(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा –“गंदगी”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 130 ☆
☆ लघुकथा – “गंदगी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
” गंदगी तेरे घर के सामने हैं इसलिए तू उठाएगी।”
” नहीं! मैं क्यों उठाऊं? आज घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगाने का नंबर तेरा है, इसलिए तू उठाएगी।”
” मैं क्यों उठाऊं! झाड़ू लगाने का नंबर मेरा है। गंदगी उठाने का नहीं। वह तेरे घर के नजदीक है इसलिए तू उठाएगी।”
अभी दोनों आपस में तू तू-मैं मैं करके लड़ रही थी। तभी एक लड़के ने नजदीक आकर कहा,” मम्मी! वह देखो दाल-बाटी बनाने के लिए उपले बेचने वाला लड़का गंदगी लेकर जा रहा है। क्या उसी गंदगी से दाल-बाटी बनती है?”
यह सुनते ही दोनों की निगाहें साफ सड़क से होते हुए गंदगी ले जा रहे लड़के की ओर चली गई। मगर, सवाल करने वाले लड़के को कोई जवाब नहीं मिला।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 141 ☆
☆ बाल गीत – धरा, गगन है चिड़ियाघर… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज नव वर्ष पर प्रस्तुत हैं आपकी एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता “है सब कुछ अज्ञात……”। )
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत“नव वर्ष मुबारक हो…”।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “राजनीति…“।)
☆ आलेख # 63 – राजनीति – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
राजनीति के दूसरे दौर में जो कुछ हद तक प्रारंभिक लक्ष्यप्राप्ति से प्रभावित था, इसे बदलाव का बहुत बड़ा कारक समय बना. जब सफलता की पुष्पमालाओं से सज्जित यात्रा, कर्मठता और निरंतरता से दूर जाने लगे तो ऐसी राजनीति का पहला पड़ाव हमेशा उपेक्षित नैतिकता ही होती है.
नेतृत्व जब सफलता के जश्न के शोर में अंतरात्मा की आवाज सुनने में चूकने लगे तो ये निमंत्रण होता है सामयिक बदलाव का जिसमें सभी प्रभावित होते हैं. इस बदलाव को जो पहचान लेते हैं वो सतर्क होकर बढ़ जाते हैं पर अधिकांश प्रारंभिक सफलता के मायाजाल में उलझ जाते हैं जैसे कि बालि वध के बाद सुग्रीव सब भूलकर राजरंग में मगन हो गये थे और अपने मित्र मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भी विस्मृत कर गये थे. भ्राता लक्ष्मण और हनुमान हर युग में, हर दौर में नहीं मिलते जो पथभ्रष्ट राजा को सही मार्ग दिखा सकें. हो सकता है कि नेतृत्व के नैसर्गिक गुण के पैकेज में आत्मविश्लेषण नहीं आता हो या फिर प्रारंभिक सफलता के बाद आत्मविश्लेषण क्षमता में कमी आती हो, पर कारण जो भी हो यह तो तय है कि बदलाव तो आते ही हैं और नजरअंदाज भी होते हैं. सफल होने का एहसास नेतृत्व और सहयोगियों दोनों के नजरिए में बदलाव लाता है, अब कुछ देने और कुछ करने के अलावा कुछ पाने की नैसर्गिक भावना भी प्रविष्ट होती है.
असीमित अनंत में मानवक्षमतायें कहीं न कहीं सीमित होती ही हैं. अगर व्यक्ति के माइंड सेट में कुछ आ रहा है तो उसके लिए जगह खाली करने वाले तत्व या जीवनमूल्य भी होते हैं जो “त्याग, और निर्मोह “ही होते हैं. बहुजन हिताय के साथ साथ स्वयं और फिर स्वजन हिताय की दिशा में सोच बदलती है. शायद इसीलिये ही “Power corrupt leader and absolute power corrupt absolutely” जैसी लोकोक्ति चलती है. अमृत पाने की लालसा देवों में भी थी और असुरों में भी.
