(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक गीत – “गुजरा जमाना…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #107 ☆ गीत – “गुजरा जमाना…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख परिस्थितियाँ व पुरुषार्थ । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 157 ☆
☆ परिस्थितियाँ व पुरुषार्थ ☆
‘पुरुषार्थ से दरिद्रता का नाश होता है; जप से पाप दूर होता है; मौन से कलह की उत्पत्ति नहीं होती और सजगता से भय नहीं होता’ चाणक्य की इस उक्ति में जीवन-दर्शन निहित है। मौन व सजगता जीवन की अनमोल निधियां हैं। मौन से कलह का दूर का भी नाता नहीं है, क्योंकि मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभीहित किया जाता है। मौन रहना सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ है, जिससे बड़ी से बड़ी समस्या का स्वत: समाधान हो जाता है, क्योंकि जब एक व्यक्ति क्रोधवश अपना आपा खो बैठता है और दूसरा उसका उत्तर अर्थात् प्रतिक्रिया नहीं देता, तो वह भी शांत हो जाता है और कुछ समय पश्चात् उसका कारग़र उपाय अवश्य प्राप्त हो जाता है।
सजगता से भय नहीं होता से तात्पर्य है कि जो व्यक्ति सजग व सचेत होता है, उसे आगामी आपदा व बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता। दूसरे शब्दों में वह हर कदम फूंक-फूंक कर रखता है, क्योंकि वह व्यर्थ में कोई भी खतरा मोल लेना नहीं चाहता। वह भविष्य के प्रति सजग रहते हुए वर्तमान के सभी कार्य व योजनाओं को अंजाम देता है। सो! मानव को भावावेश में कोई भी निर्णय नहीं लेना चाहिए, बल्कि हर स्थिति में विवेक से निर्णय लेना चाहिए अर्थात् किसी कार्य को प्रारंभ करने से पहले मानव को उसके सभी पहलुओं पर विचार-विमर्श व चिंतन-मनन करने के पश्चात् ही उसे करने का मन बनाना चाहिए। उस स्थिति में उसे भय व शंकाओं का सामना नहीं करना पड़ता। वह निर्भय व नि:शंक होता है तथा उसका तनाव व अवसाद से कोसों दूर का भी नाता नहीं रहता। उसका हृदय सदैव आत्मविश्वास से आप्लावित रहता है तथा वह साहसपूर्वक विषम परिस्थितियों का सामना करने में समर्थ होता है। सो! पुरुषार्थ से दरिद्रता का नाश होता है, क्योंकि जो व्यक्ति साहसी व निर्भीक होता है, उसे अपने परिश्रम पर भरोसा होता है और वह सदैव आत्मविश्वास से लबरेज़ रहता है।
सुखी जीवन जीने के लिए मानव को यह सीख दी गयी है कि ‘अतीत की चिंता मत करो; भविष्य पर विश्वास न करो और वर्तमान के महत्व को स्वीकारते हुए उसे व्यर्थ मत जाने दो।’ दूसरे शब्दों में अतीत अर्थात् जो गुज़र गया, लौटकर नहीं आता। इसलिए उसकी चिंता करना व्यर्थ है। भविष्य अनिश्चित है, जिससे सब अनजान हैं। यह शाश्वत् सत्य है कि संसार में कोई भी प्राणी इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि कल क्या होने वाला है? इसलिए सपनों के महल सजाते रहना मात्र आत्म-प्रवंचना है। परंतु मूर्ख मानव सदैव इस ऊहापोह में उलझा रहता है। सो! संशय अथवा उधेड़बुन में उलझे रहना उसके जीवन का दुर्भाग्य है। ऐसा व्यक्ति अतीत या भविष्य के ताने-बाने में उलझा रहता है और अपने वर्तमान पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। सो! वह संशय अनिश्चय अथवा किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति से मुक्ति नहीं प्राप्त सकता। वह सदैव अधर में लटका रहता है और उसका कोई कार्य समय पर संपन्न नहीं होता। वह भाग्यवादी होने के कारण दरिद्रता के चंगुल में फंसा रहता है और सफलता से उसका दूर का संबंध भी नहीं रहता।
