हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 110 ☆ कट्टरता के काले पंजे…. ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित समसामयिक विषय पर आधारित एक कविता  कट्टरता के काले पंजे….। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 110 ☆

? कट्टरता के काले पंजे ?

कठपुतली की तरह नचाते हैं अवाम को

कट्टरता के काले पंजे

छीन कर ताकत

सोचने समझने की

डाल देते हैं

दिमाग पर काले पर्दे

कट्टरता के काले पंजे

 

ओढ़ा देते हैं बुर्के औरतों को,

कैदखाना बना देते हैं

घर घर को

अदृश्य काले पंजे

 

मनमानी व्याख्या कर लेते हैं

पवित्र किताबों की

जिंदगी को

जहन्नुम बना देते हैं

फासिस्ट क्रूर काले पंजे

 

बंदूक की नोक

बम और बारूद

अमानवीय नृशंसता

तो महज दिखते हैं

दरअसल कठमुल्ले विचार

हैं काले पंजे

 

हिटलर के गोरे शरीर में

छिपे थे ऐसे ही काले पंजे

तालिबानी ताकत हैं

ये ही काले पंजे

 

सावधान

रखना है दिल दिमाग

हमें कभी कठपुतली

न बना सकें

कोई काले या सफेद

दृश्य या अदृश्य

प्रत्यक्ष या परोक्ष

फासिस्ट पंजे

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 65 ☆ असहयोग की ताकत ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “असहयोग की ताकत”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 65 – असहयोग की ताकत

कर्म की ताकत से तो हम सभी परिचित हैं, पर क्या आपने कभी सोचा कि यदि लोग सहयोग करना बंद कर दें तो क्या होगा? जाहिर सी बात है कि प्रशासक की  तरक्की वहीं रुक जाएगी।  इसी बात को ध्यान में रखकर गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चलाया होगा। बिजीलाल जब तब समय का रोना, रोते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे, पर लोगों को उनका यह कदम कुछ अटपटा लगने लगा था। दरसल उनकी कार्यशैली ही ऐसी है कब किसको आसमान पर विराजित कर दे तो कब दूसरे को जमीन में पटक दें ये कोई नहीं जान सकता था। कुछ दिनों से उन्हें लोमड़ सिंह का सानिध्य मिलने लगा था, सो उनके तौर तरीके भी वैसे ही हो गए। अब ये दोनों मिलकर लोमड़ियों की तलाश में यहाँ -वहाँ तफरी करते नजर आने लगे। कुछ गुणीजनों ने जब ये मुद्दा उनके दरबार में उठाया तो समझाइश लाल ने धीरे से उनसे कहा, बगावत की बू आ रही है।

अब तो बिजीलाल अपने जोश में आकर कहने लगे बू हो या बदबू मुझे कोई फर्क न पहले पड़ा न अब पड़ेगा क्योंकि मैं तो अपने ही चिंतन में मस्त रहता हूँ। मैं तो आने वाले को जयराम जी व जाने वाले को राम भला करेंगे तो कह ही सकता हूँ। बस सत्ता के नशे में अपने समर्थकों के साथ वे आगे बढ़ ही रहे थे तभी एक लोमड़ी ने चालाकी दिखाते हुए उनकी कार्यशैली पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। अब तो उनके समर्थकों ने भी आवाज उठानी शुरू कर दी। ये सब देखकर सामान्य सदस्य भी असमान्य व्यवहार करने लगे।

सबने तय किया कि इनको सबक सिखाना ही होगा। असहयोग आंदोलन छिड़ चुका था। बस इसका नेतृत्व इस बार गुणी जन कर रहे हैं,  ये तो समय तय करेगा कि ऊट किस करवट बैठता है। वैसे बैठने- बिठाने की बात से याद आया कि बिजीलाल जी तो कर्मयोगी हैं उन्हें किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। जो रहेगा उसे ही प्रतिष्ठित करके अपना काम चला लेंगे। सबसे बड़ा झटका तो तब लगा जब उनके अंधसमर्थक इस चौपाई को रटने लगे –

