मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-6… ☆भावानुवाद- सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-6…  ☆भावानुवाद-  सुश्री शोभना आगाशे ☆

दर्पण असो वा नसो जगी

मुख असते मुखा जागी

जैसे असते तैसे दिसते

ते का कधी वेगळे भासते॥२६॥

 

आपले मुख आपणची पाही

म्हणून का त्यांसि द्रष्टत्व येई

दर्पणी असे अविद्येने भासे

ते खरे मानता विज्ञान फसे॥२७॥

 

म्हणोनि दृश्य पाहता धरी ध्यानी

फसवे हे, परमात्म वस्तु हो मनी॥२८॥

 

वाद्यध्वनी वाचूनही ध्वनी असे

काष्ठाग्नी वाचूनही अग्नी असे

तैसे दृश्यादि भाव जरी नष्टत

मूलभूत ब्रम्हवस्तु असे सदोदित॥२९॥

 

जी न ये शब्दात वर्णता

असतेच परि, जरी न जाणता

तैशी वर्णातीत ब्रम्हवस्तु असे

शब्द, जाणिवांच्या परे असे॥३०॥

 

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #191 ☆ व्यंग्य – मुहल्ले का सूरमा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मुहल्ले का सूरमा ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 191 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मुहल्ले का सूरमा

बल्लू को हमारे मुहल्ले का दादा कह सकते हैं। काम-धंधा कुछ नहीं। दो चार उसी जैसे दोस्त मिल गए हैं, उन्हीं के साथ सारे दिन इधर- उधर डोलता रहता है। अक्सर चौराहे पर हा हा हू हू करता नज़र आता है। कभी सड़क के किनारे दोस्तों के साथ बैठा ताश खेलता है। शाम के बाद आप देखें तो बल्लू और उसके साथी आपको नशे में सड़क के किनारे किसी गिट्टी के ढेर पर पड़े भी मिल सकते हैं।

पता नहीं क्यों मेरे प्रति बल्लू की बड़ी भक्ति है। वह अक्सर मुझे अपने आचरण की सफाई देता रहता है— ‘बड़े भैया, पुरखों ने खूब कमा कर रखा है। दो तीन मकान हैं, जमीन जायदाद है। बाप कमा रहा है, भाई कमा रहे हैं। तो कोई इस कमाई को बराबर करने वाला भी चाहिए। यह काम हम कर रहे हैं। सभी कमाने लगें तो कैसे काम चलेगा?’

और वह खी खी कर हँसने लगता है।

वह इधर-उधर छीन-झपट भी करता है। मुहल्ले के दुकानदारों को आंँखें दिखा कर नशा-पानी के लिए पच्चीस पचास रुपये झटक लेता है। दुकान वाले उसके और उसके साथियों के रंग-ढंग देखकर ज़्यादा झंझट नहीं करते। मुहल्ले में आने वाले सब्जी वालों से भी वह जब तब दस बीस रुपये ऐंठ लेता है।

बल्लू मुझे हँसकर बताता है, ‘क्या करें बड़े भैया, घरवालों पर ज्यादा बोझ डालना ठीक नहीं। थोड़ा बहुत अपने बूते से भी पैदा करना चाहिए। यह दुकानदार सब को लूटते हैं। अगर हम इन्हें थोड़ा सा लूट लेते हैं तो क्या बुरा है?’

बल्लू अक्सर चौराहे पर किसी से उलझता रहता है। दो-चार दिन में उसके साथियों की किसी न किसी से झंझट या थोड़ी बहुत मारपीट होती रहती है। अक्सर चौराहे पर मजमा लग जाता है। बल्लू ऐसे मौकों पर अपनी पूरी शूरवीरता दिखाता है। लाठियाँ, साइकिल की चेनें और चाकू हवा में लहराते हैं, लेकिन अक्सर वे चलते नहीं।

बल्लू में एक और खराब आदत है, आते जाते लोगों को परेशान करने की। चौराहे पर वह किसी को भी रोक कर उसे तंग करता है। कोई धोती वाला देहाती हुआ तो उसकी धोती की लाँग खींच देता है। कभी किसी की बुश्शर्ट उतरवा कर अपने पास रख लेता है। किसी को रोककर उससे घंटों ऊलजलूल सवाल करना और फिर ताली पीट-पीटकर ठहाका लगाना उसका प्रिय खेल है। आसपास रहने वाले उसकी इस हरकत पर भौंहें चढ़ाते हैं, लेकिन उनकी सफेदपोशी उन्हें बल्लू और उसके साथियों से उलझने नहीं देती।