कबीरदास जी का यह दोहा ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब/ पल में प्रलय होएगी, मूर्ख करेगा कब’ वर्तमान की महत्ता को दर्शाता है और वे मानव को सचेत करते हुए कहते हैं कि कल कभी आता नहीं। इसलिए मानव को वर्तमान में सब कार्यों को संपन्न कर लेना चाहिए और आगामी कल के भरोसे पर कोई भी काम नहीं छोड़ना चाहिए। यह सफलता प्राप्ति के मार्ग में प्रमुख अवरोध है। दूसरी ओर समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कभी कुछ भी प्राप्त नहीं होता। ‘माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय’ द्वारा भी यह संदेश प्रेषित है कि समय आने पर ही सब कार्य संपन्न होते हैं।
‘सुमिरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा’ स्वरचित गीत की ये पंक्तियाँ मानव को प्रभु का नाम स्मरण करने को प्रेरित करती हैं, क्योंकि यह मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। इंसान संसार में खाली हाथ आता है और उसे खाली हाथ ही जाना है। परंतु जप व नाम-स्मरण से पापों का नाश होता है। वह मृत्यु के उपरांत भी मानव के साथ जाता है और जन्म-जन्मांतर तक उसका साथ निभाता है। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख्स यहां है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा’ स्वरचित गीत की पंक्तियों से तात्पर्य है कि जो व्यक्ति स्व में केंद्रित व आत्म-मुग्धावस्था में जीना सीख जाता है; उसे ज़माने भर की अलौकिक खुशियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
मानव जीवन क्षणभंगुर है और संसार मिथ्या है। परंतु वह माया के कारण सत्य भासता है। सब रिश्ते-नाते झूठे हैं और एक प्रभु का नाम ही सच्चा है, जिसे पाने के लिए मानव को पंच विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से मुक्ति पाना आवश्यक है, क्योंकि वही मानव को लख चौरासी से मुक्त कराता है। परंतु यह मानव की नियति है कि वह दु:ख में तो प्रभु का नाम स्मरण करता है, परंतु सुख में उसे भुला देता है। इसीलिए कबीरदास जी सुख में उस अलौकिक सत्ता को स्मरण करने का संदेश देते हैं, ताकि दु:ख उसके जीवन में पदार्पण करने का साहस ही न जुटा सके।
सुख, स्नेह, प्रेम, सौहार्द त्याग में निहित है अर्थात् जिन लोगों में उपरोक्त दैवीय गुण संचित होते हैं, उन्हें सुखों की प्राप्ति होती है और शेष उनसे वंचित रह जाते हैं। रहीम जी प्रेम की महत्ता बखान करते हुए कहते हैं ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै ते गांठ परि जाए।’ मानव को प्रत्येक कार्य नि:स्वार्थ भाव से करना चाहिए और गीता में भी निष्काम कर्म का संदेश प्रषित है, क्योंकि मानव को कर्म करने का अधिकार है; फल की इच्छा करने का नहीं है। जो संसार में जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए मानव को सत्कर्म व सत्संग करना चाहिए, क्योंकि यही मानव की कुंजी है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट जाना है। इसलिए मानव को माया-मोह व राग-द्वेष के बंधनों का त्याग कर प्रभु से लौ लगानी चाहिए।
जीवन संघर्ष का पर्याय है। जो व्यक्ति पुरुषार्थी व परिश्रमी है; जीवन में सदैव सफलता प्राप्त करता है और वह कभी भी दरिद्र नहीं हो सकता। जो मौन साधना करता है; विवादों से दूर रहता है, क्योंकि संवाद संबंधों में स्थायित्व प्रदान करते हैं। संवाद संवेदनशीलता का प्रतीक हैं, परंतु उनमें सजगता की अहम् भूमिका है। रिश्तों में माधुर्य व विश्वास होना आवश्यक है। सो! हमें रिश्तों की अहमियत को स्वीकारना चाहिए। परंतु जब रिश्तों में कटुता आ जाती है, तो वे नासूर बन सालने लगते हैं। इससे