हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 58 – सजल – रामराज्य का सपना खोया… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “रामराज्य का सपना खोया… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 58 – सजल – रामराज्य का सपना खोया… 

समांत- इया

पदांत- में

मात्राभार- 16

 

प्रजातंत्र की इस बगिया में।

खुशियाँ रूठीं हैं कुटिया में ।।

 

रामराज्य का सपना खोया,

भ्रष्टाचारों की कुठिया में ।

 

भीत खड़ी हैं भेद भाव की,

लटकीं हैं फोटो खुटिया में।

 

हिंदुस्तानी बचे कहाँ हैं,

सभी सो गए हैं खटिया में।

 

हवलदार की ताकत होती,

उसकी वर्दी सँग लठिया में।

 

खेत और खलिहान कृषक के,

देकर बैठे हैं अधिया में ।

 

चलो बचाएँ वर्षा-पानी,

भर-भरकर अपनी लुटिया में।

 

…………………..

6 सितम्बर 2021

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 124 – ““बिना मतलब” का मतलब” – श्री राजा सिंह ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री राजा सिंह जी द्वारा लिखी कृति ““बिना मतलब” का मतलब” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 124 ☆

☆ ““बिना मतलब” का मतलब” – श्री राजा सिंह ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब

रचना के बिम्ब, लेखक, प्रकाशक, किताब, समीक्षक और पाठक का अटूट साहित्यिक संबंध होता है. मतलबी दुनिया की भागम भाग के बीच भी यह संबंध किंचित बेमतलब बना हुआ है, यह संतोष का विषय है. भीड़ के हर शख्स का जीवन एक उपन्यास होता है, और आदमी की जिजिविषा से परिपूर्ण दैनंदिनी घटनायें बिखरी हुई बेहिसाब कहानियां होती हैं. जब कोई कहानीकार आम आदमी के इस संघर्ष को पास से देख लेता है तो वह उसमें रचना के बिम्ब ढ़ूंढ़ निकालता है. इस तरह बुनी जाती है कहानी. वास्तविक किरदार अनभिज्ञ रह जाता है पर उसकी जिंदगी का वह हिस्सा, जिसे पढ़कर लेखक ने अपने कौशल के अनुरूप कहानी गढ़ी होती है, जब प्रकाशित होती है तो वह पाठको का मर्म स्पर्श कर उन्हें चिंतन, मनोरंजन, और आंसू देती है. पत्रिका का जीवन एक सीमित अवधि का होता है, पर किताबें दीर्घ जीवी होती हैं. इसलिये किताब की शक्ल में छपी कहानियां उस किरदार और घटना को नव जीवन देती हैं. आम आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब समझने का प्रयास मैने किया. दो सौ पन्नो में फैली हुई कुल जमा तेरह कहानियां हैं. कुछ तो ऐसी हैं जिनको स्वतंत्र उपन्यास की शक्ल में पुनर्प्रस्तुत किया जा सकता है. छल ऐसी ही कहानी है, जो पात्र शालिनी के नाम से उपन्यास के रूप में विस्तारित की जा सकती है. मजे की बात है कि पाठको को उनके आस पास कोई न कोई शालिनी जरूर दिख जायेगी. क्योंकि शालिनी को एक वृत्ति के रूप में प्रस्तुत करने में राजा सिंह ने सफलता पाई है. फेसबुक की आभासी दुनिया के इस समय में कई शालिनी हमारे इनबाक्स में घुसी चली आ रही मिलती हैं.