कोउ नृप होय हमय का हानी।

चेरि छाड़ि न कहाउब रानी।।

ये सुन- सुनकर उनको समझ में आने लगा कि अब कि बार राह इतनी आसान नहीं होगी। लोगों को आँकने में उनसे चूक तो हो चुकी है। अब तो बस-

विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिए।

जाहि विधि राखे राम, ताही विधि रहिए।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 85 – लघुकथा – काहे की चिंता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “लघुकथा  – काहे की चिंता।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 85 ☆

☆ लघुकथा – काहे की चिंता ☆ 

पति सुबह 5:00 बजे उठा। पानी भरा। कमरा साफ किया। पानी गर्म किया। चाय बनाई। पत्नी को उठाया।बिस्तर व्यवस्थित रखा। झाड़ू निकाल कर कंप्यूटर पर कहानी संशोधन करने बैठ गया।

तभी पत्नी ने आवाज दी, ” हरी मिर्ची नहीं है।”

“अभी मंगाता हूं,” कहकर पति ने किसी को फोन किया, ” अब प्लीज 30-35 मिनट मुझे डिस्टर्ब मत करना।”

“जी,” कहकर पत्नी काम करने लगी। उसने मोबाइल पर गाना लगा दिया था, ” बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूं।”

“इसकी आवाज थोड़ी कम कर दो।”

“जी”, पत्नी तुनक कर आवाज कम करते हुए बोली, ” इस सौतन के पीछे मुझे कुछ करने और सुनने भी नहीं देते हैं । फिर 10 बजते ही कहेंगे- भूख लग रही है।”

” क्या कहा भाग्यवान?”

” कुछ नहीं, ” पत्नी बड़बड़ाई, ” मैं घरबाहर दोनों जगह खटती रहती हूं। यूं नहीं कि घर के काम में मेरी सहायता कर दें। बस इस बैरी कंप्यूटर से चिपके रहेंगे।”

यह सुनकर पति का हाथ कंप्यूटर के कीबोर्ड से उठकर माथे पर चला गया।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

25-12-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र
ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 72 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – एकादश अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  एकादश अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 72 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – एकादश अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए ग्यारहवें अध्याय का सार। आनन्द उठाइए।

 – डॉ राकेश चक्र 

ग्यारहवां अध्याय – विराट रूप

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराए।

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को दसवें अध्याय में गुह्य ज्ञान के बारे में बताया, जो अति गोपनीय है। अर्जुन ने अपनी जिज्ञासा भगवान के विराट स्वरूप के दर्शनों को लेकर कुछ इस प्रकार प्रकट की——

 

गुह्य ज्ञान आध्यात्मिक, कहा आपने आज।

दूर हुआ सब मोह अब, जाना प्रभु का राज।। 1

 

कमलनयन जगदीश प्रभु, प्रलय-सृष्टि हैं आप।

अक्षय महिमा आपकी, हर लेती सब पाप।। 2

 

रूप सलोना दिव्य प्रभु, पुरुषोत्तम हैं आप।

छवि विराट दिखलाइए, मिट जाएँ संताप।। 3

 

विश्वरूप अवतार प्रभु,  योगेश्वर यदुनाथ।

दर्शन देकर कीजिए,केशव मुझे सनाथ।। 4

 

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराए——-

 

कहा कृष्ण भगवान ने, पार्थ देख ऐश्वर्य।

देव हजारों देख तू ,लख मेरा सौंदर्य।। 5

 

आदित्यों को देख तू, देख देव वसु रुद्र।

कुमारादि लख अश्विनी,देख दृष्टि से भद्र।। 6

 

चाहो यदि तुम देखना, देखो दिव्य शरीर।

देखो भूत-भविष्य तुम, देखो धरि मन धीर।। 7

 

दिव्य आँख में दे रहा, देख योग ऐश्वर्य ।

भौतिक आँखों से नहीं,दिखे दिव्य सौंदर्य।। 8

 

धृतराष्ट्र का सारथी संजय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद सुना और इस प्रकार भगवान के विराट रूप का वर्णन कर धृतराष्ट्र से कहा–

 

संजय कह धृतराष्ट्र से, कृष्ण दिखाएँ रूप।

विश्वरूप दिखला रहे, देखे देव अनूप।। 9

 