तो राजनीति इस दूसरे दौर में कर्मठता की जगह लालसा प्रबल होती जाती है. “हमने हर दौर में नेताओं को बदलते देखा, जो दिया करते थे बहुत कुछ सबको, उनको अक्सर ही कुछ लिये देखा”. राजनीति के इस दूसरे दौर में, सुधार और बदलाव की बयार के नाम पर उभरा नेतृत्व यथास्थिति को बरकरार करने में लगा रहता है. ये स्थिति और ये मनोस्थिति शायद अपरोक्ष रूप से नेतृत्व की अगली पीढ़ी के अंकुरित होने की संभावना भी बलवती करती है. जनमानस की असंतुष्टि, नेतृत्व की अगली पीढ़ी के लिये खाद का काम करती है. पहले दौर की निष्ठा, त्याग और सेवाभावना के बाद दूसरे दौर में लालसा और कुछ पाने कमाने की चाहत तो होती है पर नैतिकता बरकरार रहती है और नेतृत्व की आदत में शालीनता और सहजभाव बना रहता है. राजनीति के अगले दौर में आगाज होता है षडयंत्रों का.
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग 2 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
✈️ट्युलिप्सचे ताटवे – श्रीनगरचे ✈️
वेरीनाग इथल्या निर्झरातून झेलमचा उगम होतो. ‘श्री’ च्या आकारात वाहणाऱ्या झेलमच्या दोन्ही तीरांवर श्रीनगर वसले आहे. श्रीनगरमध्ये फिरताना सफरचंद आणि अक्रोड यांचे पर्णहीन वृक्ष दिसत होते. बदाम, जरदाळू यांची एकही पान नसलेली सुंदर मऊ पांढऱ्या मोतीया आणि गुलाबी रंगाच्या फुलांनी डवरलेली झाडे दिसत होती. लांबवर पसरलेली मोहरीची शेतं हळदी रंगाच्या फुलांनी डोलत होती तर अजून फुलं न आलेली शेतं काळपट हिरव्या रंगाची होती. थंडी खूपच होती.पायघोळ झग्याआड पोटाशी शेगडी घेऊन जाणारे स्त्री- पुरुष दिसत होते. सर्वत्र तणावपूर्ण शांतता जाणवत होती. रस्तोरस्ती लष्कराची वाहने आणि बंदूकधारी जवान मनातल्या अस्वस्थतेत भर घालीत होती. दुकानांमध्ये कलिंगडे, संत्री, केळी, कमलकाकडी, इतर भाज्या दिसत होत्या. कहावा किंवा कावा या काश्मिरी स्पेशल चहाची दुकाने जागोजागी होती. अस्सल काश्मिरी केशराच्या चार काड्या आणि दालचिनीच्या तुकडा असं उकळत ठेवायचं. त्यात साखर घालायची. एका कपाला एक सोललेला बदाम जाडसर कुटून घालायचा आणि त्यावर केशर दालचिनीचे उकळते मिश्रण ओतायचं. झाला कहावा तयार!
गाईडने दिलेल्या या माहितीमुळे ‘कावा’ पिण्याची इच्छा झाली पण बस मध्येच थांबविणे अशक्य होते.
जहांगीरच्या काळात साधारण चारशे वर्षांपूर्वी निशात बाग, शालीमार बाग, व चष्मेशाही अशा सुंदर बागा बांधण्यात आल्या. तळहाताएवढ्या सुगंधी गुलाबाच्या फुलांचा हंगाम अजून सुरू झाला नव्हता, पण वृक्षांसारखे झाड बुंधे असलेली गुलाबाची झाड लालसर पानांनी बहरून फुलण्याचा तयारीत होती. उंचावरून झऱ्यासारखे वाहणारे पाणी पायऱ्या- पायऱ्यांवरून घरंगळत होते. मध्येच कमळाच्या आकारातली दगडी कारंजी होती. सगळीकडे दुरुस्तीची कामे मोठ्या प्रमाणावर चालू होती.