प्रबंधन, नियति, बिना मतलब कुछ लम्बी कहानियां है. रिश्तों की कैद, सफेद परी पठनीय हैं. दरअसल प्रत्येक कहानीकार की बुनावट का अपना तरीका होता है. राजा सिंह बड़ी बारीक घटनाओ का सविस्तार वर्णन करने की शैली अपनाते हैं, इसलिये वे लम्बी कहानियां लिखते है. उसी कथानक को छोटे में भी समेटा जा सकता है. पत्र पत्रिकाओ में मैं राजा सिंह की कहानियां पढ़ता रहा हूं. किताब में पहली बार पढ़ा जब उन्होंने समीक्षार्थ “बिना मतलब” भेजी. वे देशज मिट्टी से जुड़े रचनाकार हैं. कहानियों के साथ कविताई भी करते हैं. उनके दो कथा संग्रह अवशेष प्रणय और पचास के पार शीर्षकों से पहले आ चुके हैं. हंस, परिकथा, पुष्पगंधा, अभिनव इमरोज, साहित्य भारती, रूपाम्बरा, वाक्, कथा बिम्ब, लमही, मधुमती, बया, आजकल आदि पत्रिकाओ के अंको में उनकी ये कहानियां जो इस संग्रह में हैं पूर्व प्रकाशित हैं.

बिना मतलब एक एकाकी बुजुर्ग साहित्यकार के इर्द गिर्द बुनी कहानी है जो बिन बोले मनोविज्ञान के पाठ पढ़ाती बहुत कुछ कहती है और जिंदगी का मतलब समझाती है. “कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बार में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्‍त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो”. इस परिभाषा पर “बिना मतलब” की कहानियां निखालिस खरी हैं.

मैं अकादमिक बुक्स इंडिया, दिल्ली से प्रकाशित इस किताब को थोड़ा फुरसत से पढ़ने की अनुशंसा करता हूं. मेरी मंगलकामना है कि राजा सिंह निरंतर लिखें, हिन्दी पाठको को उनकी ढ़ेरो और नई नई कहानियां पढ़ने मिलती रहें.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संदेशपूर्ण चौपाईयाँ ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ संदेशपूर्ण चौपाईयाँ  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

मानवता का धर्म निभाना। ख़ुद को चोखा रोज़ बनाना।।

बुरे सोच को दूर भगाना। प्रेमभाव को तुम अपनाना।।(1)

 

दयाभाव के फूल खिलाना। पर-उपकारी तुम बन जाना।।

झूठ कभी नहिं मन में लाना। मानव बनकर ही दिखलाना।।(2)

 

निर्धन को तुम निज धन देना। उसके सारे दुख हर लेना।।

भूखे को भोजन करवाना। करुणा का तुम धर्म निभाना।।(3)

 

अंतर में उजियारा लाना। द्वेष,पाप तुम दूर भगाना।।

लोभ कभी नहिं मन में लाना। ख़ुद को सच्चा संत बनाना।।(4)

 

ईश्वर को तुम नहिं बिसराना। अच्छे कामों के पथ जाना।।

अपनी करनी को चमकाना। मानवता का सुख पा जाना।।(5)

 

भजन,जाप को तुम अपनाना। मंदिर जाकर ध्यान लगाना।।

वंदन प्रभुजी का नित करना। अपने पापों को नित हरना।।(6)

 

अहंकार को दूर भगाना। विनत भाव को उर में लाना।।

कोमलता से प्रीति लगाना। संतों की सेवा में जाना।।(7)

 

भजन,आरती में खो जाना। सद् वाणी प्रति राग जगाना।।

बुरी बात हर ,परे हटाना। दुष्कर्मों को आज मिटाना।।(8)

 

जीवन को नहिं व्यर्थ गँवाना। दान,पुण्य से प्रीति लगाना।।

हर प्राणी से दया दिखाना। स्वारथ को तो दूर भगाना।।(9)

 

नैतिकता के पथ पर चलना। समय गँवा,नहिं आँखें मलना।।

मानव बन ही रहना होगा। गंगा जैसा बहना होगा।।(10)

 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -10 – परदेश का मोहल्ला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 10 – परदेश का मोहल्ला ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मोहल्ला शब्द इसलिए चुना, क्योंकि वर्तमान निवास एक विदेश की आवासीय सोसाइटी में है, जिसमें करीब पंद्रह सौ फ्लैट्स हैं। अब तो हमारे जयपुर में भी ऐसी कई सोसायटी है जिसमें एक हजार से अधिक फ्लैट्स हैं, प्रमुख रूप से गांधी पथ के पास “रंगोली” है, जिसमें भी सोलह सौ से अधिक फ्लैट्स हैं।