विश्वरूप अंतर्निहित, रूप अनादि अनंत।

अनगिन लोचन शीश मुख,अस्त्र-शस्त्र विजयंत।। 10

 

दैवी-आभूषण सुभग,दिव्य अस्त्र हथियार।

सुंदर माला वस्त्र हैं, दिव्य-सुगंध अपार।। 11

 

सहस सूर्य -सा तेज भी, है सम्मुख श्रीहीन

विश्वरूप परमात्मा, के सर्वथा अधीन। 12

 

विश्वरूप भगवान का, अर्जुन देखे रूप।

भाग हजारों विभक्ता, ब्रह्म सभी का भूप।। 13

 

अर्जुन हतप्रभ देखता, हुआ मोह से ग्रस्त।

नत-मस्तक करता विनय,जोड़ युगल निज हस्त।। 14

 

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से कहा-

 

विश्वरूप में देव हैं, देखे विविधा रूप।

ब्रह्मा, शिवजी, ऋषि-मुनी, देखे नाग अनूप।। 15

 

अर्जुन बोला कृष्ण से, हे प्रभु विश्व स्वरूप

अंत, मध्य ना आदि तव,तन विस्तार अनूप।।

 

चकाचौंध अति तेज है, जैसे सूर्य प्रकाश।

तेजोमय सर्वत्र है, मुकुट, चक्र अविनाश।। 17

 

परम् आद्य प्रभु ज्ञेय हैं, सकल आश्र ब्रह्माण्ड।

अव्यय और पुराण हैं,स्वयं आप भगवान।। 18

 

अनत भुजाएँ आपकी, सूर्य-चंद्र हैं नैन

आदि,मध्य न अंत है, तेज अग्नि-से सैन। 19

 

मुख में अनगिन लोक हैं, दिग्दिगंत परिव्याप्त।

रूप अलौकिक देखकर, भय से सब हैं आप्त।। 20

 

शरणागत हैं देवगण, दिखते अति भयभीत।

सब करते हैं प्रार्थना, ऋषिगण सहित विनीत।। 21

 

शिव के विविधा रूप हैं, यक्ष, असुर गंधर्व

सिध्य-साध्य,आदित्य वसु, मरुत-पित्रगण सर्व।। 22

 

यह विराट अवतार लख, विचलित होते लोक।

अंग भयानक देखकर, बढ़ा हृदय भय शोक।। 23

 

सर्वव्याप प्रभु विष्णु का, रूप अलौकिक देख।

धैर्य न धारण हो रहा, मन भी रहित विवेक।। 24

 

मुझ पर आप प्रसन्न हों, हे प्रियवर देवेश।

प्रलय अग्नि मुख देखकर, मन में बढ़ा कलेश।। 25

 

कौरव दल के योद्धा, मुख में करें प्रवेश।

दाँतों में सब पिस रहे, बचा न कोई शेष।। 26

 

सौ सुत सब धृतराष्ट्र के, भीष्म, द्रोण सह कर्ण।

सभी प्रमुख योद्धा मरे, देख रहा सब वर्ण।। 27

 

नदियाँ जातीं जिस तरह, प्रिय के गाँव समुद्र।

उसी तरह योद्धा मिले, मुख में होते बद्ध।। 28

 

मुख में देखूँ वेग-सा, पूरा ही संसार।

अग्निशिखा में जिस तरह, जलें पतिंगे क्षार।।29

 

जलते मुख में आ रहे, निगल रहे सब आप।

इस पूरे ब्रह्मांड को, करें प्रकाशित आप।। 30

 

कृष्ण मुझे बतलाइए, उग्र रूप में कौन।

करता हूँ मैं प्रार्थना, तोड़ें अपना मौन।। 31

 

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा

 

सकल जगत वर्तमान का, करने आया नाश।

पाँच पाण्डव बस बचें, सबका करूँ विनाश।। 32

 

उठो, लड़ो, तैयार हो, यश का करना भोग।

ये योद्धा पहले मरे, तुम निमित्त संयोग।। 33

 

भीष्म, द्रोण, जयद्रथ सहित,समझ मरे सब पूर्व।

तत्पर होकर तुम करो,केवल कर्म अपूर्व।। 34

 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा—–

 