हमारा सुक़ून सदा के लिए नष्ट हो जाता है। इसलिए हमें दूरदर्शी होना चाहिए और हर कार्य को सोच-समझकर अंजाम देना चाहिए। लीक पर चलने का कोई औचित्य नहीं है और अपनी राह का निर्माण स्वयं करना श्रेयस्कर है। इतना ही नहीं, हमें तीसरे विकल्प की ओर भी ध्यान देना चाहिए और निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। स्वामी रामतीर्थ के अनुसार प्रत्येक कार्य को हिम्मत व शांति से करो, यही सफलता का साधन है अर्थात् मानव को शांत मन से निर्णय लेना चाहिए तथा साहस व धैर्यपूर्वक प्रत्येक कार्य को संपन्न करना चाहिए। जो व्यक्ति सजगता व तल्लीनता से कार्य करता है और प्रभु नाम का स्मरण करता है– उसके सभी कार्य संपन्न होते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से \प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे”।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “पढ़े चलो बढ़े चलो”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 124 ☆
☆ पढ़े चलो बढ़े चलो ☆
त्याग,तपस्या, उपवास से दृढ़ निश्चय की भावना बलवती होती है। इसे कार्यसिद्धि का पहला कदम माना जा सकता है। लगातार एक दिशा में कार्य करने वाला कमजोर बुद्धि का होने पर भी सफलता हासिल कर लेता है। अक्सर देखने में आता है कि लोग अपनी विरासत को सम्हालने के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं और जैसे परिस्थितियाँ बदलीं बस झट से खुद को मुखिया साबित कर पूरी बागडोर अपने हाथ में ले लेते हैं। राजनीतिक क्षेत्रों में ऐसा प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है। कोई इसे परिवार वाद का नाम देता है तो कोई इसे अपना अधिकार मानकर खुद झपट लेता है। सियासी दाँव- पेंच के बीच छुट भैया नेताओं को भी गाहे- बगाहे मौका मिल जाता है। पिता की चुनावी सीट को अपनी बपौती मानकर टिकट लेना और न मिलने पर अलग से पार्टी बना लेने का चलन खूब तेजी से बढ़ रहा है।
जैसे-जैसे लोग शिक्षित हो रहे हैं वैसे- वैसे उनके चयन का आधार भी बदल रहा है। वे भावनाओं के वशीभूत होकर उम्मीदवार का चयन नहीं करते हैं। चुनावी घोषणा पत्र से प्रभावित होकर पाँच वर्षों के लिए नए प्रत्याशी को मौका देने लगें हैं।
कथनी और करनी में भेद सदैव से जनतंत्र का अघोषित मंत्र रहा है। कोई इसी चुनावी जुमला कह के पल्ला झाड़ लेता है तो कोई केंद्र सरकार पर दोषारोपण करते हुए सहायता न मिलने की बात कह देता है। कुल मिलाकर लोग जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। अब तो लोगों को भी मालूम है कि ये सब प्रलोभन बस कुछ दिनों के हैं किंतु चयन तो करना है सो मतदान को अपना अधिकार मानते हुए मत दे देते हैं।
इन सबके बीच एक बात अच्छी है कि सभी दल सारे मतभेदों से ऊपर अपने राष्ट्र को रखते हुए तिरंगे का सम्मान करते हैं और आपदा पड़ने पर एकजुटता का परिचय देते हैं। शिक्षा के महत्व को जीवन के हर क्षेत्रों में देखा जा सकता है। आइए मिलकर एक दूसरे का सहयोग करते हुए शत प्रतिशत साक्षरता की ओर अग्रसर हों।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख लघुकथा – “संस्कार”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 125 ☆
☆ लघुकथा – संस्कार☆
जैसे ही अनाथ आश्रम से वृद्ध को लाकर पति ने बैठक में बिठाया वैसे ही किचन में काम कर रही पत्नी ने चिल्लाकर कहा, “आखिर आप अपनी मनमानी से बाज नहीं आए,” वह ज़ोर से बोली तो पति ने कहा, “अरे भाग्यवान! धीरे बोलो। वह सुन लेंगे।”