यहां की सोसाइटी में सभी किराये से रहते हैं। कोई कंपनी इसको विगत साठ वर्षों से किराए पर चला रही हैं। आसपास इतनी बड़ी और पंद्रह मंजिल कोई और भवन ना होने से दूर से ही दृष्टि पड़ जाती हैं। हमारे जैसे प्रवासियों को ढूंढने में कठिनाई नहीं होती हैं। वैसे आजकल तो लोग पड़ोसी के घर जाने से पहले भी गूगल से ही रास्ता पूछते हैं।

भवन बड़ा होने के कारण नगर बस सेवा भी अंदर तक सुविधा देती है,वो बात अलग है, कि यहां बहुत कम लोग बस से यात्रा करते हैं। कार पार्किंग में दो गाड़ियां खड़ी रखने का कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं हैं। बिना सोसाइटी के स्टिकर वाली गाड़ी अवश्य क्रेन द्वारा उठा दी जाती हैं। अतिथि के लिए भी अलग से पार्किंग व्यवस्था हैं। विशेष योग्य जन जिनकी गाड़ी में इस बाबत स्टिकर होता हैं, को  प्रवेश द्वार के पास आरक्षित स्थान मिलता हैं।

कार पार्किंग के लिए स्थान बहुत ही सलीके से चिन्हित किए गया हैं। कार रखना और निकलना अत्यंत सुविधा जनक हैं। कार एकदम सीधी लाइन में खड़ी देखकर अपने पाठशाला के दिन याद आ गए,जब रेखा गणित में हम स्केल की सहायता से भी सीधी रेखा नहीं खींच पाते थे। गुरुजन हमारे स्केल से ही हाथ  पर सीधी लाल लाइन खींच दिया करते थे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 142 – ग्रहण से मोक्ष ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विवाह पर आधारित एक प्रेरक लघुकथा “ग्रहण से मोक्ष”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 142 ☆

🌺लघु कथा 🌗ग्रहण से ोक्ष 🌕

नलिनी के जीवन में उस समय ग्रहण लग गया, जब 5 वर्ष की उम्र में धूमधाम से उसका बाल विवाह हुआ।

12 साल का उसका पति अभय नलिनी से ज्यादा समझदार दूल्हे होने की अकड़ और उम्र का बड़ा फासला, परंतु नलिनी इन सब बातों से अनजान खेलकूद, मौज – मस्ती, अपने मित्रों के साथ धमा-चौकड़ी, मोबाइल में गेम खेलना और समय पर पढ़ाई करना। यही उसकी दिनचर्या थी।

पढ़ाई लिखाई में कमजोर अभय हमेशा उस पर अधिकार जमाता रहता। मोहल्ला पड़ोस आस-पास होने की वजह से हर चीज की खबर रखता था। जो नलिनी को बिल्कुल भी पसंद नहीं आता था।

आज घर परिवार में ग्रहण की बात हो रही थी। इसकी राशि में शुभ और किसकी राशि में अशुभ। शुभ फल चर्चा का विषय बना था। पापा पेपर लिए बड़े ही तल्लीनता से पढ़ रहे थे। मम्मी पास में बैठी सब्जी काट रसोई की तैयारी करने में लगी थी।

अचानक दौड़ती नलिनी आई पापा के कंधे झूलते बोली…. पापा मेरी सखियां मुझे चिढ़ाती हैं कि मुझे तो ग्रहण लग गया है। पापा ग्रहण बहुत खतरनाक और भयानक होता है क्या? अभय भी मेरे साथ यही करेगा। पापा मुझे कब छुटकारा मिलेगा।

बिटिया की बातें सुन मम्मी-पापा हतप्रभ हो देखते रहे, उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था।

बहुत गलत फैसला है और तुरंत दूसरे कपड़े पहन, चश्मा लगा कुछ कागज, हाथों में ले बाहर जाने लगे।  मम्मी ने आवाज लगाई…. कहां चल दिए।

पापा ने कहा…. अपनी गलती के कारण अपनी बिटिया पर लगे ग्रहण के समय का मोक्ष निर्धारण करके आता हूँ। शायद यही समय उचित रहेगा।

नलिनी खुशी से झूम उठी…. अब मैं सभी फ्रेंड को बता दूंगी मेरा भी ग्रहण को मोक्ष मिल गया। अब कोई अशुभ प्रभाव नहीं पड़ेगा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #164 ☆ अंधार रात्र आहे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 164 ?