संजय कह धृतराष्ट्र से , अर्जुन काँपे वीर।

हाथ जोड़ करता विनय, जय-जय हे! यदुवीर।। 35

 

अर्जुन ने श्रीभगवान कृष्ण से भयभीत होकर यह वचन कहे——

 

जो प्रभु का सुमिरन करे, होते हर्ष विभोर।

असुर सभी भयभीत हैं, भाग रहे चहुँओर।। 36

 

सबके सृष्टा आप हैं, हे अनन्त देवेश।

अक्षर परमा सत्य हैं, जगत परे हैं शेष।। 37

 

आप सनातन पुरुष हैं, आप सदय सर्वज्ञ।

आप सभी में व्याप्त हैं, दृश्य जगत सब अज्ञ।। 38

 

परम् नियंता वायु के, अग्नि सलिल राकेश।

प्रपितामह, ब्रह्मा तुम्हीं, विनती सुनो ब्रजेश। 39

 

शक्ति असीमा आप हैं,वंदन बारंबार।

आप सर्वव्यापी प्रभो, विनती सुनो पुकार।। 40

 

सखा जान हठपूर्वक, विनय सुनो हरि कृष्ण।

अज्ञानी हूँ मैं प्रभो, हरो हृदय के विघ्न।। 41

 

मित्र समझ, अपमान कर, किए कई अपराध।

क्षमा करो मैं मंद मति, सुन लो प्रियवर साध।। 42

 

चर-अचरा के जनक हैं, गुरुवर पूज्य महान।

तुल्य न कोई आपके, तीनों लोक जहान।।43

 

सब जीवों के प्राण हैं, आप पूज्य भगवान।

क्षमा करें अपराध सब, और परम् कल्यान।। 44

 

दर्शन रूप विराट के, पाकर मैं भयभीत।

कृष्ण रूप दिखलाइए, हे केशव जगमीत । 45

 

शंख, चक्र धारण करो, गदा,पद्म युत रूप।

चतुर्भुजी छवि धाम का, दर्शन दिव्य स्वरूप।। 46

 

श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा

 

शक्ति पुंज मेरा अमित, अर्जुन सुन प्रिय लाल।

विश्वरूप तेजोमयी , था यह दृश्य विशाल।। 47

 

विश्वरूप इस दृश्य को,दृष्ट न कोई पूर्व।

यज्ञ, तपस्या, दान से, भी न मिला अपूर्व।। 48

 

रूप भयानक देखकर, विचलित मन का मोह।

प्रियवर इसे हटा रहा, देख रूप मनमोह।। 49

 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा

 

रूप चतुर्भुज वास्तविक, आए श्रीभगवान।

अन्तस् में फिर आ गए, पुरुषोत्तम श्रीमान।। 50

 

अर्जुन ने श्रीभगवान से कहा

 

मनमोहक छवि देखकर, अर्जुन हुआ प्रसन्न।

सुंदर मानव रूप से, मिटे मोह अवसन्न।। 51

 

जो छवि तुम अब देखते, यह है ललित ललाम।

देव तरसते हैं जिसे,पाने को अविराम।। 52

 

दिव्य चक्षु से देख लो, मेरी छवि अभिराम।

तप-योगों से ना मिलें, बीतें युग-जुग याम।। 53

 

जब अनन्य हो भक्ति तब, दर्शन हों दुर्लभ्य।

ज्ञान-भक्ति जो जान ले, मिले कृष्ण- गंतव्य। 54

 

शुद्ध भक्ति में जो रमें, कल्मष कर परित्यक्त।

कर्म करें मेरे लिए, मम प्रिय ऐसे भक्त।। 55

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” विराट रूप ” ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ म्हणींचा कविता .. माती ☆ सौ.स्वाती रामचंद्र कोरे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ तिरंगा ☆ सौ.स्वाती रामचंद्र कोरे ☆ 

(द्रोण काव्य प्रकार)

उंच गगनात लहरतो,,,,,,,,10

 तिरंगी उत्सव सजतो,,,,,,,9

   नभांगणी झळकतो,,,,,,8

     वाऱ्याने लहरतो,,,,,,,7

      नमन करतो,,,,,,,6

        सेवा करीन,,,,,, 5

          मायभूमीची,,,4

            शपथ,,,,,,,3

              घेतो,,,,2

                मी,,,1

 

