

संशय की सतहों पर तिरते  जलपांखी का मन अकुलाया। संकेतों के बेहद देखकर

नील-झील के तट तक आया।

 

 दो  झण हर तटवर्ती को लहर नमन करती है लेकिन-

 

 गहराई का गांव अजाना मजधारों के द्वार बंद है ।

शव सी ठंडी हर घटना पर अभियोजन के आगिन छंद है।

संबंधों की सत्य कथा को

इष्ट तुम्हारा संबोधन है।

*

 कितनी बार कहा- मैं हारा लेकिन तुम अनसुनी किए हो। डूब डूब कर उतर आता हूं संदेशों की सांस दिए हो।

 

वैसे तो संयम की  सांकल चाहे जब खटका दूं लेकिन-

कूला कूल लहरों पर क्या वश जाने कब तटस्थता वर ले। वातावरण शरण आया है -एक सजल समझौता कर लें-

 

 बहुवचनी हो पाप भले ही किंतु प्रीति का एकवचन है।

*

मैं कदंब की नमीत डाल सा सुधियों की जमुना के जल में।

देख रहा हूं विकल्प तृप्ति को अनुबंधों के कोलाहल में।

 

आशय  का अपहरण अभी तक

कर लेता खुद ही लेकिन

 

 विश्वासों के बिंब विसर्जित आकांक्षा के अक्षत-क्षत हैं रूप शशि का सिंधु समेंटे  सम्मोहन हत लोचन लत हैं। दृष्टि क्षितिज में तुम ही तुम हो दरस की जैसे वृंदावन हैं ।

 

नील झील से नयन तुम्हारे

जल पाखी सा मेरा मन है।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 94 – “कालजयी-आराधन…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कालजयी-आराधन …”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 94 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कालजयी-आराधन”|| ☆

क्या -क्या सम्हालते

 

कितनी ही यादों के-

विनती-फरियादों के

पाँवों में लगे – लगे

सूख गये आलते

 

रीत गये संसाधन कालजयी आराधन

वक्ष की उठानों के

बिम्ब कई सालते

 

घुँघराले बालों के

इतर रखे आलों के

पूरब के राग सभी

पश्चिम में ढालते

 

कंगन पानी -पानी

चिन्तित है रजधानी

और क्या नया किस्सा

आँखों में पालते

 

शीशे के बने हुये

चंदोबे तने हुये

परदों में रेशम की

डोर कभी डालते

 

रानी पटरानी सब

लाल हरी धानी सब

सहम गई शाम कहीं

दीपक को बालते

 

चित्त के चरित्र सभी

अपनो के मित्र सभी

तसवीरों में शायद

खुदको सम्हालते

 

भोर क्या हुई सहमी

ठहरी गहमा -गहमी

दूर नहीं हो पाये

आपके मुगालते

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

12-06-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 141 ☆ रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय संस्मरण रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’”।)  

☆ संस्मरण  # 141 ☆ रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

प्रमोशन होकर जब रुरल असाइनमेंट के लिए एक गांव की शाखा में पोस्टिंग हुई,तो ज्वाइन करते ही रीजनल मैनेजर ने रिकवरी का टारगेट दे दिया, फरमान जारी हुआ कि आपकी शाखा एनपीए में टाप कर रही है और पिछले कई सालों से राइटआफ खातों में एक भी रिकवरी नहीं की गई, इसलिए इस तिमाही में राइट आफ खातों एवं एनपीए खातों में रिकवरी करें अन्यथा कार्यवाही की जायेगी ।

ज्वॉइन करते ही रीजनल मैनेजर का प्रेशर, और रिकवरी टारगेट का तनाव। शाखा के राइट्सआफ खातों की लिस्ट देखने से पता चला कि शाखा के आसपास के पचासों गांव में आईआरडीपी (IRDP – Integrated Rural Development Programme – एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम) के अंतर्गत लोन में दिये गये गाय भैंसों के लोन में रिकवरी नहीं आने से यह स्थिति निर्मित हुई थी। अगले दिन हम राइट्स आफ रिकवरी की लिस्ट लेकर एक गांव पहुंचे। कोटवार के साथ चलते हुए  एक हितग्राही रास्ते में टकरा गया।  हितग्राही  गुड़ लेकर जा रहा था, कोटवार ने बताया कि इनको आपके बैंक से दो गाय दी गईं थी। हमने लिस्ट में उनका नाम खोजा और उनसे रिक्वेस्ट की आज किसी भी हालत में आपको लोन का थोड़ा बहुत पैसा जमा करना होगा।

….हम लोग वसूली  के लिए दर बदर चिलचिलाती धूप  में भटक रहे है और आप गुड -गुलगुले खा रहा है ….बूढा बोला …बाबूजी गाय ने  बछड़ा  जना  है गाय के लाने सेठ जी से दस रूपया मांग के 5 रु . का गुड  लाये है…. जे  5 रु. बचो  है लो जमा कर लो …..