☆ अंधार रात्र आहे… ☆

काळोख शमविण्याला येतात काजवे हे

घेऊन दीप हाती फिरतात काजवे हे

 

अंधार रात्र आहे पत्ता न चांदण्यांचा

त्यांचीत फक्त जागा घेतात काजवे हे

 

गुंफून हात हाती करतात नृत्य सारे

सुंदर प्रकाश गीते गातात काजवे हे

 

छळतो तिमिर तरीही थोडा उजेड आहे

आधार जीवनाचा होतात काजवे हे

 

नाजूक जीव आहे हलक्या मुठीत माझ्या

घेतो कधी कधी मी हातात काजवे हे

 

शेतात चोर रात्री येऊ नयेत म्हणुनी

घालून गस्त रात्री जातात काजवे हे

 

आहे स्वयंप्रकाशी इवला प्रकाश तरिही

निर्माण राज्य येथे करतात काजवे हे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 113 – गीत – तुम कैसे सब सहती हो ? ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – तुम कैसे सब सहती हो ।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 113 – गीत – तुम कैसे सब सहती हो ✍

पल-पल विकल हुआ करता हूं तुम कैसे सब सहती हो।

कली सरीखी सुबह चटकती छा जाती है अरुणाई

एहसासों का सूरज सिर पर छाया करती पहुनाई

छाया कहां दहा करती है लगता तुम ही दहती हो।

लगता समय बहा जाता है कौन कहां पर ठहरा है

कामयाब क्या होगी मरहम गांव जहां पर गहरा है

नीर नयन से बहता रहता लगता तुम ही बहती हो।

क्षण भर भूल नहीं पाता हूं याद कहां से आएगी

भूल भटक कर आ भी जाए छवि अपनी ही पाएगी

ध्यान और धूनी में क्या है केवल तुम ही रहती हो ।

पल-पल विकल हुआ करता हूं तुम कैसे सब सहती हो।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 115 – “साधते हों सगुन…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “साधते हों सगुन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 115 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “साधते हों सगुन” || ☆

इस समूचे दिवस

का आलेख-

ज्यों रहा है लिख ।

समय का मंतिख ।

 

घूप कैसी हो

व कैसी छाँव ।

गली महतो की

रुकें ओराँव ।

 

साधते हों सगुन

देहरी पर ।

तो दिखे पोती

हुई कालिख ।

 

एक ही ओजस्व

का दाता ।

जिसे सारा विश्व

है ध्याता ।

 

शाक पर है वही

निर्भर देवता ।

तुम जिसे समझा

किये सामिख ।

 

इस लगन पर

सब नखत एकत्र ।

करेंगे प्रारंभ

अनुपम सत्र ।

 

पक्ष में होंगी

सभी तिथियाँ |

यही देंगे वर

शुभंकर रिख ।

 

मंतिख = भविष्य वक्ता,

सामिख= सामिष

लगन= लग्न

नखत= नक्षत्र

रिख= ऋषि

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

04-11-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 162 ☆ “चुनाव के बहाने” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय माइक्रो व्यंग्य  – “चुनाव के बहाने”)  

☆ माइक्रो व्यंग्य # 162 ☆ “चुनाव के बहाने” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

जहां हम लोग रहते हैं उसे जवाहर नगर नाम से जाना जाता है। लोग कहते हैं कि जवाहर नगर एक लोकतांत्रिक कालोनी होती है। लोगों का क्या है वे लोग तो ये भी कहते हैं कि किसी भी शहर की नई बस्ती वह गांधी नगर हो या जवाहर नगर लोकतांत्रिक ही हुआ करती है। मुहल्ले में  एक घर शर्मा का है तो बगल में वर्मा का है, तिवारी है, मीणा है, खान है, जैन है, सिंधी है, ईसाई है। धर्म व जाति से परे व मुक्त होकर दो दशक से अधिक हो गये हैं ये सब लोग भाईचारे से रह रहे थे।