“सुन ले तुम मेरी बला से। वे कौन से हमारे रिश्तेदार हैं?” पत्नी ने तुनक कर कहा, “मैंने पहले भी कहा था हम दोनों नौकर पेशा हैं। बेटे को उसके मामा के यहां रहने दो। वहां पढ़ लिखकर होशियार और गुणवान हो जाएगा। पर आप माने नहीं। उसे यहां ले आए।”
“हां तो सही है ना,” पति ने कहा, “बुजुर्गवार के साथ रहेगा तो अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा। हमें घर की भी चिंता नहीं रहेगी।”
“अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा,” पत्नी ने भौंहे व मुँह मोड़ कर कहा, “ना जाने कौन है? कैसे संस्कार है इस बूढ़े के। ना जाने क्या सिखाएगा?” कहते हुए पत्नी ना चाहते हुए भी बूढ़े को चाय देने चली गई।
“लीजिए! चाय !” तल्ख स्वर में कहते हुए जब उस ने बूढ़े को चाय दी तो उसने कहा, “जीती रहो बेटी!” यह सुनते ही बूढ़े का चेहरा देखते ही उसका चेहरा फक से सफेद पड़ गया।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – ब्राण्डेड-वर-वधू ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 179 ☆
व्यंग्य – ब्राण्डेड-वर-वधू
हर कोई अपने उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ घर-वर देखकर शादी करता है, पर जल्दी ही, वह कहने लगता हैं- तुमसे शादी करके तो मेरी किस्मत ही फूट गई है। या फिर तुमने आज तक मुझे दिया ही क्या है। प्रत्येक पति को अपनी पत्नी `सुमुखी` से जल्दी ही सूरजमुखी लगने लगती है। लड़के के घर वालों को तो बारात के वापस लौटते-लौटते ही अपने ठगे जाने का अहसास होने लगता है। जबकि आज के इण्टरनेटी युग मे पत्र-पत्रिकाओं,रिश्तेदारों, इण्टरनेट तक में अपने कमाऊ बेटे का पर्याप्त विज्ञापन करने के बाद जो श्रेष्ठतम लड़की, अधिकतम दहेज के साथ मिल रही होती हैं, वहीं रिश्ता किया गया होता हैं यह असंतोष तरह तरह प्रगट होता है । कहीं बहू जला दी जाती हैं, कहीं आत्महत्या करने को विवश कर दी जाती हैं पराकाष्ठा की ये स्थितियां तो उनसे कहीं बेहतर ही हैं, जिनमें लड़की पर तरह तरह के लांछन लगाकर, उसे तिल तिल होम होने पर मजबूर किया जाता हैं।
नवयुगल फिल्मों के हीरो-हीरोइन से उत्श्रंखल हो पायें इससे बहुत पहले ननद, सास की एंट्री हो जाती है। स्टोरी ट्रेजिक बन जाती है और विवाह जो बड़े उत्साह से दो अनजान लोगों के प्रेम का बंधन और दो परिवारों के मिलन का संस्कार हैं,एक ट्रेजडी बन कर रह जाता है। घुटन के साथ, एक समझौते के रूप में समाज के दबाव में मृत्युपर्यन्त यह ढ़ोया जाता है। ऊपरी तौर पर सुसंपन्न, खुशहाल दिखने वाले ढेरो दम्पत्ति अलग अलग अपने दिल पर हाथ रख कर स्वमूल्यांकन करें, तो पायेंगे कि विवाह को लेकर अगर-मगर, एक टीस कहीं न कहीं हर किसी के दिल में हैं।
यदि दामाद को दसवां ग्रह मानने वाले इस समाज में, यदि वर-वधू की मार्केटिंग सुधारी जावें, तो स्थिति सुधर सकती है। विवाह से पहले दोनों पक्ष ये सुनिश्चित कर लेवें कि उन्हें इससे बेहतर और कोई रिश्ता उपलब्ध नहीं है। वधू की कुण्डली लड़के के साथसाथ भावी सासू मां से भी मिलवा ली जावे। वर यह तय कर ले कि जिदंगी भर ससुर को चूसने वाले पिस्सू बनने की अपेक्षा पुत्रवत्, परिवार का सदस्य बनने में ही दामाद का बड़प्पन हैं, तो वैवाहिक संबंध मधुर स्वरूप ले सकते है।
वर वधू की एक्सलेरेटेड मार्केटिंग हो। मेरा प्रस्ताव है ब्राण्डेड वर, वधू सुलभ कराये । यूं तो शादी डॉट कॉम जैसी कई अंर्तराष्ट्रीय वेबसाइट सामने आई हैं। एक चैनल पर बाकायदा एक सीरियल ही शादी करवाने को लेकर चला था। अनेक सामाजिक एवं जातिगत संस्थाये सामूहिक विवाह जैसे आयोजन कर ही रही हैं। किसी राज्य मे मामा तो किसी सरकार में मुख्यमंत्री गरीबो के विवाह रचकर वोट बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। लगभग प्रत्येक अखबार, पत्रिकायें वैवाहिक विज्ञापन दे रहें है,पर मेरा सुझाव कुछ हटकर है।