© सौ.स्वाती रामचंद्र कोरे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #95 – “काव्यांजलि” – वंदे मातरम…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी “काव्यांजलि” – वंदे मातरम…. । )

☆  तन्मय साहित्य  # 95 ☆

 ☆ “काव्यांजलि” – वंदे मातरम…. ☆

देश प्रेम के गाएँ  मंगल गान

वंदे मातरम

तन-मन से हम करें राष्ट्र सम्मान

वंदे मातरम।।

 

हम सब ही तो कर्णधार हैं

प्यारे  हिंदुस्तान  के

तीन रंग के गौरव ध्वज को

फहराए हम शान से,

इसकी आन बान की खातिर

चाहे जाएँ प्राण

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएं मंगल गान, वंदे मातरम।

 

धर्म पंथ जाति मजहब

नहीं ऊँच-नीच का भेद करें

भाई चारा और प्रेम

सद्भावों  के हम बीज धरें,

मातृभूमि दे रही हमें

धन-धान्य सुखद वरदान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएँ मंगल गान, वंदे मातरम

 

अमर रहे जनतंत्र

शक्ति संपन्न रहे भारत अपना

सोने की चिड़िया फिर

जगतगुरु हो ये सब का सपना

देश बने सिरमौर जगत में

यह दिल में अरमान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएँ मंगल गान, वंदे मातरम।

 

युगों युगों तक लहराए

जय विजयी विश्व तिरंगा ये

अविरल बहती रहे, पुनीत

नर्मदा, जमुना, गंगा ये,

सजग  जवान, सिपाही, सैनिक

खेत और खलिहान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएँ मंगल गान, वंदे मातरम।।

 

सुरेश तन्मय

अलीगढ़/भोपाल

मोबा. 9893266014

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #78 – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #78 – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ☆ 

लन्दन के शैफर्डबुश में  5 अप्रैल 1901 को जन्मी  कैथरीन को जब भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और महात्मा गांधी के संघर्ष के विषय में पता चला तो वे अंततः  1932 में भारत आकर गांधीजी की शिष्या बनी तथा आठ साल तक सेवाग्राम में गांधी जी के सानिध्य में रही और गांधीजी के ‘नई तालीम’ के काम में अपना सहयोग दिया । गांधीजी ने मीरा बहन के बाद अपनी इस दूसरी  विदेशी शिष्या को नया  नाम दिया  सरला देवी । बाद में  गांधीजी के निर्देश पर सरला देवी ने 1940 में कुमांऊ अंचल पहुंचकर स्वाधीनता संग्राम पर  काफी काम किया और इस दौरान वे दो बार जेल भी गई। उन्होंने  कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना ठीक उसी स्थान के निकट की जहां बैठकर गांधी जी ने गीता पर अपनी पुस्तक ‘अनासक्ति योग’ लिखी थी।  अपने आश्रम के माध्यम से उन्होंने बालिका शिक्षा और महिला सशक्तिकरण का कार्य किया । पर्वतीय अंचल के गांधी विचारों से जुड़े कार्यकर्ताओं को संगठित कर उन्होंने उत्तराखंड सर्वोदय मंडल का गठन किया, वनाधिकार व पर्यावरण केन्द्रित ‘चिपको आन्दोलन’ के प्रमुख कार्यकर्ता सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ वे जुडी रही और शराब विरोधी आन्दोलन को सशक्त करती रही । हिन्दी में उन्होंने भारत आकर प्रवीणता हासिल की और दस पुस्तके लिखी । उनके जीवन का सबसे दुखदाई क्षण तब आया जब 1967  से 1977 की अवधि में विदेशी नागरिक होने के कारण उन्हें इस सीमान्त अंचल को छोड़ना पडा । वे पुन: यहाँ वापस आई और  1982 बेरीनाग के निकट हिमदर्शन कुटीर  में उन्होंने अंतिम सांस ली । यह स्थल यद्दपि पाताल भुवनेश्वर के नज़दीक था तथापि दिन ढलने व समयाभाव के कारण में वहाँ न जा सका किन्तु उनके कौसानी आश्रम अवश्य गया और एक बार उनकी शिष्या राधा बहन से भी भोपाल में मिला ।