अचानक चुनाव आ गये। लोकतंत्र में चुनाव जरूरी हैं और लोकतांत्रिक कालोनियों में चुनाव का अलग महत्व है। मोहल्ले के खलासी लाइन में एक लाइन से बीस घर बने हैं।

चुनाव की घोषणा के बाद से ही हर घर मेंअलग-अलग टीवी चैनल चलने लगे। इन घरों में अलग अलग पार्टी के लोगों का आना जाना बढ़ गया, चैनलों ने और अलग अलग पार्टियों ने मोहल्ले में कटुता इतनी फैला दी  कि हर पड़ोसी एक दूसरे से कोई न कोई बात पर पंगा लेने के चक्कर में रहने लगा । गुप्ता जी ने अपने घर के सामने राममंदिर बना लिया तो पड़ोसी कालीचरण ने गोडसे मंदिर बना लिया।उनके पड़ोसी जवाहर भाई ने अपने घर के सामने गांधी जी का मंदिर बनवा लिया। बजरंगबली दीक्षित जी के घर के सामने पहले से विराजमान थे। गली के आखिरी में हरे रंग का झंडा लहराने लगा था, अचानक हरे कपड़े से लिपटी मजार दिखाई देने लगी थी।आम जनता को थोड़ी तकलीफ ये हुई कि सड़क धीरे धीरे सिकुड़ती गई पर मोहल्ले के एक बेरोजगार लड़के को फायदा हुआ उसकी फूल और प्रसाद की दुकान खूब चलने लगी।गली में अलग अलग पार्टी के लोगों का आना जाना बढ़ गया।फूल माला और प्रसाद की दुकान वाले लड़के की पूछपरख बढ़ गई, उसकी दुकान में सब पार्टी के लोग बेनर पम्पलेट दे जाते,वह चुपचाप रख लेता और रात को सब जला देता। चुनाव हुए रिजल्ट आये और प्रसाद वाली पार्टी जीत गयी। गली की सड़क बहुत सकरी हो गई थी,एक दिन बुलडोजर आया और बजरंग बली को छोड़कर  सड़क के सभी अतिक्रमण हटा दिए, सड़क चौड़ी हो गई, सबने राहत महसूस की,गली के बीसों घरों के लोग मिलने जुलने लगे, भाईचारा कायम हो गया,फूल माला प्रसाद की दुकान घाटा लगने से बंद हो गई। जवाहर नगर वाला बोर्ड दीनदयाल नगर में तब्दील हो गया। सबने चुपचाप देखा और आगे बढ़ गये।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 105 ☆ # पानी के बुलबुले… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#पानी के बुलबुले…#”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 104 ☆

☆ # पानी के बुलबुले… # ☆ 

जिंदगी कैसे कैसे घाव देती है

कहीं धूप तो कहीं छांव देती है

बिखर जाते है जांबाज भी कशमकश में

कहीं कमजोर बाजू तो

कहीं थके पांव देती है

 

कहीं कहीं फूलों की बहार है

कहीं कहीं खुशियाँ हज़ार है

कहीं शूल लिपटें है दामन से

कहीं जीत तो कहीं हार है

 

ठोकरें इम्तिहान लेती है

ठोकरें बुजदिलों के प्राण लेती है

ठोकरें सिखाती है जीने का सलीका

ठोकरें अमिट निशान देती है

 

कौन जाने वक्त कब बदल जाए

खोटा सिक्का भी कब चल जाए

बहुरंगी इस दुनिया में

कोई अपना ही कब छल जाए

 

हम तो अभावों में ही पले हैं

चुभते तानों से ही जले हैं

किससे फरियाद करे यारों

हम तो पानी के बुलबुले हैं/

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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