लगा ..किसी ने जोर से तमाचा जड़ दिया हो, अचानक रीजनल मैनेजर की डांट याद आ गई, मन में तूफान उठा, रिकवरी के पहले प्रयास में पांच रुपए का अपमान नहीं होना चाहिए, पहली ‘बोहनी’ है और हमने उसके हाथ से वो पांच रुपए छुड़ा लिए …..

बूढ़े हितग्राही ने कातर निगाहों से देखा, हमें दया आ गई, कपिला गाय और बछड़े को देखने की इच्छा जाग्रत हो गई, हमने कहा – दादा हम आपके घर चलकर बछड़ा देखना चाहते हैं। कोटवार के साथ हम लोग हितग्राही के घर पहुंचे, कपिला गाय और उसके नवजात बछड़े को देखकर मन खुश हो गया, और हमने जेब से पचास रुपए निकाल कर दादा के हाथ में यह कहते हुए रख दिए कि हमारी तरफ से गाय को पचास रुपए का और गुड़ खिला देना, और हम वहां से अगले डिफाल्टर की तलाश में सरक लिए …..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 85 ☆ # बारिश की याद आती है # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# बारिश की याद आती है #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 85 ☆

☆ # बारिश की याद आती है # ☆ 

भीषण गर्मी में

‘ लू ‘ के थपेड़े

भटक रहे सब

सर को ओढ़े

तपन, जब

तनको झुलसाती है

तब बारिश की याद आती है

 

दिनभर चिलचिलाती धूप है

पसीना बहाती खूब है

छांव भी,जब तरसाती है

तब बारिश की याद आती है

 

गर्मी में लगती कितनी प्यास है

शीतल जल की मनमे आस है

प्यास, जब पल पल तड़पाती है

तब बारिश की याद आती है

 

पशु-पक्षी तृष्णा के मारे

जल के लिए है व्याकुल सारे

कभी कभी जल बिन

जब परिंदों को मौत आती है

तब बारिश की याद आती है

 

प्यासी धरती तड़प रही है

प्रियत्तम से मिलने धड़क रही है

वर्षा की फुहारें,

जब धरती में समाती है

तब बारिश की याद आती है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे #84 ☆ आयुष्याच्या वाटेवर… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 84 ? 

☆ आयुष्याच्या वाटेवर… ☆

आयुष्याच्या वाटेवर, हसून खेळून जगावे

आयुष्याच्या वाटेवर, जीवन गणित पहावे..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, खाच खळगे असतील

आयुष्याच्या वाटेवर, ठेचा खूप लागतील..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, मित्र शत्रू बनतील

आयुष्याच्या वाटेवर, साथ सर्व सोडतील..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, सिंहावलोकन करावे

आयुष्याच्या वाटेवर, वाईट सर्व सोडावे..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, आपलेच आपण बनावे

आयुष्याच्या वाटेवर, स्वतः स्वतःचे डोळे पुसावे..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, पुन्हा वळण नसते

आयुष्याच्या वाटेवर, आठवण फक्त उरते..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, श्रीकृष्ण फक्त स्मरावा

आयुष्याच्या वाटेवर, राज-योग मिळावा..!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 15 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 15 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

[ २२ ]

 आषाढाच्या घनदाट सावलीत,

 नीरव पावलांनी,

 सर्व पहारेकऱ्यांना चुकवून जाणाऱ्या

 शांत रजनीप्रमाणे तू जातोस.

 

सतत भिरभिरणाऱ्या पूर्व वाऱ्याकडं

दुर्लक्ष करून, प्रांत: समयानं

आपले डोळे मिटून घेतले आहेत.

सतत दक्ष असणाऱ्या निळ्या आभाळावर

एक जाड पडदा पसरला आहे.

रानं गाणी गायची थांबली आहेत..

आणि घराची दारं- कवाडं बंद आहेत

या निर्मनुष्य रस्त्यावर तूच एक वाटसरू आहेस.

 

 हे जीवलग मित्रा,

 माझ्या घराचे दरवाजे सतत उघडे आहेत

 एखाद्या स्वप्नासारखा विरून दूर जाऊ नकोस.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

pmk2146@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #144 ☆ व्यंग्य – भूत जगाने वाले ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘भूत जगाने वाले’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 144 ☆

☆ व्यंग्य – भूत जगाने वाले

उस दिन घर में नया सीलिंग फैन आया था। पत्नी और मैं खुश थे। पंखे को फिट कराने के बाद हम उसके नीचे बैठे उसे अलग-अलग चालों पर दौड़ा रहे थे— कभी दुलकी, सभी सरपट। तभी कहीं से घूमते घामते सुखहरन जी आ गये। कुर्सी पर बैठकर उन्होंने ऊपर की तरफ देखा, बोले, ‘ओहो, नया पंखा लगवाया है?’