मैं समझाता हूँ तो बल्लू कहता है, ‘अरे बड़े भैया, थोड़ा सा मनोरंजन ही तो करते हैं, वह भी आप लोगों को बुरा लगता है। कौन किसी की जान लेते हैं। आप लोगों से हमारा थोड़ा सा भी सुख देखा नहीं जाता।’

एक दिन दुर्भाग्य से बल्लू ने मनोहर को पकड़ लिया। मनोहर दिमाग से कुछ कमज़ोर है। बगल की डेरी में वह दूध लेने जाता  है। एक शाम बल्लू ने उसे रोक लिया और घंटे भर तक उसे बहुत परेशान किया। मनोहर चीखता- चिल्लाता रहा, लेकिन बल्लू ने उसे घंटे भर तक नहीं छोड़ा। उसके थोड़ी देर बाद ही चौराहे पर मजमा लग गया। पता चला कि मनोहर का बड़ा भाई झगड़ा करने आया था। काफी देर तक गरम बातचीत होती रही, लेकिन बल्लू के साथियों की उपस्थिति के कारण उसी का पलड़ा भारी रहा। मनोहर का भाई स्थिति को अपने पक्ष में न देख कर लौट गया।

इस घटना के दो दिन बाद ही रात को बल्लू के घर पर आक्रमण हुआ। पन्द्रह बीस लोग थे, लाठियों और दूसरे हथियारों से लैस। बड़ी देर तक लाठियाँ पटकने की और गन्दी गालियों की आवाज़ें आती रहीं। सौभाग्य से बल्लू बाबू उस वक्त अपने दोस्तों के साथ कहीं मटरगश्ती कर रहे थे, इसलिए उस वक्त वे हमलावरों के हाथ नहीं पड़े। लगभग आधे घंटे तक लाठियाँ पटक कर वे लौट गये।

दूसरे दिन सबेरे मैंने देखा कि बल्लू पागलों की तरह अपने घर के सामने घूम रहा था। उसके साथी भी व्यस्तता से उसके आसपास चल- फिर रहे थे। थोड़ी देर बाद वह मेरे घर आ गया। सोफे पर बैठ कर वह उसके हत्थे पर बार-बार मुट्ठियाँ पटकने लगा। दाँत पीसकर बोला, ‘बड़े भैया, हमारी बड़ी इंसल्ट हो गई। अरे, हमारे घर कोई हमें मारने आये और बिना हाथ-पाँव तुड़ाये वापस चला जाए? अरे, हम उस वक्त घर में क्यों न हुए! हमारी बड़ी किरकिरी हो गयी, बड़े भैया।’

वह मिसमिसा मिसमिसा कर अपने बाल नोचता था और सोफे के हत्थे पर बार-बार मुट्ठियाँ पटकता था। फिर बोला, ‘अब आप हमारा भी जोर देखना, बड़े भैया। मैंने भी उनके हाथ पाँव न तोड़ दिये तो मेरा नाम बल्लू उस्ताद नहीं।’ कहते हुए उसने अपनी छोटी सी मूँछ पर हाथ फेरा।

बल्लू तो अपनी योजना ही बनाते रह गये और दो-तीन दिन बाद रात को फिर उनके घर पर जोरदार हमला हुआ। उस रात बल्लू बाबू अपने तीन चार साथियों के साथ घर पर ही थे। उनके पास भी कुछ अस्त्र-शस्त्र थे, लेकिन जब उन्होंने हमलावरों की संख्या और उनके तेवर देखे तब वे जान बचाने के लिए पीछे की दीवार फाँद कर भागे। बल्लू बाबू भी भागे, लेकिन भागते भागते भी हमलावरों ने उनके पृष्ठ भाग पर एक लाठी समर्पित कर दी ताकि सनद रहे और सावन- भादों कसकती रहे। भागते हुए बल्लू बाबू को सुनाई पड़ा— ‘बेटा, भाग कर कहाँ जाओगे? हम तुम्हें छोड़ेंगे नहीं।’