चष्मेशाहीमध्ये मागच्या पीर- पांजाल पर्वतश्रेणीतून आलेले झऱ्याचे शुद्ध पाणी आरोग्यदायी असल्याचे सांगण्यात आले. डेरेदार काळपट- हिरव्या वृक्षांना चोचीच्या आकाराची पांढरी फुले लटकली होती. ती नासपतीची झाडे होती. हिरवा पर्णसंभार असलेली मॅग्नेलियाची (एक प्रकारचा मोठा सुगंधी चाफा ) झाडे फुलण्याच्या तयारीत होती. निशात बागेजवळ ‘हजरत बाल श्राइन’ आहे. हजरत मोहमद साहेबांचा ‘पवित्र बाल’ इथे ठेवण्यात आला आहे. मशीद भव्य आणि इस्लामिक स्थापत्यकलेचा नमुना आहे.मशिदीच्या आत स्त्रियांना प्रवेश नव्हता. मागील बाजूने थोडा पडदा किलकिला करून स्टेनगनधारी पहारेकर्याने ‘पवित्र बाल’ ठेवलेल्या ठिकाणाचे ‘दूरदर्शन’ घडविले. स्वच्छ आवारात चिनारची झाडं होती. दल सरोवराच्या पश्चिमेकडील काठावर असलेल्या या मशिदीची पुनर्बांधणी करण्यात आली आहे.
श्रीनगरपासून तीन किलोमीटरवर पांडेथ्रान गाव आहे आणि साधारण १४ किलोमीटरवर परिहासपूर नावाचं गाव आहे. या दोन्ही ठिकाणी राजा ललितादित्याच्या कारकिर्दीत म्हणजे आठव्या शतकात उभारलेल्या बौद्ध स्तूपांचे अवशेष आहेत. अनंतनागपासून चार-पाच किलोमीटरवर मार्तंड देवालयांचा समूह आहे. डावीकडचे कोणे एकेकाळी भव्य दिव्य असलेल्या सूर्यमंदिराचे भग्नावशेष संगिनींच्या पहाऱ्यात सांभाळले आहेत.
पहेलगामच्या रस्त्यावर खळाळत अवखळ वाहणारी लिडार नदी आपली सतत सोबत करते. नदीपात्रातील खडक, गोल गुळगुळी दगड यावरून तिचा प्रवाह दौडत असतो. गाईड सांगत होता की मे महिन्यात पर्वत शिखरांवरील बर्फ वितळले की नदी तुडुंब पाण्याने उसळत वेगाने जाते. त्यावेळी तिच्यावरील राफ्टिंगचा थरार अनुभवण्यासाठी अनेक देशी-विदेशी प्रवासी येतात. तसेच नदीपलीकडील पर्वतराजीत ट्रेकिंगसाठी अनेक प्रवासी येतात. त्याशिवाय घोडदौड, ट्राउट माशांची मासेमारी अशी आकर्षणे आहेत. हिमालयाच्या पार्श्वभूमीवर पोपटी हिरवळीवर वर्ल्डक्लास गोल्फ कोर्टस आहेत. त्यासाठीही हौशी खेळाडू येतात.
पहलगाम रस्त्यावर प्राचीन काळापासून केशराच्या शेतीसाठी प्रसिद्ध असलेलं पांपूर( पूर्वीचं नाव पद्मपूर ) लागतं. साधारण ऑक्टोबर-नोव्हेंबर महिन्यात जमिनीलगत उगवलेल्या जांभळ्या सहा पाकळ्यांच्या फुलांनी शेतेच्या शेते बहरतात. या फुलांमधील सहा केसरांपैकी केसरिया रंगाचे तीन केसर हे अस्सल केशर असतं. उरलेले तीन हळदी रंगाचे केसर वेगळ्या पद्धतीने वापरले जातात.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…अश्वगंधा ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर?)