यूं तो गहने, हीरे, मोती सदियों से हमारे आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, पर जब से ब्राण्डेड` हीरा है सदा के लिये´ आया हैं, एक गारण्टी हैं, शुद्धता की। रिटर्न वैल्यू है। रिलायबिलिटी है। आई एस ओ प्रमाण पत्र का जमाना है साहब। ये और बात है कि ब्रांडेड हीरा बेचने वाले खुद ही बैंको के रूपये दबाकर विदेशी जेलों में रफूचक्कर हो गए हैं।
बहरहाल आज खाने की वस्तु खरीदनी हो तो हम चीज नहीं एगमार्क देखने के आदि हैं, पैकेजिंग की डेट, और एक्सपायरी अवधि, कीमत सब कुछ प्रिंटेड पढ़कर हम , कुछ भी सुंदर पैकेट में खरीदकर खुश होने की क्षमता रखते है। अब आई एस आई के भारतीय मार्के से हमारा मन नहीं भरता हम ग्लौबलाईजेशन के इस युग में आई एस ओ प्रमाण पत्र की उपलब्धि देखते है।अब तो स्कूलों को आई एस ओ प्रमाण पत्र मिलता है, यानि सरकारी स्कूल में दो दूनी चार हो, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, पर यदि आई एस ओ प्रमाणित स्कूल में यदि दो दूनी छ: पढ़ा दिया गया, तो कम से कम हम कोर्ट केस करके मुआवजा तो पा ही सकते हैं। मुझे एक आई एस ओ प्राप्त ट्रेन में सफर करने का अवसर मिला, पर मेरी कल्पना के विपरीत ट्रेन का शौचालय यथावत था जहां विशेष तरह की चित्रकारी के द्वारा यौन शिक्षा के सारे पाठ पढ़ाये गये थे , मैं सब कुछ समझ गया। खैर विषयातिरेक न हो, इसलिये पुन: ब्राण्डेड वर वधू पर आते हैं-! आशय यह है कि ब्राण्डेड खरीदी से हममें एक कान्फीडेंस रहता है। शादी एक अहम मसला है। लोग विवाह में करोड़ो खर्च कर देते है। कोई हवा में विवाह रचाता है,तो कोई समुद्र में। एक जोड़े ने ट्रेकिंग करते हुए पहाड़ पर विवाह के फेरे लिये, एक चैनल ने बकायदा इसे लाइव दिखाया। विवाह आयोजन में लोग जीवन भर की कमाई खर्च कर देते हैं , उधार लेकर भी बडे शान शौकत से बहू लाते हैं , विवाह के प्रति यह क्रेज देखते हुये मेरा अनुमान है कि ब्राण्डेड वर वधू अवश्य ही सफलतापूर्वक मार्केट किये जा सकेगें। वर वधु को ब्राण्डेड बनाने वाली मल्टीनेशनल कंपनी सफल विवाह की कोचिंग देगी। मेडिकल परीक्षण करेगी। खून की जांच होगी। वधुओं को सासों से निपटने के गुर सिखायेगी।लड़कियो को विवाह से पहले खाना बनाने से लेकर सिलाई कढ़ाई बुनाई आदि ललित कलाओ का प्रशिक्षण दिया जावेगा . भावी पति को बच्चे खिलाने से लेकर खाना बनाने तक के तरीके बतायेगी, जिससे पत्नी इन गुणों के आधार पर पति को ब्लेकमेल न कर सके। विवाह का बीमा होगा। इसी तरह के छोटे-बड़े कई प्रयोग हमारे एम बी ए पढ़े लड़के ब्राण्डेड दूल्हे-दुल्हन सर्टिफाइड करने से पहले कर सकते है। कहीं ऐसा न हो कि दुल्हन के साथ साली फ्री का लुभावना आफर ही व्यवसायिक प्रतियोगी कम्पनी प्रस्तुत कर दें। अस्तु! मैं इंतजार में हूं कि सुदंर गिफ्ट पैक में लेबल लगे, आई एस ओ प्रमाणित दूल्हे-दुल्हन मिलने लगेंगे, और हम प्रसन्नता पूर्वक उनकी खरीदी करेगें, विवाह एक सुखमय, चिर स्थाई प्यार का बंधन बना रहेगा। सात जन्म का साथ निभाने की कामना के साथ,स्त्री समानता के इस युग मे पत्नी हीं नहीं, पति भी हरतालिका और करवा चौथ के व्रत रखेगें। अपनी तो पिताजी की कराई शादी में गुजर बसर हो गई है नाती पोतो का विवाह शायद ब्रांडेड वर वधुओ के चयन से हो।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 134 ☆
☆ बाल गीत – हम बच्चों की शान तिरंगा…☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