अपने सहयोगियों के बीच बहनजी के नाम से मशहूर  सरला देवी जब  1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में गिरफ्तार हुई और बाद को रिहा होने के बाद वे गांधी जी से मिलने पूना गई, उसी वक्त के दो संस्मरण उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘ व्यावहारिक वेदांत’ में लिखे हैं ।

‘बापू अब सेवाग्राम वापस जा रहे थे, तो तय हुआ कि मैं पहले अहमदाबाद में एक विकासगृह देखने जाऊं और फिर उनके साथ बम्बई से वर्धा ।

मैं जब विक्टोरिया टर्मिनल पहुँची तो कलकत्ता मेल पहले से प्लेटफार्म पर खडी थी । मैंने बतलाया कि मुझे बापू के साथ जाना है । लोगों ने मुझे वैसे ही प्लेटफार्म में चले जाने दिया । कुछ लोग एक छोटे से आरक्षित डिब्बे में सामान संभाल रहे थे। साधारण डिब्बे से इस डिब्बे में ज्यादा लोग थे, सफ़र में शांति नहीं मिली। हर स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ बापू के दर्शन के लिए इक्कठी मिलती थी। हरिजन कोष के लिए बापू अपना हाथ फैलाते थे। लोग जो कुछ दे सकते थे, देते थे , एक पाई से लेकर बड़ी-बड़ी रकमें और कीमती जेवर तक। स्टेशन से गाडी छूटने पर एक-एक पाई की गिनती की जाते थी और हिसाब लिखा जाता था।

सेवाग्राम में जब मैं बापू से विदा लेने गई तो मैंने उनके सामने बा और बापू की एक फोटो रखी । इरादा उस पर उनके हस्ताक्षर लेने का था । बापू बनिया तो थे ही और वे हर एक चीज का नैतिक ही नहीं भौतिक दाम भी जानते थे। वे अपने दस्तखत की कीमत भी जानते थे और इसलिए अपना हस्ताक्षर देने के लिए हरिजन कोष के लिए कम से कम पांच रुपये मांगते थे । पांच रुपये से कम तो वे स्वीकार ही नहीं करते थे । उन्होंने आखों में शरारत भरकर मुझे देखा । मैंने कहा,” क्यों ? क्या आप मुझे भी लूटेंगे ?”

उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया, “ नहीं मैं तुझे नहीं लूट सकता । तेरे पैसे मेरे हैं, इसलिए मैं तुझसे पैसे नहीं ले सकता ।”

मैंने कहा “बहुत अच्छी बात है । तो आप इस पर दस्तखत करेंगे न ?”

“क्या करूँ , मैं बगैर पैसों के दस्तखत भी नहीं कर सकता ।” बापू ने कहा और फिर उन्होंने सोच-समझकर पूंछा “ तुम मेरे दस्तखत के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो ?”

मैंने कहा “ यदि मेरी लडकिया लापरवाही करेंगी, पढ़ाई या काम की ओर ठीक से ध्यान नहीं देंगी तो मैं उन्हें आपकी फोटो दिखाकर कहूंगी कि यदि तुम बापू की तरह महान बनना चाहती हो तो तुम्हें आपकी तरह ठीक ढंग से काम करना चाहिए।”

बापू ने जबाब दिया “ मैंने लिखना-पढ़ना सीखा, परीक्षा पास करके बैरिस्टर बना, इन सबमे कोई विशेषता नहीं है। इससे तुम्हारी लडकियाँ मुझसे कुछ नहीं सीख पाएंगी ।  यदि ये मुझसे कुछ सीख सकती हैं तो यह सीख सकती हैं कि जब मैं छोटा था तब मैंने खूब गलतियां की लेकिन जब मैंने अपनी गलती समझी तो मैंने पूरे दिल से उन्हें स्वीकार किया । हम सब लोग गलतियां करते हैं, लेकिन जब हम उनको स्वीकार करते हैं तो वे धुल जाती हैं , और हम फिर दुबारा  वही गलती नहीं करते ।”