अगले सबेरे बल्लू के घर के सामने सन्नाटा था। दो दिन तक बल्लू मुझे कहीं नहीं दिखा। तीसरे सबेरे देखा वह बगल में एक दरी लपेटे आ रहा था, जैसे कहीं से सो कर आ रहा हो। उसके बाद वह मुहल्ले में घूमता दिखा, लेकिन वह एक अलवान सिर पर ओढ़े, बिलकुल चुपचाप चलता था। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। सिर पर चादर का घूँघट सा डाले वह सिर झुकाए सड़क के किनारे-किनारे एक शान्तिप्रिय नागरिक की तरह चलता था। उसके सारे दोस्त गायब हो गये थे।

एक दिन वह उसी तरह चादर ओढ़े  धीरे-धीरे चलता हुआ मेरे कमरे में आकर बैठ गया। बढ़ी हुई दाढ़ी और चादर में वह पहचान में नहीं आता था।

बैठकर वह थोड़ी देर सिर झुकाये सोचता रहा, फिर धीरे-धीरे बोला, ‘बड़े भैया, सुना है वे लोग फिर कुछ गड़बड़ करने की योजना बना रहे हैं। लेकिन अपन ने सोच लिया है कि अपन को कुछ नहीं करना। अपन हमेशा शान्ति से रहते आये हैं, अपन शान्ति से ही रहेंगे।’

फिर थोड़ा रुक कर बोला, ‘बड़े भैया, आप तो जानते ही हैं मैं शुरू से बहुत सीधा-सादा लड़का रहा हूँ। वह तो संगत खराब मिल गयी, इसलिए थोड़ा बहक गया था। लेकिन अब अपन ने सोच लिया, खराब लड़कों को पास भी नहीं फटकने देना। बस आप लोगों की संगत करूँगा और आराम से रहूँगा।’

वह रुक कर फिर बोला, ‘बड़े भैया, अपन को झंझट बिल्कुल पसन्द नहीं, इसलिए हमने रात को घर में सोना ही छोड़ दिया। कहीं भी इधर उधर सो जाते हैं। अरे, जब हमीं नहीं मिलेंगे तब किस से मारपीट होगी? झगड़े की जड़ ही खतम कर दो।’

फिर वह मेरे मुँह की तरफ देख कर बोला, ‘बड़े भैया, हम आपके पास इसलिए आये हैं कि आप मनोहर के भाई से मिलकर मेरी सुलह- सफाई करा दो। वह आपकी बात मान लेगा। अब जो हो गया सो हो गया। थोड़ी बहुत गलती तो इंसान से हो ही जाती है। आप अभी जाकर बात कर लो तो बड़ी कृपा हो। उस दिन से अपना मन किसी काम में नहीं लगता। मैं यहीं आपका इन्तजार करूँगा।’

मैं मध्यस्थता करने के लिए राजी हो गया। कपड़े बदल कर जब मैं सीढ़ियाँ उतरा तब वह ऊपर से लगातार मुझसे बोले जा रहा था—‘बड़े भैया, यह काम जरूर होना चाहिए। वह माफी माँगने को कहेंगे तो अपन माफी भी माँग लेंगे। मुहल्ले वालों से माफी माँगने में अपनी कोई इज्जत नहीं जाती। लेकिन यह काम जरूर होना चाहिए। आपका ही आसरा है।’

वह ऊपर से टकटकी लगाये मुझे देखता रहा और मैं हाथ हिला कर आगे बढ़ गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 138 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 138 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 138) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 138 ?

☆☆☆☆☆

सुना है बहुत बारिश है

तुम्हारे शहर में,

ज्यादा भीगना मत…

धुल गयी अगर

सारी ग़लतफ़हमियाँ,

तो बहुत याद आएँगे हम..!

☆ ☆

Just heard it’s pouring

a lot in your city

Don’t get wet too much…

else misunderstandings

will get washed away

and you’ll miss me a lot..!

☆☆☆☆☆

 तुमसे कहा था कि हर शाम

हमारा हाल पूछ लिया करो

तुम ही बदल गए हो तो अब

शहर में शाम ही नहीं होती..!

☆ ☆

Told you that every evening

inquire about my well-being

Since you’ve changed now

there’s no evening in my city!

☆☆☆☆☆

I’m Wrong, You’re Right

☆☆☆

किसी से अब उलझने

का मन ही नहीं करता,

तुम सही, मैं गलत में

ही बस बात ख़त्म…!