मैंने खुश खुश कहा, ‘हाँ।’

उन्होंने पूछा, ‘कितने का खरीदा?’

मैंने जवाब दिया, ‘अठारह सौ का।’

वे मुँह बिगाड़कर बोले, ‘तुम बहुत जल्दी करते हो। हमसे कहते हम आर्मी कैंटीन से दिलवा देते। कितने मेजर, कर्नल और ब्रिगेडियर अपनी पहचान के हैं। कम से कम दो तीन सौ की बचत हो जाती।’

हमारे उत्साह की टाँगें टूट गयीं। पत्नी ने मेरी तरफ मुँह फुला कर देखा और कहा, ‘सचमुच आप बहुत जल्दबाजी करते हो। सुखहरन भैया से कहते तो कुछ पैसे बच जाते।’

हमारा मूड नाश हो गया। अब हम अपने उत्साह को बार-बार पूँछ पकड़ कर ऊपर उठाते थे और वह गरियार बैल की तरह नीचे बैठ जाता था। सुखहरन हमारा सुख हर कर आराम से बैठे पान चबा रहे थे। पंखे की ठंडी हवा अब हमें लू की तरह काट रही थी।

इसके बाद जब एक ऑटोमेटिक प्रेस खरीदने की ज़रूरत हुई तो मैंने सुखहरन को पकड़ा। वे मेजरों और ब्रिगेडियरों की चर्चा करके मुझे कई दिन बहलाते रहे, लेकिन वे मुझे प्रेस नहीं दिलवा पाये। उस दिन ज़रूर वे हमारी खुशी को ग्रहण लगा गये।

ऐसे भूत जगाने वाले बहुत मिलते हैं। चतुर्वेदी जी के घर जाता हूँ तो वे अक्सर बीस साल पहले हुई अपनी शादी का रोना लेकर बैठ जाते हैं। उन्हें अपनी पत्नी से बहुत शिकायत है। पत्नी को सुनाकर कहते हैं, ‘क्या बताएं भैया, हमारे लिए दुर्जनपुर से द्विवेदी जी का रिश्ता आया था। डेढ़ लाख नगद दे रहे थे और साथ में एक मोटरसाइकिल भी कसवा देने को कह रहे थे। लेकिन अपने भाग में तो ये लिखी थीं।’ वे पत्नी की तरफ हाथ उठाते हैं।

मैं उनके चंद्रमा के समान असंख्य  गड्ढों से युक्त चेहरे और उनकी घुन खाई काया को देखता हूँ और कहता हूँ, ‘सचमुच दुर्भाग्य है।’ फिर युधिष्ठिर की तरह धीरे से जोड़ देता हूँ, ‘तुम्हारा या उनका?’

मेरे एक और परिचित संतोख सिंह परम दुखी इंसान हैं। वैसे खाते-पीते आदमी हैं, कोई अभाव नहीं है। लेकिन वेदना यह है कि उन्हें बीस पच्चीस साल पहले एक रुपये फुट के हिसाब से एक ज़मीन मिल रही थी जो उन्होंने छोड़ दी।अब वही ज़मीन डेढ़ सौ रुपए फुट हो गयी। संतोख सिंह इस बात को लेकर व्यथित हैं कि वे उस ज़मीन को लेने से क्यों चूक गये। लेकिन असल बात यह है संतोख सिंह परले सिरे के मक्खीचूस हैं और उस वक्त यदि स्वयं गुरु बृहस्पति भी उन्हें वह ज़मीन खरीदने की सलाह देते तब भी वे अपनी टेंट ढीली न करते।

ऐसे ही भूत जगाने वाले बहुत से राजा रईस हैं। उनका ज़माना लद गया, लेकिन उनमें से बहुत से अभी अपने को राजा और जनता को अपनी प्रजा समझते हैं। अपने घर में पुरानी तसवीरों और धूल खाये सामान से घिरे वे मुर्दा हो गये वक्त को इंजेक्शन लगाते रहते हैं।खस्ताहाल हो जाने पर भी अपने सिर पर दो चार नौकर लादे रहते हैं। अपने हाथ से काम न खुद करते हैं न अपने कुँवरों को करने देते हैं। ऐसा ही प्रसंग लखनऊ की एक बेगम साहिबा का है जो अपने पुत्र, पुत्री, पाँच छः नौकरों और दस बारह कुत्तों के साथ कई साल तक दिल्ली स्टेशन के एक वेटिंग रूम में पड़ी रहीं।

चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशंस’ में एक प्रसिद्ध चरित्र मिस हविशाम का है। मिस हविशाम को उनके प्रेमी ने धोखा दिया और वह ऐन उस वक्त गायब हो गया जब मिस हविशाम शादी के लिए तैयार बैठीं उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं। मिस हविशाम पर इस बात का ऐसा असर हुआ कि उन्होंने समय को उसी क्षण रोक देने का निश्चय कर लिया। उन्होंने घर की सब घड़ियाँ रुकवा दीं। वह ज़िंदगी भर अपनी शादी की पोशाक पहने रहीं। घर की सब चीजे़ं वैसे ही पड़ी रहीं जैसी वे उस दिन थीं। शादी की केक पर मकड़जाले तन गये। लेकिन इस सब के बावजूद समय मिस हविशाम की उँगलियों के बीच से फिसलता गया और धीरे-धीरे वे बूढ़ी हो गयीं।

एक अंग्रेज कवि ने कहा है, ‘भूत को अपने मुर्दे दफन करने दो। वर्तमान में रहो।’ लेकिन भूत जगाने वालों को यह बात समझा पाना बहुत मुश्किल है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 142 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 142 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (2) ?

दर्शन और प्रदर्शन पर मीमांसा आज के आलेख में जारी रखेंगे। जैसा कि गत बार चर्चा की गई थी, बढ़ते भौतिकवाद के साथ दर्शन का स्थान प्रदर्शन लेने लगा है। विशेषकर सोशल मीडिया पर इस प्रदर्शन का उफान देखने को मिलता है। साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या जीवन का कोई क्षेत्र हो,  नाममात्र उपलब्धि को ऐसे दिखाया जाने लगा है मानो वह ऐतिहासिक हो गई हो। कुछ लोग तो ऐतिहासिक को भी पीछे छोड़ चुके। उनकी उपलब्धियाँ तो बकौल उनके ही कालजयी हो चुकीं। आगे दिखने की कोशिश में ज़रा-ज़रा सी बातों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना मनुष्य को उपहास का पात्र बना देता है।

यूँ देखें तो आदमी में आगे बढ़ने की इच्छा होना अच्छी बात है। महत्वाकांक्षी होना भी गुण है। विकास और विस्तार के लिए महत्वाकांक्षा अनिवार्य है पर किसी तरह का कोई योगदान दिये बिना, कोई काम किये बिना, पाने की इच्छा रखना तर्कसंगत नहीं है। अनेक बार तो जानबूझकर विवाद खड़े किए जाते हैं, बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा की तर्ज़ पर।  बात-बात पर राजनीति को कोसते-कोसते हम सब के भीतर भी एक राजनीतिज्ञ जड़ें जमा चुका है। कहाँ जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं हम?

हमारा सांस्कृतिक अधिष्ठान ‘मैं’ नहीं अपितु ‘हम’ होने का है। कठोपनिषद कहता है,

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

विसंगति यह है कि अपने पूर्वजों की सीख को भूलकर अब मैं, मैं और केवल मैं की टेर है। इस ‘मैं’ की परिणति का एक चित्र इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता में देखिए-

नयी तरह की रचनायें रच रहा हूँ मैं,

अख़बारों में ख़ूब छप रहा हूँ मैं,

देश-विदेश घूम रहा हूँ मैं,

बिज़नेस क्लास टूर कर रहा हूँ मैं..,

मैं ढेर सारी प्रॉपर्टी ख़रीद रहा हूँ,

मैं अनगिनत शेअर्स बटोर रहा हूँ,

मैं लिमोसिन चला रहा हूँ,

मैं चार्टर प्लेन बुक करा रहा हूँ..,

धड़ल्ले से बिक रहा हूँ मैं,

चैनलों पर दिख रहा हूँ मैं..,

मैं यह कर रहा हूँ, मैं वह कर रहा हूँ,

मैं अलां में डूबा हूँ, मैं फलां में डूबा हूँ,

मैं…मैं…मैं…,

उम्र बीती मैं और मेरा कहने में,

सारा श्रेय अपने लिए लेने में,

आज श्मशान में अपनी देह को

धू-धू जलते देख रहा हूँ मैं,

हाय री विडंबना..!

कह नहीं पाता-

देखो जल रहा हूँ मैं..!

मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है पर जीवन के सत्य को जानते हुए भी अनजान बने रहना, आँखें मीचे रहना केवल नादानी नहीं अपितु अज्ञान की ओर संकेत करता है। यह अज्ञान प्रदर्शन को उकसाता है। वांछनीय है, प्रदर्शन से उदात्त दर्शन की ओर लौटना। इस वापसी की प्रतीक्षा है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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