उन्होंने मुझे याद दिलाई कि बचपन में वे खराब संगत में पड़ गए थे, उन्होंने सिगरेट पीना और गोश्त खाना शुरू कर दिया था और फिर अपना कर्ज चुकाने के लिए रूपए और सोने की चोरी की थी । जब उन्होंने अपनी  गलती समझी तब उसे पूरी तरह खोल कर अपने पिताजी को लिखा । पिताजी पर इसका अच्छा असर हुआ और उन्होंने मोहन को माफ़ कर दिया । ‘

भारत प्रेमी इन दोनों महान हस्तियों, जिम कार्बेट व सरला देवी  को मेरा नमन।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 46 ☆ जिंदगी के मोड़ ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘जिंदगी के मोड़। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 46 ☆

☆ जिंदगी के मोड़ 

जिंदगी जैसे जैसे आगे बढ़ती गयी,

तिलस्मी जिंदगी के रंग बदलते रहे ||

 

जिंदगी में खट्टे मीठे अनुभव होते रहे,

जिंदगी के हर मोड़ पर नए चौराहे आते रहे ||

 

हर चौराहे पर फिर नए मोड़ आते रहे,

हर चौराहै पर नए रास्ते मिलते रहे  ||

 

कुछ रास्ते आगे जाकर तिराहे में मिल गए,

आगे मोड़ पर ‘खतरा है’ लिखी तख्तियां देखते रहे ||

 

हम किसी भी खतरे से अनजान थे,

इधर आगे मोड़ पर खड्डे भी कुछ गहरे मिले ||

 

जिंदगी तिराहे से निकल दो राहे पर आ गयी,

कुछ भी समझ नहीं आया अब किस राह पर मुड़े ||

 

थोड़ा आगे एक एक सुनसान राह नजर आयी,

सुनसान राह पर बढ़े तो देखा आगे रास्ता बंद है ||

 

जिंदगी उधर ही जाती जिधर राह आसान नहीं होती,

थक गया सही राह ढूंढते, यह तो रास्ता ही आगे बंद है ||

 

किसी ने कंधे पर हाथ रख कर कहा,

तू गलत नही सही राह पर है, जिंदगी का रास्ता यहीं बंद है ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 98 ☆ श्रावण सर ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 98 ?

☆ श्रावण सर ☆

एक रिमझिमती श्रावणी दुपार,

लाॅकडाऊन नंतर

पहिल्यांदाच,

घेतलेला मोकळा श्वास!

सखी म्हणाली,

चल भटकून येऊ कॅम्पातून….

रस्ता फारशी गर्दी नसलेला…

थोडा वेळ भटकत राहिलो,

पावसाची भुरभुर झेलत…

 

आठवला बालपणातला,

तारूण्यातला श्रावण,

झिम्मा फुगडी, झोका,

मेंदी भरले हात पाय,

आघाडा… दुर्वा..फुलं..

मास्क मधूनही जाणवले,

ते आठवणीतले सुगंध…..

 

मनात किलबिलला श्रावण,

आणि पावलं वळली,

मार्झोरीन कडे…

वयाची “संध्या छाया” असली तरी, अनुभवली एक मस्त दुपार….

मार्झोरीनच्या वरच्या मजल्यावरचं

खिडकीशेजारचं दोन खुर्च्यांचं टेबल पटकावताना,

झालेला आनंद शाळकरी मुलीसारखा!

मस्त काॅफी-सॅन्डविच आणि

खिडकीतून ऐकू येणारी,

फाद्यांची सळसळ!

एक निवांत दुपार,

दिवस सोनेरी बनविणारी!

 

आयुष्याच्या कुठल्याही

वळणावर अनुभवावीच

सखीबरोबरची—

अशी एखादी,

अलवार श्रावण सर,

खरं तर…

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक-११ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मीप्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- ११ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

‘भीषण सुंदर’ सुंदरी आणि चंद्रमुखी??