☆ ☆

I just don’t feel like getting into

argument with anyone anymore…

You are right, I am wrong, that’s it,

and the matter ends there only…!

 ☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 189 ☆ परिदृश्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 189 परिदृश्य ?

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।

अर्थात ‘न ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये सारे राजा नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।’

श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के द्वादशवें श्लोक के माध्यम से आया यह योगेश्वर उवाच मनुष्य जीवन के शोध और सरल बोध का पाथेय है। 

मनुष्य जीवन यद्यपि सहजता और सरलता का चित्र है पर मनुष्य विचित्र है। वह सरल को जटिल बनाने पर तुला है। इस सत्य के अवलोकन के लिए किसी प्रकार के प्रज्ञाचक्षु की आवश्यकता नहीं है। जीवन का अपना अनुभव पर्याप्त है। केवल अपने अनुभव  को पढ़ा जाय, अपने अनुभव को गुना जाय तो प्रकृति की सरलता में विद्यमान गूढ़ रहस्य सहज ही सुलझने होने लगते हैं।

एक उदाहरण मृत्यु का लें। मृत्यु अर्थात देह से चेतन तत्व का विलुप्त होना। कभी ग़ौर किया कि किसी एक पार्थिव के विलुप्त होने पर एक अथवा एकाधिक निकटवर्ती मानो उसका ही प्रतिबिम्ब बन जाता है। कई बार अलग-अलग परिजनों में दिवंगत के स्वभाव, शैली, व्यक्तित्व का अंश दिखने लगता है।

“इसका चेहरा दिवंगत जैसा दिखता है। वह दिवंगत की तरह बातें करता है, हँसता है, नाराज़ होता है। उसकी लिखाई दिवंगत जैसी है, वह उठता-बैठता स्वर्गीय जैसा है।”  ऐसा नहीं है कि ये बातें केवल मनुष्य तक सीमित हैं। देखें तो पक्षियों और प्राणियों पर, चर और अचर पर भी लागू है यह सूत्र। 

विज्ञान इसे डीएनए का प्रभाव जानता है, अध्यात्म इसे अमरता का सिद्धांत मानता है।

सत्य यही है कि जानेवाला कहीं नहीं जाता पर किसी एक या अनेक में बँटकर यहीं विद्यमान रहता है। विचार करने पर पाओगे कि विधाता ने तुम्हें सूक्ष्म की अमरता दी है पर तुम स्थूल की नश्वरता तक सीमित रह जाते हो। अपनी रचना ‘सुदर्शन’ में इस अमरता को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया था,

जब नहीं रहूँगा मैं

और बची रहेगी सिर्फ़ देह,

उसने सोचा….,

सदा बचा रहूँगा मैं

और कभी-कभार नहीं रहेगी देह,

उसने दोबारा सोचा…,

पहले से दूसरे विचार तक

पड़ाव पहुँचा,

उसका जीवन बदल गया…,

दर्शन क्या बदला,

जो नश्वर था कल तक,

आज ईश्वर हो गया..!

स्मरण रहे, जब कोई एक होता अदृश्य है तो दूसरा हो जाता उसके सदृश्य है। हर ओर यही दृश्य है, जगत का यही परिदृश्य है।…इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 137 ☆ दोहा सलिला… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  दोहा सलिला)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 137 ☆ 

☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

मोड़ मिलें स्वागत करो, नई दिशा लो देख

पग धरकर बढ़ते चलो, खींच सफलता रेख

*

सेंक रही रोटी सतत, राजनीति दिन-रात।

हुई कोयला सुलगकर, जन से करती घात।।

*

देख चुनावी मेघ को, दादुर करते शोर।

कहे भोर को रात यह, वह दोपहरी भोर।।

*

कथ्य, भाव, लय, बिंब, रस, भाव, सार सोपान।

ले समेट दोहा भरे, मन-नभ जीत उड़ान।।

*

सजन दूर मन खिन्न है, लिखना लगता त्रास।

सजन निकट कैसे लिखूँ, दोहा हुआ उदास।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२-५-२०१८, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