दुसऱ्या दिवशी सकाळी कॅम्पच्या शेजारी असलेलं म्युझियम पाहिलं. त्यात वाघ, इतर वन्य प्राणी, मगरी, पक्षी, फुलपाखरं, वेगवेगळ्या जातीची तिवरं, त्यांचे उपयोग असं दाखवलं होतं. तिथून खाली दिसणार्‍या मोठ्या तळ्यात मगर पार्क केलं होतं .सुंदरबनच्या बेटसमूहांचा मोठा कॉ॑क्रीटमधला नकाशा फुलापानांनी सजलेल्या बागेत होता. आज सुंदरबनातून परतीचा प्रवास होता. येताना काळोखात न दिसलेली अनेक राहती हिरवी बेटं, त्यावरील कौलारु घरं, शाळा,नारळी- केळीच्या बागा आणि भातशेतीच्या कामात गढलेली माणसं दिसत होती.  खाडीचं खारं पाणी आत येऊ नये म्हणून प्रत्येक गावाला उंच बंधारे बांधले होते. स्वातंत्र्यपूर्व काळात हॅमिल्टन नावाच्या गोऱ्या साहेबानं गोसाबा या बेटावर स्थानिकांनी तिथे रहावं म्हणून शेतीवाडी, शिक्षण, हॉस्पिटल, रस्ते या कामात मदत केली. तो स्वतःही तिथे रहात होता. या बेटावरील त्याचा जुना, पडका बंगलाही पाहायला मिळाला. रवींद्रनाथ ठाकूर यांनी दोन दिवस वास्तव्य केलेली, छान ठेवलेली एक बंगलीही होती. गोसाबा बेटावरचे हे गाव चांगलं मोठं, नांदतं होतं. तिथलं पॉवर हाउस म्हणजे जंगली लाकडाचे मोठे ठोकळे वापरून, मोठ्या भट्टीत बॉयलरवर पाणी उकळवतात व त्यापासून औष्णिक वीज तयार केली जाते. त्यातून त्या गावाची विजेची गरज भागते.

जिम कार्बेट, कान्हा, काझीरंगा, रणथंबोर, थेकडी, सुंदरबन अशा अनेक अरण्यांना  भेटी देऊन झाल्या पण वाघाची व आमची दृष्टभेट नाही. आम्हाला फक्त हरीणे, पक्षी, हत्ती, रानम्हशी वगैरेंचं दर्शन झालं. सुंदरबन कॅ॑पमध्ये रात्री आम्हाला एका मोठ्या हॉलमध्ये वाघावरची फिल्म दाखवली. तिथे अजून २७६ वाघ आहेत. परंपरागत मासेमारीसाठी, मध व औषधी वनस्पती गोळा करण्यासाठी स्थानिक लोक जीव धोक्यात घालून या वनात खोलवर जातात. लांबट होडीतून सात-आठ जण एकत्र जातात. त्यांच्या चेहऱ्याच्या मागच्या बाजूला माणसाचा मुखवटा वाघाची फसगत करण्यासाठी बांधलेला असतो. अजूनही दरवर्षी चाळीस- पन्नास माणसं वाघाचे भक्ष होतात. कधी सरपण गोळा करायला गेलेली मुलं, म्हातारी माणसं तर कधी मासेमारीसाठी गेलेले कोळी. भक्षावर झेपावणारं ते सळसळतं, सोनेरी ‘भीषण सौंदर्य’ पडद्यावर पाहतानासुद्धा थरथरायला होत होतं! चित्रफितीच्या शेवटी एका लांबट, मजबुत होडीतून सात- आठ जण दहा- पंधरा दिवसांनी मासेमारी करून, जंगल संपत्ती घेऊन घरी परत येत आहेत असं दाखवलं होतं. होडीच्या स्वागतासाठी किनार्‍यावर त्यांचे सारे कुटुंबीय हजर होते. घरधनी सुखरूप परत आल्याचं पाहून एका सावळ्या, गोल चेहऱ्याच्या, टपोऱ्या डोळ्यांच्या, गोल मोठं कुंकू आणि भांगात सिंदूर भरलेल्या ‘चंद्रमुखी’च्या चेहराभर हसू पसरलं. इतकं आंतरिक समाधानाचं, निर्व्याज, मनापासूनचं हसू खूप खूप दिसांनी बघायला मिळालं.

सुंदरबन समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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