☆ पुस्तक मेलों की बढ़ती लोकप्रियता

पुस्तक मेला पहले दिल्ली में ही वर्ष में एकबार लगता था लेकिन अब पुस्तक मेलों की आवश्यकता और महत्त्व बढ़ता जा रहा है , खासतौर पर डिजीटल युग यदि हमें छपी हुई पुस्तक बचानी है । अब सिर्फ दिल्ली ही नहीं अनेक शहरों में पुस्तक मेले लगने लगे हैं । दिल्ली के इस बार के पुस्तक मेले पर लम्बी लम्बी कतारों ने छपी हुई पुस्तकों के प्रति पाठकों के प्यार को प्रदर्शित कर दिया था ।एनबीटी के अलावा भी अनेक संस्थायें और विश्वविद्यालय पुस्तक मेले आयोजित कर रहे हैं । फिलहाल गर्मी की मार से हटकर, बचकर हिमाचल की राजधानी शिमला में जून माह में पुस्तक मेला आयोजित किये जाने की खबर है जिसे हिमालय मंच सहयोग देगा । अभी चंडीगढ़ में राजकमल प्रकाशन ने भी पुस्तक मेला आयोजित किया था।

साथी पहली बार’ कृति का विमोचन : हरियाणा के चर्चित रचनाकार बी मदन मोहन की नयी कृति ‘साथी पहली बार’ का विमोचन यमुनानगर के मुकुंद लाल नेशनल काॅलेज में हुआ । पुस्तक में मानव जीवन के अनेक भाव व्यक्त करतीं रचनायें हैं । वरिष्ठ साहित्यकार के के ऋषि मुख्यातिथि रहे जबकि कथाकार डाॅ अशोक भाटिया विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद थे । अनेक साहित्यकारों ने भी विमोचन समारोह में अपनी उपस्थिति से इसकी गरिमा बढ़ाई । बी मदन मोहन को नयी कृति के प्रकाशन पर बधाई।

प्रयागराज में लोई चले कबीरा पर चर्चा : प्रयागराज की संस्था कहकशां फाउंडेशन की ओर से प्रताप सोमवंशी के नाटक लोई चले कबीरा पर विचार चर्चा आयोजित की गयी । जलज श्रीवास्तव ने कबीर के भजनों का गायन कर मंत्रमुग्ध कर दिया । एहतराम इस्लाम ने अध्यक्षता की और संचालन व आयोजन संस्थापक आनंद कक्कड़ ने किया । अनेक रचनाकार मौजूद रहे ।

प्रवासी लेखन पर चर्चा : प्रवासी लेखन पर पिछले सप्ताह आज समाज के इस स्तम्भ में जो चर्चा की गयी थी जिसे देश ही नहीं विदेश में भी गंभीर रूप से चर्चा हुई । कोशिश रही कि सबके बारे में बात की जाये और कई भी । फिर भी कुछ नाम रह गये । निर्मल जायसवाल ने कनाडा से फोन कर अपनी साहित्यिक यात्रा की जानकारी दी । विदेश में ही बसीं हंसा दीप और उनके पति धर्म महेंद्र जैन भी खूब काम कर रहे हैं । अभी हमने पंजाबी प्रवासी लेखन पर बात नहीं की है क्योंकि इनकी सूची बहुत लम्बे है । ये लेखक भी अपनी मातृभाषा पंजाबी को विदेशों में पहुंचाने में भरपूर योगदान दे रहे हैं ।

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ नुपूर कुठे…कुठे बेडी… ☆ श्री प्रमोद जोशी ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ?  नुपूर कुठे…कुठे बेडी… ?  श्री प्रमोद जोशी ☆

(जे जे स्कूल ऑफ आर्टचा स्कल्प्चर गोल्डमेडॅलिस्ट श्री.सुहास जोशी, देवगड याने पाठवलेलं चित्र.)

वरवर मुद्रा कथ्थकची पण,

नुपूर कोठे,कोठे बेडी !

गुंतू पाहे कुणी आणखी,

कुणा मुक्तीची आशा वेडी !

मेंदी रंगली एका पायी,

दुसऱ्या पायी ठिबके रक्त !

एक शारदा भक्त असावा,

दुसरा स्वातंत्र्याचा भक्त !

छुमछुम कोठे,कोठे खणखण,

सुख कुठे तर कोठे वणवण !

अलौकिक दोघांची श्रद्धा 

समर्पणास्तव उत्सुक कणकण !

कुणी तुरुंगी,कुणि मंचावर,

प्रत्येकाचे विभिन्न हेतू !

दोघांच्याही स्पष्ट जाणिवा,

मनात नाही किंतु-परंतू !

नृत्यासाठी अशी कल्पना,

सुचली तो तर केवळ ईश्वर !

चिरंजीविता लाभे त्याला,

कधिही होणे नाही नश्वर !

ता थै थैय्या सूर अचानक,

वेदीवरती जाई मुक्तीच्या !

लिहिल्या जातील कथा चिरंजीव,

रसीक आणि देशभक्तीच्या !

कृष्णधवल कुणी,कोणी रंगीत,

ज्याचे त्याचे कर्म वेगळे !

काय करावे,काय स्फुरावे,

ज्याचे त्याचे मर्म वेगळे !

एका जागी भिन्न येऊनी,

सादर होईल अपूर्व चिंतन !

इतिहासावर लिहिले जाईल,

दोघांचेही नाव चिरंतन ! 

© श्री प्रमोद जोशी

देवगड.

9423513604

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #188 – 74 – “भगवान जाने…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “भगवान जाने…”)

? ग़ज़ल # 74 – “भगवान जाने…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

पहली बार गर्मी को लोग तरस रहे हैं,

सावन के बादल झूम कर बरस रहे हैं।

कूलर बोरियत सी महसूस करने लगे हैं,

लू के मौसम में चलने को तरस रहे हैं।

बाज़ार ए सी बिल्कुल ठंडा पड़ गया है,

गन्ना चरखियाँ पूरी तरह नीरस रहे हैं।

लोग जतन में लस्सी के इंतज़ार में थे,

भजिया और पकौड़ा खाकर हरस रहे हैं। 

भगवान जाने क्या माया फैलाई आतिश,

पाकिस्तानी बादल भारत में बरस रहे हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 66 ☆ ।।काँटों के बीच भी गुलाब सा खिलना सीख लो।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।।काँटों के बीच भी गुलाब सा खिलना सीख लो।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

आईने सी जिंदगी मुस्कायो  तो मुस्काती  है।

बाँट कर देखो खुशी  दुगनी होकर आती है।।

जीकर देखो सब के संग साथ जरा मिल कर।

यह जिंदगी सौगातों की झोली खोल जाती है।।

[2]

शिकवा शिकायत नहीं  शुकराना सीख जायो।

हर किसीके आदर में झुक जाना सीख जायो।।

कुछ धीरज और कुछ प्रभु   पर विश्वास रखो।

ईश्वर की मर्जी में राजी हो  पाना सीख जायो।।

[3]

आदमी को हराना नहीं दिल जीत जाना सीखो।

किताबें पढ़ कर उसे  आचरण मे लाना सीखो।।

तुम्हारे कर्म शब्दों  से  अधिक   होते हैं प्रभावी।

आत्मा मन वाणी बस प्रेम की भाषा लाना सीखो।।

[4]

बसा कर प्यार का शहर नफरत मिटाना सीख जायो।

समय पर हर आदमी के काम आना सीख जायो।।

इसी जमीं पर स्वर्ग सी बन सकती तुम्हारी दुनिया।

बस काँटों बीच गुलाब सा खिलखिलाना सीख जायो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 130 ☆ “किसी को मधुर गीतों सी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित ग़ज़ल – “किसी को मधुर गीतों सी…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #130 ☆ ग़ज़ल – “किसी को मधुर गीतों सी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

दुनिया में मोहब्बत भी क्या चीज निराली है।

रास आई तो अमृत है न तो विषभरी प्याली है।।

 

इसने यहाँ दुनियामें हर एक को लुभाया है

पर दिल है साफ जिनका उनकी ही खुशहाली है।

 

सच्चों ने घर बसाये, झूठों के उजाड़े हैं

नासमझों के घर रहते सुख-शांति से खाली हैं।

 

जिनसे न बनी वह तो उनके लिये गाली है।

जो निभ न सके संग मिल, वे जलते रहे दिल में

जिनने सही समझा है घर उनके दीवाली है।

 

कुछ के लिये ये मीठी मिसरी से सुहानी है

पर कुछ को कटीली ये काँटों भरी डाली है।

 

मन के जो भले उनको यह रात की रानी है

जो स्वार्थ पगे मन के, उनको तो दुनाली है।

 

जिसने इसे जो समझा उसके लिये वैसी है

किसी को मधुर गीतों सी, किसी को बुरी गाली है।

 

जग में ’विदग्ध’ दिखते दो रूप मोहब्बत के

कहीं चाँद सी चमकीली कहीं भौंरे से काली है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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